आलोक धन्वा से बातचीत / कुमार मुकुल

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आजादी के बाद हमने क्या खोया, क्या पाया?
वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा से युवा कवि कुमार मुकुल की बातचीत

11 जनवरी 2012 को डा विनय कुमार के आवास पर हुई इस बातचीत के वक्त वहां डा विनय कुमार उनकी पत्नी डा. मंजू कुमारी और फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम उपस्थित थे।

कुमार मुकुल - पंद्रह अगस्त 1947 को हम आजाद हुए। आजाद भारत में हमने क्या खोया, क्या पाया?

आलोक धन्वा - आपका जो सवाल है वह इतने बड़े स्पेश को सामने रख रहा है कि उसमें 200 वर्षों पर बहस करनी होगी। आधुनिक भारत की नींव आजादी की लड़ाई से शुरू होती है यानि मध्ययुग से जहां आधुनिक भारत अलग होकर बनना शुरू होता है। तो आधुनिक भारत की नींव और लोकतांत्रिक चेतना और स्वाधीनता की चेतना ये तीनों परिघटनाएं एक साथ शुरू होती हैं।

आमतौर पर हम 1857 को आजादी की पहली लड़ाई मानते हैं मैं भी मानता हूं। 1857 ने हम सब लोगों को एक हिन्दुस्तानी होने का गर्व दिया, जिसने उपनिवेशवाद के विरूद्ध लड़ने के लिए जनता की उतनी व्यापक अभिव्यक्ति को एक रूप दिया। कई इतिहासकार यह लिखते हैं और मानते हैं कि यह एक गदर था जिसमें सामंतों के नेतृत्व में बहादुरशाह जफर, झांसी की रानी, टीपू सुल्तान के नेतृत्व में यह लड़ाई लड़ी गई। मैं समझता हूं कि यह इतिहास की अवैज्ञानिक व्याख्या है। इसमें लड़ने वाली तो मूल रूप से भारत की किसान जनता है, उसी का नेतृत्व है। जो सिपाही लड़े वो देश के लिए लड़े। मैं समझता हूं कि 1857 से 1947 के बीच की तमाम लड़ाईयां आजादी के लिए लड़ी गईं।

1857 के बारे में जो कार्ल माक्र्स की स्थापनाएं हैं, मैं उसे सही मानता हूं। 1857 हिन्दुस्तानी होने की कौमी जातीय चेतना का एक रूप है, स्वाधीनता की पहली व्यापक अभिव्यक्ति है।

1857 में भयावह पराजय हुई। उस पराजय और कत्लेआम का मंजर हमारे महान भारतीय कवि गालिब ने आंखों से देखा और राय जाहिर की । 1857 के बाद भारत की जनता और स्वाधीनता के लिए लड़ने वाले लोग लगातार सक्रिय रहे। लाला हरदयाल हों या रासबिहारी बोस हों , जितने भी संगठन थे भारत की आजादी के लिए लड़नेवाले, उन संगठनों का भी इतिहास आप देखेंगे तो उस इतिहास में गदर पार्ठी के लोग थे। शहीदेआजम भगत सिंह और उनके चाचा सरदार अजीत सिंह, जो गाते थे- पगड़ी संभाल जट्टा, पगड़ी संभाल...। फिर भारतेन्दु आते हैं सामने और उनके साथ के दूसरे लेखक रामचंद्र शुक्ल और प्रेमचंद जो नये गणतंत्र के पहले सबसे बड़ी लेखक हिन्दी में है।

1857 की लड़ाई के विस्तार में मैं नहीं जाउंगा पर मैं यह मानता हूं कुछ अतिवादी बुद्धिजीवी 1857 और 1947 को मात्रा सत्ता के हस्तांतरण के रूप में देखते हैं, मैं उस रूप में नहीं देखता। मैं मानता हूं कि उसमें दो बड़ी धराएं थीं। एक धारा का नेतृत्व भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खां, विनय बादल दिनेश कर रहे थे। यह लाला लाजपत राय की धारा थी- जिनकी साइमन कमीशन के विरूद्ध लड़ते समय लाठियों की चोट से हत्या कर दी गई। उस धारा ने ही हिंदी इलाकों में चेतना फैलाई। जिसे रामविलास जी जातीय चेतना कहते हैं। इस धारा ने प्रगतिशील जीवन मूल्यों की चेतना को आगे बढ़ाया, हिंदी में। इस पर सीपीएम के बंगाल के नेता सुकोमल सेन की किताब उपलब्ध् है, जो सबसे अच्छा उपलब्ध् इतिहास है। लाला लाजपत राय से ही ट्रेड यूनियन की शुरूआत हुई जिसने कि उस औद्योगिक भारत को समझने की कोशिश की जिसमें गुजरात की सूती मिलों और मुबई के मिलों के मजदूरों की हालत पर घ्यान देना आरंभ किया। मुंबई की मिलों के मजदूरों की बड़ी हड़ताल के बारे में बाल गंगाधर तिलक ने क्या कहा था, आपको पता होगा- उस तफसील में जाना चाहिए।

यह ऐसी लड़ाई थी जिसमें गांधी एक तरफ थे और दूसरी तरफ लाला लाजपत राय। लाजपत राय की धरा में ही स्वामी सहजानंद सरस्वती आते हैं। रामगढ़ कांग्रेस की केंद्रीय कमेटी में स्वामीजी भी थे। उसी कांग्रेस में सुभाष चंद्र बोस की जीत और पट्टाभि सीतारामैय्या की हार हुई भी। उसमें अनैतिक तरीके से सहजानंद जी को गांधीजी और उनके लोगों ने कमेटी भंग कर हटा दिया था। उस समय रामगढ़ कांग्रेस में सहजानंद जी द्वारा दिए गए भाषण को दिल्ली विश्वविद्यालय की पत्रिका में विनोद तिवारी ने छापा है। जिसे पिफर तद्भव में शायद अखिलेश ने छापा है।

उसी धारा ने राहुल सांकृत्यायन को खड़ा किया और प्रेमचंद को। प्रेमचंद के बारे में कांग्रेसी भ्रम फैलाते हैं कि वे मात्र अहिंसा के गायक थे। मार्क्‍स से बड़ा तो अहिंसा का गायक हुआ नहीं और टाल्सटाय जैसा। सबसे बड़ा सवाल यह है कि आप हिंसा को भारतीय समाज में कितना देख पाते हैं। प्रेमचंद कहीं से कांग्रेस के समर्थक नहीं थे। कांग्रेस में दो धाराएं थीं- एक धारा सहजानंद और नेताजी को नहीं मानती थी यह पटेल और नेहरू को मानती थी। नौरोजी वाली धारा, जिसका मैं सम्मान करता हूं। हिंसा के सर्वाधिक रूपों को, प्रेमचंद ने पहचाना। सामंती हिंसा संप्रदायिकता के जो रूप उनकी कहानियों में आते हैं। भारतीय गणराज्य के वे पहले महान लेखक हैं। आज भी प्रेमचंद उतने ही प्रासंगिक हैं।

कुमार मुकुल - ‘सफेद रात’ कविता में आप एक जगह लिखते हैं कि फांसी पर चढ़ाए जाते वक्त भगत सिंह का सरोकार अहिंसा था। भगत सिंह और गांधी की अहिंसा में क्या अंतर है, या समानता है।

आलोक धन्वा - समानता तो नहीं है बिल्कुल। क्योंकि भगत सिंह ने नारा दिया था कि आदमी के द्वारा आदमी का शोषण बंद हो। यह इतना व्यापक नारा है, जैसा कोई और नारा भारतीय राजनीति में नहीं है। महात्मा गांधी किस अहिंसा की बात करते थे, मुंबई में मजदूरों की हड़ताल में उन्होंने मजदूरों और मालिकों के संबंध् को पिता-पुत्र का संबंध् बताया था। उनके मन में जितनी अच्छी भावना हो पर मैं नहीं समझता कि कोई पिता अपने पुत्रा से वैसा व्यवहार करेगा जैसा मिल मालिक मजदूरों से करते हैं। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद को गांधी ने देखा था, पूरा जो एक दास युग था... गांधी ने हिंसा का रूप देखा था। वे बड़े नेता व चिंतक थे। पर अगर गांधी जी चाहते तो भगत सिंह को फांसी नहीं दी जाती।

इससे संबंधित एक घटना के बारे में ए.के. हंगल ने चर्चा की है। तब पेशावर के पास जिस पख्तूनी इलाके में थे वे- तब वे 14-15 साल के थे- तो पख्तून रो-रोकर एक शोक गीत गा रहे थे। गीत की हर पंक्ति के अंत में भगत सिंह का नाम आता था, जिन्हें चुपके से फांसी दे दी गयी थी एक शाम।

कुमार मुकुल - यूं महात्मा गांधी ने भगत सिंह को फांसी ना देने की अपील तो की थी।

आलोक धन्वा - गांधी बहुत बड़े जन नेता, चिंतक थे, कूटनीतिज्ञ थे। गांधी को साधु-संत समझने वाले भ्रम में हैं- गांधी बड़े डिप्लोमैट थे। वे भगत सिंह को बचाना चाहते तो विक्टोरिया को मजबूर कर सकते थे। क्योंकि वह बम जो फेंका गया था वह सिर्फ आवाज के लिए था।

1947 की लड़ाई में निराला भी शामिल थे। प्रेमचंद तो थे ही। पूरा हिंदी साहित्य का विकास और कला और स्वाधीनता के जीवन मूल्यों का जो विकास है, वह इसकी देन है। उसमें हमारे बड़े चिंतक, कवि आते हैं- हजारी प्रसाद द्विवेदी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, जिन्होंने सरस्वती जैसी पत्रिका निकाली, यशपाल, रेणु, नागार्जुन, भीष्म साहनी, अमृत लाल नागर आदि।

1857 से 1947 के बीच की लड़ाइयों ने भारत को पहली बार एक कौमी पहचान दी। हिन्दुस्तानी होने की जो अस्मिता है, उसक हृदय की वाणी सुनाई देती है इसमें। इसने हजारों गीतकार पैदा किए, उपन्यास लिखे गए। प्रेमचंद का हंस निकला। 1936 में प्रेमचंद का निधन हुआ, उसी आसपास गोर्की का भी निधन हुआ था। और लूशुन ....।

वह एक ऐसी लड़ाई थी जिस पर वोल्शेविक क्रांति का प्रभाव था। उसी बीच कम्यूनिस्ट पार्टी का जन्म हुआ। एक आदि कम्यूनिस्ट के रूप में इतिहासकार भगत सिंह का नाम लेते हैं। चंद्रशेखर आजाद जो पूजा-पाठ करते थे और पांच बार के नमाजी शाहजहांपुर के अशफाकउल्ला खां। ये सारे लोग इसी से निकले थे। मूल्यवान इतिहासकार सुधीर विद्यार्थी ने बटुकेश्वर दत्त पर पहली पुस्तक लिखी जो एसेंबली बम कांड के सह-नायक थे। वे विधान-परिषद के सदस्य भी रह चुके थे। जिन्हें काले पानी की सजा हुई थी। उनका स्मारक तक नहीं है।

1947 को लेकर एक कवि के नाते मैं देखता हूं कि देश में पहली बार संसदीय जनतंत्रा सामने आता है, न्यायपालिका आती है सरकार आती है डा अंबेडकर जैसे विध्विेत्ता ने संविधान की रचना की। संविधन को मैं सम्मान की दृष्टि से देखता हूं और अंबेडकर की चेतना को। 1947 ने पंडित नेहरू जैसे महान बुद्धिजीवी को सामने लाया जिन्होंने विश्व इतिहास की झलक और भारत एक खोज की रचना की। उन्हें औद्योगिक भारत का संस्थापक माना जाता है। गांधी भी राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के नेता के रूप में उभरते हैं। उनके नेतृत्व में भारत का पूंजीपति वर्ग तैयार हुआ। विनय कुमार - ये तो आपने बताया कि हमने क्या पाया। पर हमने क्या खोया? कुछ खोया भी?

आलोक धन्वा - जो अतिवादी चिंतक हैं, वो मानते हैं कि हमने खोया। अतिवाद में न जाकर देखना चाहिए कि जिस तरह रघुवीर सहाय ने नेहरू-युग से मोहभंग की कविताएं लिखीं और धूमिल ने भी...। या फिर निराला जैसे विश्व कवि हैं। 20वीं सदी में निराला से बड़ा कोई कवि नहीं। निराला ने हिंदी को विश्वभाषा का दर्जा दिया। ऐसा नहीं था कि निराला आलोचक नहीं थे। निराला ने लिखा - काले-काले बादल आए न आए वीर जवाहरलाल, भूखे-नंगे खड़े शरमाए ना आए वीर जवाहर लाल...। ये उसी समय लिखा उन्होंने भी। आजादी की आलोचना भी समानांतर तौर पर चल रही थी। तमस जैसी किताब लिखी भीष्म साहनी ने।

जहां तक खोया की बात है तो भारत का जो विभाजन है वह हिन्दुस्तानी कौम की सबसे बड़ी त्रासदी है। जिसकी सजा हम भोग रहे हैं। जिसके चलते आज भी भारत-पाक सीमा पर सबसे ज्यादा खर्च होता है। हमारा लहू बहता है वहां।

कुमार मुकुल - लोहिया ने एक किताब लिखी है ‘भारत विभाजन के अपराधी।’ उसमें उन्होंने गांधी-नेहरू-पटेल-जिन्ना सबको उसका दोषी पाया है। विभाजन का दोषी आप किसे मानते हैं? जैसे कि आपने कहा कि भगत सिंह के पक्ष में गांधी लड़े नहीं, उसी तरह विभाजन के खिलाफ भी वे खड़े नहीं हुए।

आलोक धन्‍वा - हां, मैंने कहा कि गांधी की करूणा भगत सिंह के फांसी के मुद्दे पर कलंकित होती है। हिंसा के जितने रूपों को कार्ल माक्र्स ने देखा, और प्रेमचंद ने देखा। तो प्रेमचंद के देश में पिछले तीन-चार सालों में दो-ढाई लाख किसानों ने आत्महत्या की।

प्रेमचंद और रवीन्द्रनाथ ठाकुर मामूली लेखक नहीं थे और दिनकर जो पंडित नेहरू के प्रगाढ मित्र थे। नेहरू ने उन्हें राज्य सभा का सदस्य बनाया, संस्कृति के चार अध्याय की भूमिका लिखी और हिन्दी सलाहकार समिति का चेयरमैन बनाया। पर दिनकर जी की कलम उस दोस्ती से बाधित नहीं होती। उन्होंने लिखा- सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। उन्होंने भारतीय समाज के मध्ययुगीन अंतरविरोधों पर लिखा। दलित समस्या, सांप्रदायिकता, वर्गीय समस्या, अमीर-गरीब, शूद्र की समस्या पर लिखा। वे लिखते हैं- दूध-दूध ओ वत्स तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं। हटो व्योम के मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं। उन्होंने यह सब लिखा। तो हम कैसे कहें कि सिर्फ कम्यूनिस्टों ने लिखा। कम्यूनिस्ट पार्टी टिकी है आजादी की चेतना पर। कम्यूनिस्ट पार्टी तो नाम है। पर आजादी की चेतना तो मंजू के, विनय के भीतर भी है। विनोद जी तो पार्टी बैकग्राउंड से आते हैं, मैं तो कम्यूनिष्ट पार्टी के बैक ग्राउंड से आता हूं। आप, मुकुल तो पार्टी के बैक ग्राउंड से नहीं आते। तो यह भारतीय जनता की चेतना है।

विभाजन के लिए ना तो मैं पटेल को जिम्मेवार मानता हूं, ना गांधी को, ना जिन्ना को। नेहरू को भी नहीं। विभाजन के लिए मैं अंग्रेजों को जिम्मेवार मानता हूं। वे चाहते थे कि सशरीर यहां से चले जाएं पर ऐसा बाजार बना कर जाएं जिस पर हमारा झंडा तो ना होगा पर हमारी हुकूमत होगी। ये मेकाले और रूडयार्ड किपलिंग वाली शिक्षा पद्धति उसी के लिए छोड़ गए थे। अभी तक का हमारा पाठ्यक्रम वह नहीं है जो भारत के अनुकूल होना चाहिए।

कुमार मुकुल - इधर दलित साहित्य में कुछ लोग यह बात उठा रहे कि मेकाले की पद्धति सही थी जिसने हममें मुक्ति की चेतना जगायी। इसमें वे लोग अंबेडकर की बातों को भी पक्ष में तोड़-मोड़ कर रखते हैं।

आलेाक धन्वा - आपको पता है कि डा अंबेडकर ने एक ब्राह्मण महिला से भी शादी की थी। अभी मैं वर्धा में था तो वहां मैेंने देखा कि नागपुर में जहां अंबेडकर की दीक्षा हुई थी, वहां उनकी जयंती पर लाखों की भीड़ जुटती है।

देखिए दलित विमर्श का एक अतिवादी रूप है, जो प्रेमचंद की किताबें जलाता है। साम्राज्यवाद की मदद करने वाला यह भारत विरोधी विमर्श है जिसे इस मुल्क से कुछ लेना-देना नहीं। जो प्रेमचंद की किताब जलाएगा वह उपनिवेशवाद की मदद करेगा। वह भारत को फिर से नया उपनिवेश बनाएगा।

पर दलित विमर्श की सकारात्मक धारा भी है, जिसमें हमारे कई मित्र हैं। ओम प्रकाश वाल्मीकि, नामदेव ढेसाल आदि। एक मित्र हैं चंद्रकांत पाटिल। उन्होंने मराठी में मेरी कविताओं का सुंदर संस्करण निकाला है। वह पुस्तक देखी नहीं। यहां अरुण कमल के पास है वह।

अब नामदेव ढसाल शिवसेना में हैं। तो उनके मंच से राजेश जोशी आदि ने कविताएं पढीं तो उनकी आलोचना हुयी। पर ढसाल कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। शिवसेना में होने से फर्क नहीं पड़ता फिर नारायण सुर्वे थे, वे किसी अनाम जगह से आते थे। और दया पवार थे जिन्होंने ‘अछूत’ लिखा। दलित साहित्य में कई प्रतिभाशाली रचनाकार हैं। प्रो. तुलसी राम हैं- मुर्दहिया लिखने वाले। कैंसर से जूझ रहे हैं। वे आजमगढ़ के हैं। कई मुलाकातें हैं उनसे।

मैं समझता हूं कि दलित विमर्श में दो धाराएं हैं। एक धारा जो साम्राज्यवाद के विरूद्ध जाती है और हमारे गणतंत्र के पक्ष में सोचती है। दूसरी धारा अतिवादियों की है जो ब्राह्मणों से सिर्फ इसलिए घृणा करती है कि उसमें उसका जन्म हुआ, जिसमें उनका कोई दोष नहीं।

मैं जाति को नहीं मानता। मैं डार्विन में विश्वास करता हूं। जाति रियलिटी है, एक इंपोज्ड रियलिटी। मूल सत्य यह है कि हम सब मनुष्य हैं। मंजू की सच्चाई है कि मंजू एक मां हैं, पत्नी हैं, मित्रा हैं। वह प्रेम करने वाली स्‍त्री हैं। यह सच्चाई नहीं कि वे भूमिहार हैं, कि दलित हैं।

तो ये जो सारे विमर्श हैं उसमें हमें डार्विन और मार्गन को लाना होगा। जिन्होंने आदिपरिवार की खोज की। यहां विनय बैठे हैं, वे ज्यादा बताएंगे एंथ्रोपोलोजी के बारे में। तो ये चीजें हम पर लादी गई हैं। राजा शोषण करता था। शोषण के लिए प्रजा को विभाजित करता था। ब्राह्मण कहता था कि राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है। उसे शासन करने को यहां भेजा गया है।

श्रीकांत वर्मा कांग्रेस महासचिव बने तो जब बैलों की जोड़ी से अलग इंदिरा गांधी ने हाथ को चुनाव चिन्ह बनाया तो उन्होंने कहा कि ये वो हाथ हैं जो शासन करना जानते हैं। इसलिए इन हाथों पर मुहर लगाएं। तो ये सामान्य बात नहीं।

कांग्रेस के भीतर दो धाराएं थीं। इमरेेंसी जब लगी तो मैं दिल्ली में था। सेवंथ चैनल को आनंद स्वरूप वर्मा ने बतलाया कि आलोक धन्वा इमरजेंसी में थे।

मेरे यहां रेड हुआ था तो मैं भागा। तब मुझे डा सुशील मेहता ने अपने यहां शरण दी थी। अकेली होकर भी उन्होंने मुझे छुपाया। वे मेहता नगेन्द्र की पत्नी थीं और भईया की क्लासमेट थीं। पीएमसीएच की पास आउट वे दो नंबर रोड में रहती थीं। उस समय मैंने बाल-दाढी आदि कटवा ली थी और भगिना ने मुझे कुछ अलग कपड़े दिए थे। रेणु जी ने वह संस्मरण लिखा था, रिणजल-धनजल में छपा था वह।

तब शिवानंद तिवारी भी अंडर ग्राउंड थे, जमुई में। हमारे घर आए वे रात में, मैंने कहा आप गांव जाइए मेरे-पिताजी जमींदार हैं, वहीं चले जाइए। वहां पुलिस नहीं जाएगी। पर वे रूके नहीं। रात दो बेजे मैंने अपने भाई के साथ उन्हें बाहर निकाला। ये बनवारी आदि सब मिलते थे उस समय।

तो आपातकाल की जब 25वीं मनाई जा रही थी तो चैनल में बातचीत के लिए बसंत साठे, उमा वासुदेवन, त्रिनेत्र जोशी सब जुटे थे। उमा ने इंदिरा गांधी पर दो पुस्तकें लिखी थीं। वहां भाजपा नेता महावीर अधिकारी भी थे। तो ऐसे बड़े लोगों के सामने मेरी क्या हैसियत। तो त्रिनेत्र जोशी ने कहा- क्या करेंगे आप अकेले। मैंने कहा- अकेला ही मनुष्य दुनिया में आया है और अकेला ही जाएगा। सारे उत्कर्ष उसे अकेले ही प्राप्त करने होते हैं। बस जनता साथ देती है।

तो एक-एक कर बुलाया जाता था हमें। बसंत साठे से बहस शुरू हुई। मैंने कहा कि कांग्रेस में शुरू से दो धाराएं थीं- डेमोक्रेटिक और आटोक्रेटिक। एक जो डेमोक्रेटिक थी वह कांग्रेस को आगे ले जाती थी। प्रीवीपर्स, भूमिवितरण, सोवियत संघ से संधि बैंकों का राष्ट्रीयकरण आदि उस धारा ने किया।

दूसरी धारा वह थी जिसने, जब पहली बार 1956 में केरल में नंबूदरीपाद की सरकार बनी, तो वह सरकार गिरा दी थी। उस धरा ने जेपी और देश के बाकी बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया था।

कुमार मुकुल - दलित साहित्य में इध्र एक और बहस चल रही है। ढोल-गंवार-शुद्र-पशु-नारी लिखने को लेकर पहले से ही तुलसी की आलोचना होती है अब नारी को नरक का द्वार बताने को लेकर कबीर पर भी सवाल उठ रहे हैं। उधर डा. धर्मवीर, कबीर को दलित धर्म के अकेले संस्थापक के रूप में स्थापित करना चाहते हैं। पर धमर्वीर बुद्ध को इस विमर्श से बाहर करना चाहते हैं। अंबेडकर की सराहना करते हुए भी वे बौद्ध धर्म अपनाने को लेकर उनकी आलोचना करते हैं। इसे आप किस तरह देखते हैं?

आलोकधन्वा - अतिवादियों की उसी धारा में डा. धर्मवीर भी शामिल हैं। मैंने उन्हें पूरा पढ़ा नहीं, सो साधिकार नहीं कह सकता। पर जातीय विद्वेष फैलाने वाली भाषा अगर कोई दलित नेता लिखता या बोलता है तो मैं समझता हूं कि वह दलित विमर्श का नुकसान कर रहा है। दलित भी ब्राह्मण की तरह तमाम अधिकारों का हकदार है। यह एक पूंजीवादी साजिश है भारत में, जहां एक गरीब पिछड़े को तो आरक्षण मिलता है पर गरीब ब्राह्मण को नहीं। मैं आरक्षण का विरोधी नहीं पर इस जातीय विद्वेष और गठजोड़ की राजनीति के, मैं साथ नहीं। मैं चाहता हूं कि हिंदी में प्रगतिशील बुद्धिजीवी इस अवैज्ञानिक धरणा के विरूद् एकजुट हो जनमानस का निर्माण करें।