आम आदमी की अबूझ पहेली / जयप्रकाश चौकसे

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आम आदमी की अबूझ पहेली
प्रकाशन तिथि :11 मार्च 2016


जब प्रियंका चोपड़ाअनेक कारणों से सुर्खियों में थीं, तब प्रकाश झा की 'जय गंगाजल' का प्रदर्शन हुआ परंतु बॉक्स ऑफिस पर ये सुर्खियां सिक्कों में नहीं बदलीं। भारतीय दर्शक चटखारे लेकर सुर्खियों का आनंद लेता है परंतु उसकी फिल्मी पसंद इन बातों से प्रभावित नहीं होती। मीना कुमारी के असमय निधन के कारण उनकी अभिनीत 'पाकीज़ा' को देखने दर्शक पहुंचे परंतु सच तो यह है कि 'पाकीज़ा' का संगीत लोकप्रिय होने में समय लगा और बॉक्स ऑफिस सफलता का श्रेय संगीत को दिया जाना चाहिए कि मीना कुमारी के असमय निधन को। पृथ्वीराज कपूर की मृत्यु से उनके पोते रणधीर कपूर की फिल्म 'कल, आज अौर कल' को कोई सहायता नहीं मिली, जबकि फिल्म के कुछ दृश्यों की शूटिंग के लिए पृथ्वीराज अस्पताल से स्टूडियो आते थे और यह बात खूब प्रचारित भी हुई थी।

संजय दत्त के जेल से मुक्त होने के बाद उनकी कुछ फिल्मों की घोषणा हुई है परंतु इन फिल्मों के प्रदर्शन के समय संजय दत्त के सजायाफ्ता होने का कोई लाभ इन्हें नहीं मिलेगा। दिलीप कुमार का सायरा बानो से विवाह होने का कोई लाभ 'गोपी' को नहीं मिला। दर्शक का मनोविज्ञान एक अबूझ पहेली है। इसी तरह चुनाव प्रचार पर बहुत अधिक धन खर्च होता है परंतु चुनाव में जीत का कारण मात्र प्रचार नहीं होता। सामूहिक अवचेतन का वैज्ञानिक अध्ययन भी कोई खास मदद नहीं करता। इंदिरा गांधी ने 'गरीबी हटाओ' नारे के कारण चुनाव जीता- यह पूरा सच नहीं है। चुनावी जीत में विरोधी की छवि का बहुत प्रभाव पड़ता है। अवाम ने कांग्रेस सिंडीकेट को खलनायक माना। उस सिंडीकेट में खुर्राट बुजुर्ग नेता थे अौर उनकी छवि के कारण चुनाव में हार हुई। इंदिराजी कारगर सिद्ध होंगी या नहीं इस पर उस समय दो मत थे परंतु खुर्राट सिंडीकेट कभी लाभ नहीं दे सकता- इस बात पर जनता को यकीन था।

अमेरिका में जॉन एफ. कैनेडी की अपार लोकप्रियता का अध्ययन करने का प्रयास हुआ और एकमत यह था कि वे अत्यंत सुंदर व्यक्ति थे। उनका हैंडसम होना उन्हें लाभ पहुंचाता था। अमेरिका के मतदाता की विचार प्रणाली में बहुत अंतर है। एक सुविधा संपन्न देश के लोगों के अवचेतन और गरीब देश के अवचेतन में अंतर होता है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका और रूस में शीत युद्ध लंबे समय चला और उन दिनों अमेरिका में किसी नेता की सोच में 'समाजवादी' होना बहुत बड़ा दोष माना जाता था। उस दौर में अनेक लेखक और कलाकारों को 'समाजवादी' सोच के कारण बहुत कष्ट झेलना पड़ा। उस दौर में समाजवादी विचार वाले व्यक्ति को शिकार माना जाता था और उसका आखेट राष्ट्रीय शगल था। ज्ञातव्य है कि महान चार्ली चैपलिन को भी इसी कारण अमेरिका छोड़कर जाना पड़ा था। फैशन की तरह राजनीतिक सोच भी बदलती है।

भारत में पाकिस्तान या मुसलमानों का हितैषी होना भी सामूहिक शिकार का कारण समझा गया है और एक विशेष विचारधारा ने इसको खूब प्रचारित भी किया है। सौभाग्य की बात यह है कि आम आदमी इस तरह की सोच से अपने को साफ बचा लेता है। कुछ दशक पूर्व दिलीप कुमार को पाकिस्तान में पुरस्कार से नवाजा गया तो दिलीप कुमार के खिलाफ अफवाह का तूफान पैदा किया गया परंतु वही पुरस्कार मोरारजी देसाई को दिया गया तब प्रतिक्रियावादी लोग खामोश रहे। आम आदमी की विचारधारा को प्रभावित करने का षड्यंत्र रचा जाता है परंतु सदियों के अभावों द्वारा पाला-पोसा आम आदमी इनसे प्रभावित नहीं होता। इसी कारण प्रतिक्रियावादी ताकतों ने अपने कुछ लोग आम आदमियों की छवि में गढ़े हैं ताकि सचमुच के आम आदमियों की विचारधारा को प्रभावित किया जा सके। इस तरह अाम आदमी को भी तोड़े जाने के प्रयास हुए हैं।

इसखेल में अब तक इतनी हेराफेरी हो चुकी है कि आम आदमी का हितैषी बनने का स्वांग रचा जा सकता है। आज आम आदमियों की भीड़ में भी कितने ही कट्‌टरपंथी विचार वाले शामिल हो चुके हैं कि हमारे साथ चलने वाला कितना हमारा है- यह ज्ञात ही नहीं हो पाता। हम सब अजनबी-अजनबी खेल रहे हैं।