आर्डर-आर्डर / ज़ाकिर अली 'रजनीश'
गेट के अन्दर कदम रखते ही मेरे कानों में आवाज गूंजी- “आर्डर-आर्डर”
आवाज सुनकर मेरे पैरों में एकदम से ब्रेक लग गये। मन में ख्यान आया, कहीं मैं गलत जगह तो नहीं आ गया? मैंने बाहर लगी नेम प्लेट पर एक बार फिर नजर डाली। लिखा था- अब्दुल शकील। इसका मतलब है मैं सही जगह पर हूं। मैंने सुकून की सांस ली और बारामदे की ओर चल पड़ा।
आज बड़े दिनों के बाद मैं कानपुर से लखनऊ अपनी बड़ी बहन के घर आया था। बाहर गेट पर खड़े होकर मैंने कॉलबेल बजाई। पर संभवत: उसका स्विच खराब था, क्योंकि मुझे घंटी बजने की आवाज सुनाई नहीं पड़ी। उसके बाद मैंने अपने भांजे और भांजी का नाम लेकर आवाज लगाई। अन्दर से बच्चों की आवाजें तो आ रही थीं, पर मेरी आवाज का कोई उत्तर नहीं मिल रहा था।
काफी देर तक मैं कशमकश में फंसा खड़ा रहा। लेकिन जब पांच मिनट तक इंतजार करने के बाद भी कोई नहीं आया, तो मैं गेट खोलकर स्वयं अंदर चला गया। पर इस घर में यह `आर्डर-आर्डर´ वाला क्या मसला है, यह मैं समझ नहीं पा रहा था। जीजाजी तो बैंक में हैं। एक छोटा सा भांजा है अकील। वह कक्षा सात में पढ़ता है और भांजी तो अभी सिर्फ सात साल की ही होगी। वह कक्षा दो में पढ़ती है। फिर ये आर्डर-आर्डर?
अपने मन में तमाम तरह की बातों को सोचते हुए मैं बरामदे में जा पहुंचा। सामने की ओर ही एक बड़ा सा दरवाजा लगा था, जिसमें एक पर्दा झूल रहा था। वह पर्दा एक ओर थोड़ा सा सिमटा हुआ था, इसलिए उसके उस पार का दृश्य साफ दिख रहा था।
वह एक बड़ा सा आंगन था। वहॉं पर कई बच्चे जमा थे। उन्हें देख कर मेरी जिज्ञासा बढ़ गयी कि इतने सारे बच्चे कौन सा खेल खेल रहे हैं? हालॉंकि दूसरे के घर में इस तरह ताका-झांकी करना उचित नहीं था, पर फिर भी मैं अपने आप को रोक न सका और चुपचाप उनका तमाशा देखने लगा।
आंगन के एक कोने में पड़ी कुर्सी पर छोटा सा लड़का बैठा हुआ था। उसने काली ड्रेस पहन रखी थी और देखने में `जज साहब` लग रहा था। जज के आगे एक लकड़ी की मेज रखी थी, जिसपर एक छोटी सी हथौड़ी भी विराजमान थी।
मेज के सामने कुछ बच्चे जमीन पर बिछी चटाई पर बैठे हुए थे। चटाई के एक ओर किसी टूटी हुई मेज के ढ़ांचे को पलट कर कटघरे जैसा बनाया गया था। कटघरे के अंदर मेरा भांजा अकील हाथ में दफ्ती की कुल्हाड़ी लिए खड़ा था। उसके आगे मेरी भांजी अजरा खड़ी थी। उसने वकील की ड्रेस पहन रखी थी। अजरा के पास ही एक छोटा सा लड़का और खड़ा था, जिसके बदन पर ढे़र सारी नीम की पत्तियां बंधी हुई थीं।
शायद मेरी बहन उस समय कहीं गयी हुई थी, इसीलिए बच्चे मौके का फायदा उठाकर नाटक खेलने में व्यस्त थे। उस समय मुकदमे की कार्यवाही चल रही थी और वकील, मुल्जिम तथा आरोपी आपस में उलझे हुए थे।
“आर्डर-आर्डर, आप लोग बारी-बारी से अपनी बात कहें।” जज ने हथौड़ी ठोक कर सबको शान्त कराया।
मौका देखकर वकील बनी अजरा ने अपनी बात सामने रखी, “जज साहब, मेरे मुविक्कल नीम का आरोप है कि यह लकड़हारा रोज हरे पेड़ों को काटता है। यह एक बहुत बड़ा जुर्म है, इसलिए मुल्जिम को सजा दी जाए।”
“क्यों लकड़हारे, क्या यह बात सच है?” जज ने अपनी हथौड़ी मेज पर पटकी।
लकड़हारे की भूमिका अकील निभा रहा था। वह बोला, “हॉं हुजूर, पर ये तो हमारा पुश्तैनी पेशा है। अगर हम लोग पेड़ नहीं काटेंगे, तो खाएंगे क्या?”
“देखा हुजूर, कैसा ढ़ीठ है यह?” पेड़ बने लड़के का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा, “एक तो जुर्म करता है, ऊपर से कैसे अकड़ कर बोल रहा है। अपने जुर्म का तो इसे एहसास ही नहीं।”
“ऐ पेड़, ज्यादा बकर-बकर न करो, नहीं तो...।” कहते हुए लकड़हारे ने अपनी कुल्हाड़ी पेड़ की तरफ तान दी।
पेड़ एकदम से घबरा कर वकील के पीछे छिप गया। यह देखकर मुझे हंसी आ गयी। पर जल्दी से मैंने अपने मुंह पर हाथ रख लिया। अन्दर नाटक जारी था।
“देखिए जज साहब,” वकील कह रहा था, “जब यह व्यक्ति आपके सामने इतनी दुष्टता दिखा रहा है, तो बाद में कैसी बेरहमी से पेड़ों को काटता होगा?”
“आर्डर-आर्डर,” जज ने मुल्जिम को चेताया, “लकड़हारे, यह अदालत है। तुम्हें अदालत की मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए, नहीं तो तुम्हें इसकी सजा दी जा सकती है।”
जज की बात सुनकर लकड़हारा भीगी बिल्ली बन गया।
वकील ने अपनी बात को आगे बढ़ाया, “जज साहब, जैसा कि अभी लकड़हारे ने स्वयं कुबूल किया कि वह पेड़ों को काटता है, इसलिए आगे कुछ साबित करने के लिए रह ही नहीं जाता। और यह तो सभी लोग जानते हैं कि हरे पेड़ों को काटना जुर्म है।”
“इसमें जुर्म कैसा जज साहब?” लकड़हारा बीच में ही बोल पड़ा, “पेड़ तो होते ही हैं काटे जाने के लिए।”
“किसने कह दिया कि पेड़ काटे जाने के लिए होते हैं?” वकील ने जिरह की, “उनके अंदर भी जान होती है, वे भी दु:ख-सुख महसूस करते हैं, वे भी...”
“और ये बात वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस ने बहुत पहले सिद्ध कर दी थी।” पेड़ थोड़ा जोश में आ गया था।
“जगदीश चन्द्र ? ये कौन है?” लकड़हारे ने आश्चर्यपूर्वक अपना मुंह फैलाया, “हम तो उनको नहीं जानते।”
“क्या तुम महान वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस को नहीं जानते?” वकील हैरान होकर बोला, “उन्होंने ही तो सबसे पहले यह बात सिद्ध करके दिखाई थी कि पेड़ों में जान होती है।”
“हमसे बहुत बड़ी भूल हो गयी...।” लकड़हारा पछतावे के स्वर में बोला।
लेकिन तभी दर्शकों की पंक्ति में बैठे एक लड़के ने उसे टोक दिया, “अरे अकील, ये डॉयलाग तो बाद में बोला जाएगा।”
“तू चुप कर...” कहते हुए अकील जैसे ही उसकी तरफ मुड़ा, उसकी नजर मुझ पर पड़ गयी। मुझे देखकर वह एकदम से शर्मा गया और दफ्ती की कुल्हाड़ी फेंक कर वहां से भाग खड़ा हुआ।
“ये आप क्या कर रहे हैं भाईजान?” अजरा ने खेल बिगड़ता देखकर उसे टोका।
अकील जवाब में कुछ नहीं बोला, पर उसने धीरे से मेरी ओर इशारा कर दिया। सभी बच्चों की निगाहें मेरी ओर उठ गयीं। और फिर देखते ही देखते रंग में भंग हो गया। अजरा ने वकील वाला चोगा उतार फेंका, पेड़ बने लड़के ने अपनी पत्तियां नोच डालीं और जज साहब अपनी कुर्सी से ऐसे भागे, जैसे उन्होंने कोई भूत देख लिया हो।
हालॉंकि इस तरह से नाटक का रूक जाना मुझे अच्छा नहीं लगा था, किन्तु किया भी क्या जा सकता था? मैंने अपनी खीझ मिटाने के लिए उल्टे उन्हीं से सवाल पूछ लिया, “क्यों बच्चो, ये क्या हो रहा था?”
“ज-ज-जी, कुछ नहीं। बस यूं ही।” अकील ने सफाई देनी चाही, पर उसका मुंह सूख गया।
“अरे, तो इसमें शर्माने की क्या बात है?” मैंने उसके सिर पर हाथ फेरा, “मुझे यह देखकर अच्छा लगा कि तुम लोंगों को इतनी सारी बातें मालूम हैं और तुम लोग पर्यावरण जैसे गंभीर विषय पर नाटक कर रहे हो।”
“जी, ये नाटक हमारे स्कूल में खेला जाएगा।” मेरा प्रोत्साहन पाकर अजरा चहक उठी, “आप देखने चलेंगे मामूजान?”
“हॉं भई, क्यों नहीं ? वकील साहिबा का हुक्म तो मानना ही पड़ेगा, वर्ना मेरा भी आर्डर-आर्डर हो जाएगा।” मैंने भोलेपन से कहा, तो सभी बच्चे मुस्करा पड़े।
घर के उस छोटे से बगीचे में अनायास ही बहार आ गयी थी।