आभासी सूखे कुएं में गूंजती आवाज़ें / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :05 सितम्बर 2017
ट्विटर अकाउंट और फेसबुक इत्यादि आभासी संसार में अधिकांश आवाज़ें किराये पर ली गई हैं। इस क्षेत्र में अनेक कंपनियां सक्रिय हैं और युवा लोगों को पैसे देकर काम कराया जाता है। इस तरह सोच-विचार की भी दुकानें हैं। सरकार भी इसी तरह के कार्य का बाजार सजाए बैठी है। जब नोटबंदी की आलोचना इस मंच पर होने लगी तब सरकार ने उसके विरोध के लिए कई लोगों को काम पर लगा दिया। मायथोलॉजी प्रेरित टेलीविजन पर दिखाए गए कार्यक्रम में आग उलगते हुए बाण के खिलाफ वर्षा करने वाला बाण चलाया जाता है। ट्विटर संसार में भी ऐसा ही कुछ हो रहा है। ये वैचारिक क्षेत्र के कैक्टस दुनिया को मरुभूमि में बदलने का प्रयास कर रहे हैं। अधिकतर नेताओं ने कंपनियों को ठेके दिए हैं कि वे उनके नाम से आभासी संसार में उनकी सक्रियता बनाए रखें।
प्राय: आर्थिक रूप से सक्षम लोग फलों का रस पीते हैं परंतु मेडिकल सलाह यह है कि फलों को खूब चबाएं और रसग्रहण करें। आभासी संसार में किराये पर ली गईं आवाज़ें ऐसे ही वैचारिक रस हैं। यह उन फलों के रस हैं, जो व्यक्ति ने स्वयं चबाए नहीं हैं। एक वक्त आता है जब इस तरह के रस का अभ्यस्त व्यक्ति चबाना ही भूल जाता है। कहते हैं कि जिन अंगों का प्रयोग नहीं किया जाता वे सूखे पत्तों की तरह झड़ जाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि हम विचारहीनता का संसार रच रहे हैं।
एक अमेरिकन फिल्म की कथा इस तरह है कि एक कंपनी विज्ञापन देती है कि धन दिए जाने पर वे व्यक्ति को चांद की सैर पर ले जाएंगे। संपूूर्ण सुरक्षा की गारंटी भी दी जाती है। ग्राहक को चांद पर यात्रा के लिए तैयार किया जाता है। इस तैयारी में अपने होशोहवास खोए हुए आदमी को आभास होता है कि वह चांद पर सैर कर रहा है। कंपनी ने अपने दफ्तर के निकट एक सेट लगाया था, जिसमें जाने पर चांद का अाभास हो। इसी फिल्मी सेट पर आदमी दो-चार कदम चलता है और उसके अवचेतन में चांद यात्रा का आभास ठूंस दिया जाता है। कमाल अमरोही की 'पाकीजा' में गीत है, 'चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो।'
आभासी संसार में सक्रिय व्यक्ति के निशाने पर पूरी व्यवस्था होती है और इस प्रक्रिया में वह स्वयं भी सभी के निशाने पर मौजूद होता है। इस युद्धक्षेत्र में जख्मों से खून नहीं बहता वरन वैचारिक मवाद रिसता है। इस मंच पर मौजूद व्यक्ति निजता की रक्षा नहीं कर सकता। ट्विटर संवाद के लिए भाषा को भी तोड़-मरोड़ दिया जाता है। भाषा पर यह निर्मम प्रहार भी संवादहीन संसार की रचना कर रहे हैं। आधे-अधूरे लोग टूटी-फूटी भाषा बोल रहे हैं। कवि भी एक संसार रचता है, जिसके केंद्र में मानवीय संवेदनाएं होती हैं और यथार्थ जीवन की असमानता व अन्याय के खिलाफ विरोध होता है। कवि के संसार में भूत, वर्तमान और भविष्य की चिंताएं मौजूद होती हैं। अत: यह ट्विटर के आभासी संसार से अलग है। अमिया चक्रवर्ती की नूतन अभिनीत फिल्म 'सीमा' की अनाथ नायिका अपना दर्द और स्वप्न इस तरह अभिव्यक्त करती है, 'सुनो छोटी-सी गुड़िया की लंबी कहानी, जैसे तारों की बात सुने रात सुहानी.. दिल में ये अरमान थे कि एक छोटा-सा बंगला हो, चांदी की दीवारें हों और सोने का जंगला हो, खेल हों जीवन के यहां, मेल हो जीवन के, गया बचपन तो आंसूभरी आई जवानी, चांद का डोला हो, बिजली का बाजा हो डोले पे रानी हो, घोड़े पे राजा हो,..।'
अत: कवि के साथ आकाश गंगा में सैर करना और ट्विटर के आभासी संसार में विचरण करना दो विपरीत दिशा में जाने वाली बातें हैं। कवि मुहावरों के अभिनव ठीकरों से भाषा के बर्तन में नई चमक पैदा करता है और ट्विटर करने वाले भाषा के साथ दुराचार करते हैं। ट्विटर संसार में आपके द्वारा अभिव्यक्त विचारों को पढ़ने वालों के मनगढ़ंत आंकड़े प्रचारित किए जाते हैं कि फलां फन्ने खां के ट्विटर को इतने करोड़ लोग पढ़ते हैं। पसंद और नापसंद के बीच एक युद्ध निरंतर जारी रहता है।
इस मंच पर रची लोकप्रियता राजनीतिक चुनावों को भी प्रभावित कर रही हैं और डोनाल्ड ट्रम्प जैसे लोगों के हाथ में मनुष्य का भविष्य जा रहा है। इस तरह 'बारूदखानों पर माचिस को पहरेदार बनाया जा रहा है।' व्यापार एवं विकास के आंकड़े भी आभासी संसार रच रहे हैं और क्षितिज पर खड़ी है वैश्विक मंदी जो कुछ ही वर्षों में विकराल स्वरूप ग्रहण कर सकती है। कुछ दशक पूर्व वज्ञान फंतासी फिल्म 'मैट्रिक्स' में कम्प्यूटर द्वारा उत्पन्न किए गए लोग विश्व के भ्रम में जीवित रहते हैं अौर इस छलावे को मायाजाल कहते हैं। इस फिल्म में मनुष्य को कम्प्यूटरों के भोजन के रूप में प्रस्तुत किया गया था। इस फिल्म के प्रदर्शन के समय तक आभासी संसार की रचना नहीं हुई थी।
स्मरण आती है कुमार अंबुज की रचना 'कवि व्याप्ति' की पंक्तियां, 'सारा संसार हूं, व्यापार हूं, दर्शन हूं, विचार हूं..हूं हूं हूंह हूंह भी हूं और हुआं हुआं भी, ठोस हूं, तरल हूं और धुआं धुआं भी।'