आयो बसंत ऋतुराज / तुषार कान्त उपाध्याय

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चारो ओर नव-जीवन का संकेत। नव-पल्लव, मंजरियों का लुक छुप कर झांकना, सुरभित मंद पवन लिए भोर का आमंत्रण। भला किसका मन मयूर नाच न उठे।

सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करते ही समूचा भारतवर्ष विभोर हो उठता है। लोहड़ी / मकर संक्रांति / पोंगल-नाम या रूप जो भी हो, है तो आनंद के उत्स में झूमते मन की प्रतिध्वनि।

और मूलतः कृषि जीवि भोजपुरी रूढ़ गवई परिवेश में बसंत मतलब फागुन। चारो ओर अपने श्रम के परिणाम को खेतो में लहलहाते हरियाली के रूप में देख मन उन्माद से भरने लगता है। मुरझाये चेहरों पर भी अल्हड जवानी लौटने लगती है। और'फागुन में बुढ़वा देवर लागे ... फागुन में ...' जैसे गीत ठिठोली का रूप ले लेते हैं।

तो आधुनिक कवि के ह्रदय की टीस देखिये-

रस छलकेला

अँखियन-जोत

बसंत रीतु रंग भरे!

सिहरेला टुसवा

उठेले फुरहुरिया

डोलेले जब-जब फागुनी-बेयरिआ

कवना भार से ओलरल डाढ़ी

झर-झर फ़ूल झरे!

चंचल बेयरिआ

बड़ी लकुराधी

तुरेले जोगिया के तपल समाधी

जइसे टूटेला बान्हल बान्ह;

रोकल जल टूट परे!

............।

-डॉ अशोक द्विवेदी

तो ये जोगियों के भी तपी समाधी तोड़ने लगती है।

बसंत पंचमी से ही फगुआ गाने की शरुआत हो जाती है। घर-घर, दुआर-दुआर । मन की निशिंतता का समाजीकरण हो जाता है। होरी या फगुआ जहाँ भक्ति रस में डूबा राम, कृष्णा और शिव के होली खेलने प्रसंग जाता है, वही स्थूल दैहिक सौन्दय भी राग रस में काम नहीं डूबता—

' जंघिया त हवे गोरी के केदली के थमवा / अरे गलवा इ अनुहारो / अरे गलवा सेनुरिया आम / गोरिया पातरी जइसे-लचके लवंगिया के डाढ़ी /

परन्तु ये फागुन भीतर से जल रहे मन की उद्विग्नता और पेट की आग को और बढ़ने वाला भी है। भला बताईये अभाव ग्रस्त, चिंतित मन कितना बसंतमय हो पायेगा।

विष्णु देव तिवारी की 'फागुन के उमखल बा पवन' अभाव से जूझते मन पीड़ा को मूर्त रूप देता है।

फागुन के उमखल बा पवन / झोरि-झोरि दिहलस

सुधियन के सुसुकत दरपन / फोरि-फोरि दिहलस

बालू अस कन कन।

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उगल कटार बियरे बियर / मउअत के ब्योपार

सुटुकल सुराज कतो पेनी में / बिहिटी पहिने कंकार

खउलत बा खुनी अदहन।

तमाम बाज़ारवाद, तमाम शोषण, आतकवाद, जातीय द्वेष और सामाजिक दुष्चक्रों में पिसते जीवन के बीच भी बसंत का रंग जीवन के सारे रंगो के ऊपर तैरता दिख ही जाता है। मन की अंगड़ाई अंग-अंग में मिसरी की मिठास घोलने लगती है। गांवो कस्बो से लेकर महानगरो तक फैला व्यक्ति तमाम जीवन संघर्षो के बीच अपने अह्लाद की अभिव्यक्ति भिन्न रूपों मन की तरुणाई के गीत-गीत गाकर करता है।

कमलेश राय को देखिये—

अंग अंग मिसिरि बोरि गइल

फागुन रस घोरि गइल

पतझड़ के पीरा के हियरा से बिसरा के /

थिरकि उठलि बगियन में / गांछि-गांछि अगरा के

डारि आज सगरी लरकोर भईल

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पुरवाई रेंग गईल मन में चोरी चोरी

फुटि चलल अधरन से मद मातल होरी

जिया में उछाह क अंजोर भइल

फागुन रस घोरि गइल

नेह क नेवत लेके मान भरल अँखियाँ में

गोरी कुछ बोलि गईल चुचाप कनखियन में

अइसन ई मौसम बरजोर भईल

फागुन रस घोरि गइल।

तो ज़रा बहार निकलए। देखिये कैसे प्रकृति ने बासंती छटा बिखेर रखी हैं। और आपके स्मृतियों के वातायन को कैसे खुल-खुल जाते हैं।