आय दिन रोॅ संघर्ष / धनन्जय मिश्र
संघर्ष तेॅ जीवन छै। बिना संघर्ष सें तेॅ दुनियाँ में कोनोॅ काज होय नै छै। है बात सभ्भैं जानै छै, मतरकि संघषोॅ के प्रति एतना बिरक्ति कैन्है? यहाँ सिनी भाव मनोॅ में आबी रहलोॅ छेलै कि भोरोॅ मंे पंछी चहकै के आवाज कानोॅ में पडतै हम्में धड़पड़ाय केॅ उठी गेलियै। लागै छेलै कि संघर्ष पर कोनोॅ सपना देखी रहलोॅ छेलियै, कैन्हें कि हिन्हें कुच्छु दिनों सें मेहमान नांकी जीवन रोॅ संघर्ष बढ़ी गेलोॅ रहै। है संघर्ष शारीरिक कम मानसिक बेसी रहै।
भोरोॅ में उठतै हि आकाशोॅ दिश नजर गेलै। आरू दिनों नांकी आजो आकाश मेघों सें डलमडल भरलोॅ रहै। हिन्हें कत्ते दिनों संे रही-रही वर्षा होय रहलोॅ रहै। है महिना चैतोॅ के अंतिम होय केॅ बैशाखोॅ के शुरूआत रहै। चैता फसल किसानों के कटी रहलोॅ रहै। सभ्भें किसान व्यस्त आरो आशंका के बीचों में जल्दी-जल्दी आपनोॅ पाकलोॅ फसलो के काटी रहलोॅ छेलै कि नै जानो अन्न घोॅर करै लेॅ पारबो की नै प्रकृतियो बिपरीत रहै। रोजे समाचार पत्रों में छपी रहलोॅ छेलै कि अमुख स्थानों में भारी वर्षा के साथें ओलावोॅ एतना पड़लै कि हौ स्थानों के चैता फसलोॅ बरबाद होय गेलै आरो कोढ़ में खाज है कि वर्षा के साथे ठनका मंे कत्ते नी आदमी आरू जानवरो मरी गेलै। है सुनी के सभ्भें किसान चिन्तित आरू मनझमान रहै। जे चैतोॅ बैसाखों के रौद लोगों के चिलमिलाय दै रहै, हौ रौदो में गुमस आरू अवसादो रोॅ गरमी रहै। जें किसानें हिम्मत करी केॅ आपनैय सें खेती करने छेलै होकरा तॅ आरू मरण रहै कि मजदूरों नै मिलै छै, हुनी फसल काटतै तॅ केना के काटतै। है सोचते-सोचते हम्में हाथोॅ में एकटा छड़ी लैकेॅ आपनो खेतोॅ दिस बढ़ी गेलीहै।
खेत जाय के बाटो में हमरे लगैइलो एकटा आम रोॅ बगीचा रहै। हौ बगीचा में आठ-दस आमों के गाछी में थोड़ो-बहुत आमों रहै। बगीचा के जोगबैया से कुछ गप-सप करी के आपनों खेत पहुँचलियै। दू बीघा खेतों में गेहूम रोॅ कटाई बड़ी मुश्किलों सें मिललो एक मात्रा मजदूर भुटकीके भरोसे होय रहलो रहै। हम्में देखलिए कि आवेॅ कटै लाॅ एक्के दस कट्ठा रोॅ खेत बचलोॅ रहै। हम्में भुटकी से बोललियै कि "हो बड़का गेहूम सें भरलो खेत एतना जल्दी केना कॅ कटी गेलौ।" "हम्में वर्षा पानी के दिन देखी के आपने से बिना पूछलै, काल पाँच-छौ महिला मजदूर लानी के नौ कुरी मंे एक कुरी मजदूरी के शत्तोॅ पर हौ बड़का खोतोॅ के गहूम कटवाय देली हौ।" "अच्छा करलौ, हम्में बोललियै फेरू बोललियै कि ' बचलो वोहो खेतोॅ रोॅ गहूम कटवाय देहूँ।" है बात हम्में बोली तॅ देलियै, मतरकि जबे काटलो गहूम रो खेत देखलियै ताॅ खेत देखी के मोॅन हाहाकार करी उठलै। खेतोॅ के र्दुदशा देखी के माॅन भरी ऐलै। साँसे खेतों में गहूम रोॅ बाली हिन्हें-हुन्हें छिरयैलो छेलै। लागै छेलै कि बाहरी महिला मजदूरें ने जल्दी-जल्दी गहूम काटै लेली है रंग खेतोॅ के दुर्दशा करी देने रहै। हम्में मोॅन मसोसी के रही गेलियै।
खेतों में हौ समय आरू कोय नै छेलै। खाली भुटकिये गहूम काटी रहलो छेलै। हम्में भुटकीसें कहलियै कि "आभी ताॅय आय हौ बचलो गहूम काटै लॅ हौ सिनि महिला मजदूर नै ऐलोॅ छै। भुटकी बोललै-, ' हौ सिनी महिला मजदूरें काल्हे बोली देने छेलै कि पहिने काटलो गहूम के दीनी (मजदूरी) दै देॅ, तबेॅ हौ बचलो गहूम काटभौ।" वैपर हम्में कहलियै "है कोनो बात होलै कि पहिने काटलो गहूम के दीनी दै दॅ तबेॅ बचलो गहूम काटभौ? है रंग नै होय छै। अरे जबे हौ सिनि हमरो गहूम काटैल लागलोॅ छै तॅ पहिने खेतों के पुरा गहूम काटी लाॅ, तबेॅ एकै बार आपनोॅ दीनी लै लिहो।" यै पर भुटकी कुछु नै बोललै। हम्में फेरू भुटकी से है बोली के घोॅर आबी गेलियै कि "तोहे जाय केॅ हौ सिनि महिला मजदूरोॅ के बोली दौ कि पहिने बचलोॅ गहूम के काटी लाॅ आरू तबे आपनो दीनी लै ला।"
हम्में घोॅर आबी के नास्ता करी के है बदली रहलो समय पर सोचिये रहलो छेलियै कि तखनियें मोबाइल बजी उठलै- "पापा" हमरोॅ बड़ो लड़का बबलु रोॅ आवाज छेलै, "हौ सिनि महिला मजदूर खेतों पर आबी के बोलैछौ कि कचिया ताॅ आनबे नै करलिहौ, केना कॅ गहूम काटभौ।" यै पर हम्में मोबाइलोॅ पर बोललियै कि "होकरा सिनि केॅ कही दौ कि घरोॅ सें कचिया लानी केॅ बचलो गहूम काटो तभिये दीनी मिलतौ।" मोॅन भिनभिनाय गेलै। सोचेॅ लागलियै कि जबेॅ गहूम कटाय में ही एतना दिक्कत छै तॅ थ्रेसरींग होय केॅ गहूम घोॅर आनै में आरू कि होतै भगवाने मालिक। मतरकि है बात नै छै कि फसल समेटै में सभ्भें किसानों केॅ है नांकि दिक्कत होय छै। जे बड़ों किसान साधन सम्पन्न (उन्नत कृषि उपकरण) छै, प्रकृति के मार हुनियों सहै छै मतरकि जीरो बरबादी पर फसल केॅ बच्चाइयौ लै छै। मरण ताॅ छै हमरा सिनि छोटका साधन हीन किसानों के आरू वै पर जें आपनैह से खेती करने छै।
दिन के एक बजी रहलो छै। घामें से घमजोर हमरोॅ बड़ोॅ लड़का बबलु हमरोॅ उपर बाला कमरा में आबी के बोललै-"पापा! आधो गहूम के खेत काटी के हौ सिनि महिला मजदूरें बोलै छौ कि है पुरा खेत हमरा सिनि नै काटेलॅ पारबौ, हमरा सिनि के आरू भी काम छै। तोहे खाना खाय के आबी के दीनी दै दॅ। पापा तहु खाना खाय के खेतोॅ पर अइहौ हम्में असकल्ला से दीनी दै में ओझराय जइबै।" है सुनी के हम्में काँपी गेलियै। है गुमसो आरू भितरिया रौदोॅ में, कम से कम दू-ढ़ाई घंटा खेतों में, हौ मजदूरों के दीनी दै के बीचो में, आरू बतकटरी के अबझब के संघषोॅ रोॅ कल्पना करी केॅ भीतर तक हिली गेलियै। मतुर जाना तेॅ छेवे करे। कोय उपाइयोॅ नै छै। है सोची केॅ हम्में बबलु से कहलियै-"तोहे ठीक्के कहै छोॅ। तोहे खाना खाय के जूना (रस्सी) लेली लरूवा लैकेॅ आगु बढ़ो हम्में पीछु सें आवै छिहौ। हौ अधकट्टो गहूम के खेतोॅ के तॅ आबेॅ भुटकी काटी लेतै।"
हम्में जबेॅ खाय के खेतोॅ पर पहुँचलियै तेॅ हौ सिनि महिला मजदूरेॅ में सें कोय बोझोॅ बान्है लेली जूना पकाय रहलि छेलै आरू कोय गहूम केॅ पंजियाय केॅ नौ कुरी लगाय रहलि छेलै। है देखी केॅ हम्में कहलियै कि "है रंग तोरा सिनि जे कुरी लगाय रहलि छौ, है ठीक नै छौ। है रंग कत्ते कुरी लगैभौ? होकरा सें अच्छा है होतै कि नौ बोझा बनाय लाॅ। हम्में बेसी सें बेसी है करभौ कि हौ नौ बोझा में जे बोझों बड़ों होतौ वहाँ तोरा सिनि के दीनी दै देभौ, आरू तोरा सिनि केॅ तॅ योहो सुविधा देने छिहौ कि बोझा के ताॅ ढोनै नै छौ, खेतैं में राखना छौ।" है सुनि के सभ्भें महिला मजदूरे आपनै में ही बतकटरी करै लागलै आरू कुरी लगैतै रहलै। कुरी लगाय के भी काटलो गहूम के है कुरी हमरो छेकै, हौ कुरी तोरो नै छेकौ कहि के खेतै में कोलाहल मचैने रहै। यै पर तोहे हल्का डाँट डपटों सें बेसी कुछछु नै करै लेॅ पारै छो कैन्हें कि हुनका सिनि महिला जे छेकै।
हौ सिनि बोझोॅ बनाय लाॅ यै लेली तैयार नै होलै कि बोझा में हमरा सिनि केॅ कम दीनी मिलतेॅ आरू कुरी में बेसी. कैन्हें कि अगर खेतोॅ में पाँच छौ जगह कुरी लगाय केॅ राखबै तॅ पाँच-छो बार दीनी मिलतै आरू कुरीयों एन्हो लगड़तै कि नौ कुरी में आठ कुरी हल्का से उच्चो करी के राखतै आरू नौमाॅ कुरी खेतोॅ के गहिरा भागो में दाबी-दाबी के आपनो दीनी लेली चार पाँच गुणा बेसी है सोची के राखतै कि खेतोॅ के किसानों गर गोस्साय के भी आधो दीनि खोली लेतै तॅ तइयो है आठ भागो में से एक भागो के मात्रा से दोबर तेबर गुणा तॅ मिलनैह छै। कहै के मतलब है छै कि हौ अनपढ़, अप्रशिक्षित, आरू लोभी महिला मजदूरोॅ के है सोच छै कि आपनोॅ परिश्रम से जत्ते बेसी मजदूरी (दीनि) होॅय लाॅ सके लै लेलोॅ जाय। वै पर गर किसान कुछछु बोलय छै तॅ बकझक आरू कोलाहल अलगे। "लाचारी में बेचारी आरू दालोॅ में खेसाड़ी" के तॅ डाकै कहने छै। सब काम सलटाय के है रंग मानसिक आरू शारीरिक परेशानी से थकलोॅ-चुरलोॅ खेतों सें आबी के गाँवोॅ के दुआरी पर ताश के मजमोॅ में हम्मु शरीक होय केॅ मोॅन बटारे लागलियै।
साँझो रोॅ समय रहै। वै बक्ती हम्में बड़ों भाय आरू दोस्तोॅ के साथें टहलैलेॅ नहरोॅ पर गेलो रहियै। गुमसों आवे कुछछु कमलो रहै, कैन्हे कि पुरवैया साथें उतरंगोॅ हवा बही रहलो रहै। आमोॅ गाछी पर कोयलों कुहकी रहलि रहै जेकरा से मनोॅ में शांति रहै। टहली के घुरला पर आरू दिनों नांकि हम्में गाँव के हृदय स्थली में बिराजमान काली मंदिर के प्रांगण में जाय के सभ्भें देवी देवता के प्रणाम करी के घोॅर ऐलियै। हमरो गामोॅ के है परम्परा छै कि सुबह आरू शाम है मंदिर प्रांगण में गामोॅ के प्रायः सभ्भें जनाना मरदाना आबी केॅ माता के दरबार में आपनोॅ हाजरी लगावै छै जे अच्छा लागै छै। हम्में आपनोॅ उपर वाला कमरा में जाय केॅ आय को अखबार पढ़ी रहलोॅ छेलियै कि तखनियेॅ है हमरा आभाष होलै कि नीचे आँगना में कुछछु शोर गुल होय रहलोॅ छै। तखनियें हमरो छोटका पुत्रा 'तरूणे' नीचें सें आवाज देलकै कि पापा नीचे आवो नी, तोरो कत्ते नी दोस्त आँगना में खाडोॅ छौ, आरू तोरा खोजी रहलो छौ। "
कोय भी परिश्रम रोॅ बाद कम से कम हमरा तॅ अखबार पढ़ै में बेसी मोॅन लागै छै। लागै छै कि हौ समय केॅ हम्में जीवि रहलो छियै। हम्में नीचे आवी के देखलियै बात सच्चे रहै। हमरो पाँच दोस्त क्रमशः परमानन्द ठाकुर (सेवानिवृत शिक्षक) , हरेन्द्र झा (ग्रामीण चिकित्सक) , मनमोहन झा (आ॰प्र॰ उषा मार्टिन सेवा निवृत) , भैरव मिश्र आरू शिव कुमार ठाकुर (सेवानिवृत दरोगा) कुर्सी पर विराजमान रहै। दुआ सलाम होलै। आँखो-आँखोॅ सेॅ बात होलै, आरू दरोगा साहेब के फरमान होलै। "मित्रा धनन्जय जी, तोरा एखनी हमरा सिनि साथै बाहर चलना छौ।" हम्में आवक! हम्में आरू दोस्तों सें यही विषय पर सवाल करलियै कि "कि बात छै। है अन्हरिया राती में कहाँ जाना छै।" दोस्तौ ने वहा जवाब देलकै कि तोरा हमरा साथे चलना छै। रहस्य गहराय लागलै मतुर दरोगा जी रोॅ चेहरा पर मुस्कान छेलै। हिनी वहा दरोगा रहै जें आपनो पटना प्रवास रोॅ सेवा काल में आपनों साहसिक कारनामा से माधुरी सत्य कथा विशेषांक पत्रिका में आपनों उपस्थिति धमाकेदार से दर्ज करैनें छेलै। हम्में कहलियै "ठीक्के छै, चलना ताॅ छेवे करै, तोरो फरमान केॅ उठाय पारेॅ। तोरा सिनि कम सें कम यहाँ चाय-पान ताॅ करी लाॅ।" सहमति होलै। यहीं बीचों में हमरो पोती नन्ही 'तनिशा' आपनो तोतली मिट्ठो बोली सें सभ्भें दादा जी सें घुली मिली गेलै आरू दू-तीन कवितो सुनैलकै। चाय-पान रोॅ बाद हम्में हाथों में टार्च लैके हौ रहस्यों के बीचों में सभ्भें दोस्तों साथे बाहर निकली गेलियै।
रात अन्हरिया रहै। रास्ता में वर्षा कारणे हिन्हे-हुन्हे पानी आरू किचड़ों रहै। दरोगा जी आगु-आगु हमरा सिनि पीछु-पीछु। रास्ता में हमरोॅ पिता जी स्वॉ सहदेव मिसर रोॅ बंगला पड़ै रहै। वै बंगला पर पाँच-छो आदमी बैठलो रहै। वै सिनि के बीचों में हमरा सिनि के जैतें देखी केॅ गप्पो रोॅ रफ्तार ते कुछछु कम होलै, मतुर हमरा सिनि के रफ्तार कुछछुबो नै कम होलै आरू हमरा सिनि दरोगा जी के घोॅर पहुंची गेलियै। बाहर सें दरोगा जी आवाज देलकै, "कुर्सी निकालो।" कुर्सी ऐलै। हमरा सिनि जबे कुर्सी पर बैठी गेलियै तबे हौ रहस्यों से परदा हटलै। मालुम होलै कि आय दरोगा जी रोॅ शादी के ३७वाँ सालगिरह छेकै। अचानक सालगिरह के मनाय लेली ही है रहस्य राखलो गेलो छेलै। तबे कि! हमरा सिनि मित्रो रोॅ शादी के सालगिरह पर हसी-खुशी रोॅ बीचों में हुनका मुवारक बाद देलियै, कत्ते रंग के गप्पों होलै, रंगीन पेय के साथें मिट्ठो प्लेटो खैलियै, आरू घोॅर जाय के रास्ता में है याद आवी गेलै कि कोय ठीक्के कहने रहै कि "संघषोॅ रोॅ बादे ही कोनों मिट्ठो फाॅल मिलै छै।"