आरोप / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
मदनसिंह ने दस दिन पहले ही कार्यभार सँभाला था। परानपुर की अध्यापिका सुजाता सुबह–सुबह उसके सामने आकर रो पड़ी–"जयसिंह ने रात मेरी इज्ज़त लूटी। पति मर गया। नौकरी करके अपना और बच्चों का पेट पालती हूँ। मैं अब कहाँ जाऊँ?" कहते–कहते उसने मदनसिंह के पैर पकड़ लिये–"मेरे भाई, मुझे बचाओ. वह धमकी दे गया है कि तुम्हें एम.एल.ए. साहब की भी सेवा करनी पड़ेगी। विरोध करोगी तो नौकरी भी छूटेगी।"
यह सुनकर उसका खून खौल उठा। दोपहर में ही उसने जयसिंह को घर दबोचा। जयसिंह ने कुटिल मुस्कान के साथ कहा था–"बच्चू, साँप के बिल में सोच–समझकर हाथ डालना चाहिए।"
मदनसिंह ने उसको लाकर थाने में बंद कर दिया। शाम होते ही एक जीप थाने के गेट पर रुकी। जसवीर एम.एल.ए. उससे उतरे। एक सिपाही दौड़कर मदनसिंह को बुला लाया। उनको देखते ही पूछा–"आप ही है मदनसिंह?"
मदनसिंह ने हाँ में सिर हिलाया।
"जयसिंह को बाहर बुलाइए।" दो सिपाही कोठरी से उसको बाहर निकाल लाए तो पूछा–"इसको बंद क्यों किया है?"
"इसने एक अध्यापिका के साथ कुकर्म किया है।"
"जो जयसिंह ने किया उसके साथ, क्या वैसा किसी मर्द ने नहीं किया उसके साथ? उसके दो बच्चे यूं ही हो गए. खैर, तुम अनजाने में गलती कर गए।"
"मैंने गलती नहीं की। जो किया, ठीक किया है।"
"कोई बात नहीं।" एम.एल.ए. साहब ने जयसिंह केा गाड़ी में बैठने का इशारा किया। उसके बैठते ही गाड़ी चल दी। मदनसिंह लपका तो उसकी तरफ रिवाल्वर तान दी–"बिस्तरा बाँध लो बेटा। पुलिस को साथ लेकर डाके डालते हो और ऊपर से भले आदमियों को गिरफ्तार करते हो।"
मदनसिंह धूल उड़ाती गाड़ी को हक्का–बक्का–सा देखता रह गया।