आमिर, आदित्य व आचार्य की धूम तीन / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 21 दिसम्बर 2013
आदित्य, आचार्य और आमिर खान ने 'धूम तीन' में इस ब्रांड के आजमाए हुए नुस्खों के साथ ही कहानी में नए मोड़, नए रिश्ते और तकनीकी चमत्कार का ऐसा रसायन बनाया है कि दर्शक चकाचौंध होने के साथ रिश्तों की भावनाओं से भी प्रभावित होता है। आमिर खान मनोरंजन जगत में अपने नएपन के लिए विख्यात हैं और इस फिल्म में अपनी दोहरी भूमिकाओं में उन्होंने प्रभाव पैदा किया है। आदित्य चोपड़ा एक समर्थ निर्माता हैं और उन्होंने असीमित साधनों का जमकर इस्तेमाल किया है। निर्माता आदित्य चोपड़ा की विशेषता यह है कि बॉक्स आफिस के परे व्यक्ति की योग्यता को जान जाते हैं, इसलिए टशन जैसी घोर असफल फिल्म बनाने वाले विजय कृष्ण आचार्य को उन्होंने 'धूम तीन' लिखने और निर्देशन की जवाबदारी दी जिसे आचार्य ने बखूबी निभाया है।
लेखक के अवचेतन में हॉलीवुड की प्रिस्टीज नामक फिल्म रही है जो दो हमशक्ल जुड़वा जादूगर भाइयों की कहानी थी परंतु हिंदुस्तानी सिनेमा की मिक्सी में इसे इस तरह छोंका गया है कि मूल का निर्देशक इसे पहचान नहीं पाएगा। धूम ब्रांड के अपने लटकों-झटकों के बीच दो भाइयों की आपसी प्यार की संवेदना को कायम रखा गया है। नायक के पास इंस्पेक्टर को कत्ल करने का एक अवसर आता है परंतु वह उसे छोड़ देता है क्योंकि वह अपने सार में निर्मम कातिल या महज चोर नहीं है। उसे केवल अपने पिता के कातिल को नष्ट करने वाले निर्मम बैंक को तबाह करना है। यही कारण है कि वह प्राय: बैंक द्वारा लूटा हुआ धन जनता में बांट देता है।
यह संभव है कि हिंदुस्तानी खलनायक देखने के अभ्यस्त दर्शकों को यह बात पसंद नहीं आए कि इस भव्य फिल्म की दुष्ट ताकत एक अमेरिकन बैंक है और क्लाइमैक्स में नायक बैंक को नष्ट कर देता है। खलनायक की पिटाई का कोई दृश्य नहीं है। बहरहाल कथानक में अनेक झटके हैं और आंिमर खान ने वे दृश्य बड़े प्रभावोत्पादक ढंग से निभाए हैं। दरअसल आम जीवन में हम उन खलनायकों को कहां देख पाते हैं जिन्होंने आम आदमी को मुसीबतों से लाद दिया है। हम मल्टीनेशनल के मालिक को भी कभी देख नहीं पाते, केवल उसके मोहरे ही हमें नजर आते हैं।
सचमुच में बाजार का सारा मुनाफा कहां जा रहा है, यह हम कैसे देख सकते हैं। बाजार की रचना का चक्रव्यूह इतनी चतुराई से रचा गया है कि अभिमन्यु उसे भेद नहीं पायेगा। जब अभिमन्यु पेट में था, उसकी मां ने उसके पिता से चक्रव्यूह भेदने की बात सुनी परंतु उससे निकलने का तरीका जब अर्जुन सुना रहे थे, मां सो चुकी थी। आज हम सभी उनींदे से रहते हैं। नींद में चलना, गफलत में जीने का स्वांग करते रहने की हमें आदत पड़ चुकी है।
इस फिल्म की पृष्ठभूमि शिकागो है और शिकागो किसी जमाने में संगठित अपराधियों का गढ़ हुआ करता था परंतु इस तरह का कोई संकेत फिल्म में नहीं है और सच तो यह है कि यह अपराध कथा है भी नहीं। यह सर्कस और जादू को समर्पित एक पिता और उसके दो हमशक्ल बेटों की कथा है। साथ ही कुछ पैदाइशी कमतरियों पर विजय प्राप्त करने के प्रयास की कहानी है और इस प्रयास की प्रेरणा प्रेम है। दरअसल संसार के सारे जादू प्रेम के ही द्वारा संचालित हैं और धरती भी प्रेम के केंद्र पर ही घूम रही है। इस फिल्म में भी जहां अवसर नहीं था, वहां प्रेम की कोंपल फूटती है परंतु अपने लोहे के कमरे में लंबे समय तक बैठने वाले पात्र को भी प्रेम हो जाता है जो उसकी कायापलट करता है।
यह गौरतलब है कि हमशक्ल जुड़वा भाई सारे समय एक ही उद्देश्य के लिए समान रूप से सोचते हैं और एक दूसरे की कार्बन कॉपी नजर आते हैं। परंतु उनकी संवेदनाएं जुड़वा नहीं हैं। यह व्यावसायिक फिल्म अनचाहे ही इस बात को रेखांकित करती है कि हर मनुष्य एक स्वतंत्र इकाई है और परछाई सा नजर आने वाला व्यक्ति भी अपनी निजता को अक्षुण रखता है। गोयाकि उन सब फासिस्ट ताकतों को चेतावनी है कि सारे मनुष्य एक सा सोचें, एक सा करें यह संभव नहीं है। व्यवसायिक फिल्मों में अजीबोगरीब ढंग से सामाजिक संकेत पिरोये जाते हैं।