आमिर खान की फिल्म और एक उपन्यास / जयप्रकाश चौकसे

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आमिर खान की फिल्म और एक उपन्यास
प्रकाशन तिथि :07 सितम्बर 2017

आमिर खान की 'ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान' किसी अंग्रेजी भाषा में लिखे उपन्यास से प्रेरित है परंतु ठगों पर विलियम हेनरी स्लीमन की रिपोर्ट ही इन सारी किताबों की गंगोत्री रही है और जबलपुर के राजेन्द्र चंद्रकांत राय का उपन्यास 'फिरंगी ठग' भी उससे प्रेरित है। ठगों का आतंक आठ सौ वर्षों तक रहा। ठगों के दल के सरदार को 'आदर' से 'जमादार' कहकर संबोधित किया जाता था। उनका संगठन अत्यंत मजबूत होता था। काम और लूट के बंटवारे भी खास ढंग से किए जाते थे। जब तक युवा ठग अपनी पहली हत्या नहीं कर लेता था तब तक उसे विधा का 'छात्र' ही माना जाता था और वह सेवा का काम करता था। उनकी 'ग्रेजुएशन' प्रणाली उनका यज्ञोपवीत माना जाता था। ठगों में किसी तरह की सांप्रदायिकता की भावना नहीं थी। सभी धर्मों को मानने वाले ठग काली मां के उपासक थे। ठग अपने अलिखित संविधान के प्रति समर्पित थे और उनमें गहरा अनुशासन होता था। उनका अपना दंड विधान था।

किसी भी समूह में अनजान ठग भी कुछ संकेतों के माध्यम से एक-दूसरे को पहचान लेते थे। ठगों में एक गुप्तचर दल होता था, जो समूह यात्रा की खबरें एकत्रित करके अपने मुखिया तक पहुंचाता था। कुछ ठग यात्रा समूह में शामिल हो जाते थे और सामान्य यात्रियों से मित्रता करके उनके बारे में सारी जानकारी प्राप्त कर लेते थे। ठग प्राय: एक पीले रंग के कपड़े से गला घोंटकर ही हत्या करते थे। उन्हें सामान्य हथियार की आवश्यकता ही नहीं थी। सारे ठगों का यह विश्वास था कि वे 'न्यायपूर्ण ढंग' से अपनी रोजी-रोटी कमा रहे हैं। डाकुओं के 'कोड ऑफ कंडक्ट' और ठगों के कोड में भारी अंतर होता था।

डाकू हत्या को हत्या ही मानते थे, जबकि ठग इसे 'बलि' देने की तरह मानते थे। वे किसी भी यात्रा दल के एक भी सदस्य को जीवित नहीं छोड़ते थे ताकि उनके खिलाफ गवाही देने वाला कोई व्यक्ति नहीं रहे परंतु कुछ लोग बच जाते थे और उनके द्वारा खबर दिए जाने पर उनकी तलाश की जाती थी। उस दौर की हुकूमतों ने अनेक ठगों को पकड़ा और दंडित किया था। ठगों का सफाया अंग्रेज अफसर स्लीमन ने ही बड़े साहसी ढंग से किया था।

उस दौर में बैंक व्यवस्था नहीं थी। अत: धन एक जगह से दूसरी जगह ले जाने वाले को 'रोकड़िया' कहा जाता था। नकद धन को 'रोकड़ा' कहा जाता था! ठगों को रक्तबीज कथा पर बड़ा विश्वास था। राक्षस रक्तबीज के अन्याय को समाप्त करने के लिए देवी ने अपने पसीने से उत्पन्न दो लोगों को रक्तबीज को कपड़े से गला घोंटकर मारने का आदेश दिया, क्योंकि रक्तबीज के खून की बूंद जहां पड़ती थी, वहां नया राक्षस पैदा हो जाता था।

संभव है ठगों की देवी उपासना का एक कारण यह भी हो। ठग यात्री दल पर आक्रमण करते समय ऊंचे सुर में इसलिए गीत गाते थे कि उनके हत्याकांड के दौरान चीख-पुकार की आवाज गायन के कारण दबी रहे। अत: गायन उनकी अपनी रक्षा प्रणाली का एक हिस्सा था। गीत-संगीत के इस भयावह उपयोग के बारे में कब किसने सोचा होगा। ठगों में प्रथा थी कि हत्या करने के बाद मृत देह को जमीन में गाड़ देते थे और उसके ऊपर पत्थर रख देते थे ताकि जानवर मृत देह को अपना भोजन नहीं बना सकें। वे प्राय: स्त्रियों और बच्चों की हत्या नहीं करते थे। उनकी अपनी भाषा में भावी शिकार को वे 'तिलहई' कहते थे।

ठग लोग प्राय: अपने साथ गुड़ लेकर चलते थे, क्योंकि लंबी यात्राओं में भोजन पकाने की व्यवस्था नहीं कर पाए तो गुड़ खाकर अपनी ऊर्जा बनाए रख सकें। अपने कार्य करने का आदेश देने को 'तंबाकू ले आना' कहा जाता था।

ठगों में अपने गहरे अंधविश्वास होते थे जैसे हरे-भरे वृक्ष पर कौआ कांव कांव करे तो यह अच्छा शगुन और सूखे पत्तेविहीन वृक्ष की किसी डाली पर कौए का कांव कांव करना अपशकुन माना जाता था। इसका सारांश यह है कि प्रकृति भी मनुष्य को संकेत भेजती है। जानवर भी होने वाली घटना को भांप लेते हैं। प्राय: मृत्यु के पूर्व गली के कुत्ते अजीबोगरीब ढंग से आवाज निकालते हैं मानो वे रो रहे हों। हमने ही पर्वतों को वृक्षहीन और नदियों को प्रदूषित कर लिया है। अब हम प्रकृति के संदेश पढ़ना भी भूल चुके हैं। एक वृहत मरुभूमि की रचना प्रक्रिया प्रखर गति से जारी है।

राजेन्द्र चंद्रकांत राय ने इस उपनयास में कमाल की भाषा का प्रयोग किया है, मसलन एक वाक्य है 'वह उस कच्ची उम्र में ही क्रूरता के कसैले स्वाद से परिचित हो गया'। उनका कथा प्रवाह कूल किनारे विकसित करता हुआ चलता है। यह उपन्यास केवल इसकी भाषा के कारण भी पढ़ा जा सकता है। एक जगह वे लिखते हैं 'शिकायतों ने दम तोड़ा! आदिम प्रेम उमड़ा।' शयन कक्ष कभी जंग के मैदान की तरह बन जाता है और कभी शांति के टापू के रूप में बदल जाता है। शरीर स्वयं भाषा है, वह संगीत का वाद्ययंत्र भी है और इसीलिए 'देह राग' भी होता है जो अभी तक लिपिबद्ध नहीं किया गया है। उसके नोटेशन्स उपलब्ध नहीं हैं। ईश्वर एक संगीत कन्डक्टर की तरह जीवन के आर्केस्ट्रा को संचालित करता है। उसकी परम शक्तियों के बावजूद 'बेसुरापन' बार-बार ध्वनित होता है।