आय-व्यय / बालकृष्ण भट्ट
आय और व्यय को अलग-अलग विभाग करने में आय हम उसे कहेंगे जो पास न हो वरन दूसरे से अपने को मिले। व्यय वह है जो अपने पास से दूसरे के पास से दूसरे पास चला जाय। खेती तिजारत और नौकरी साधारण रीति पर आय के ये तीन बड़े द्वार हैं। सिवाय इसके मुल्क की दौलत के बढ़ाने के द्वार और भी कई एक हैं। जैसा हर एक तरह की खानों का अधिक होना, धरती की पैदावार, वाणिज्य, दस्तकारी, ऊँचे-ऊँचे पदों पर देश के लोगों का नियत होना, 'एक्सपोर्ट' अर्थात अपने देश की पैदावार या दस्तकारी का दूसरे देशों में जाना और उसके बदले नगदी रुपया का अपने यहाँ आना इत्यादि। इंगलैंड, जर्मनी, जापान, फ्रांस आदि देशों में आय के ये जितने द्वार हैं सब बे रोक-टोक खुले हैं। जिस देश में आय के द्वार इतने एक हैं वहाँ दौलत और भागवानी के प्रतिदिन बढ़ते जाने में कौन-सा संदेह है। जहाँ आय के द्वार कम हैं जो भी उनमें हद बाँध दी गई है और व्यय के द्वार सौ छेद वाले घड़े के समान अनेक और अनगिनत हैं वहाँ सौभाग्य और संपत्ति की छाया का भी पड़ना कैसा वरन लक्ष्मी की जेठी बहन दरिद्रा का चिर निवास अवश्यमेव निश्चिंत है। अब हम अपने देश आय तथा व्यय का हिसाब लगाते हैं। देश का सब से बड़ा आय धरती की उपज है। इस में संदेह नहीं उपज में वह सब देशों की आय से आगे बढ़ा है, जुदे-जुदे मुल्क या जुदी-जुदी आबो-हवा की ऐसी पैदावार बची है जो यहाँ नहीं उपज सकती केवल उपज ही नहीं वरन बहुतायत भी उसकी यहाँ हो जा सकती है। किंतु सरकारी लगान इतना अधिक है कि देश के लिए उसका आय का द्वार कहते मन सकुचाता है। इसलिए कि इस आय का जो कुछ सारांश या हीर है वह विलायत ढो जाता है केवल मेहनत का हक्क मात्र हमें बच रहता है। फिर भी इस समय जब आय के और-और द्वार बंद हैं केवल उपज अकेली बच रही जिससे इतना भी धन देश में देख पड़ता है। दूसरा आय वाणिज्य है सो उसमें पहले तो पूँजी इतनी न रह गई कि यूरोप और जापान की तिजारत के साथ हम Complete उतरा चढ़ी कर सकें किया भी चाहें तो धर्म आड़े आता है। यहाँ महाजन काल मनाने रहते हैं कि पंजाब का गल्ला दक्खिन पहुँचाएँ दक्खिन का बंगाल। ब्याज का परता फैलाते इतनी हिम्मत कहाँ कि बाहर कदम निकाल यहाँ की उपज दूसरे-दूसरे देशों में पहुँचाएँ और वहाँ का माल अपने यहाँ लाय जो फायदा विलायत के एजेंट उठा रहे हैं उसे हम खुद हासिल करें। रुई सन पेटुआ आदि कच्चा बाना हमसे खरीद विलायत के लोग उसका अठगुना हमसे भर लेते हैं। उस कच्चे बाने में भी डूटी और जहाज आदि का महसूल दे दिवाय रुपये में एक आना अधिक से अधिक दोअन्नी रुपये से ज्यादा हमें नहीं मिलता। दस्तकारी में कल की बनी चीजों के मुकाबले परता नहीं बैठता दूसरे अंगरेजी माल की चमक-दमक और सुथरापन के मुकाबले हाथ की बनी चीजें खुरदुरी और भद्दी जचती हैं। देश की पुरानी कारीगरी बिलकुल रद्दी हो गई, जितने पेशेवाले कारीगर थे सब अपना काम छोड़ बैठे उन्हें कोई पूछता नहीं, भूखों मरने लगे। दस्तकारी का भी जो कुछ आय था वह सब विलायत ने छीन लिया। बंगाल के टुकड़ा होने पर जो कुछ जोश फैला था वह चंदरोजा हो कर्मचारियों के दबाने से टाँय-टाँय फिस हो गया। खानिक द्रव्यों की आमदनी का भी यही हाल है ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसकी खान यहाँ न हो, सोने और हीरे तक की खान यहाँ है पर उसका फायदा भी विदेशी उठा रहे हैं। मैसूर में सोने की खान है पर हमें क्या उसका भी सार विदेशी खींचे लेते हैं। लोहे की खान इतनी अधिका हमारे यहाँ है कि कदाचित और देशों में न हों पर रेल इत्यादि में जितना लोहा लगता है सब विलायत से आता है। महाराणी का स्मरक चिन्ह जो हाल में यहाँ बना उसके लिए पत्थर भी इटली से मँगाया गया। अब रहा एक आय सरकारी नौकरी का उसमें दो सौ के ऊपर वाली नौकरी प्राय: विलायत के लोगों को मिलती है 15 या 20 की नौकरी जो पिसौनी है हमें दी जाती हैं। यह तो हमारे आय का हिसाब भया अब व्यय की ओर चलिए। आय के द्वार तो सब ओर से बंद हैं व्यय के द्वार चारों ओर से खुले हैं।
हमारे व्यय का क्या पूछना तैमूर महमूद गजनवी और नादिर के जमाने से अब तक यहाँ सिवाय व्यय के और होता क्या आया। संग्रह तथा आय तो हमने कभी जाना नहीं संचित पूँजी गा गवना अलबत्ता जानते हैं। सबके पहले धरती की मालगुजारी जो 55 या 60 सरकारी खजाने में जाता है 100 में 40 या 45 किसान तथा जमींदार के हाथ लगता है। मसल है 'बह बह मरैं बयलवा बैठे खांय तुरंग' उसी 40 खाने पहनने में खर्चें, नाक लाज में खर्च न करें तो समाज में मुँह दिखाने लायक न रहें, लड़की-लड़कों के ब्याह का खर्च, एक साल भी खेती न लगे तो मुँह बाय बैठे रहें। भाँति-भाँति के टैक्स का खर्च, सरकारी चंदे का खर्च, जो किसी न किसी बात के लिए साल में बहुधा कई बार उगाहा जाता है, कलक्टर साहब ने कहा कैसे इनकार किया जाय। सिवा इसके तोहफे नजर हर साल एक न एक कोई दरबार। अदालत में स्टांप और सरकारी रसूमों का खर्च, अदला-बदला, अभी हाल में कर्जन साहब चलती बार महाराजा बनारस को गन दे हाथी दाँत का 'फर्नीचर' मेज कुर्सी आदि बदले में ले गए। लड़कों के पढ़ाने में फीस का खर्च। चार आना लागत की किताब का एक रुपया दाम। सिवा इसके त्योहरों का खर्च। कोई महीना खाली नहीं जाता जिसमें कोई न कोई त्योहार न आ पड़ते हों जिसमें गृहस्थ का चूर ढीला हो जाता है। सोचने की बात है कि जहाँ आय का द्वार इतना संकुचित और व्यय का कोई हिसाब नहीं है उस देश का कल्याण और वहाँ के रहने वालों की बेहया जिंदगी का इतने पर भी ओर न हो यही अचरज है।