आराम / शोभना 'श्याम'
जबसे वह नौकरी करने इस महानगर में आया था, तभी से इसी शहर में एक अदद अपने घर की इच्छा भी मन में पलने लगी थी। हर ग्यारह महीने बाद बढ़ते किराये या घर बदलने के झंझट, मकान मालिकों की तानाशाही, किसी के द्वारा उसके हिस्से की बिजली लाइन पर चोरी-छिपे अपने उपकरण चलाने, किसी के साथ पानी की मोटर पर झिकझिक तो किसी के द्वारा बच्चों के जरा-सा खेलने कूदने तक पर आपत्ति-ये सब परेशानियाँ लगातार इस इच्छा के हवन में समिधा-सी बनती गयीं।
एक बार तो हद ही हो गयी। एक मकान-मालिक की पत्नी को तो उसके धूपबत्ती जलाने पर ही ऐतराज था। तर्क था इससे दीवारे काली हो जाती हैं। यह ऐतराज तो 'स्वीट-होम' के होम में पूर्णाहुति सिद्ध हुआ। अब उसने ठान ली कि वह बेशक छोटा, मगर अपना घर बना के ही रहेगा। उसने हिम्मत कर पी.एफ. अकाउंट से लोन ले और अन्य जुगाड़ कर शहर के थोड़ा बाहरी हिस्से में निर्माणाधीन सोसाइटी में एक छोटा-सा फ्लैट बुक कर ही दिया।
इसके बाद प्रारम्भ हुआ, घर के खर्चों में जैसे-तैसे कटौती से लेकर ओवरटाइम कर के येन-केन इस छोटी-सी सुरसा के बड़े से मुँह में मासिक ई.एम.आई की हवि डालना। खर्चों में कटौती का पर्यायवाची हर मध्यम वर्गीय परिवार की तरह पत्नी और बच्चों के साथ रोज-रोज होने वाली कलह ही था। हर परेशानी के जख़्म पर बस एक ही जुमले की बैंड-एड चिपका दी जाती थी कि एक बार फ़्लैट का दखल, यानी 'पसेशन' मिल गया, तो आराम ही आराम होगा। कम से कम किराये और किश्त की दोहरी मार से तो आराम मिलेगा।
मगर कानी के ब्याह को सौ जोखे। भू-माफ़िया और भ्रष्ट अफसरों की साँठ-गाँठ के चलते चार साल में मिलने वाला रिहाइशी अधिकार दस साल में जाकर मिला। देर से ही सही, लेकिन आराम वाली बात तो सच हो ही गयी। अब वह आराम से घर की एक दीवार पर टंगा है। कलह के काँटों की जगह गले में फूलों का हार है और हाँ चित्र के सामने रोज एक धूपबत्ती अब निर्विरोध जलती है।