आलोचना का विमर्श (जवरीमल्ल पारख) / नागार्जुन

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जनकवि के रूप में ख्यात नागार्जुन का यह जन्म शताब्दी वर्ष है। यह शमशेर, अज्ञेय और केदारनाथ अग्रवाल का शताब्दी वर्ष भी है। हिंदी में अज्ञेय की गणना आधुनिकतावादी के तौर पर की जाती है जबकि नागार्जुन, शमशेर और केदारनाथ अग्रवाल की गणना प्रगतिशील कवियों के तौर पर। हिंदी के प्रमुख प्रगतिशील कवियों में मुक्तिबोध और त्रिलोचन शास्त्राी का नाम भी परिगणित किया जाता है। प्रगतिशील कहे जाने के बावजूद इन सभी कवियों में विचारधारात्मक एकता के अलावा कुछ भी एक-सा नहीं है। इन कवियों का काव्य एक दूसरे से उतना ही भिन्न है जितना कि इन कवियों का काव्य अज्ञेय से भिन्न है। फिर भी, यदि इन सभी कवियों को प्रगतिशील कहा और माना जाता रहा है, तो इसका कारण स्वयं इनके काव्य में निहित है। बिल्कुल वैसे ही जैसे कि अज्ञेय को प्रगतिशील न माने जाने की वजह भी उनके अपने साहित्य में निहित है। यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि यहां प्रगतिशीलता का आशय बीसवीं सदी के उस साहित्यिक और सांस्कृतिक आंदोलन से है जिसकी अभिव्यक्ति 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ हुई थी। यह आंदोलन न तो किसी एक भाषा तक सीमित था और न ही एक देश तक। इसी सांस्कृतिक और साहित्यिक आंदोलन से जुड़े लेखकों को प्रगतिशील या प्रगतिवादी के तौर पर जाना गया। इस आंदोलन के पीछे मार्क्सवादी विचारधारा की शक्ति भी काम कर रही थी। स्वभावतः बहुत से प्रगतिशील लेखकों ने विचारधारात्मक रूप में मार्क्सवाद को स्वीकार किया था। यह स्पष्टीकरण इसलिए ज़रूरी है कि अज्ञेय और दूसरे वे लेखक जो न तो प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े थे और न ही जो मार्क्सवादी थे, बल्कि जो इनका विरोध भी करते थे, लेकिन जिनकी पहचान आधुनिकतावादी लेखकों के रूप में हुई, उनमें से अधिकतर प्रगतिशीलता के सामान्य अर्थों में प्रगतिशील ही कहे जायेंगे। इस सामान्य अर्थ में अज्ञेय को प्रगतिशील और प्रगतिशील लेखकों को आधुनिक माना जा सकता है। प्रगतिशीलता और आधुनिकता एक दूसरे की विरोधी विचार प्रणालियां नहीं हैं। हां, प्रगतिवाद और आधुनिकतावाद एक दूसरे की विरोधी विचार प्रणालियां अवश्य हैं, जिनका संबंध राजनीतिक रूप में वैश्विक स्तर पर दूसरे विश्वयुद्ध से लेकर शीतयुद्धीय दौर से और भारतीय संदर्भ में आज़ादी के बाद के हालात से है। राजनीतिक संघर्षों के इस दौर का जो प्रभाव साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्रा में अभिव्यक्त हुआ, वही प्रगतिवाद और आधुनिकतावाद के नाम से जाना गया। इसी प्रगतिवादी या प्रगतिशील आंदोलन की उपज नागार्जुन थे। लेकिन नागार्जुन के लेखन को सिर्फ़ इस आंदोलन के संदर्भ में ही व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। नागार्जुन का जन्म बिहार के मिथिलांचल के एक गांव तरौनी में ब्राह्मणों के

निम्नमध्यवर्गीय किसान परिवार में हुआ था। अन्य समकालीनों के विपरीत नागार्जुन को आधुनिक शिक्षा संस्थाओं में पढ़ने का अवसर नहीं मिला। विद्याध्ययन का जो भी क्षेत्रा उन्होंने चुना, चाहे वह संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश का हो या बौद्ध विद्या का, इसका निर्णय उन्होंने स्वयं किया। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की स्रोतभाषा समझी जाने वाली अंग्रेज़ी की विधिवत शिक्षा उन्होंने प्राप्त करने का प्रयास नहीं किया। जैसाकि एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार का चलन था, नागार्जुन की शादी अपेक्षाकृत छोटी उम्र में हो गयी। लेकिन उनकी यायावरी प्रवृत्ति पारिवारिक ज़िम्मेदारियों से दबी न रह सकी। दांपत्य जीवन के प्रति ईमानदार रहने के बावजूद उन्होंने घर से बंधा रहना स्वीकार नहीं किया। यात्रा करना ख़ुद उन्हें इतना पसंद था कि अपनी मातृभाषा मैथिली में वे ‘यात्राी’ नाम से लिखते थे। नागार्जुन की आजीविका का साधन लेखन ही था। कविता और उपन्यास इन दो विधाओं में उन्होंने सबसे ज़्यादा लिखा। इनके अलावा उन्होंने निबंध, यात्रासंस्मरण आदि भी लिखे। कुछ अनुवाद भी किये। अपना प्रकाशन संस्थान भी शुरू किया। कुलवक़्ती लेखक होने के बावजूद वे सिर्फ़ लेखक नहीं थे। उन्होंने आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद के लगभग सभी महत्त्वपूर्ण जनांदोलनों में सक्रिय हिस्सेदारी की। जिसके कारण उन्हें आज़ादी से पहले भी और बाद में भी कई बार जेल जाना पड़ा। लेकिन राजनीति में सक्रिय हिस्सेदारी सिर्फ़ आंदोलनों तक ही सीमित थी। उन्होंने न कभी चुनाव लड़ा और न ही किसी अन्य तरीक़े से इसका लाभ उठाने का प्रयास किया। इसके विपरीत जनांदोलनों में हिस्सेदारी के चलते समय-समय पर उन्हें तरह तरह की आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। इस संदर्भ में उन पर दो तरह के आरोप लगे। एक, साहित्येतर गतिविधियों के आधार पर साहित्य में प्रतिष्ठा हासिल करने का प्रयास। दो, राजनीतिक आंदोलनों में भागीदारी के आधार पर वैचारिक भटकाव। पहला आरोप अशोक वाजपेयी प्रभृति लेखकों द्वारा दबी ज़बान से और अप्रत्यक्ष रूप से ही लगाया गया लेकिन दूसरा आरोप कई बार और कई आलोचकों द्वारा दोहराया गया। हालांकि सभी आलोचकों में भटकाव को लेकर मतैक्य नहीं है, बल्कि स्वयं आलोचकों की दलगत निष्ठा ही उसका आधार है। उनकी आलोचनाओं को पढ़कर यह आसानी से पहचाना जा सकता है कि कब और कौन नागार्जुन पर ऐसा आरोप क्यों लगा रहा है। यही नहीं, उनके कथित भटकावों की व्याख्या करते हुए आलोचकों ने उन्हें राजनीतिक रूप से वैसा बताने की कोशिश की है, जैसा वे बताना चाहते थे। ग़ौरतलब यह भी है कि नागार्जुन के राजनीतिक भटकावों की चर्चा उन्हीं लेखकों ने की हैं जो विभिन्न कम्युनिस्ट पार्टियों के समर्थक रहे हैं। रामविलास शर्मा की तरह कुछ युवा आलोचकों ने उन लेखकों की काफ़ी ख़बर ली है जो नागार्जुन में राजनीतिक भटकाव देखते हैं। और साथ ही यह भी कहते हैं कि नागार्जुन राजनीतिक दृष्टि से बहुत अधिक स्थिर नहीं रहे हैं, उनकी समझ में उतार-चढ़ाव आता रहता है। यह भटकाव कभी कभी उन्हें अपनी प्रकृत भावना के विरुद्ध भी पहुंुचा देता है। ऐसे आलोचकों ने यह सूत्रा भी संभवतः रामविलास शर्मा से ग्रहण किया है, जिन्होंने नागार्जुन की राजनीतिक कविताओं में व्यंग्य की प्रशंसा करते हुए भी इस तरह की कविताओं को ‘राजनीतिक लेक्चरबाज़ी का छंदोबद्ध रूप’ और ‘राजनीतिक पत्राकारिता के स्तर पर क्रांतिकारी जोश उभारने’ (नयी कविता और अस्तित्ववाद, पृ. 148-49) वाली बताया है। रामविलास जी के कथनों से साफ़ है कि वे भी नागार्जुन की राजनीतिक कविताओं को प्रचारात्मक ही मानते हैं। यही नहीं, वे इन कविताओं में कलात्मक उत्कर्ष का अभाव भी देखते हैं। स्वयं उनके शब्दों में, नागार्जुन की अनेक कविताओं में थोड़ा ऊबड़खाबड़पन है। कलात्मक खुरदुरापन नहीं, लिखने में कहीं ऊंचाई, कहीं

गिरावट। लेकिन उनका मन जब अपने आसन पर सध जाता है, तब कविताएं ऐसे निकलती हैं, जैसे सांचे में ढली हुई। उनकी प्रज्ञा को जैसे प्रकृति जगाती है, वैसे और कोई उत्तेजक नहीं’ (वही, पृ. 149)। लेकिन जो बात रामविलास जी सांकेतिक रूप में ही कहकर रह गये, उसे अन्य कई आलोचकों ने साफ़ तौर पर कहा। यानी नागार्जुन की राजनीतिक कविताओं की व्याख्या किस तरह की जाये और उनकी कलात्मकता को कैसे आंका जाये। दरअसल नागार्जुन की राजनीतिक कविताएं यदि उनकी ख्याति का आधार हैं, तो ये कविताएं ही उनको विवादास्पद भी बनाती रही हैं। नागार्जुन छह दशकों में फैली अपनी रचनात्मक यात्रा के दौरान महत्त्वपूर्ण और कम महत्त्वपूर्ण हर तरह की राजनीतिक घटनाओं पर कविता के माध्यम से भी और कई बार कविता से इतर भी टीका-टिप्पणी करते रहे हैं। केदारनाथ सिंह ने उनकी इस विशेषता को रेखांकित किया है। वे लिखते हैं, ‘नागार्जुन जितना देखते हैं, सुनते हैं, सूंघते हैं या महसूस करते हैं, उसे पूरा का पूरा और कई बार उसके संपूर्ण अनगढ़पन के साथ कविता में कहने की अद्भुत कला उनके पास है। उनके लिए कविता से बाहर कुछ भी नहीं है, न इतिहास का सत्य और न भूगोल का ऊबड़-खाबड़पन’ (मेरे समय के शब्द, पृ. 59)। मुक्तिबोध ने कविता की रचना के जिन तीन क्षणों की चर्चा की है, उसका नागार्जुन के संदर्भ में ज़्यादा महत्त्व नहीं है। एक सजग और ज़िम्मेदार नागरिक की तरह अपने आसपास होने वाली गतिविधियों से जुड़ना और अपने इस जुड़ाव को कविता के माध्यम से व्यक्त करना वे ज़रूरी समझते हैं। इस बात का ख़तरा उठाते हुए भी कि उन्हें ग़लत समझा जा सकता है, या रचना कलात्मक दृष्टि से कमज़ोर भी हो सकती है, उन्होंने कभी अपने इस स्वभाव का त्याग नहीं किया। वे उन सभी जनांदोलनों से जुड़े या उनका समर्थन किया जिनके माध्यम से सामान्य जनता की धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और न्यायपूर्ण इच्छाओं की अभिव्यक्ति होती थी। उन्होंने इस बात का इंतज़ार नहीं किया कि जिस राजनीतिक पार्टी का वे समर्थन करते हैं, उसका रुख़ क्या है, और न ही इस बात का इंतज़ार किया कि आंदोलन की परिणति किस रूप में होगी। वे राजनीतिक रूप से जागरूक थे, लेकिन राजनीतिज्ञ नहीं थे। उन्होंने यह ग़लतफ़हमी कभी नहीं पाली कि वे राजनीति के आगे चलने वाली मशाल हैं और न ही उन्होंने यह माना कि उन्हें किसी दल विशेष या आंदोलन विशेष से अपने को इस तरह संबद्ध कर लेना चाहिए कि उसके अच्छे-बुरे की जवाबदेही भी उनकी हो। यही कारण है कि यदि वे किसी आंदोलन से जुड़े, तो असहमत होने पर उससे अलग ही नहीं हुए, उसकी सार्वजनिक रूप से भी और कविता लिखकर भी आलोचना की। यहां यह भी कहना ज़रूरी है कि अपने आसपास होने वाली राजनीतिक गतिविधियों से ही नागार्जुन की काव्यात्मक संवेदना बंधी नहीं रहती थी। प्राकृतिक और सामाजिक परिवेश में निरंतर होने वाली गतिविधियां भी उनकी कविता के दायरे में आती थीं। प्रकृति पर लिखी हुई सैकड़ों कविताएं उनके इसी स्वभाव की देन हैं। तात्कालिक विषयों पर कविता लिखने की इस प्रवृत्ति की ओर आलोचकों का ध्यान बराबर गया है और इसे रेखांकित भी किया गया है। केदारनाथ सिंह ने इस तरह की कविताओं को नागार्जुन के काव्य के मूल्यांकन के संदर्भ में एक समस्या की तरह देखा है। स्वयं उनके शब्दों में, ‘पहली समस्या खड़ी होती है उनकी उन कविताओं को लेकर, जिन्हें किसी अन्य उपयुक्त शब्द के अभाव में हम ‘तात्कालिक कविताएं’ कह सकते हैं’ (आलोचना: 56-57, पृ. 14)। इसी विशेषता को लगभग इसी भाषा में विष्णु खरे ने भी कहा है। वे लिखते हैं, ‘एक दृष्टि से नागार्जुन तात्कालिकता के कवि हैं’ (वही, पृ. 21)।

राजेश जोशी ने भी इस बात को दोहराया है। उनके शब्दों में, ‘नागार्जुन की अनेक राजनीतिक कविताएं घोर समसामयिकता या एक तरह की तात्कालिकता का आभास देती हैं’ (साक्षात्कार: 81-84, पृ. 238)। विष्णु खरे मानते हैं कि उनकी तात्कालिकता ठंडी, बेजान, रोषहीन तात्कालिकता नहीं है’ (आलोचना: 56-57, पृ. 21), जबकि विजयबहादुर सिंह के अनुसार, ‘नागार्जुन का कमाल यह है कि वे कुछ ज़्यादा ही समय सापेक्ष हैं (साक्षात्कार-81-84, पृ.233)। इस तरह की कविताओं को लिखना केदारनाथ सिंह के अनुसार ‘एक ख़तरनाक काम’ है। इस बात की व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं, ‘यह ख़तरा केवल सामाजिक या राजनीतिक स्तर पर ही नहीं होता, बल्कि स्वयं कविता के स्तर पर होता है। यह ख़तरा वहां हमेशा मौजूद रहता है कि कविता कविता रह ही न जाये!’(आलोचना: 56-57, पृ. 15) जिस ख़तरे की बात केदारनाथ सिंह कर रहे हैं, उसे नागार्जुन पर लिखी विभिन्न आलोचनाओं से आसानी से समझा जा सकता है। ऐसी कविताओं के कारण ही नागार्जुन कई आलोचकों की नज़र में कवि ही नहीं हैं, तो कई की नज़र में उनमें काव्य-संयम का अभाव है, कई की नज़र में वे मात्रा राजनीतिक प्रचारक हैं। रामविलास जी के जिन कथनों का पहले उल्लेख किया गया है (नयी कविता और अस्तित्ववाद , पृ. 148-49), उनमें भी नागार्जुन की इस तरह की कविता की कमज़ोरी ही रेखांकित हुई है। तात्कालिकता पत्राकारिता का गुण है और नागार्जुन की कविता के इस गुण को आलोचकों ने पत्राकारिता से जोड़कर देखा है। रामविलास जी नागार्जुन की कविता के संदर्भ में राजनीतिक पत्राकारिता की चर्चा कर ही चुके हैं। इसी तरह कर्णसिंह चौहान ने इस तरह की कविताओं की रचना प्रक्रिया को व्याख्यायित करते हुए लिखा है, ‘नागार्जुन की कविता सच्चे और ठोस अर्थों में समकालीन रही है। अपने समय में घट रही हर छोटी-बड़ी घटना पर उनकी नज़र है। कितनी ही भाषाओं की पत्रा-पत्रिकाएं वे एक सिरे से घोखते हैं रोज़μकई समाचारों और पंक्तियों पर उनकी नज़र ठहर-ठहर जाती हुई । वे पंक्तियों के बीच में भी पढ़ते हैं और सामान्य अर्थों के पीछे छिपे बड़े संदर्भों को साकार कर देख लेते हैं। जब से उन्होंने लिखना शुरू किया तब से आज तक यह उनकी रचना का मुख्य धर्म बना हुआ है’ (कर्णसिंह चौहान, कलम 6-7, पृ. 101-02; नागार्जुन की कविता पुस्तक से उद्धृत, पृ. 50)। विष्णु खरे के अनुसार, ‘वे दैनिक, साप्ताहिक, मासिक या वार्षिक घटनाओं पर जब प्रतिक्रिया करते हैं तो उसके पीछे एक दृष्टि, एक इशारा तथा एक इरादा होता है’ (आलोचना: 56-57, पृ. 21)। घुमा फिराकर जो भी कहा जाये, मुद्दा यही है कि नागार्जुन कविता का इस्तेमाल अख़बार में छपने वाली ख़बरों की तरह करते हैं, जिनमें से अधिकांश 24 घंटे बाद बासी और अर्थहीन हो जाती हैं। क्या नागार्जुन की इन ‘तात्कालिक कविताओं’ को भी ख़बरों की ही श्रेणी में रखा जाना चाहिए? नागार्जुन की तात्कालिक कविताओं पर बात करने से पहले यह जानना ज़रूरी है कि क्या उनकी सभी कविताएं ‘तात्कालिकता’ की श्रेणी में ही रखी जा सकती हैं? और क्या उनकी कविता का मूल्यांकन इन तात्कालिक कविताओं के द्वारा ही किया जाना उचित है? राजेश जोशी का तो मानना है कि ‘एक पूर्ण कवि-व्यक्तित्व को खांचों में बांटकर देखने की आलोचकीय चतुराई से ही यह भ्रम पैदा हुआ’ (साक्षात्कार: 81-84, पृ. 238)। केदारनाथ सिंह ने नागार्जुन के रचनालोक पर विचार करते हुए ‘अनुभव के दो ध्रुवांतों’ की चर्चा की है। वे लिखते हैं, ‘उनके पूरे काव्य को सामने रखकर देखें तो दिखायी पड़ेगा कि उनकी प्रतिभा एक साथ अनुभव के दो ध्रुवांतों पर काम करती हैμएक तरफ़ प्रेम, वात्सल्य, करुणा और सौंदर्य जैसे ‘गंभीर’ समझे जाने वाले विषय हैं और दूसरी तरफ़ एकदम सद्यःघटित, आसन्न और

तात्कालिक विषय। नागार्जुन का रचना-लोक इन दोनों से मिलकर बनता है’ (आलोचना: 56-57, पृ. 15)। इसकी वजह बताते हुए वे नागार्जुन की कविता संबंधी अवधारणा पर टिप्पणी करते हैं, ‘वे अपने पूरे कृतित्व के द्वारा मानो इस बात को रेखांकित करते हैं कि एक बदलते हुए संघर्षशील समाज में कविता की यह दोहरी भूमिका अनिवार्य है’ (वही, पृ. 15)। लेकिन राजेश जोशी तात्कालिकता की व्याख्या ज़्यादा व्यापक अर्थों में करते हैं। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, तात्कालिकता को यदि राजनीतिक संदर्भों तक सीमित रखकर देखेंगे तो नागार्जुन की कविता का मूल्यांकन दोषपूर्ण होगा। लेकिन यदि उन्हें अन्य विषयों पर लिखी कविताओं के संदर्भ में रखकर देखेंगे तो ‘तात्कालिकता’ की व्याख्या भिन्न अर्थों में करनी होगी। राजेश जोशी मानते हैं कि नागार्जुन की कविता के केंद्र में इंद्रियगोचर साक्ष्य होता है, इसीलिए वे कविता का आरंभ किसी घटना को दर्ज करने के अंदाज़ से शुरू करते हैं और इसीलिए यह भ्रम पैदा होता है। स्वयं उनके शब्दों में, ‘ऐसी हर घटना जो उनकी इंद्रियों की परिधि में हो और जो उनकी वैचारिकता को झनझना दे, को बांध लेने की ललक और क्षमता ही उनकी रचना के बारे में तात्कालिकता का भ्रम पैदा करती है’ (साक्षात्कार: 81-84, पृ. 239)। राजेश जोशी ने जिस ‘इंद्रियगोचर साक्ष्य’ की बात की है, उसकी ओर केदारनाथ सिंह भी संकेत कर चुके हैं (मेरे समय के शब्द, पृ. 59)। केदारनाथ सिंह नागार्जुन की कविताओं की दूसरी विशेषता मानते हैं, ‘गहरी स्थानीयता’। इस स्थानीयता को वे तात्कालिकता से जोड़ते हैं। स्पष्ट ही इन दोनों विशेषताओं से कोई महान कविता लिखी जा सकती है, यह केदारनाथ सिंह भी नहीं मानते। लेकिन उनका मानना है कि नागार्जुन अपनी कविताओं में इन दोनों का अतिक्रमण करते हैं और यह संभव होता है, उनकी विश्वदृष्टि द्वारा। वे लिखते हैं, ‘जिस बात के चलते नागार्जुन की कविता अपने सर्वोत्तम रूप में सारी तात्कालिकता और स्थानीयता को अतिक्रांत कर जाती है, वह है उनकी विश्वदृष्टि जो उनके व्यक्तिगत अनुभव और जनता के सामान्य बोध से मिलकर बनी है और उनके निकट इन दोनों के बीच के अंतःसूत्रा को आलोकित करने वाला तत्व है मार्क्सवाद’ (मेरे समय के शब्द, पृ. 58)। मार्क्सवाद के प्रति उनकी आस्था जीवनपर्यंत बनी रही। यह और बात है कि यह आस्था ऐसी नहीं थी कि उन्हें किसी तरह के द्वंद्व न सालते हों, या उनके जीवन के और लेखन के सारे अंतर्विरोध ख़त्म हो गये हों। नागार्जुन जैसे संवेदनशील कवि के लिए यह मुमकिन नहीं था। यह उनकी कमज़ोरी नहीं, शक्ति का परिचायक है। प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह लेखक हो, या न हो, अपने आसपास घटित होने वाली गतिविधियों को अपनी वैचारिक दृष्टि द्वारा ही ग्रहण करता है, जिसे वह ठीक से भले ही परिभाषित न कर सकता हो। यह दृष्टि जीवनानुभवों से, पारिवारिक और सामाजिक संस्कारों से, अध्ययन से और विश्व को समझने के अपने सजग प्रयत्न से प्राप्त होती है। वे लोग जो सचेत रूप से विभिन्न जीवन-दृष्टियों और विचारधाराओं का अध्ययन करते हैं, वे अपने विचारों को ज़्यादा व्यवस्थित रूप भी दे सकते हैं और उसे एक नाम भी दे सकते हैं। नागार्जुन की विश्वदृष्टि को मार्क्सवादी कहने का तात्पर्य यही है कि वे अपने आसपास होने वाली गतिविधियों को अपनी इस विश्वदृष्टि के माध्यम से ही देखते, समझते और कविता, उपन्यास या किसी अन्य रचनात्मक विधा के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि नागार्जुन हमेशा और हर बार मार्क्सवादी दृष्टि को परिशुद्ध रूप में लागू कर पाते हैं। यह संभव भी नहीं है। दरअसल, रचना में परिशुद्ध मार्क्सवादी दृष्टि की मांग करना लेखक से वैचारिक यांत्रिकता की मांग करना है। कोई भी रचनाकार अपनी दृष्टि को यांत्रिक रूप में लागू नहीं करना चाहेगा।

नागार्जुन भी ऐसा नहीं करते और यह बात उनकी सभी तरह की कविताओं और उपन्यासों से सिद्ध है। यही नहीं, उनका लेखन इस बात का भी प्रमाण है कि उनमें वैचारिक ऊहापोह और अंतर्द्वंद्व भी दिखायी देता है। स्वयं उन्हें लगता है कि जिन विचारों या आंदोलनों को सही समझकर समर्थन दिया है, जीवन के कई अनुभव उनके विपरीत खड़े नज़र आते हैं। कई बार चीज़ें़ उनकी वैचारिक समझ से भिन्न दिशा में जाने लगती हैं और उनके लिए यह समझना मुश्किल हो जाता है कि ऐसा क्यों हुआ या ऐसा क्यों हो रहा है। अपने सामने आने वाली इन उलझनों को भी वे अपनी रचना का हिस्सा बनाते हैं, जिन्हें सही परिप्रेक्ष्य में न समझ पाने के कारण उनके वैचारिक मंतव्यों की मनमाने ढंग से व्याख्या की जाने लगती है और वैसे ही निष्कर्ष निकाले जाने लगते हैं। नागार्जुन की राजनीतिक कविताओं की जिस विशेषता की ओर आलोचकों का ध्यान गया है, वह है व्यंग्यात्मकता। डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार, ‘नागार्जुन की सबसे सफल राजनीतिक कविताएं वही हैं जिनमें वे व्यंग्य से हंसते हैं, क्रोध या आवेश में नहीं आते’ (नयी कविता और अस्तित्ववाद, पृ. 149)। नामवर सिंह के अनुसार, ‘कबीर के बाद हिंदी में नागार्जुन से बड़ा दूसरा व्यंग्यकार पैदा नहीं हुआ’ (आलोचना: 56-57, पृ. 2)। नागार्जुन की ही एक कविता पंक्ति का हवाला देते हुए नामवर सिंह ने उनके व्यंग्य को ‘वर्ग-प्रतिहिंसा’ से उत्पन्न बताया है। उनके शब्दों में, ‘नागार्जुन के ये व्यंग्य भारतीय जनता की प्रखर चेतना के, साथ ही, उसके सहज बोध और ज़िंदादिली के भी अचूक प्रमाण हैं’ (वही, पृ. 2)। रामविलास जी का मानना है कि ‘नागार्जुन के व्यंग्य कविताएं लिखने का कारण यह है कि बिहार और उत्तर प्रदेश में राजनीतिक जीवन जैसा हैμविशेष रूप से वामपक्ष की स्थिति जैसी आज हैμउसमें कवि को क्रांतिकारी उत्साह के बदले व्यंग्य के लिए ही सामग्री अधिक मिलती है’ (नयी कविता और अस्तित्ववाद, पृ. 149)। इस विशेषता को अन्य कई आलोचकों ने रेखांकित किया है, लेकिन कुछ आलोचक राजनीतिक व्यंग्य की कविताओं में वैचारिक और शिल्पगत कमज़ोरियां भी पाते हैं। भगवत रावत के अनुसार, ‘नागार्जुन की ये कविताएं परिस्थितियों, व्यक्तियों और घटनाओं पर केवल सीधी चोट करके उनका पर्दाफ़ाश तो करती है, लेकिन किसी तरह भी गहरी चिंता नहीं पैदा करतीं’ (पूर्वग्रह, 39-40; नागार्जुन की कविता से उद्धृत, पृ. 18)। चिंता पैदा करने वाली राजनीतिक कविताएं कौन-सी होती हैं और पाठकों में चिंता पैदा करने की परिणति किस रूप में होती है, यह आलोचक ने स्पष्ट नहीं किया है। राजनीतिक व्यंग्य की जिन कविताओं के आधार पर नामवर सिंह ने नागार्जुन को कबीर के बाद व्यंग्य का सबसे बड़ा कवि कहा है, उन्हीं के बारे में रमेश कुंतल मेघ का विचार है कि ‘वे व्यंग्य को त्रासदी और पीड़ा से मोड़करμएक उदार मानवतावादी और लोकमंचीय नेता की तरहμउसे हास परिहास और फूहड़ता में भटका गये। इसीलिए नागार्जुन के बड़े डरावने व्यंग्य भी दया में परिणत होते हैं, बड़े भंडाफोड़ी व्यंग्य भी फूहड़ता में फिचफिचा पड़ते हैं और बड़े विद्रोही व्यंग्य तक हास्य विनोद में फूट छलकते हैं’ (क्योंकि समय एक शब्द है , पृ. 433)। इन पंक्तियों के लेखक ने 1972-73 में स्वयं नागार्जुन के मुख से कई व्यंग्य कविताएं सुनी हैं जिन्हें उन्होंने श्रोताओं के सामने न केवल सस्वर सुनाया था, वरन साभिनय भी सुनाया था। नागार्जुन के मुख से उन कविताओं को सुनना और देखना एक अद्भुत अनुभव था। यह मुमकिन है कि उनका इस तरह कविता सुनाना शिष्ट समुदाय की अभिरुचियों के अनुरूप न हो (हिंदी का कोई अन्य प्रगतिशील, प्रयोगवादी, नयी कवितावादी और जनवादी कवि कविताओं को इस तरह पेश नहीं करता। उनका इस तरह कविता सुनाना लोकगायकों और मंचीय कवियों

के ज़्यादा नज़दीक है)। इस बात को विजयबहादुर सिंह ने दूसरे ढंग से स्वीकार किया है। वे लिखते हैं, ‘नागार्जुन के साथ विलक्षणता यह है कि दूर से अति सामान्य और बौड़म दिखते हैं। बेहद अकलात्मक, निपट देहाती और गंवार से। बड़े-बड़े कवि सम्मेलनों में आप उन्हें मंच पर देख लें तो लगेगा कि कोई तमाशबीन नहीं तो और क्या है? चुटकी बजा-बजा कर नाच रहा है। सारे लोग या तो हंस रहे हैं या सकते में आ गये हैं और अच्छे अच्छे मंचीय कवियों को पसीना छूट गया है। जिसे ‘मजमा जुटाना’ कहते हैं, नागार्जुन अपने काव्यपाठ से वह सहज ही कर डालते हैं’ (साक्षात्कार: 81-84)। इसलिए नागार्जुन को महज तमाशबीन और मजमा जुटाने वाला समझने और उनकी कविताओं को भी उसी स्तर का मानने से पहले इस बात पर ज़रूर गौर किया जाना चाहिए कि नागार्जुन की प्रस्तुति में सिर्फ़ स्वर और अभिनय का ही योगदान नहीं था, उन शब्दों का भी योगदान था, जिन्हें हास-परिहास और फूहड़ता से परिभाषित नहीं किया जा सकता। नागार्जुन अपनी जिन कविताओं को नाटकीय अंदाज़ में पेश करते थे, उनमें एक थी, ‘मंत्रा कविता’। इस कविता की पूरी संरचना में जो नाटकीयता अंतर्निहित है, उसे ही सस्वर पाठ और अभिनय से नागार्जुन ने अपने चरम रूप में अभिव्यक्त किया था। यह नाटकीयता व्यंग्य पैदा करने के लिए है जिसके लिए वे मंत्रोच्चार की शास्त्राीय पद्धति का सहारा लेते हैं, लेकिन उन भावों को व्यक्त करने के लिए, जिनका दूर-दूर से भी धार्मिकता या शास्त्राीयता से कोई संबंध नहीं है। इसके विपरीत अपने प्रगतिशील दृष्टिकोण के द्वारा वे उस राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्विरोधों और जनता के प्रति उसके छल-छद्म को उजागर करते हैं। ऐसा करके वे ‘गहरी चिंता’ पैदा कर पाते हैं या नहीं, लेकिन व्यवस्था के प्रति जनता के असंतोष और ग़्ाुस्से को ज़रूर व्यक्त करते हैं। नागार्जुन की कविता के संदर्भ में इसी वजह से एक ओर लोकप्रियता का प्रश्न उठा है, तो दूसरी और कलात्मकता का भी। यदि रामविलास शर्मा और नामवर सिंह प्रभृति आलोचकों ने इन दोनों के बीच संतुलन और सामंजस्य स्थापित कर सकने में कामयाब होने के लिए नागार्जुन की प्रशंसा की है (नयी कविता और अस्तित्ववाद, पृ.141; नागार्जुन: प्रतिनिधि कविताएं, भूमिका, पृ. 9); तो दूसरी ओर हरिवंश राय बच्चन के अनुसार नागार्जुन ‘कला वांछित संयम-संतुलन को बिल्कुल भूल गये हैं’ (नागार्जुन पर संपर्क के विशेषांक के संपादकीय से उद्धृत)। इस तरह की बात कई आलोचकों ने दोहरायी है। लोकप्रियता के कारण ही नामवर सिंह कहते हैं कि ‘इस बात में तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है कि तुलसीदास के बाद नागार्जुन अकेले ऐसे कवि हैं जिनकी कविता की पहुंच किसानों की चौपाल से लेकर काव्यरसिकों की गोष्ठी तक है’ (वही, पृ. 10)। इस तरह नागार्जुन यदि अपने व्यंग्य में कबीर से तुलनीय हैं, तो लोकप्रियता में तुलसीदास से। रामविलास जी इस तरह का दावा तो नहीं करते, लेकिन वे यह ज़रूर मानते हैं कि ‘हिंदी भाषी प्रदेश में किसान और मज़दूर जिस तरह की भाषा आसानी से समझते और बोलते हैं, उसका निखरा हुआ काव्यमय रूप नागार्जुन के यहां है’ (नयी कविता और अस्तित्ववाद, पृ. 140)। किसान-मज़दूर का जीवन यथार्थ और संघर्ष को उन्हीं की भाषा में अभिव्यक्त करने की कलात्मक क्षमता और हिंदी भाषी प्रदेशों के सर्वाधिक लोकप्रिय दो कवियों, कबीर और तुलसी के बाद के सबसे लोकप्रिय कवि होने के विश्वास ने ही नागार्जुन को जनकवि होने की पहचान दी है। स्वयं उन्होंने अपनी कविताओं में अपने को ‘जनकवि’ कहा है। जनकवि का तात्पर्य यदि जन भावनाओं की अभिव्यक्ति देने से है, तो निश्चय ही नागार्जुन जनकवि हैं। लेकिन जहां तक लोकप्रियता का सवाल है, जिन आलोचकों 378 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 ने उन्हें ‘किसानों की चौपाल से लेकर काव्यरसिकों की गोष्ठी’ तक पहुंचा दिया है, उन्होंने ऐसा किस आधार पर कहा है, यह साफ़ नहीं है। ऐसा कोई अध्ययन हुआ भी है, इसकी कोई जानकारी इन पंक्तियों के लेखक को नहीं है। इसी तरह जो यह उम्मीद लगाये हुए थे कि ‘लेकिन कल जब समाजवादी दलों का बिखराव दूर होगा, जब हिंदी प्रदेश की श्रमिक जनता एकजुट होकर नयी समाज व्यवस्था के निर्माण की ओर बढ़ेगी, जब नयी कविता का अस्तित्ववादी सैलाब सूख चुका होगा, जब मध्यवर्ग और किसानों और मज़दूरों में भी जन्म लेने वाले कवि दृढ़ता से अपना संबंध जनआंदोलन से क़ायम करेंगे, तब उनके सामने लोकप्रिय साहित्य और कलात्मक सौंदर्य के संतुलन की समस्या फिर पेश होगी और तब साहित्य और राजनीति में उनका सही मार्गदर्शन करने वाले, अपनी रचनाओं के प्रत्यक्ष उदाहरण से उन्हें शिक्षित करने वाले, उनके प्रेरक और गुरु होंगे कवि नागार्जुन’ (नयी कविता और अस्तित्ववाद, पृ. 141), वह स्वप्न तीन दशकों बाद भी पूरा होता दिखायी नहीं दे रहा है। इसके विपरीत स्थितियां तब से और भी प्रतिकूल ही हुई हैं। लेकिन लोकप्रियता के इन दावों ने नागार्जुन को अज्ञेय तो दूर, अपने ही समकालीन प्रगतिशील कवियों शमशेर और मुक्तिबोध से सहज ही श्रेष्ठ और जनांदोलनों के लिए ज़्यादा अपरिहार्य और स्वीकार्य बना दिया है। यदि नागार्जुन के इस दावे की कोई अन्य कवि बराबरी करता है, तो वह केदारनाथ अग्रवाल और कुछ हद तक त्रिलोचन शास्त्राी हैं। यह दावा तो शायद ही कोई करेगा कि शमशेर और मुक्तिबोध कभी ‘किसानों की चौपाल’ तक अपनी पहुंच बना सकते हैं। यह भी संदेहास्पद है कि उनकी कविताएं कथित काव्यरसिकों की अभिरुचि पर खरी उतरती हैं। इसके बावजूद इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि नागार्जुन अज्ञेय, शमशेर और मुक्तिबोध से ज़्यादा पढ़े जाते हैं और इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है कि वे इन कवियों से कम पढ़े जाते हैं। सारे दावे महज़ दावे हैं। हमारे ये सभी प्रतिनिधि कवि रवींद्र, प्रेमचंद, शरतचंद्र, ग़ालिब, मीर, फ़ैज़ आदि से ज़्यादा पढ़े जाते होंगे, यह भी मानने योग्य तथ्य नहीं है। इन प्रगतिशील कवियों की पठन-पाठन की अगर परंपरा बनी हुई है, तो इसका कारण विश्वविद्यालयों में हिंदी पाठ्यक्रमों में अनिवार्य रूप से इनका शामिल होना है। इस अनिवार्यता ने ही इन कवियों पर लगातार शोध और आलोचना की ज़रूरत को पैदा किया है। हां, हिंदी पाठ्यक्रमों की दुनिया के बाहर पढ़ने वालों का एक समुदाय स्वयं हिंदी में साहित्य रचने वालों का है। इन दो समुदायों से बाहर वास्तविक पाठकों की संख्या कितनी होगी, इसका अनुमान हिंदी में प्रकाशित होने वाली पुस्तकों के संस्करणों से लगाया जा सकता है। हां, यह अवश्य माना जा सकता है कि जनांदोलनों की मज़बूती के दौर में हमारे इन महान कवियों और लेखकों की रचनाओं को पढ़ने वालों की संख्या निश्चय ही बढ़ती होगी। यह कैसे भुलाया जा सकता है कि सातवें दशक में उभरे जनांदोलनों ने ही नागार्जुन, केदार, शील आदि कवियों को दुबारा प्रासंगिक बनाया था। यही नहीं, हिंदी कविता के केंद्र से अज्ञेय को हटाकर मुक्तिबोध को स्थापित किया था। यह और बात है कि प्रगतिशील और जनवादी आलोचकों का एक हिस्सा लगातार यह प्रयास करता रहा है कि वे मुक्तिबोध को साहित्य और संस्कृति के प्रगतिशील और जनवादी आंदोलन के बाहर धकेल सकें। इसी तरह खुद को प्रगतिशीाल मानने वाले कुछ आलोचकों ने समय-समय पर यदि एक ओर नागार्जुन को भटकावों वाला साधारण कवि घोषित किया है (नंदकिशोर नवल, भगवत रावत, अपूर्वानंद आदि) तो दूसरी ओर उन्हें सशस्त्रा क्रांति का सूत्राधार (नक्सलवाद के समर्थक कवि और आलोचक) भी बताया है। यह दुखद लेकिन सत्य है कि हिंदी की प्रगतिशील और जनवादी धारा ने इस सहज लोकतांत्रिक बात को स्वीकार नहीं किया है कि जनवादी कविता एक रूप में नहीं, बल्कि कई-कई रूपों में अपने को व्यक्त करती है, कर सकती है। यही उसकी शक्ति है कि इसमें नागार्जुन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल और मुक्तिबोध सभी के लिए जगह है। यह कविता ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों के बीच पहुंचे और स्वीकार्य हो, यह और बात है, लेकिन वे कबीर और तुलसीदास की तरह लोकप्रिय भी हों, यह बिल्कुल भिन्न बात है। यह नहीं भूलना चाहिए कि कबीर, तुलसी की लोकप्रियता का कारण सिर्फ़ साहित्यिक नहीं है और किसान और मज़दूर उन्हें भक्त कवि समझकर ही पढ़ते हैं। पढ़ते नहीं, पारायण करते हैं, या कथा वाचन की तरह सुनते हैं। जनवादी और प्रगतिशील कवियों के लिए ऐसी लोकप्रियता श्रेयस्कर नहीं हो सकती। नागार्जुन के लिए भी नहीं। मो.: 09810606751

संदर्भ ग्रंथ--

1. नयी कविता और अस्तित्ववाद: रामविलास शर्मा; 1978; राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., नयी दिल्ली। 2. नागार्जुन: प्रतिनिधि कविताएं: संपादक: नामवर सिंह; 1996; राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., नयी दिल्ली। 3. मेरे समय के शब्द: केदारनाथ सिंह; 1993; राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि., नयी दिल्ली। 4. शब्द और मनुष्य: परमानंद श्रीवास्तव; 1988; राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., नयी दिल्ली। 5. आलोचना: 56-57, संपादक: नामवर सिंह; जनवरी-जून, 1981; राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली। 6. साक्षात्कार: 81-84: संपादक: सोमदत्त; अगस्त-नवंबर, 1986; मध्यप्रदेश साहित्य परिषद्, भोपाल। 7. संपर्क (नागार्जुन अंक): संपादक: सुरेशचंद्र त्यागी; मार्च, 1984; अशिर प्रकाशन, सहारनपुर।