आलोचक / खलील जिब्रान / सुकेश साहनी
(अनुवाद :सुकेश साहनी)
समुद्र की ओर यात्रा पर जा रहा घुड़सवार एक रात सड़क के किनारे एक सराय पर पहुँचा। उसने दरवाज़े के पास एक पेड़ से घोड़े को बाँधा और सराय में प्रवेश किया।
आधी रात को जब सब सो रहे थे, एक चोर आया और यात्री का घोड़ा चुराकर ले गया।
सुबह उठने पर यात्री को अपने घोड़े के चोरी होने की बात पता चली तो वह बहुत दुःखी हुआ और उस व्यक्ति को मन ही मन कोसने लगा जिसके मन में घोड़े को चुराने की बात आई थी। सराय में उनके साथ ठहरे दूसरे लोग भी वहाँ इकट्ठा हो गए और बातें करने लगे।
पहले आदमी ने कहा, "घोड़े को अस्तबल के बाहर बाँंधना कितनी बड़ी बेवकूफी है।"
दूसरे व्यक्ति ने कहा, "हद है, घोड़े के अगले-पिछले पैरों को बाँधा जा सकता था।"
तीसरे आदमी ने कहा, "घोड़े पर इतनी लम्बी यात्रा के लिए निकलना ही नासमझी है।"
चौथे ने कहा, "कमज़ोर और आलसी लोग ही सवारी के लिए घोड़ा रखते हैं।"
यात्री को बहुत आश्चर्य हुआ, आखिर वह बिफर पड़ा, "भाइयो! चूंकि मेरा घोड़ा चोरी हो गया है, इसलिए आप सब मेरी गलतियाँ और कमियाँ बताने को उतावले हैं। हैरत है, घोड़ा चुराने वाले आदमी की अनधिकार चेष्टा के बारे में आप लोगों के मुँह से एक शब्द भी नहीं फूटा।"