आराम में भी राम. . . / कुँवर दिनेश
प्रभु राम में अपनी पूरी आस्था है; लेकिन जब ऐसे लोगों को फलते-फूलते देखता हूँ जो हराम की खाते-पीते हैं, तो कदाचित् यह सोचने को मजबूर- सा हो जाता हूँ कि क्या ऐसे लोगों के सिर पर भी राम का वरदहस्त रहता है?
प्रोफ़ेसर रामभरोसे जब मरेंगे तो उनके चित्र पर माला चढ़ाई जाएगी, इस बात को याद करने के लिए कि ये एक मात्र ऐसे प्रोफ़ेसर थे जिन्हें कुछ भी न करने के लिए तनख़्वाह मिलती थी। प्रोफ़ेसर रामभरोसे का रिकॉर्ड है वे कभी क्लास में पढ़ाने को नहीं गए। साल में एक या दो बार ही क्लास में जाते हैं, बस छात्रों को अपनी जीवन-शैली के बारे में कुछ बातें बताने के लिए और कॉलेज-लाइफ़ सम्बन्धी हिदायतें देने के लिए।
कई बार तो कुछ छात्र एकत्र हो उनकी शिकायत लेकर प्राचार्य के पास पहुँचे। प्रोफ़ेसर भी प्राचार्य के पास ही मौजूद थे, जैसा कि वे अक्सर किया करते थे। इस सम्बन्ध में वे कहा करते, "नियर टू चेयर, नियर टू ग़ॉड" यानी जो कुर्सी के नज़दीक़, वह ईश्वर के नज़दीक़। छात्रों ने प्राचार्य को बताया कि बहुत दिन हुए उनकी इतिहास विषय की कोई क्लास नहीं लगी है। प्राचार्य ने पूछा कि कौन प्रोफ़ेसर पढ़ाते हैं? वे बोले यह भी तो मालूम नहीं कि टीचर कौन हैं? उनका नाम भी तो मालूम नहीं।
प्राचार्य ने प्रोफ़ेसर रामभरोसे से पूछा कहीं यह क्लास उनकी तो नहीं? टाईमटेबल की जाँच के बाद मालूम हुआ, यह क्लास प्रोफ़ेसर रामभरोसे की ही थी। बहुत क़रीबी होने की वजह से प्रोफ़ेसर से प्राचार्य ने कुछ अधिक नहीं बस इतना ही आग्रह किया कि वे ज़रा छात्रों की जिज्ञासा को शान्त कर दें।
प्रोफ़ेसर रामभरोसे को प्राचार्य की बात रखने के लिए उस दिन क्लास में जाना पड़ा। क्लास में जाते ही उनका प्रवचन शुरू हुआ — "देखो भाई लोगों, स्कूल की पढ़ाई और कॉलेज की पढ़ाई में बहुत फ़र्क़ होता है। कॉलेज होता है एक्सपोज़र लेने के लिए। बंद कमरे की पढ़ाई से एक्सपोज़र नहीं मिल सकता। किताबी कीड़े बने रहोगे तो आज के समाज की, देश की वास्तविकताओं से रूबरू कैसे हो पाओगे? अब बड़े हो गए हो, समाज की हक़ीक़तों को समझो, प्रैक्टिकल बनो, और देश की समस्याओं को सुलझाने में अपना योगदान दो। इसलिए घूमो, फिरो और बाहर की दुनिया की भी सुध लो। एक्सपोज़र मिलेगा, तो तुम्हारा व्यक्तित्व और निखरेगा; जीवन के संघर्ष को जानोगे तो कभी हालात से हारोगे नहीं . . . और जहाँ तक इतिहास विषय का प्रश्न है, तो भला यह भी कोई पढ़ने-पढ़ाने का विषय है? बस पढ़ जाओ इतिहास की किताब को कहानी की तरह और जिन्हें ज़्यादा विस्तार और गहराई में विषय की जानकारी चाहिए वे छात्र मैडम संतोष की क्लास में जा सकते हैं। और बाक़ी छात्र वार्षिक परीक्षा के दस दिन पूर्व आकर मुझसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न नोट कर लेना. . .।" चूँकि प्रश्न-पत्र बनाने वालों की सूची में भी प्रोफ़ेसर रामभरोसे शामिल रहते, प्रश्न-पत्र में उनके बताए दस में से पाँच प्रश्न तो आ ही जाते हैं। आश्चर्य की बात नहीं, कैम्पस में छात्र उनके पैर छूते हुए नज़र आते हैं। और इस तरह प्रोफ़ेसर ने छात्रों की जिज्ञासा शान्त कर दी।
दरअसल प्रोफ़ेसर रामभरोसे का शौक़ है ठेकेदारी व ज़मीन-जायदाद आदि में दलाली का। और अपने इस शौक़ के लिए वे हमेशा दत्तचित्त रहे हैं। यहाँ ज़मीन बेची, वहाँ ख़रीदी; यहाँ कोई मकान बनवाया, वहाँ कोई मकान ख़रीदा, फिर बेचा . . . इसी तरह के काम हैं जिनमें उनकी रुचि भी है । ऐसे ही चौदह-पन्द्रह बरस निकल गए। कहीं ज़्यादा शिकायत हुई तो बात हँसी-ठिठोली में टाल दी; और यदि फिर भी बात नहीन बनी तो राजनीतिक सम्पर्क का फ़ायदा उठाकर अपना स्थानान्तरण करा लिया। राजनीतिक पार्टियों में भी उनकी सत्तासीन व विरोधी दोनों दलों में बराबर पैठ है।
हाल ही में एक चमत्कार हुआ। यह चमत्कार ही था, जब समाचार पत्रों में छपा कि कुछ प्राध्यापक पदोन्नत हो गए और बहुत-से प्राध्यापकों को पीछे कर प्राचार्य बन गए हैं — जिनमें प्रोफ़ेसर रामभरोसे का नाम प्रथम स्थान पर था। और उन्हीं के जैसे कुछ अन्य भी उस सूची में शामिल थे। उनकी बेफ़िक़्री व आरामपरस्त जीवन-शैली को देखते हुए जब कभी कोई प्रोफ़ेसर साहब से कहता कि ज़्यादा आराम भी अच्छा नहीं होता, तो वे तपाक् से कहते — अरे भई, आराम में भी राम हैं. . ." यह सच है कि प्रोफ़ेसर रामभरोसे ने हमेशा आराम की खाई। लेकिन जिसे वे आराम कहते, वह असल में हराम है।