आमिर व किरण बनाम अनुपम तथा परेश / जयप्रकाश चौकसे

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आमिर व किरण बनाम अनुपम तथा परेश
प्रकाशन तिथि :25 नवम्बर 2015


आमिर खान और किरण खान की व्यक्तिगत चिंताओं की सार्वजनिक अभिव्यक्ति पर परेश रावल, अनुपम खेर इत्यादि लोगों की प्रतिक्रिया पर कुछ कहने का साहस करने के पहले यह गौरतलब है कि आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकास के सपनों को सबसे अधिक खतरा उनके अपने अनुयायियों की ओर से है। कोई राजनीतिक दल उनका विरोध करने में सक्षम नहीं है परंतु उनके अपने 'मित्र' ही उनको हानि पहुंचा रहे हैं। आमिर-अनुपम के विवाद के बाद अमेरिका से मुझे अपने मित्र का फोन आया कि अब वह मुझे वह धन नहीं भेज पाएगा, जो भारत में किसी लघु उद्योग की स्थापना हेतु मुझे भेजने का वादा उसने किया था। उस धन से आधुनिकतम लॉन्ड्री खोलने की योजना थी, जिसमें होटल व घरों की चादरें और कालीन इत्यादि की निरापद सफाई होती है। यह 'स्वच्छ भारत' के तहत किया जा रहा था। अब अपने उस अप्रवासी मित्र से कैसे कहें कि भारत में अभी ऐसी लॉन्ड्री की आवश्यकता है, जो मन से भय की गंदगी को साफ कर दे और अनगिनत अनावश्यक बकवास को वायुमंडल से छांटकर निकाले और साफ करे। कितने ही क्षेत्रों में, कितने ही किस्मों की सफाई की आवश्यकता है। क्या टेक्नोलॉजी यह करिश्मा कर दिखाएगी?

मित्र के इसी वार्तालाप में यह खयाल आया कि इस समय सभी देशों के लोगों से अधिक भारतीय लगभग 1.34 करोड़ लोग विदेशों में बसे हैं और उनसे राजनीतिक दलों को चंदा मिलता है और उनके परिवारों को भी धन मिलता है। केरल के अर्थशास्त्र का सबसे बड़ा स्तंभ विदेशों में बसे केरलवासियों द्वारा भेजा गया धन है अर्थात किसी भी भारतीय की विदेश में बसने की कामना का यह अर्थ नहीं कि वह भारत से प्रेम नहीं करता है। सच तो यह है कि अप्रवासी भारतीय अधिक पूजा-पाठ करते हैं और धार्मिक ग्रंथों को पढ़ते हैं। दरअसल, देश मनुष्य के हृदय में बसता है और उसका भूगोल भूमंडल से बड़ा है। देश में रहकर जो कामचोरी करते हैं, भ्रष्टाचार में लिप्त है, आयकर ईमानदारी से जमा नहीं करते, उनके बारे में अनुपम खेर और परेश रावल अपनी 'ओ माय गॉड' की भूमिका को यथार्थ में एक पल भी जी सकते हैं क्या? आमिर खान की पत्नी किरण की एकमात्र फिल्म का नाम 'धोबीघाट' था, जाने कैसे घूम-फिरकर सारी बातें लॉन्ड्री पर आ जाती हैं। शम्मी कपूर अभिनीत फिल्म 'उजाला' में शंकर-जयकिशन का एक गीत याद आता है, 'ये कैसा जहर फैला दुनिया की फिजाओं में, ये कैसी दहशत फैली लोगों की निगाहों में…।'

बहरहाल, आमिर खान की पत्नी ने सुबह का अखबार पढ़कर सहज बात कही कि अब अखबार पढ़ने की इच्छा नहीं होती, केवल हिंसा और घृणा की खबरें पढ़ने को मिलती है। क्या हम सुरक्षित हैं या हमें कहीं विदेश में बसना चाहिए। यह सहज वार्तालाप है, जिसका यह अर्थ नहीं कि वे सचमुच भारत छोड़ रहे हैं। आज समाज में असहिष्णुता और भय व्याप्त है, इस बात से आप सहमत नहीं तो राष्ट्रपति के घर जुलूस लेकर जा सकते हैं परंतु स्वयं राष्ट्रपति ने असहिष्णुता की बात कही है और हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मलेशिया में बयान दिया कि आतंकवाद को किसी धर्म से नहीं जोड़ें। बार-बार यह लगता है कि विकास के वादे को वे लोग पूरा नहीं करने देंगे, जो बार-बार अपने आपको प्रधानमंत्री के सामने उनका बड़ा समर्थक सिद्ध करना चाहते हैं। ये कैसी प्रतियोगिता है कि कौन बड़ा समर्थक है? इसी खेल में सेंसर बोर्ड अध्यक्ष पहलाज निहलानी ने मोदी भक्ति के एक वृत्त चित्र में भारत में विकास के जो दृश्य दिखाएं, वे सब विदेश के हैं, फ्लाईओवर दुबई के हैं, स्पेस स्टेशन अमेरिका के हैं, वायुयान रशिया के हैं। क्या इस हास्यास्पद वृत्तचित्र से मोदीजी को लाभ पहुंचेगा? इस प्रकरण में 'हितों के द्वंद्व' का मुद्‌दा शामिल है कि जब उनका बनाया वृत्तचित्र संेसर में प्रमाण-पत्र के लिए आया तो उन्हें पद छोड़ देना था।

बहरहाल, किरण खान की सहज-सी बात का यह बतंगड़ क्यों बनाया जा रहा है और पूरा मीडिया चटखारे लेकर इसे उछाल भी रहा है। देश की कितनी ऊर्जा का अपव्यय हो रहा है? आमिर खान के बचाव के लिए तीन फिल्में ही यथेष्ट है, 'लगान,' 'तारे जमीं पर' अौर 'रंग दे बसंती।' यह कहना भी जरूरी है कि भय की तरह सुरक्षा भी मिथ है। लिंकन, कैनेडी, महत्मा गांधी जैसे लोग भी हिंसा से नहीं बच पाए। सकारात्मक और नकारात्मक शक्तियां हर कालखंड में सक्रिय रही हैं और यह अनवरत जारी युद्ध कभी रुका ही नहीं। गैर-जवाबदार बातें चेहरे पर आए मुंहासों की तरह हैं। मोदीजी ने जनसमर्थन का जो जिन्न चिराग से बाहर निकाला है, वह वापस कभी नहीं आएगा, वापस कभी नहीं जाएगा।