आरक्षण पर ताकतवर समुदायों की जकड़ / धीरूभाई शेठ
राजस्थान सरकार और गुज्जर समुदाय के बीच समझौता हो जाने या विवाद को केन्द्र सरकार के माथे टालने का मतलब यह नहीं समझा जाना चाहिए कि आरक्षण विवाद से संबंधित इस तरह की समस्याएँ अब पैदा नहीं होगी। आरक्षण नीति का मौजूदा स्वरूप, उसके कार्यान्वयन की शैली और समुदायों के वोट बटोरने के लिए किया जाने वाला निष्ठुर राजनीतिक खेल अगर यूँ ही चलता रहा तो राजस्थान ही नहीं, बल्कि देश के विभिन्न भागों में ऐसे ही विस्फोटक आंदोलन और उनके नतीजे में जाति-संघर्ष के हालात बनते रहेंगे। इसकी मुख्य वजह यह है कि कल तक वास्तव में पिछड़े हुए कई समुदाय आज पिछड़े नहीं रह गए हैं, और उनकी वजह से, प्रावधान होते हुए भी कई अति-पिछड़े समुदायों तक आरक्षण का लाभ नहीं पहुँच पा रहा है। इससे उनमें वंचित होने का एहसास पैदा होता है।
आखिर राजस्थान के गुज्जरों को आंदोलन पर क्यों उतरना पड़ा? अगर विधानसभा के चुनावों में जाटों के वोट लेने के लिए प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पहल पर उन्हें राजस्थान से संबंधित पिछड़े वर्गों की केंन्द्रीय सूची में न शामिल किया गया होता और गुज्जरों को मिलने वाले आरक्षण के फायदे ताकतवर जाट समुदाय ने न हड़प लिए होते, तो शायद गुज्जरों की तरफ से अनुसूचित जनजाति में शामिल किए जाने की माँग इतना जोर न पकड़ती। इसके दो साल बाद अगर लोकसभा चुनावों में वोट पाने के लिए मुख्यमंत्री ने गुज्जरों की इस माँग पर व्यक्तिगत स्तर पर ध्यान देने का आश्वासन न दिया होता, तो कर्नल बैंसला और उनके बिरादरी वालों को अपनी माँग पर अड़ने का नैतिक आधार न मिलता। वोट की इस राजनीति का परिणाम यह निकला कि सामाजिक स्तर पर जाट, मीणा और गुज्जर समुदायों का आपसी नफरत का त्रिकोण बन गया। मीणाओं को लगा कि अगर गुज्जर भी जनजाति मान लिए गए तो वे भी आरक्षण के फायदों में हिस्सेदारी करने लगेंगे। जाटों का दाँव यह था कि अगर गुज्जर पिछड़ा वर्ग सूची से हटकर जनजाति सूची में चले जाएंगे, तो ओबीसी को मिलने वाले सभी फायदों में उनका हिस्सा बढ़ जाएगा। आरक्षण के साथ किए जाने वाले इस तरह के खेल की मिसाल केवल राजस्थान में ही नहीं मिलती। दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्री भी मुसलमानों समेत विभिन्न जाति समुदायों को अनुचित रूप से आरक्षण देने का वायदा कर चुके हैं। उन्होंने इस बात की कोई परवाह नहीं की है कि उनके फ़ैसले न तो नीतिगत कसौटी पर खरे उतरेंगे और न ही अदालत में टिक पाएँगे।
इस तरह के रवैये से दो तरह के गंभीर नुकसान हो रहे हैं। पहला नुकसान यह है कि इस तरह के विवादों के कारण आरक्षण का सिद्धांत अनावश्यक रूप से सवालों के घेरे में आने लगता है। हिंसा और जाति संघर्ष के परिदृश्य उभरते ही आरक्षण पर पुनर्विचार की मांग उठने लगती है। जबकि, किसी भी कोण से यह मसला आरक्षण सिंद्धात की खामियों का नहीं है। यह समस्या एक मायने में गैर-द्विज लेकिन रंग-रूतबे वाली ताकतवर जातियों द्वारा आरक्षण के दायरे में की गई घुसपैठ का परिणाम है। राजनीतिक रूप से नौसिखुआ व्यक्ति भी बता सकता है कि राजस्थान के जाटों को आरक्षण नहीं मिलना चाहिए था। इसी तरह दक्षिण भारत की कई जातियाँ इतनी विकसित हो चुकी हैं कि सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ी नहीं रह गई हैं। आरक्षण के फायदों की उन्हें कोई जरूरत नहीं है। दूसरी तरफ, साधन संपन्न और पढ़ी-लिखी मुसलमान जातियाँ अल्पसंख्यकों के पिछड़ेपन के नाम पर आरक्षण पाने की कोशिशों में लगी हुई हैं, जबकि मुसलमानों में पसमांदा यानी पिछड़ों को पहले से ही आरक्षण का प्रावधान है। दूसरा नुकसान यह है कि आरक्षण के जरिए प्रगति के अवसरों को हड़पने की इस होड़ ने हमारी लोकतांत्रिक चुनावी राजनीति को अलोकतांत्रिक रुझानों से ग्रस्त कर दिया है। इसके कारण झूठे-सच्चे आवश्वासन दिए जाते हैं। और अंतत: समाज को तनावग्रस्त होना पड़ता है। बिरादरियों के बीच का भाई-चारा खत्म होता है। गुज्जरों को दिया गया आश्वासन तो एक उदाहरण है, मुसलमानों को धर्म-आधारित आरक्षण देने के अध्यादेश तक जारी किए जा चुके हैं। हिंदू समाज की संरचना की जानकारी रखने वाला कोई भी प्रेक्षक जानता है कि प्रजापतियों (कुम्हारों) को समाज में अछूत या दलित नहीं माना जाता। लेकिन, पिछले दिनों उन्हें भी अनुसूचित जाति का दर्जा देने का प्रयास किया जा चुका है।
असली समस्या यह है कि समाज में पहले से ताकतवर बने बैठे समुदायों के मुँह में आरक्षण का चस्का लग गया है। सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े समुदायों को राष्ट्रीय जीवन की मुख्यधारा में लाने के लिए बनाए गए इस लोक-कल्याणकारी प्रावधान को इनके शिकंजे से निकालने की जरूरत है। ध्यान रहे कि ये समुदाय सत्ता प्रतिष्ठान में महत्त्वपूर्ण स्थानों पर बैठे हुए हैं, इसलिए इनकी पूरी कोशिश होती है कि उन्हें आरक्षण के लाभों से वंचित करने का आधार प्रदान करने वाले आँकड़े और हकीकतों को सामने न आने दिया जाए। यही कारण है कि आज तक राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग अति-पिछड़ों की शिनाख्त करने की नीति नहीं बना पाया है। इंदिरा साहनी के मुकदमें पर आया सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला प्रगति कर चुके समुदायों को आरक्षण के दायरे से निकालने के बारे में है पर सत्ता प्रतिष्ठान न तो यह करने के लिए तैयार है और न ही अति-पिछड़ों को एक श्रेणी के रूप में चिह्नित करने की राष्ट्रीय नीति बनाना चाहता है। जैसे ही अति पिछड़ों (एमबीसी) की शिनाख्त होगी, आरक्षण की प्राथमिकता का रुझान उनकी तरफ होगा, वैसे ही ताकतवर जाट, वोक्कलिगा, लिंगायत, रेड्डी, कम्मा, कापु, एड़पा आदि को आरक्षण के फायदे पर एकाधिकार करने की सुविधा नहीं रह जाएगी।
आज अगर अति-पिछड़ों की विधिवत श्रेणी होती, तो गुज्जरों को वह आश्वासन आराम से दिया जा सकता था कि उन्हें अति-पिछड़ा का दर्जा देकर आरक्षण में प्राथमिकता दी जाएगी। तब, राजस्थान में गुज्जरों, मीणाओं और जाटों का ऐसा त्रिकोण न बनता। ध्यान रहे कि आरक्षण से संबंधित विवादों के कारण जो थोड़ी-बहुत हिंसा हुई है, उसे हमें गनीमत मानना चाहिए। वरना, हमारा समाज जिस तरह की ऊँच-नीच से ग्रस्त था, उसमें आधुनिकता के कारण पैदा हुए समतामूलक दबावों से बहुत बड़े पैमाने पर हिंसा की नौबत आ सकती थी। आरक्षण नीति ने इस समाज को बचा लिया है। अब अगर आरक्षण को उसकी राजनीति और कार्यान्वयन में की जाने वाली चालबाजियों से बचाना है तो राष्ट्रीय स्तर पर अति-पिछड़ों की श्रेणी बनानी ही होगी।
सामाजिक-आर्थिक रूप से स्थापित अभिजनों की तरफ से आरक्षण नीति की वैधता और उपयोगिता पर सवाल उठाए जा रहे हैं और राजनीतिक ताकतें इस नीति का लाभ उठाकर अपनी गोटी लाल करने की फिराक में हैं। एक तरफ मेरिट के नाम पर आरक्षण को प्रगति-विरोधी विचार के रूप में पेश किया जा रहा है, दूसरी ओर यह राजनीतिक दाँव है जो समान अवसरों और समान नागरिकता की संभावनाएँ साकार करने के बजाय ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक फायदे हड़पने के चक्कर में है। राजनीतिक ताकतें अपने संकीर्ण लोकलुभावनवादी स्वार्थों के चलते आरक्षण को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी की तरह इस्तेमाल कर रही हैं, जबकि उन्हें चाहिए यह था कि वे इस नीति का कार्यान्वयन कुछ इस तरह करतीं कि आगे चलकर इस नीति की जरूरत ही नहीं रह जाती।
आरक्षण के मुद्दे को इस दुष्चक्र से निकालने के लिए जरूरी है कि पहले उसके बारे में नए सिरे से स्पष्टता हासिल की जाए। यह इसलिए भी जरूरी है कि आरक्षण लागू करने वाले और उसका विरोध करने वाले अपनी-अपनी सुविधा के लिए इस नीति को गलत व्याख्याओं के कुहासे में ढँक देना चाहते हैं। सबसे पहली और समझने वाली जरूरी बात तो यह है कि दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षण के प्रावधान संविधान में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण से अलग हैं। इसका कारण इन श्रेणियों की भिन्न-भिन्न सामाजिक स्थिति है। अनुसूचित जातियाँ और जनजातियाँ समाज में अल्पसंख्यक हैं और उनकी हाशियाग्रस्त जिंदगी के कारण उनकी शिनाख्त करना आसान है। उन्हें दिए जाने वाले आरक्षण पर कोई खास विवाद भी नहीं है। समाज में आम सहमति हैं कि उन्हें शिक्षा और नौकरियों में अलग से विशेष प्रोत्साहन दिए जाने चाहिए। आईआईटी और आई आई एम संस्थानों में उन्हें पहले से आरक्षण मिल रहा है। इसके विपरीत अन्य पिछड़े वर्ग संख्यात्मक लिहाज से समाज के बहुसंख्यक तबके का निर्माण करते हैं। उनकी स्थिति दलितों और आदिवासियों की तरह एकसार भी नहीं है। उनमें दलितों से भी गई-गुजरी हालत वाले तबके भी हैं। और ऐसे तबके भी हैं जिनकी हैसियत द्विजों से भी बेहतर है। इसीलिए संविधान ने उनके लिए ‘सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े’ होने की शर्त लगाकर आरक्षण दिया है। साथ ही, संविधान ने यह भी साफ किया है कि जहाँ उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व न हो, वहाँ उन्हें नुमाइंदगी देने का बंदोबस्त किया जाए। ध्यान रहे कि संविधान ने उन्हें उनके संख्याबल के अनुपात में प्रतिनिधित्व देने का नहीं बल्कि ‘पर्याप्त’ प्रतिनिधित्व का प्रावधान किया है। चूँकि अन्य पिछड़े वर्गों से संबंधित इस नीति का कार्यान्वयन राज्यों की मंशा पर छोड़ दिया गया था इसलिए कुछ राज्यों में, खासकर दक्षिण भारत में पिछड़ों को आजादी के बाद से ही आरक्षण मिला हुआ है और कुछ राज्यों में, खासकर उत्तर भारत में इस नीति पर कार्यान्वयन का इतिहास पंद्रह साल पुराना ही है। लगातार आरक्षण के कारण दक्षिण के कई पिछड़े समुदाय (जैसे-एड़वा, रेड्डी, कम्मा, लिंगायत, वोक्कलिगा,कापू आदि) आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक नजरिए से बहुत आगे बढ़ चुके हैं। समाज में उन्हें तकरीबन ऊँची जातियों जैसी ही प्रतिष्ठा और रंग-रुतबा हासिल हो चुका है। इसी तरह उत्तर भारत के कुछ पिछड़े समुदाय लोकतांत्रिक राजनीति की गहनता और विस्तार के कारण राजनीतिक सबलीकरण की प्रक्रिया से गुजर चुके हैं। विभिन्न कारणों से उनके भीतर एक मलाईदार तबका उभर आया है लेकिन इसके बावजूद समुदायगत रूप से वे अभी तक सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ी समझी जाने वाली संविधानसम्मत श्रेणी में ही आते हैं। जाहिर है कि इन कारणों से आरक्षण नीति के कार्यान्वयन पर एक नयी निगाह डालने की जरूरत सामने आ जाती है।
आरक्षण की नीति का यह पुनरीक्षण उसकी बुनियादी सामाजिक उपयोगिता को पूरी मान्यता देकर ही किया जाना चाहिए। दरअसल, पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा अपने पिछले दस साल से ज्यादा के कार्यकाल के दौरान इस काम को अभी तक अंजाम दे दिया जाना चाहिए था। आयोग द्वारा अभी तक उन समुदायों की सूची बन जानी चाहिए थी जिन्हें सामाजिक प्रगति के पर्याप्त अवसर मिल चुके हैं, और जो अब आरक्षण के लाभ पाने लायक ‘पिछड़े’ नहीं रह गए हैं। लेकिन पिछड़ा वर्ग आयोग अपनी यह जिम्मेदारी निभाने में कामयाब नहीं हो सका है। दूसरे, पिछड़ा वर्ग आयोग आरक्षण पा रहे समुदायों को ऊपरी और निचले हिस्सों में विभाजित भी नहीं कर पाया है। ऊपरी हिस्से में वे समुदाय आते हैं, जो धीरे-धीरे आरक्षण की जरूरत से परे जाने की प्रक्रिया में बहुत आगे बढ़ चुके हैं। और निचले हिस्से में वे समुदाय आते हैं जिन्हें अभी आरक्षण की बहुत दिनों तक जरूरत पड़ती रहेगी। अगर पिछड़ा वर्ग आयोग जैसी संस्था के प्रयासों से यह तस्वीर साफ हो जाए तो एक महत्वपूर्ण और दूरगामी महत्व वाली सार्वजनिक नीति के रूप में पिछड़े वर्ग को मिलने वाले आरक्षण से जुड़े कई विवाद साफ हो सकते हैं।
मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह जब कहते हैं कि आरक्षण लागू करके वे संविधान के प्रावधानों का ही पालन कर रहे हैं तो उनकी बात का यह पहलू समर्थन के काबिल होता है। पर उनसे यह भी पूछा जाना चाहिए कि सरकार पिछड़ा वर्ग आयोग को उसकी ये जिम्मेदारियाँ पूरी करने का निर्देश क्यों नहीं देती जिनके तहत पिछड़े नहीं रह गए समुदाय आरक्षण की सूची से निकलने चाहिए। इसे सुनिश्चित करवाना भी सरकार का ही कर्तव्य है। दूसरी तरफ आरक्षण विरोधियों का पाखंड और छल इतना नंगा हो चुका है कि उसे अंधा भी देख सकता है। पहले जब नौकरियों में आरक्षण दिया गया था। तो उनका तर्क था कि इसके बजाय पिछड़ों को शिक्षा में प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। आज जब उन्हें शिक्षा में प्रोत्साहन का प्रस्ताव रखा जा रहा है, तो पहले दिए जाने वाले इस तर्क को पूरी तरह भुला दिया गया है। आरक्षण विरोधी पैरोकार आईआईटी और आईआईएम की साख के साथ देशकी साख जोड़ते हैं, पर वे बहुत सुविधाजनक तरीके से भारतीय सामाजिक यथार्थ के उन पहलुओं की तरफ से आँखें बंद कर लेते हैं जिनके तहत जातिगत विभेद समाज के बहुत बड़े हिस्से को समान नागरिकता के अधिकारों का उपभोग करने लायक ही नहीं छोड़ते। ऐसे आरक्षण विरोधी तो इतने दृष्टिहीन हैं कि सिर पर मैला ढोने वाली कुप्रथा की तरफ से भी आँखें बंद कर लेते हैं, जैसे कि इस प्रथा से देश की साख अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहतर हो रही हो। अभी विचार के लिए बड़ा सवाल यह है कि जाति प्रथा और राजनीतिक प्रक्रिया के बीच अन्योन्य क्रिया को कैसे समझा जाए? यह मसला बड़ा विवादग्रस्त है। लगता है कि माक्र्स और वेबर के बीच हुई लड़ाई भारत के समाज वैज्ञानिकों के बीच आज तक लड़ी जा रही है। माक्र्स की मान्यता थी कि उद्योगीकरण जैसे-जैसे कदम बढ़ाएगा, वैसे-वैसे जाति प्रथा तिरोहित होती जाएगी और वर्ग आधारित व्यवस्था उसकी जगह लेती चली जाएगी। इसके उलट वेबर का तर्क था कि जाति प्रथा ‘पूँजीवाद’ के उदय के ही खिलाफ है। वह आधुनिक राजतंत्र के विकास के लिए जरूरी विधिक और बुद्धिवादी मानकों की राह में हमेशा ही रोड़ा बनी रहेगी।
पश्चिमी शिक्षा-दीक्षा प्राप्त भारत के बौद्धिक और राजनीतिक अभिजनों के ‘सुधारवादी’ नजरिए ने भी समस्या के इस सूत्रीकरण को बल प्रदान किया है। हमारे अभिजनों में बहस इस बात पर होती रही है कि क्या एक जातिग्रस्त समाज लोकतांत्रिक स्व-शासन के लायक माना जा सकता है? अर्थात क्या जाति प्रथा के आधार पर खड़ी पारंपरिक सामाजिक संरचना को जड़ से उखाड़े बिना आधुनिक राजनीतिक संस्थाएं लोकतांत्रिक कामकाज कर सकती हैं? उन्नीसवीं सदी के आखिरी दौर में समाज सुधारकों और राजनेताओं के बीच हुई बहस में यह प्रश्न सबसे पहले उठा था। समाज सुधारक चाहते थे कि राजनीतिक लोकतंत्र लाने से पहले जाति प्रथा की सामाजिक बुराई खत्म की जानी चाहिए।
लेकिन हम पाते हैं कि लोकतांत्रिक राजनीति में लोगों की भागीदारी बढ़ते जाने के साथ ही जाति का राजनीतिकरण एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। जो समूह और समुदाय अभी तक सत्ता के ढांचे, ज्ञान की प्रणालियाँ और मंशा चुनने की आजादी से वंचित रहे हैं उनमें यह प्रक्रिया खास तौर पर चली है। तथाकथित जातिवादी राजनीति ने समान प्रकार की वेदना झेलने वाले, समाज में एक जैसी कमजोर स्थिति में रखे गए और एक तरह के पेशे वाली जातियों को साथ लाने का काम भी किया है। यह एक दोहरी प्रक्रिया है जिसके जरिए अनेक जातियों ने अपनी बृहत्तर पहचान बनाई है और अपने साझे हितों को आगे बढ़ाया है। इस प्रकार जाति के राजनीतिकरण से जाति का ऊँच-नीच का ढांचा कमजोर हुआ है जबकि दूसरी ओर विभिन्न समुदायों में सत्ता संभालने के लिए तीखी प्रतिद्वंदिता अभी है और यह सब राजनैतिक समानता के लोकतांत्रिक सिद्धांतों के दायरे में हो रहा है।
यह सब ऐसी स्थिति में हो रहा है जब आरक्षण नीति के तहत बहुत स्पष्ट तय लक्ष्य भी हासिल नहीं किए जाते। संसद-विधान सभाओं की आरक्षित सीटों को भरना तो अनिवार्यता है पर ऊँची सरकारी नौकरियों में तय कोटा अभी भी पूरा नहीं भरता- इस नीति के तहत लाभ पाने की क्षमता अर्थात न्यूनतम शैक्षिक योग्यता भी इन श्रेणियों के काफी कम ही लोग हासिल कर पाते हैं। आरक्षण के साथ योग्यता के लिए जो अन्य उपाय सुझाए गए हैं उन पर और भी कम ध्यान दिया गया है। इन सबके बावजूद इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि आरक्षण से अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जन जातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लोगों का लाभ हुआ है। ऊपर उठने की उनकी आकांक्षाओं को जगाने का एक ठोस आधार प्रदान करके इनके बीच साक्षरता और जीवन स्तर को ऊपर उठाने की प्रेरणा दी है और इसके नतीजे भी निकले हैं। दक्षिण और पश्चिम भारत में इस नीति को ज्यादा प्रभावी ढंग से लागू किया गया है, सो वहाँ दलितों और पिछडों का शैक्षिक और पेशागत रिकार्ड ज्यादा सुधरा है।
आज सकारात्मक कार्रवाई की नीति को जारी रखने और मजबूत करने की जरूरत पहले से भी कहीं अधिक है। जब अर्थव्यवस्था सरकारी नियंत्रण से मुक्त हुई है तब सरकार को इस बात का ज्यादा ख़याल रखने की जरूरत है कि समाज के कमजोर और पिछड़े हिस्से बाजार की मारकाट में परेशान न हों, अर्थव्यवस्था के विस्तार में उनकी भागीदारी हो और उन्हें भी इसका लाभ मिले।
बाजार समानता का काम करें इसके लिए जरूरी है कि सरकार अपनी भूमिका का ज्यादा अच्छी तरह निर्वाह करे—सबके लिए समान अवसर उपलब्ध कराए और जहाँ ऐसा न हो उसकी व्यवस्था करें। यह करने के लिए सकारात्मक कार्रवाई सबसे अच्छा उपकरण है। ऐसी नीति प्रभावी हो इसके लिए सरकार को बाजार अर्थव्यवस्था और नागरिक समाज, दोनों के ही हाशिए पर रहने वाले अपने नागरिकों को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए ज्यादा सचेत-सक्रिय होना होगा। इन्हीं बातों के संदर्भ में सकारात्मक कार्रवाई वाली नीतियों में नए बदलाव करने की जरूरत है।
आरक्षण का लाभ पाकर सबल हो चुके समुदायों को इसके दायरे से बाहर करने की नीति उपयोगी होगी पर इसके पहले इस बात का सावधानी से अध्ययन करना जरूरी है कि उस समुदाय के लोग किस सीमा तक सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन से उबर गए हैं। इससे उन अति पिछड़े समुदायों को लाभ होगा जिन्हें नियम के हिसाब से तो आरक्षण मिलना चाहिए, पर जिन्हें वास्तव में कोई लाभ नहीं मिल पाता। आरक्षण का ज्यादा बड़ा हिस्सा आमतौर पर एक या दो छोटे समूह उठा लेते हैं जो इन समूहों के बीच से उभर आए हैं। एक और बात मलाईदार तबके के बारे में है। जब तक सार्वजनिक तौर पर दलितों के अपमान और दमन की घटनाएँ एकदम समाप्त नहीं हो जातीं तब तक उनके बीच से मलाईदार तबके को निकालने की बात नहीं होनी चाहिए। आदिवासियों पर भी यही बात लागू होनी चाहिए।
ऊँची जाति के गरीब और ‘पिछड़े’ परिवारों तक प्रत्यक्ष पहुँचने वाले विकास और प्रोत्साहन के कुछ खास कदम उठाए जाने चाहिए। दूर दराज के गांव में रहने और अनपढ़ माँ-बाप, गरीब परिवार का होने के चलते ऐसे बच्चों को सामान्य प्रतिद्वंदिता में मुश्किलें आती हैं। गांवों में न पढ़ाई का ठीक इंतजाम होता है, न स्वास्थ्य का। इन कदमों को न तो आरक्षण मानना चाहिए, न आरक्षण से जोड़ना चाहिए। सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़े और वंचित लोगों के लिए सकारात्मक कार्रवाई के तहत बनी नीतियों का आधार एकदम अलग है।
निजी क्षेत्र की नियुक्ति नीति में बदलाव करके उसमें विविधता के सिद्धांत का समावेश करने की जरूरत है। यह बात आज स्वीकार की जाने लगी है कि एक ही जगह पर अलग-अलग सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के लोगों का काम करना न सिर्फ़ प्रबंधन की दृष्टि से अच्छा होता है, बल्कि कंपनी के लिए भी लाभकर रहता है। व्यापार और संगठित क्षेत्र के लिए सामान्य तौर पर उनके यहाँ काम न करने वाले सांस्कृतिक समूहों के लोगों को लाने का विशेष प्रयास करना इस नीति का हिस्सा होना चाहिए।