आयत / पूनम चौधरी

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जीवन में कभी-कभी किसी का आगमन आपकी दिशा व दशा बदलने के निहितार्थ होता है। प्रारंभ में हम समझ नहीं पाते; परंतु जैसे-जैसे जीवन चलता है स्थिति और घटनाएँ घटित होती हैं हम समझने लगते हैं। मेरे विद्यालय का परिवेश सदैव मुझे प्रेरणा देता रहा है। यह नन्ही मूरते किसी भी स्थान, परिवेश, धर्म व आस्था से जुड़ी हो इनकी निश्छलता और उनकी जिजीविषा प्राय एक-सी रही है। अपने अनुभवों से मैं कह सकती हूँ। वह दोपहर मैं अब तक नहीं भूली। आसमान में बैठा दिवाकर सब कुछ लील जाने को उद्धत था। विद्यालय में बिजली नहीं थी, मैं नीम की घनी छांव में अपने विद्यार्थियों को रहीम के दोहे पढ़ा रही थी। गर्मी ने सब कुछ झुलसा दिया था। सहसा मुख्य दरवाजे पर आहट हुई एक दुर्बल साँवली—सी स्त्री मूर्ति खड़ी थी एक छोटी-सी सुंदर-सी बच्ची को पकड़े, वह अंदर आने का प्रयास कर रही थी। मैंने बच्चों से गेट खुलवाया और उसे अपने पास ही बुला लिया थकान और उमस ने उसके चेहरे को मलिन कर दिया था। मेरे बैठने के आग्रह पर वह संकोच के साथ प्रसन्न भी हुई फिर सामान्य होने पर कहने लगी साथ में आई बच्ची उसकी बेटी आयत है। मैं पहाड़ के उसे हिस्से से आई है जहाँ खदान के मुस्लिम मज़दूर रहते हैं वह अपने बारे में बताने लगी कि वह आठवीं पास है पढ़ने की इच्छा तो बहुत ही परंतु भाग्य में नहीं लिखी इसलिए शिक्षा नहीं मिली यह उसकी बेटी है जिसे ख़ूब पढ़ा लिखा कर उसके भाग्य में वह सब लिखना चाहती है जिससे ऊपर वाले ने उसे वंचित रखा है वह अपने सारे सपने उसके माध्यम से पूरा करना चाहती है आज किसी से उसे विद्यालय में प्रवेश प्रक्रिया का पता चला तो चिलचिल्लाती गर्मी में आधे दिन की मजदूरी से यहाँ आई है यह सब मेरे लिए विस्मय और आनंद के क्षण थे। इस देहात में अभिभावक लड़कों की शिक्षा के प्रति भी इतने गंभीर नहीं है, एक बालिका के लिए यह गंभीरता मुझे उसके सुखद भविष्य का आश्वासन दे रही थी।

वह अपने बारे में बता रही थी। घर की स्थिति अब अच्छी नहीं है इसलिए बच्ची को सरकारी विद्यालय में कर रही हूँ वरना सरकारी स्कूल उसकी नज़र में अब भी उतने अच्छी नहीं है। यह बात भी उसने इतने सहज भोलेपन से कही थी कि बुरा मानने जैसी गुंजाइश भी नहीं थी। मैंने गर्मी को देखते हुए उसे कहा, कल तुम जन्म प्रमाण पत्र, आधार और बच्चे की फोटो लेकर आ जाना प्रवेश हो जाएगा। वह प्रसन्नचित होकर लौट गई। उसके जाते ही मेरे विद्यार्थी अपनी सूझबूझ भरी कथाएँ मुझे सुनाने लगे। किसी की माँ ने, किसी की दादी ने, किसी के ताऊ ने उस स्त्री या यूं कहूँ उन मुस्लिम परिवारों के विषय में कुछ कल्पित कथाएँ फैला रखी हैं। मेरे डपट देने पर बच्चे फिर कामों में जुट गए।

अगले दिन विद्यालय समय पर एक छोटी-सी बच्ची पुराने किंतु साफ़ वस्त्रों में माँ के साथ खड़ी थी। आते ही सबसे पहले अभिवादन में चिल्लाई, मैडम जी, नमस्ते! माँ की आँखें भी मुझ पर ऐसे टिकी थी कि

आज प्रथम दिन ही गुरु की उपयुक्त गंभीरता का भार बहन करा देगी। प्रधानाध्यापिका ने जब बच्ची को प्रवेश औपचारिकताओं के लिए बुलाया, तो माँ उस समय का सदुपयोग करने के लिए मेरे पास आकर हिदायतें देने लगी,

"मेरी बच्ची को ख़ूब पढ़ाना मैडम जी, कॉपी, पेंसिल, किताब जो कह दोगी ले आऊंगी। बस आप ध्यान रखना" '

मैं उसकी तकलीफ समझ रही थी, यद्यपि मैंने पूरा आश्वासन दिया पर माँ का मन अभी बेचैन था।

अगले दिन से आयत की गुरु दीक्षा कार्यक्रम शुरू हो गया। कक्षा में बेखौफ सबसे आगे बैठती, चेहरे पर असीम संतोष और कोमलता, आँखें इतनी सुंदर कि अनायास में उसकी तरफ़ देखने लगती। "

माँ की सुरक्षा का घेरा ऐसा ही आत्मविश्वास बच्चों में भरता है। "

हर बात को कई-कई बार दोहराकर पूछती जैसे घर जाकर यह सब किसी को रटाना हो। इन सब में मैं बहुत प्रसन्न थी, हर शिक्षक को योग्य विद्यार्थियों की चाह रहती है। उसकी आँखों में हमेशा जिज्ञासा भरी रहती मानो मेरे ज्ञान को सीख लेना ही उसका धेय हो। बच्चे उससे यद्यपि खिचे-खिचे रहते; इसलिए नहीं कि वह मुस्लिम थी, बल्कि यह शिक्षा उन्हें लगातार घरों से मिल रही थी आयत की माँ की संजीदगी भी बहुतों की जलन का विषय थी। पर यह सब चीज आयत की शिक्षा के लिए उसकी माँ पर निष्प्रभावी थी। वह पूरे मनोयोग से अपनी आयत के अच्छे भविष्य के लिए प्रयास करती आयत पढ़ने में बहुत कुशाग्र बुद्धि थी गृह कार्य भी इतनी सुंदरता से करके लाती। मैं बच्चों को इसका उदाहरण देती। बड़ों को सम्मान देने में भी उसके समान किसी को चतुर न पाती। वह पूरे यत्न से सीख रही थी। उसे विद्यालय में आते हुए लगभग चार माह का समय हो गया था। उसकी माँ भी उसकी प्रगति से आश्वस्त थी। इन चार माह की अवधि में जितने दिन स्कूल खुला वह बच्ची बेनागा माँ के साथ स्कूल आई। एक भी दिन ना तो देरी से आई ना ही गृह कार्य को पूर्ण किए बिना। हमेशा साफ़ सुथरी पोशाक में टिफिन और पानी की बोतल लिए माँ की उंगली पकड़े चहकती-सी आती। मैंने उस छोटी बच्ची को कभी किसी चीज के लिए ललचाते, लड़ते झगड़ते या अनर्गल बात करते नहीं देखा। वह पहली कक्षा की सर्वोत्तम छात्रा थी। मैं आयत से अक्सर पूछती तेरी माँ खुश है? वह अपनी सुंदर-सी आँखें घुमा-घुमा कर कहती अम्मी तो बहुत खुश है पर अब्बू जब खुश होंगे जब मैं कुरान की आयतें पढ़कर अब्बू को सुनाऊंगी और खिलखिला कर हँस देती। कुछ दिन बाद पता चला आयत की माँ गर्भवती है आयत ने ही बताया कि मेरा भाई आने वाला है।

उसी दिन दोपहर की छुट्टी में मैंने उसकी माँ से कहा, 'अब तुम परेशान मत हुआ करो, आयत ने स्कूल देखा ही है, वह ख़ुद ही आ जा सकती है। पंचायत भवन तक तो सारे बच्चे जाते ही हैं।'

मेरा मंतव्य समझ वह मुस्कुरा उठी। थोड़े संकोच के साथ बोली, 'मैं तो आखरी सांस तक इसके साथ हूँ मैडम जी, मैं इसे अकेले भेजने से डरती हूँ, इसके अब्बा सुबह ही मजदूरी पर चले जाते हैं आप परेशान मत हो। कोई तकलीफ होगी तो मैं देखूंगी।'

इतना कष्ट अपनी संतान के लिए केवल माँ ही उठा सकती है, मैं यह जानती हूँ।

कुछ दिन ऐसे ही बीत रहे थे धीरे-धीरे न्यूज़ चैनल पर कोविड महामारी की खबरें आने लगी। हम भी सतर्कता बरतने लगे। आँकड़े सैकड़ो से हजारों पर पहुँचने लगे, फिर आम जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया। सरकार द्वारा स्कूल कॉलेज बंद कर दिए गए। सब कुछ घर की चारदीवारी में क़ैद होने लगा। एक दूसरे से संपर्क टूटने लगा। उस महामारी की विनाश लीला भी भयंकर थी। एक बारगी तो लगता ही नहीं था कि यह संकट अब समाप्त हो पाएगा। कितने परिचित, कितने अपरिचित मौत से जूझ रहे थे। मृत्यु का आँकड़ा बढ़ता ही जा रहा था। पुलिस की जीप और एंबुलेंस की आवाज़ दिन रात डराती थी। एक लंबे अंतराल के बाद जीवन फिर से पटरी पर लौटने लगा। लगभग सवा साल बाद हम सब सामान्य जीवन में लौटे। पहले ऑनलाइन पाठशाला, फिर मोहल्ला क्लासेस शुरू हुई, फिर धीरे-धीरे ऑफलाइन भी प्रारंभ करने की योजना बनने लगी। यद्यपि अब वह सहजता नहीं थी, सबके हाथों में सैनिटाइजर, मुंह पर मास्क जीवन का अनिवार्य हिस्सा बन चुके थे। बच्चों का भी जीवन सामान्य नहीं रहा था। गाँव के सरपंच व रसोइयों से गाँव के समाचार मिलते रहे थे, परंतु व्यक्ति विशेष के विषय में पूछने का ना तो समय था ना ही अवसर। डेढ़ साल बाद सामान्य रूप से विद्यालय प्रारंभ हुआ। पहले दिन जब मैं स्कूल पहुँची तो मन इतना शांत हुआ मेरे विद्यार्थी भी अत्यधिक प्रसन्न थे। सबके पास ढेरों कहानियाँ थी। हम सब अनुभूत कर चुके थे की आज़ादी छिनने का दर्द क्या होता है। अधिकांश बच्चे विद्यालय में उपस्थित थे।

उस महामारी से जुड़ी अनगिनत बातें घटनाएँ व कहानियाँ सुनाने को आतुर थे। ज्यादातर बच्चों के पिता, चाचा व भाई मजदूरी छोड़ गाँव आ गए थे। आर्थिक मोर्चे पर स्थितियाँ अधिक गंभीर थी। हम शिक्षकों के लिए भी स्थितियाँ कठिन थी। इस लंबे अंतराल में बच्चे बिल्कुल शून्य हो चुके थे। पढ़ाई से पहले उन्हें सामान्य मनोदशा में लाना ही गुरुतर कार्य था। लगभग 8-10 दिन सहज होने में लग गए।

इन 10 दिन में मैं समझ गई की लगातार अनुपस्थित आयत के साथ भी कुछ परेशानी हुई है। मैंने बच्चों से पूछा आयत क्यों नहीं आ रही? बच्चों को अधिक जानकारी नहीं थी मेरे गाँव में मुस्लिम आबादी थोड़ी दूर पहाड़ की दूसरी तरफ़ रहती है। इसलिए गाँव के अधिकांश बच्चे उनके संपर्क में कम ही आते हैं फिर भी एक लड़का कुछ आधी अधूरी-सी जानकारी के साथ कहने लगा,

मैडम जी आयत के भैया हुआ है, वह उसे ही सँभालती है। अब वह स्कूल में नहीं पढ़ेगी। क्यों यह तो अच्छी बात है, भाई हुआ है। पर उसकी माँ क्या करती है? वह तो पूरे समय आयत की पढ़ाई को लेकर बहुत गंभीर रहती थी। क्या लड़का होने से आयत की पढ़ाई भूल गई है? अरे नहीं मैडम जी वह उसका लाला होने में ही मर गई। अब आयत ही लाला को सँभालती है।

मैं धम्म से कुर्सी पर बैठ गई।

हे मालिक तू क्यों इतना निष्ठुर बन जाता है? वह स्त्री जो केवल बेटी को लायक बनाने और पढ़ने के लिए ही समर्पित थी, उसी को तूने पढ़ाई छुड़वाने के कारण बना दिया। आँखों के कोर भीग रहे थे। मन की बेचैनी किससे कहती? वही बच्चा बता रहा था कि एक दिन अपने भाई के साथ बनिए की दुकान पर आई थी। कह रही थी, अब दादी ने स्कूल की मना कर दी है, अब तो भैया को ही बड़ा करना है पढ़ाना है। क्या कहूँ किसे दोष दूं? नियति के खेल हम मनुष्य क्या समझेंगे?

अगले दिन मैं विद्यालय से ही एक बच्चे के साथ आयत के घर गई।

दृश्य इतना कारूणिक था कि लिखते समय भी हाथ काँप रहे हैं। आयत ज़मीन पर बैठी गोदी में भाई को सुला रही थी, लोरी की जगह वह नन्ही बच्ची गिनती और पहाडे गा रही थी। जीवन में इतनी बेबसी कभी-कभी ही अनुभूत होती है मुझे अचानक से देख रोती हुई मुझसे लिपट गई। ऐसा लगा सब कुछ रुक-सा गया है। मेरे पास कुछ नहीं था कहने को। आयत भी कुछ नहीं कहना चाहती थी। थोड़ी देर में उसकी दादी भी आ गई। मुझे देखकर उनकी प्रतिक्रिया बड़ी अजीब-सी थी। मैंने अपना परिचय दिया। अम्मा बड़ी बेरुखी से बोली, "अब स्कूल तो नहीं आवेगी"

"क्यों अम्मा?"

अब बेटी, याकी अम्मी को कोरोना खा गया। इसका बाप और मैं सुबह ही खदान जाते हैं। अब इस बच्चे को कौन सँभाले? अम्मा इसकी अम्मी का तो सपना ही आयत को ख़ूब पढ़ाना था। वह जब पेट से थी, तब भी ख़ुद ही आयत को छोड़ने आई थी। यह तो हीरा है हीरा, अम्मा बेहद तेज दिमाग़ की है आयत। ऐसा ना करो अम्मा।

मेरी बुद्धि जितनी मनुहार, जितने तर्क, जितनी दलीलें दे सकती थी मैंने दी, पर नतीजा वही ढाक के तीन पात! सब सुनकर भी अम्मा अनसुना करती गई। आयत की आँखें ऐसे मुझे देख रही थी कि शायद सब तकलीफ से मैं उसे बचा लूंगी। अम्मा ने साफ़ मना कर दिया, "सब अपने भाग का खाते हैं। हम गरीबों के काहे के सपने? मैं तो इसकी माँ को भी समझाती थी- चूल्हा-चौका सिखा। हमारी बिरादरी में छोरियाँ इतना कहाँ पढ़ती हैं? वह भी दीठ थी। सबसे लड़ी, मानती ही नहीं थी। देख बेटी हार गई ना अपने भाग से।"

अब इन्हें छोड़ गई मुझसे जितना हो पा रहा है उतना ही कर पाऊँगी। बुढ़ापा वैसे भी बुरा है उसे पर इन दोनों की जिम्मेदारी।

उनका रुख स्पष्ट था। मैंने आखिरी बार कहा, "अम्मा सुबह 2 घंटे के लिए भेज दिया करो। कुछ तो सीखेगी।

"अरे मैडम! 2 घंटे में इसका भाग्य बदल लोगी? जो इसके वास्ते सही है वही सिखा रहे हैं।

मैं निरुत्तर. बेमन से उठी कोई आश्वासन नहीं था आयत के लिए मेरे पास। मैंने जाते-जाते उसे गले से लगाया आँखें बंदकर उसके कान में कहा- जो तेरे भाग्य में होगा तो तुझ तक ज़रूर पहुँचेगा तू घबराना मत जो भी आता है दोहराती रहना भगवान जी इतने कठोर कभी नहीं हो सकते। आयत बिलख पड़ी। मेरा हाथ नहीं छोड़ रही थी। जाते-जाते बस यही बोली- "आप तो कहती थी- हम सबके अंदर भगवान है, फिर मेरे अंदर के भगवान ने मेरी ही नहीं सुनी। मेरी अम्मी को छीन लिया, अब अब्बा भी नहीं बोलते। पढ़ना ही तो मुझे हँसाता था, अब तो मैं हँस भी नहीं पाऊँगी मैडमजी!

बिना जवाब दिए मैं हाथ छुड़ाकर आ गई; क्योंकि कुछ प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाते हैं।

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