आम आदमी की व्यथा-कथा का अनुलोम-विलोममाँद / शिवजी श्रीवास्तव
श्री शिवानन्द सिंह सहयोगी नवगीत के विशिष्ट हस्ताक्षर हैं, अपनी विषय-वस्तु और अभिनव कहन शैली के कारण उनके नवगीतों की अलग पहचान है, उनका नवीन नवगीत संग्रह, 'रोटी का अनुलोम-विलोम' , आम-जन की व्यथा-कथाओं, संवेदनाओं के साथ ही समकालीन समाज की विद्रूपताओं, विडम्बनाओं को उसी विशिष्ट कहन शैली में प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त करता है। 84 नवगीतों के इस संग्रह की भूमिका में सहयोगी जी ने इन नवगीतों के मंतव्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है–'रोटी का अनुलोम-विलोम' , रोटी का ही अनुलोम-विलोम नहीं, आम-आदमी की ज़िन्दगी की समस्याओं से जुड़े जीवन की उठा-पटक का भी अनुलोम-विलोम है। यह हमारी अभिव्यक्ति के उद्गारों का भी अनुलोम-विलोम है। '
आम-आदमी की ज़िन्दगी की उठा-पटक के कई आयाम हैं, भूख है, अभाव है, टूटती हुई आस्थाएँ हैं, मरते हुए सपने हैं, भिन्न-भिन्न प्रकार की समस्याएँ हैं, जिनसे आम आदमी हर रोज़ जूझ रहा है किन्तु इसके समानांतर ही जीवन के उल्लास हैं, पर्व हैं, त्यौहार हैं, अभावों में भी आनन्द मग्न रहने की उत्कट अभिलाषा और जिजीविषा है। संग्रह में ये सारे चित्र विद्यमान हैं। संक्षेप में कहें तो इस संग्रह में विविध रूपों के साथ पूरा लोक विद्यमान है।
संग्रह का प्रथम नवगीत 'आग अंदर थी' ही एकदम से ध्यान खींचता है, इस नवगीत में बड़े ही सहज ढंग से एक सीधे-सादे ग्रामीण पिता का शब्द चित्र खींचा गया है-
' पिता की लत थी
कि वह बीड़ी जलाते थे
आग अंदर थी
जिसे अक्सर बुझाते थे। ' (आग अंदर थी)
ये किसी विशिष्ट पिता का चित्र नहीं है, ये एक सामान्य पिता हैं; एक सीधी सहज ज़िन्दगी जीने वाले सामान्य ग्रामीण व्यक्ति हैं। अभावों से जूझते आम आदमी के अन्तस में अनेक वेदनायें रहती हैं, पर उन्हें वह प्रकट नहीं करता है, अपने अभावों की आग को भीतर ही भीतर पीता रहता है, बीड़ी पीकर आग बुझाने का यह प्रतीक अभिधात्मक रूप से विरोधाभासी दिखता हुआ उस पीड़ा को गहनता से अभिव्यंजित कर रहा है। अभावों की आग को बीड़ी पीकर बुझाने वाले वे ठेठ ग्रामीण पिता समस्त अभावों और चिंताओं के मध्य जीवन की प्रसन्नता तलाश लेते हैं, -
' खूब खाते थे / टिकोरा की बनी चटनी / भजन गाते थे / लगी हो / खेत में कटनी / बीच में रुक-रुक /
बुझौवल भी बुझाते थे। '
पिता की तरह ही माँ का भी बड़ा सहज चित्र उन्होंने अंकित किया है, जहाँ पिता एक सीधे-साधे ग्रामीण व्यक्ति हैं जिन्हें सिर्फ़ अपने काम से नाता है वहीं, माँ परिवार की एक ऐसी स्तम्भ हैं, जो सारे परिवार के सदस्यों के विवादों-विरोधों को वात्सल्य के सूत्र से बाँध कर परिवार को एकजुटता को बनाये रखती हैं-
' वत्सलता का कोमल धागा / जुट होती है माँ /
बड़की तो अलगाववाद की / उठी-उठाई छत /
छुटकी का भी मिलाजुला कुछ / कोलाहल-सा मत
बिना किसी गुटबंदी के भी / गुट होती है माँ। ' (गुट होती है माँ)
कवि ने लोक जीवन को बहुत निकट से देखा है, लोक-संस्कृति उनके अंदर रची बसी है, उनके गीतों में लोक की समस्याओं के अनगिन रूप हैं, गाँवों के बात-बेबात के झगड़े हैं, भूख है, गरीबी है, रोटी के सपने हैं, अभावों की आग है, जो व्यक्ति के सपनों को धीरे-धीरे समाप्त कर रही, 'मुँह के बल सोये हैं सपने, जाग रही रोटी.' (जाग रही रोटी) , इसी भूख और अभावों के बीच सुख की राह तलाशती झोपड़ियाँ हैं, सुबह से शाम तक कोल्हू के बैल-सी खटती जिंदगियाँ हैं—
' धूल-धूसरित टुटियल चप्पल / हाथ उठाये /
रोनी सूरत भीगी आँखें / मुँह लटकाये
कोण बनाती पैदल चलती / पोंछेवाली। '
(पोंछेवाली)
इसी प्रकार-
' चिरकुट गाँठ जियेगी कब तक / हरखू की चाची /
पीले हाथ हुए थे जिस दिन / बाँची दूब कथा /
जीवन की परिभाषा बदली / बूढ़ी एक प्रथा /
योंही ढोयी उम्र समर्पित / हरखू की चाची। '
(चिरकुट गाँठ जियेगी कब तक)
निम्न वर्ग / निम्न मध्यवर्ग के व्यक्ति की जिजीविषा प्रबल होती है, अभावों और संकटों के मध्य भी वे हताश या निराश नहीं होते, विपन्नता का रोना न रोकर वे अपने अभावों के मध्य भी प्रसन्नता तलाश लेते हैं, सहयोगी जी ने इस मनोविज्ञान को अत्यंत सूक्ष्मता के साथ देखा और चित्रित किया है, उनके नवगीतों के गाँवो में ग़रीबी है, अभाव हैं, पर दैन्य या हताशा नहीं है, इनके पात्र अभावों के मध्य भी अपने ढंग से बेखौफ और संतुष्ट जीवन जीते हैं, एक चित्र दृष्टव्य है-
' सुबह-सुबह ही उठ जाती है / बिछी रात की खाट / चार जानवर बाँध रखी है / एक देह की खाल / झुकी कमर समझाकर हारी / हारा पिचका गाल / शाहंशाह बना रहता है /
फटा पुराना ठाट। '
(बिछी रात की खाट)
सहयोगी जी भूख, अभाव और ग़रीबी के प्रश्नों को गम्भीरता से उठाते हुए उसके मूल कारण पर भी प्रहार करते हैं। वस्तुतः यह पूँजीवादी लोकतंत्र का बहुत बड़ा अंतर्विरोध है कि यहाँ लोक / आमजन के उत्थान के नाम पर अनेक योजनाएँ बनाई जाती है किंतु उनका पूरा लाभ उस वर्ग तक नहीं पहुँच पाता है, वोटनीति और पूँजी का खेल आम आदमी के जीवन में पर्याप्त खुशहाली नहीं आने देता, सहयोगी जी इस विरोधाभास के मूल को भली भाँति समझते हैं, वे जानते हैं कि विकास के नाम पर चलने वाली परियोजनाएँ लूटतंत्र की भेंट चढ़कर किन लोगों को लाभ पहुँचा रही हैं, इसका संकेत वे अनेक स्थलों पर करते हैं-
सत्ता के इस उदयाचल से
मिली हुई है छूट
धमा-चौकड़ी पुनः करेगी
लूली-लँगड़ी लूट
किसी मोड़ पर नई योजना
कहीं न होगी फेल।
(अक्कड़-बक्कड़)
इसी प्रकार-
' चुपके-चुपके दिल्ली खाती
राजभवन की खीर
खींच गई महँगाई सुरसा
सबसे बड़ी लकीर। '
(हे! मेरी सरकार)
संग्रह के नवगीतों से एक बड़ा प्रश्न भी झाँकता दिखाई देता है, वर्तमान सभ्यता विकास के कई सोपान पार कर चुकी है, अंतरिक्ष तक हमने अपने पैर पसार लिये हैं, किंतु धरा की समस्याएँ हल नहीं हो रही हैं, आम आदमी की सारी जद्दोजेहद अब भी रोटी के लिये ही है-
हम करते आये हैं अब तक
रोटी का अनुलोम-विलोम
झाँके मंगल के शहरों में
औऱ चाँद के गाँव निहारे
खिली अमावस की रातों में
रहे गूँथते नभ के तारे
पारपत्र लेकर नवग्रह का
ग्रह-पथ नापे हर सुरभी का
लाँघ चुके है कइयों व्योम।
(रोटी का अनुलोम-विलोम)
आम जन की पीड़ा यही है कि जिस व्यवस्था में वह साँस ले रहा है, उसमें पूँजी का असमान वितरण उसे अभावों में जीवन यापन हेतु अभिशप्त किये है, ज़िन्दगी की समस्त गणित में रोटी का गणित हल करना उसे अत्यंत दुष्कर प्रतीत होता है-
बड़ा कठिन हल करना साधो!
रोटी का यह भिन्न...
...
असमंजस में रहता चूल्हा,
चिंतन रहता खिन्न। '
(रोटी का भिन्न)
निःसन्देह विकास का जो प्रारूप है, उसने आम जन की समस्याओं का हल किया ही नहीं है, राजनीतिक मंचों से विकास के बड़े-बड़े वायदे किये जाते हैं, प्रगति के लुभावने आँकड़े प्रस्तुत किये जाते हैं किंतु फुटपाथों पर सोने वालों की नियति यथावत् है-
कब तक सोये फुटपाथों पर
भूखे पेट सुदामा
.........
आजादी की वर्षगाँठ के
लोकलुभावन नारे
झोंपड़पट्टी की गलियों में
झाँक रहे हैं नारे
कहाँ दिख रहा इस पड़ाव में
उन्नति का 'ओबामा' ।'
(भूखे पेट सुदामा)
बाजारवाद का विस्तार विकास का नया ही रूप सामने लेकर आ रहा है, चमक-दमक और भागमभाग भरी ज़िन्दगी व्यक्ति को प्रकृति से दूर करती जा रही है, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हो रहा है, गाँव-गाँव तक चौड़ी-चिकनी सड़कों का जाल बिछाने के लिये वृक्ष काटे जा रहे हैं, गाँवो का नैसर्गिक रूप समाप्त हो रहा है, पर्यावरण असुंतलन बढ़ रहा है, नगरीय जीवन की सुविधाएँ गाँवों तक पहुँच गई हैं, पर यह विकास बहुत अधकचरा है, लोग अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं। महानगर की विकृतियाँ गाँवों में पैर पसारती जा रही हैं-
जब से पेड़ कटा बरगद का
शहर दिखाई देता घर से
...
चमगादड़ के गाँव उजड़कर
किसी अपरिचित देश जम गये
घुघुआ के परिवार बिछड़कर
भेष बदलकर कहीं रम गये
झूले हैं बरोह के टूटे
नहीं निकलती डाली डर से। '
(जब से पेड़ कटा)
इसी प्रकार-
जहाँ हो नीर का टोटा
जहाँ प्यासा पड़ा लोटा
जहाँ बदहाल है मटकी
प्रदूषण है जहाँ मोटा
जहाँ की झोंपड़ी के घर
नहीं व्यापार रहते हैं
उसे क्या शहर कहते हैं। '
(उसे क्या शहर कहते हैं)
संग्रह के अनेक नवगीत इस बात के प्रमाण हैं कि नागरी संस्कृति की कृत्रिम चमक कवि को रास नहीं आ रही है। विकास के नाम पर होने वाला नगरीकरण संस्कृति को ग्रसते हुए जीवन की सहजता को नष्ट कर रहा है। आपाधापी, भागमभाग, स्वार्थपरता, प्रदूषण, एकाकीपन इत्यादि नई संस्कृति के अनेक अवगुण मनुजता को नष्ट कर रहे हैं-
1.
इस शहर में घुट रहा है
शोर का भी दम
घुटन की घुटती घुटन से
तंग है दावा
कुछ जले पर नमक छिड़के
धूप का लावा
आधुनिकता से मिला है
आचरण का रम।
(कुछ जले पर नमक छिड़के)
2.
पहिये पैदल भाग रहे हैं
आटो लादे टैम्पो ढोते
भौतिक भार
पड़ा सफ़ाई का अधकचरा
जोड़ रहा है चुपके-चुपके
मन से तार
साँस सड़क पर आटा गूँथे
चूँ-चूँ चें-चें फिरकी बेचें
प्यासी हूल। '
(दिल्ली की सड़कों पर)
महानगरीय संस्कृति के प्रति वितृष्णा के भाव के साथ ही सहयोगी जी के गीतों में गाँवों के प्रति अतिरिक्त मोह, एक नॉस्टेल्जिया का भाव विद्यमान है, उनके सपनों के गाँव अब भी भोले-भाले, सीधे-सरल लोगों के गाँव हैं, जहाँ जीवन एक निर्झर की भाँति अपने सहज और नैसर्गिक रूप में प्रवहमान है-
अपना गाँव एक छपरा है
फसलों का संवाद है
मीरा-तुलसी-सूर-कबीरा
ढोलक-झाल बजाते हैं
आल्हा-बिरहा-चैता-होरी
कजरी को नचवाते हैं
लोकगीत की परंपरा में
वर्तमान अनुवाद है।
(अपना गाँव एक छपरा है)
2.
अमन चैन का जहाँ बसेरा
अपना गाँव पुराना
पीपल की ठण्डी छाँवों में
पुरखों का अनुराग
बरगद की टहनी-टहनी पर
आत्मवाद का राग
बाँसों के झुरमुट-झुरमुट पर
पल्लव का सुस्ताना। '
(आत्मवाद का राग)
सहयोगी जी के नवगीतों में जहाँ अपने समस्त अभावों, वेदनाओं और सपनों के साथ जीते हुये लोक जीवन के बिम्ब हैं, वहीं कवि मन की भावुक संवेदनशीलता भी सहज ढंग से अभिव्यक्त हुई है—
1.
चौथेपन के वृंदावन में
कोई साँझ अकेली होती
हरी दूब पर गीत टहलते
जिनिगी एक पहेली होती
(कोई साँझ अकेली होती)
2.
' तुम्हारे नैन के काजल
अमित अनुवास लगते हैं
×××××××××××÷
जहाँ सावन ठहरते हैं
खुशी की आचमनियों के
जहाँ पौधे नहीं उगते
दुःखों की नागफनियों के
सुघर रचना के अभिनन्दन
बुने अनुप्रास लगते हैं।
(तुम्हारे नैन के काजल)
सहयोगी जी के गीतों के अनेक आयाम हैं, उनमें कहीं भावुक हृदय के चित्र हैं, कहीं विकास के नीचे सिसकते मानवीय मूल्य है तो कहीं दार्शनिक भाव-बोध हैं, यथा-
दो पटरी पर ही गुजरी है
इस जीवन की गाड़ी
सुख यदि एक रेल की पटरी
दुःख है एक पहाड़ी। '
(सुख यदि एक रेल की पटरी)
तथा-
क्षणिक क्षण यह ज़िन्दगी का
एक पैराग्राफ है
समय यह संदेश देता
चिर उजालों में जियो
जहर भी पीना पड़े तो
चाव से उसको पियो
रात यदि कोहरा भरी है
दिवस कोई साफ़ है।
(ज़िन्दगी का पैराग्राफ)
सहयोगी जी के नवगीतों में भाषा के अनूठे प्रयोग हैं, वे शब्दों के बाजीगर हैं, उनकी उपमाएँ अनूठी हैं, संग्रह का शीर्षक ही उनकी प्रयोगधर्मिता का सूचक है, योग के पारिभाषिक शब्द अनुलोम-विलोम को रोटी के साथ जोड़कर उसे एक मुहावरे में बदलने का प्रयोग विलक्षण है। उनके पास तत्सम, तद्भव और देशज शब्दों की विपुल सम्पदा है, उन शब्दों का सार्थक प्रयोग करने में वे सिद्धहस्त हैं, एक ही रचना में एक ही बंद में एक साथ सभी प्रकार के शब्दों को उनके पूर्ण सौंदर्य के साथ वे इस कौशल से प्रयुक्त करते हैं कि गीत का सौन्दर्य द्विगुणित हो जाता है, शब्दों के साथ ही वे सर्वथा अभिनव बिम्बों एवम् प्रतीकों का प्रयोग करते हैं, एक उदाहरण-
तुम सूरज की अर्चि सुघर हो
पूनम की चटकई सुहानी'
इसी गीत के द्वितीय बन्द में तत्सम शब्दों की झड़ी लगाकर अंत में एक सहज और प्रचलित तद्भव तथा एक देशज शब्द के प्रयोग के सौंदर्य को देखिये-
विश्वकोश का विश्वरूप हो
तुम गीता की एक ऋचा हो
श्वेत हंसिनी किसी झील की
तुम उपमा की ऋतम्भरा हो
तुम अनादि हो तुम अनन्त हो
सपनों का भिनसार मुझे दो। '
(पूनम की चटकई सुहानी)
यहाँ महत्त्वपूर्ण यह भी है कि ऋचा का प्रयोग वेदमन्त्रों के लिये ही होता है गीता के श्लोकों को ऋचा कहना काव्य-दोष कहा जाएगा, पर कवि जिस भावभूमि पर खड़ा है वहाँ अतिशयोक्ति में इस प्रयोग से प्रेयसि के सौंदर्य की व्यंजना में अभिवृध्दि हो रही है। इस प्रकार के और भी उदाहरण हैं जहाँ भाषा-व्याकरण सम्बन्धी दोष दृष्टिगोचर होते है पर कहीं गेयता और कहीं प्रभावी व्यञ्जना हेतु होने वाले ऐसे प्रयोग के कारण ये दोष छुप जाते हैं। उनके गीत कहीं भी अभिधात्मक नहीं है, लाक्षणिकता और व्यंजना उनके गीतों के प्रभाव को तीव्र कर देती है, वस्तुतः नवगीत की नवता उसकी विषय वस्तु के साथ ही अनूठी कहन शैली में भी निहित है और ये विशिष्टता सहयोगी जी के प्रत्येक गीत में दिखलाई देती है, वे कहीं-कहीं पूरा चित्र उपस्थित कर देते हैं, यथा-
'झिलँगी एक खटोली लेटी रहती थी
मौसी के अमरूद के पास
एक उमर की बुढ़िया-बुढ़िया
पाँव जमाए रहती थीं
छोटी-सी छाया के नीचे
गाँव बसाये रहती थीं
बछिया एक मझोली बैठी रहती थी
मौसी के अमरूद के पास। '
(एक खँचोली)
बहुत साधारण शब्दों का प्रयोग करते हुए सहयोगी जी ने यहाँ पूरा एक चित्र उपस्थित किया है, एक उमर की बुढ़िया-बुढ़िया में मज़दूर वर्ग की अभावग्रस्त वृद्धाओं के पूरे समूह के वर्ग चरित्र के साथ ही एक परम्परा का अत्यंत जीवन्त चित्र है। इस प्रकार के शब्द चित्र प्रस्तुत करने में सहयोगी जी दक्ष हैं।
आंचलिक शब्दों का भी उनके गीतों में बाहुल्य है, उनके नवगीतों में इस प्रकार
के अनेक विविध प्रयोग हुए हैं, कहीं-कहीं भोजपुरी अंचल के ठेठ देशज शब्द पूरे गीत में अपनी छटा बिखेर रहे हैं-
कितने दिन तक मोथा चिखुरे
भागलपुर का भीखू'
(भागलपुर का भीखू)
कहीं-कहीं आधुनिकता बोध की तकनीकी शब्दावली भी उनके नवगीतों में विद्यमान है-
लैपटॉप पर बातचीत का
मिला बुलावा है'
(लैपटाप)
अतीत की स्वर्णिम स्मृतियों में विचरण करने वाले कवि-मन को नई तकनीक भी स्वीकार्य है-
लिखो नवल नवगीत प्रगति की
नई-नई तकनीक।
(नई-नई तकनीक)
सहयोगी जी के नवगीतों में इतना वैविध्य है कि प्रत्येक नवगीत अलग समीक्षा की माँग करता है, प्रत्येक नवगीत के भाव, शिल्प और भाषा के प्रयोगों को यदि पृथक-पृथक व्याख्यायित किया जाए, तभी उनके नवगीतों के समस्त वैशिष्ट्य को समझा जा सकता है। उनके समस्त गीतों-नवगीतों में पाठकों को प्रभावित करने का गुण है, अलग-अलग भाव और छंद वाले प्रत्येक गीत में गेयता का गुण भी विद्यमान है, निःसन्देह विशिष्ट भाषा-शिल्प, कहन तथा अपने अभिनव प्रयोगों के गुण के कारण सहयोगी जी के नवगीत अपनी अलग पहचान रखते हैं। हिन्दी नवगीत-साहित्य को समृद्ध करने में इस संग्रह का विशिष्ट योगदान रहेगा। -0- रोटी का अनुलोम-विलोम : शिवानन्द सिंह 'सहयोगी' , संस्करण: प्रथम 2017,मूल्य: दो सौ पचास रुपये ,पृष्ठ: 118,प्रकाशक: अयन प्रकाशन, 1 / 20 महरौली, नई दिल्ली-110030