आमिर खान और खोजी पत्रकार / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 23 नवम्बर 2012
आमिर खान ने 'लगान' का प्रचार जिस ढंग से किया, उससे जुदा अंदाज था 'तारे जमीं पर' का और '३ इडियट्स' के लिए तो वे वेश बदलकर कई शहरों में गए। अब अपनी फिल्म 'तलाश' के लिए वे कुछ चुनिंदा खोजी पत्रकारों से गुफ्तगू करने जा रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि 'तलाश' में वे इंस्पेक्टर की भूमिका में एक कातिल को खोज रहे हैं और यह तो स्वाभाविक है कि कातिल की तलाश में वे स्वयं की सच्ची भावनाओं को भी प्राप्त कर लें। गोयाकि तलाश के बाहरी और भीतरी स्वरूप हैं। भारत में खोजी पत्रकारों की संख्या कम है, परंतु अब तक उजागर सारे घपले पत्रकारों ने ही खोजे हैं और किसी केजरीवाल के पास अपने कोई स्रोत नहीं हैं। दक्षिण के एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार की पत्रकार ने ही बोफोर्स कांड उजागर किया था और नितिन गडकरी का प्रकरण भी टेलीविजन चैनल ने प्रस्तुत किया। सरकारी विभागों में कुछ राजनीतिक विचारधारा के कट्टर समर्थकों ने गुप्त सूचनाओं को मसाले लगाकर अपने राजनीतिक आकाओं को दी हैं। भारतीय प्रशासन, पुलिस और सेना में भी भारी घुसपैठ हुई है।
बहरहाल आमिर खान की फिल्म एक रहस्य, रोमांच की फिल्म है, परंतु दुर्घटना के समय नायक और उसकी पत्नी के बीच गहरे मतभेद उभरते हैं और एक महत्वपूर्ण महिला गवाह कुछ बिंदास अंदाज में प्रस्तुत है। अत: यह विदेशी सस्पेंस फिल्मों की तरह विशुद्ध सस्पेंस फिल्म नहीं होकर पारिवारिक रस से भी ओतप्रोत है।
बहरहाल किसी सुपर-सितारे का खोजी पत्रकारों से मिलना उसे मीडिया में समाहित पावर बुनावट का आकलन करने में भी मदद कर सकता है। मधुर भंडारकर की एकमात्र अच्छी फिल्म 'पेज-३' में खोजी पत्रकार की सामग्री को संपादक अमीर आदमी के दबाव में रोक लेता है। इस समय भारत में सत्ता और धन के दबावों के बीच विशुद्ध निष्ठावान पत्रकारिता कठिन हो चुकी है। कई प्रांतों में पत्रकारों के विरुद्ध हिंसा का प्रयोग भी किया जाता है। अस्सी के दशक में आई शशि कपूर अभिनीत 'न्यू देहली टाइम्स' फिल्म में इसका प्रस्तुतीकरण काबिले तारीफ रहा है। ज्ञातव्य है कि अमेरिका के वाटरगेट कांड का खुलासा भी दो पत्रकारों ने ही किया था। भारतीय अखबार व्यवसाय में आर्थिक उदारवाद के बाद बहुत-से परिवर्तन आए हैं। आज प्रत्येक प्रति का प्रकाशन मूल्य लगभग दस रुपया है और उसे तीन रुपए में बेचने की मजबूरी है। विज्ञापन से घाटे सभी अखबार पूरे नहीं कर पाते। अमेरिका जैसे देश में कई महत्वपूर्ण अखबार अब केवल सप्ताहांत में प्रकाशित होते हैं और अन्य दिनों में वे मात्र वेबसाइट पर ही उपलब्ध होते हैं। भारत में आने वाले वर्षों में अखबार व्यवसाय में असली संकट उसके वितरण को लेकर आएगा, जब अलसभोर में अखबार घर-घर देने वालों की कमी आएगी। बहरहाल खोजी पत्रकारिता भारत में टेक्नोलॉजी के अभाव के कारण शैशव अवस्था में है। जेम्स बांड की फिल्मों में कैमरायुक्त पेन जैसे विविध गैजेट्स दिखाए जाते हैं, जिनकी कीमत अभी अधिक है। इसके अतिरिक्त व्यक्तिगत जीवन की गोपनीयता की रक्षा बनाम खोजने के अधिकारों की सुस्पष्ट व्याख्या नहीं हुई है। अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति कैनेडी की पत्नी का अपना व्यक्तिगत बीच था, परंतु खोजी पत्रकार समुद्र के भीतर मीलों तैरकर जल के भीतर चित्र लेने में सफल हुए थे। इस सनसनीखेज पत्रकारिता को हम खोजी पत्रकारिता से नीं जोड़ सकते। दशकों पूर्व एक खोजी पत्रकार ने एक आदिवासी लड़की को 36 रुपए में खरीदकर उसे बड़ी शोमैनशिप के साथ अवाम के सामने प्रस्तुत किया था और इसके आधार पर जगमोहन मूंदड़ा ने 'कमला' नामक फिल्म बनाई थी। बाद में उस खरीदी गई लड़की का क्या हुआ, इस बारे में कहीं कोई जानकारी नहीं है। ठीक इसी तरह राजनीतिक घपलों की धमाकेदार प्रस्तुति के बाद क्या हुआ, इसका कभी ज्ञान प्राप्त नहीं होता। हमारे पत्रकार बम की पूंछ में आग लगाते हैं, परंतु धमाके के बाद सिर्फ धुआं ही धुआं बचा रहता है।