आवरण / उदयप्रकाश

Gadya Kosh से
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इसे कहानी कहने का जी नहीं करता। फिर भी कहना पडे़गा। विवशता है।

जिस दौर में हम जीवित हैं, उसमें हमारा जीवन चारों ओर से असंख्य, तरह-तरह की कहानियों के बीच घिरा हुआ है। जैसे हम किसी बाढ़ में डूबे हों। या व्यस्त हाइवे पर ट्रैफिक के बीचों-बीच खड़े हों। चारों ओर किस्सों का शोर और जीवन पर उतने ही ख़तरे। ऐसा इतिहास में कभी नहीं हुआ था। हर रोज़, कई कई बार, हम अलग-अलग कहानियों के पात्र बन जाते हैं या बना दिये जाते हैं, या फिर किसी अन्य को बनता हुआ देखते हैं। कभी कोई यूनानी त्रासदी, कभी संस्कृत की कादंबरी, कभी कोई विस्मृत जातक कथा, कभी किसी विदूषक की कामुदी। किसी गरीब और मामूली आदमी के दुख से उपजता ऊबे और सुखी लोगों का चुटकुला।

और कभी किसी अखबार या टी० वी० चैनल की न्यूज़ स्टोरी। किसी दुर्घटना या अपराध की दहशतनाक ख़बर। हाँ, यह ज़रूर है कि हम उनमें से नहीं हैं, जिनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी किसी रंगीन अख़़बार या टीवी चैनल का मसाला या गॉसिप बनती है। अक्सर पेज थ्री या लेट नाइट शो में दिखने वाली।

वैसे हमारा जीवन भी एक तरह का ‘रियलिटी शो’ ही है, ऐसा, जो कहीं प्रसारित नहीं होता। कहीं दिखता-छपता नहीं। मैं यहां एक ऐसे ही किस्से के बारे में बताने जा रहा हूं, जिसका सम्बन्ध एक किताब के ‘कवर’ के बनने और छपने से है। ‘कवर’ को हिंदी में, जिस भाषा में मैं लिखता हूं, आवरण कहते हैं।


एक पान वाले की गुमटी के पास मुझे हिंदी का वह कवि मिला था। सर्दियों के दिन थे। संभवतः जनवरी या दिसम्बर की एक कँपकँपाती सुबह। कवि ने एक अच्छा-सा ऊनी कोट पहन रखा था। उसका रंग अभी तक मेरी स्मृति में है। बल्कि आज, लगभग तीस साल बाद, जब मैं इस किस्से को लिख रहा हूँ, वह रंग और भी साफ़ और चमकीला होकर, मेरी आँख के सामने उभर आया है। उस कोट का रंग हलका-सा नीला था और उसमें ज़रा-सा तोते का हरा और जामुनी के साथ कुछ और भी घुला हुआ था। शायद थोड़ा-सा धूसर, जैसा गर्मियों में धरती का रंग होता है। या फिर यह हो सकता है कि उसके कोट में हवा या पानी, या समय के साथ, धरती ही सचमुच में थोड़ी-सी घुल गई हो।

लेकिन वह अलग-सा नीला था, जिसे मैं देर तक देखता रह गया था। वह नीला मुझे अपनी ओर चुंबक की तरह खींच रहा था। या ब्रह्माण्ड में पाये जाने वाले ‘ब्लैक होल’ की तरह। मैं उससे छूटने और बचने की कोशिश में था।

मुझे जब कवि ने अपना कविता संग्रह दिया था, तो मुझे पहले ही भरोसा था कि उसकी कविताएं कुछ अलग तरह की होंगी। उसकी कविताओं का जो भी रंग हो, उनमें कुछ और भी़ चीज़ें अपने रंगों के साथ या अपने रंगों को छोड़कर घुली होंगी। इस तरह कि अब कविता के रंगों में घुली संसार की उन अन्य चीज़ों को अलग से बीनना असंभव हो चुका होगा।

‘दिये की आखिरी बत्ती’ या ‘रेलवे प्लेटफॉर्म का अंतिम कोना’ या ‘रोटी का बचा हुआ टुकड़ा’... कुछ-कुछ ऐसा ही शीर्षक उस संग्रह का था। इस समय ठीक-ठीक शीर्षक याद नहीं है, लेकिन इतना ज़रूर है कि उसमें ‘अंतिम’ या ‘आखि़री’ जैसा कोई एक शब्द शीर्षक के पीछे से झाँक रहा था। मुझे वह शब्द बीमार लग रहा था। बुखार और कमज़ोरी में डूबा हुआ। अगर सच कहूँ तो उस कवि का चेहरा, बहुत प्रयत्न करने पर भी, मेरी स्मृति में ठीक से नहीं उभरता। मैंने कई बार उसका स्केच बनाने की भी कोशिश की, लेकिन हार कर छोड़ दिया। आज जब मैं यह किस्सा लिखने जा रहा हूँ तो मुझे उस कवि के सिर्फ़ ऊनी कोट का अलग-सा नीला रंग स्मृति में एक नम धब्बे की तरह, समय में बहुत दूर दिखाई देता है। किसी मद्धिम पीले, कम वॉट के पुराने बल्ब की तरह जलता हुआ। ...और उसी के नीचे वह एक शब्द भी, जो शीर्षक के पीछे से, बुखार में झाँक रहा था। मुझे लगता है उस बीमार शब्द का अर्थ ‘अन्तिम’ या ‘आखीर’ जैसा कुछ था।

पान की गुमटी के पास, अपने लिए बीड़ी का बंडल खरीदता हुआ हिंदी का कवि, जिसने एक अलग नीले रंग का कोट पहन रखा था, अकेला नहीं था। उसके साथ एक मरियल-सा, गरीब और उजाड़ चेहरे का एक आदमी और खड़ा था। उसने सस्ती टेरिकॉट की पतलून पहन रखी थी और उसकी शर्ट, जिसके सभी रंग लगभग बुझ चुके थे, के सामने का एक बटन टूटा हुआ था, जहाँ उसने एक जंग खाया सेफ्टीपिन लगा रखा था। उस सेफ्टी पिन को देखकर मुझे अपने बचपन और माँ की याद आई थी। एक अपनी पुरानी शर्ट की भी, जिसे मैं कभी पाजामे और कभी हाफ़ पैंट के ऊपर पहनता था। मुझे अपने स्कूल के पास बहने वाला वह पहाड़ी नाला भी याद आया, जिसे आर-पार कूदने की कोशिश में मेरी टांगें टूट गईं थीं और कई दिनों तक प्लास्टर बांधे मुझे पलंग पर रहना पड़ा था। लेकिन खुशी की बात यह थी कि उतने दिनों तक मैं उस नरक में जाने से बच गया था, जिसे स्कूल या प्राथमिक पाठशाला कहते थे।

कवि ने कहा -‘ इनसे मिलो। इन्हें मदद की ज़रूरत है। यहाँ दिल्ली में अपना प्रकाशन शुरू किया है। तुम अपनी कविता की किताब इन्हें ही देना।’

वह उजाड़-सा आदमी अपने चेहरे और कपड़ों के बुझे हुए रंगों के पीछे से मुस्कुराया। उसने शायद ‘नमस्ते या ‘नमस्कार’ जैसा कुछ कहा। मैं करुणा में भरा हुआ, उस उजाड़ में किसी हरे-भरे रंग की तरह, किसी जंगल या पेड़ की तरह मुस्कुराना चाहता था, लेकिन तभी मैंने उसकी आँखें देख डालीं।

मैं ऐसी आँख को क्यों पहचान लिया करता हूँ? क्यों? क्यों? क्यों?

मैं हँस नहीं सका और उस कवि के कविता-संग्रह के पन्ने लगातार पलटने लगा। मैं खुद पर टिकी उसकी आँखों से बचता हुआ वहाँ से भाग जाना चाहता था।

बस यही इस कहानी का पहला छोर है, जिसे घटे हुए तीस से ज़्यादा साल हो गये हैं। इन तीस सालों में बहुत-सी चीज़ें बदल गयीं हैं। मैं बूढ़ा और गंजा हो गया हूं। मेरे बच्चों के बच्चे हो गये हैं। मेरी रीढ़ की हड्डी गल चुकी है। आँखों की रोशनी बुझने लगी है और मैंने मोटे लेंस का चश्मा पहनना शुरू कर दिया है। इसके बाद भी चेहरे पहचान में नहीं आते। चीज़ें और अपना समय मुझे बहुत धुंधला दिखाई देता है।

इतने बीते हुए सालों में दुनिया पहले जैसी नहीं रह गई है। बर्लिन की दीवार ढह चुकी है। मैं जिस ज़िले में पैदा हुआ था, वह अब तीन ज़िलों में बंट गया है। जिस प्रांत में मेरा ज़िला था, उसके कई प्रांत बन गये हैं। जैसे आटे की एक ल्रंबी-सी लोई से कई रोटियां बना दी जाती हैं। मेरा पता इतने सालों में कई-कई बार बदल चुका है।

सोवियत संघ अब दुनिया के नक्शे में कहीं नहीं है। एक यूगोस्लाविया हुआ करता था, जिसके मार्शल टीटो गुट निरपेक्ष आंदोलन चलाते थे और नेहरू जी और सुकर्णो के साथ मुस्कुराते थे, वह सब कपूर के धुएँ की तरह काफूर हो चुका है। किसी ने अभी कुछ रोज़ पहले बताया कि बिहार के जिस ज़िले से भारत के पहले राश्ट्रपति बाबू राजेंद्र प्रसाद आते थे, वहाँ से एक ऐसा नेता चुनाव जीतता है, जिस पर 148 लोगों की हत्या का आरोप है। यानी इराक के सद्दाम हुसैन से भी ज़्यादा, जिसे इस सदी में अब तक के सबसे बड़े हत्यारे जॉर्ज बुश ने फर्जी मुकदमा चला कर फाँसी पर लटकवा दिया था।

मेरे गाँव में घर के पास जो नदी बहती थी, वह सूख चुकी है और उसकी रेत के लिए ठेकेदारों के बीच गोलियाँ चलती हैं। मेरी मरी हुई नदी की रेत कांस्ट्रक्शन के लिए, सीमेंट में मिलाई जाने वाली, गंगा की रेत से भी बेहतर मानी जाती है।

गंगा भी गंगोत्री या गोमुख के अपने मुहाने से ही मर चुकी है। इलाहाबाद में उसका शव बहता है, जिसमें किंवदंती हो चुकी सरस्वती और मृत्यु के देवता यमराज की मरी हुई बहन यमुना की लाश आकर मिल जाती है। लोग उन शवों में अपनी देह मलते हैं और डुबकी लगाकर स्वर्ग जाने की सीढ़ियां खोजते हैं। एक मरी हुई भाषा, जो अब जीवितों को ठगने के काम आती है, उसे बोलते हुए पंडे वहां उन लोगों से रुपये ऐंठते हैं।

और हाँ, वह कवि भी, जो उस दिन एक अलग से नीले रंग के कोट में, पान की गुमटी के पास मुझसे मिला था और जिसने अपना कविता-संग्रह मुझे दिया था, जिसका शीर्षक मुझे ठीक-ठीक याद नहीं, लेकिन जिसमें कोई एक शब्द, जिसका अर्थ शायद ‘अंतिम’ या ‘बचा हुआ’ था, और जो तपेदिक की बुखार में डूबा हुआ शीर्षक के पीछे से झाँक रहा था... वह कवि भी कई साल हुए मर चुका है।

कवि का हत्यारा कोई ठेकेदार था। उसने कवि को उसके दफ्तर से दिन-दहाड़े, भरी दोपहर खींचकर बाहर निकाला था और उसे सारे शहर की सड़क पर कई घंटों तक घुमाता रहा।

पूरा शहर देख रहा था, जब वह ठेकेदार या हत्यारा उस कवि की उंगलियाँ, कलाइयाँ, बाहें, टखने, पैर, जंघाएँ, एक-एक कर काट रहा था। उस कवि के शरीर के कटे हुए अंग उस शहर की सड़कों पर बिखरे हुए थे, जिस शहर में रहने वाले एक बूढ़े आदमी के अलावा किसी और ने उस कवि की एक भी कविता नहीं पढ़ी थी।

उस शहर के सात हज़ार लोग कवि की हत्या को किसी बॉलीवुड की फिल्म या टी० वी० सीरियल की शूटिंग की तरह देख रहे थे।

सब से अंत में ठेकेदार ने कवि का सिर उसके धड़ से अलग किया और चिल्लाया:‘देख लो तुम लोग। वक़्त बदल चुका है। जो कोई भी अब ठेकों का विरोध करेगा, उसका ये हाल होगा?’

शहर के लोग उस समय भी चुप थे, जब ठेकेदार ने कवि का सिर पुलिस थाने के गेट पर फेंका और सामने के ठेले पर जाकर इमली की चटनी के साथ समोसा खाने लगा और चाय पीने लगा। शहर थोड़ी देर बाद फिर अपनी रफ़्तार में आ गया। ‘मरने वाले के साथ कोई मर नहीं जाता!’ उसी शहर के एक विद्वान ने कहा और ठेकेदार की कार में बैठकर किसी आयोजन में चला गया।

सचमुच अगर उस पान की गुमटी वाले पहले छोर से इधर की ओर देखें तो दुनिया इन तीस सालों में बहुत बदल गई है। अब तो मैं अपना चश्मा दिन भर में कई-कई बार खेाजता हूँ। कोई चीज़ किसी जगह रख देता हूँ, फिर उस जगह या उस चीज़, दोनों को भूलता और याद करता, दिन-रात खोजता रहता हूँ। पत्नी, जिसके घुटने अब ठीक से नहीं मुड़ते और मेहंदी लगाने से जिसके सिर के बाल अजीब -से नारंगी-कत्थई दिखते हैं, चिढ़ती हुई बड़बड़ाती है:‘अब भूल जाओ अपनी डिग्रियाँ, प्रमाणपत्र और पुराने कागज़। मत खोजो उन्हें। इस शहर में भी अब कोई तुम्हें नहीं पहचानता। चलो हरिद्वार चलते हैं। अंत की वेला आई ....’

वह भी तो अक्सर आखिर तवे पर रखी हुई रोटियाँ भूल जाती है या खुले हुए नलके। हमारे घर में जलती हुई रोटी की गंध और लगातार बहते पानी की आवाज़ हमेशा आती रहती है। इसमें मेरी पत्नी की बड़बड़ाने और मेरे कुछ खोजते रहने की आवाज़ें भी मिली होती हैं।

लेकिन क्या आपको उस उजाड़-से आदमी की याद है जो उस रोज़ पान की गुमटी के पास कवि के साथ टेरिकॉट की पतलून और बुझे हुए रंग की शर्ट पहने मिला था और जिसके बियाबान में मैं किसी जंगल या पेड़ की तरह हरा होता हुआ हँसना चाहता था ? लेकिन तभी अचानक मैंने उसकी आंखें देख डाली थीं।

वह आदमी अभी कुछ दिन पहले मुझे प्रेस क्लब के पास, रायसीना रोड पर, दिखा था। वह बिल्कुल नयी इनोवा या लैंडक्रूज़र से उतर कर ‘ले मेरिडियन’ में दाखिल हो रहा था। उसके साथ हिंदी का एक बूढ़ा प्रोफेसर और एक अधेड़ कवयित्री थी। वे ‘बार’ की ओर जा रहे थे।

उस आदमी ने काले रंग का चमकीला पार्टी सूट पहन रखा था। दाहिने हाथ में एक एक्ज़िक्यूटिव ब्रीफकेस था। उसकी कलाइयों में, मैंने साफ़-साफ़ देखा, ओमेगा के नये मॉडल की वह घडी थी, जिसका विज्ञापन आज सारे अंग्रेजी अखबारों में छपा है। उस घड़ी की कीमत सात लाख रुपये है।

आज के ही हिंदी के अखबारों में एक फोटो भी है, जिसमें वह आदमी उस बूढ़े प्रोफेसर, अधेड़ कवयित्री और तीन-चार अन्य वी०आई०पी० लोगों के साथ भारत के उपराष्ट्रपति के साथ खड़ा है। यह फोटो कविता-संग्रह के विमोचन का है। इस फोटो में तीस साल पहले का उजाड़-सा आदमी किसी हरे-भरे जंगल की तरह हँस रहा है।


आपने एक तथ्य पर गौ़र किया? यह कहानी जहाँ से शुरू हुई थी, उसके कुछ ही देर बाद इसका फोंट साइज़ बदल गया। इसकी लिपियाँ छोटी हो गईं और सारे अक्षर इटेलिक्स में तिरछे हो गए। इसका अर्थ यही निकला कि यह वह मूल कहानी नहीं थी, जिसे मैं लिखना चाहता था। ऐसा मैं अक्सर करता हूँ। शायद यह किसी एक उस दूसरी कथा की प्रस्तावना थी, जिस तक मैं आपको पहुँचाना चाहता था।

मेरा मानना है कि जिस जगह आप पहुँचना चाहते हैं, अपने घर या शहर, या किसी दूसरे के घर और किसी दूसरे शहर, तो वहाँ तक पहुँचने के लिए आपको हमेशा एक दूरी तय करनी पड़ती है। इसके अलावा, आपको कुछ देर तक किसी दूसरे समय में भी रहना और चलना पड़ता है। आप किसी भी जगह एकदम सीधे नहीं पहुँच सकते। यह असंभव जैसा है। ऐसा कौतुक सिर्फ सपने में मुमकिन है कि आप अचानक अपने आपको ठीक उसी समय और ठीक उसी जगह पाएँ, जहाँ आप पहुँचना चाहते थे।

फिर, जैसा कि आपने देखा ही है, मैंने कहानी का शीर्षक ‘आवरण’ दिया था जब कि अभी तक उससे जुड़ी कोई घटना इस समूचे पाठ में कहीं नहीं आई।

मैंने अपना कविता-संग्रह उस उजाड़ आदमी को नहीं दिया, जो तीस साल के बाद, जब सारी दुनिया बदल चुकी थी, ओमेगा गोल्ड एंड डायमंड वाच पहनने लगा था और तब तक जो कवि ठेकेदार के हाथों मारा जा चुका था, उसे उसने रॉयल्टी नहीं दी थी।

लेकिन कविताएँ अगर लिखी जाती हैं तो उन्हें छपाने का रिवाज भी समाज में है। जैसे बेटियाँ पैदा होती हैं तो एक दिन उनको ब्याह देने की प्रथा हुआ करती है। लिहाजा अपनी कविताएँ लेकर मैं एक जमे जमाए प्रकाशक के पास गया जिसकी दूकान, पुराने शहर की चाट-पकौड़ी वाली बस्ती की सबसे संकरी गली में थी।

लेकिन जब की यह बात है, तब तक उस अलग-से नीले कोट वाले कवि की हत्या ठेकेदार ने नहीं की थी और कवि का सिर धड़ से अलग करके, उसे थाने के फाटक के सामने फेंक कर, वह इमली की चटनी और समोसा नही खा रहा था। यानी तब तक दुनिया इस कदर बदली नहीं थी। उसमें वह पुराना कुछ बचा हुआ था, जिससे वह किसी कदर पहचानी जा सकती थी। शायद तब तक टीवी तो आ चुका होगा लेकिन इंटरनेट और मोबाइल का अता-पता नहीं था।

इसीलिए जब शहर की पुरानी चाट-पकौड़ी वाली सबसे संकरी गली में मैं प्रकाशक की दूकान में अपनी कविताओं की पांडुलिपि के साथ दाखिल हुआ तो वह पुदीने की चटनी के साथ ब्रेड पकौड़ा खा रहा था और काले रंग के टेलिफोन की दस छेद वाली चकरी के अलग-अलग नंबरों को उंगलियों से ‘किर्रर्रर्र.....घिर्रर्रर्र...किर्रर्रर्र....’ करता हुआ घुमा रहा था। वह किसी पुलिस अफसर को फोन कर रहा था, जिसका कविता संग्रह उसने छापा था और जो सामने ही मेज़ पर, जिसमें ब्रेड पकौड़े रखे थे, उसीके बगल में रखा हुआ था।

फोन नहीं लगा तो उसने रिसीवर क्रेडिल पर पटका और उस पुलिस वाले को गाली दी। उसने कहा-‘धंधे में सब करना पड़ता है। बोला था बारह सौ बाइस प्रतियों का ऑर्डर एडवांस दिला देगा। देखिये, चार दिन हो गये उसका कविता संग्रह छपे, फोन ही नहीं उठा रहा है। पी०ए० बोलता है, होल्ड करिये। चार दिन में कुल मिलाकर साढ़े चार घंटे मैं रिसीवर पकड़ कर बैठा रहा हूं।’

‘प्रोडक्शन तो बहुत अच्छा है।’ मैंने पुलिस वाले के कविता संग्रह को उठाते हुए कहा। ‘कागज़ भी आपने काफी महंगा वाला लगाया है।’

प्रकाशक, जो अब तक ब्रेड पकौड़े के आखिरी टुकड़े के साथ पुदीने की सारी चटनी खा चुका था, तौलिये से हाथ पोंछता हुआ पहली बार मुस्कुराया। ‘कवर डिज़ाइन भी उम्दा है। जामिनी राय का रिप्रोडक्शन हमने यूज़ किया है।’

हालाँकि जामिनी राय के बारे में मेरी राय अच्छी नहीं थी फिर भी मैंने कहा, ‘ हाँ, कवर अच्छा है।’

‘बहुत पुरस्कार मिले आपको इस बीच। अब तो किताब आ ही जानी चाहिए।’ प्रकाशक, जो बहुत ही चिकना-चुपड़ा था और बहुत अधिक धुले हुए कपड़े पहन कर बैठा हुआ था, ने कहा।

इस बीच एक कमज़ोर और भूखा लगने वाला आदमी वहाँ टेबिल पर चाय के दो कप रख गया और ब्रेड पकौड़े वाली खाली प्लेट उठा ले गया। जिस समय वह आदमी ये सब काम कर रहा था, मैंने अपने झोले से कविताओं की पांडुलिपि निकाल कर मेज़ पर रख दी।

‘ये लोग पुरस्कार तो देते हैं, नौकरी नहीं देते। कोई काम भी नही देते। ज़्यादा पुरस्कार हो गए तो कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रहूंगा।’ मैंने सोचते हुए कहा। मेरी आवाज़ में आत्मदया, लाचारगी और दरिद्रता जैसी चीज़ थी।

‘आपको नौकरी मिलती क्यों नहीं है?’

‘मुझे लगता है, मैंने ऐसी एकाध कविताएँ लिख दी हैं। शायद इसीलिए। अत्तिला योज़ेफ़ को भी नौकरी कभी नहीं मिली थी।’

‘फिर क्या हुआ? बिज़नेस कर लेना चाहिए था कोई।’ उसने मेरी पांडुलिपि के पन्ने पलटते हुए कहा।

‘असल में जो कविता लिखने लगता है, उसके लिए कविता ही बिज़नेस बन जाती है। लेकिन इसमें घाटा बहुत है। बहुत कर्ज़ हो जाता है। अफसरों-नेताओं की चिरौरी ना करो तो घर बिक जाता है। बच्चे भूखे रह जाते हैं।’

‘उसका क्या हुआ था?’

‘किसका ?’

‘वो जिसका नाम आपने अभी लिया था, जिसको कभी नौकरी नहीं मिली थी।’ प्रकाशक ने पूछा।

‘वो रेल की पटरी पर कट कर मर गया था। 32 साल की उम्र में। अब तो ख़ैर उसे हंगरी में कविता के इतिहास का सबसे महान् कवि माना जाता है, लेकिन यह तो मरने के बाद की बात है। असल में जब वह युनिवर्सिटी में पढ़ रहा था, तो उसने एक कविता लिख दी थी, जिससे एक प्रोफेसर नाराज़ हो गया था और उसने उसका दाखिला खारिज़ करवा दिया था।’

‘ओह !’ प्रकाशक की आवाज़ में पछतावा जैसा कुछ था। ‘उसको कविता नहीं लिखनी चाहिए थी। भई, अपने धंधे का कुछ तो खयाल रखना चाहिए कि नहीं ?’

‘लेकिन हमारे यहाँ दूसरे तरीके से मारते हैं। यहाँ जो असल में कवि होता है, उसे पहले भूखा रख कर पागल बना देते हैं। कई तरीके से उसके बारे में अफवाहें भी फैलाई जाती हैं। बाद में वह मर जाता है। लेकिन मेरा अंदाज़ा है कि इन दिनों कहानी में ज़्यादा जोखिम होता है। कई के खिलाफ़ तो मुकदमे दर्ज़ हो जाते हैं और उन्हें जलावतन दे दिया जाता है।’

प्रकाशक ने गहरी आँखों से मुझे देखा। उसमें सहानुभूति और घबराहट दोनों थी।

‘आपकी कविताएँ अच्छी हैं। इनमें ट्रैजिडी बहुत है। मेरी लाइफ़ में भी बहुत ट्रैज़िडी है।’ उसने हलकी मुस्कुराहट के साथ कहा। ‘लेकिन मेरा एक सुझाव है आपको।’ उसने गंभीरता से मेरी ओर देखा।

‘क्या ?’ मैंने पूछा।

‘आप कहानियां मत लिखिएगा कभी।’ थोड़ी देर तक वह मुझे देखता रहा फिर उसने कहा, ‘आपका यह कविता-संग्रह हम छाप रहे हैं। आप देखिएगा, इस पुलिस वाले के संग्रह से भी बेहतर आपका प्रोडक्शन होगा।’

उसने उठ कर मुझसे हाथ मिलाया, सात सौ पचास रुपये रॉयल्टी एडवांस का चेक दिया। मैंने उसे धन्यवाद दिया और चलने के पहले मैंने उससे कहा:‘आप चिंता बिल्कुल ही न करें। वैसे भी बचपन से मैं कवि ही हूँ। कहानी मैं कभी नहीं लिखूंगा। कविता ही काफी है।’

वह मुस्कुराता हुआ मुझे देख रहा था। उसके ऑफिस में काम करने वाली एक लड़की, जिसका चेहरा मैं ठीक से नहीं देख पा रहा था, उसके पास आ गई थी। शायद वह पहले ही उसके पास आना चाहती थी लेकिन मेरी वजह से नहीं आ पा रही थी।

दरवाज़े से बाहर निकलने से पहले मैंने ज़ोरों से कहाः ‘सरावगी जी, इस संग्रह के ‘कवर’ के लिए चित्र मैं खुद आपको दूंगा।’

बाहर संकरी गली से निकल कर जब मैं सड़क पर आया तब यह ध्यान आया कि चेक मैं जमा कहां करूंगा? किसी बैंक में एकाउंट तो होना चाहिए।

यह तब की बात है, जब शहर में इतने बैंक और कारें और शॉपिंग माल्स नहीं थे। मेट्रो के बारे में तो कोई सोच भी नहीं सकता था।

जैसे ही हम या कोई भी और चीज़ स्मृतियों में जाती है, वह अपने आप विरूपित हो जाती है। उसका रूपाकार बदल जाता है। स्मृति का मतलब ही होता है, समय में पीछे की ओर लौटना। उल्टी दिशा में लौटना। ऐसे में जैसे लिपियाँ तिरछी हो जाती हैं, वैसे ही हमारे अपने चेहरे भी टेढ़े-मेढ़े हो जाते हैं। लेखन तो वैसे भी एक ऐसा पेशा है, जिसमें लगातार और बार-बार स्मृतियों में रहना और आना-जाना पड़ता है, इसीलिए आपने ज़्यादातर पाया होगा कि लेखकों और कवियों के चेहरे टेढ़े-मेढ़े होते हैं। किसी लेखक से कई बार मिलने पर लगता है, जैसे उसका चेहरा आप किसी टूटे हुए आईने में देख रहे हैं। कटा-फटा और सारे हिस्से अलग-अलग बिखरते हुए।

जितना अच्छा जो कवि होगा, उतना ही इटैलिक्स में तिरछा और गड्डमड्ड हो चुका उसका चेहरा होगा।

हर अच्छा और सच्चा कवि या लेखक हमेशा अपने डिलीट हो जाने या इरेज़ हो जाने के डर से घिरा रहता है। उसके शब्द उसी तरह कमज़ोर और बुखार में डूबे हुए होते हैं, जैसा हमने उस कवि के संग्रह के शीर्षक के पीछे देखा था, जिसने तीस साल पहले एक अलग-सा नीला कोट पहन रखा था और जिसकी हत्या बदलते हुए समय में एक ठेकेदार ने सरेआम, दिन दहाड़े कर दी थी। सारा शहर कवि की हत्या को किसी फिल्म या टीवी सीरियल की शूटिंग की तरह चुपचाप देख रहा था।


वह चित्रकार, जो मेरा दोस्त था और जिससे मैं अपने पहले कविता-संग्रह का कवर बनवाना चाहता था और जिससे अपना पहला बैंक अकाउंट खोलने में मदद लेना चाहता था, उसे खोजने में मुझे तीन दिन लग गये। उसके घर जाता था तो उसकी पत्नी बताती थी कि वे स्टूडियो गये हैं। स्टूडियो पहुंचता था, तो वहाँ एक उदास-सा ताला लटका मिलता था, जैसे वह खुद उसके इंतज़ार में हो। वह एक अकेला, उदास और बूढ़ा होता ताला था।

एक दिन तो देर रात मैं उसके घर पहुँचा। लगभग आधी रात। इस उम्मीद में कि अब तक वह घर अपने बीवी-बच्चे के पास लौट आया होगा। लेकिन वहां उसकी पत्नी बेचैन और डरी हुई टेरेस पर टहल रही थी। मुझे देखते ही वह डर गई और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। ‘आप मुझसे कुछ छिपा रहे हैं। सच बताइये, क्या हो गया उनके साथ?’ मैं घबरा गया और उसे समझाने में मुझे डेढ़-दो घंटे लग गये कि ऐसा कुछ नहीं है, बल्कि मैं तो दरअसल अपने कविता-संग्रह का कवर बनवाने उसके पास आया था।

आखिरकार, एक स्कूली बच्चे ने, जिसकी बस उस इलाके से तीस किलोमीटर दूर ‘इंडियन हेरिटेज पब्लिक स्कूल’ हर रोज़ सुबह जाती थी, बताया कि आर्टिस्ट अंकल को उसने किंडूरी की पहाड़ियों के पास के जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठे देखा है। उसने बताया कि वह उन्हें कई दिनों से उधर देखता रहा है।

मैं उसी बस से, साठ स्कूली बच्चों के साथ बैठ कर गया और किंडूरी की पहाड़ियों वाले इलाके में उतर गया। वहाँ थोड़ा-बहुत जंगल बचा हुआ था। पलाश के कुछ दूर-दूर छितराए पेड़ भी थे, जिनमें लाल रंग के टेसू फूले हुए थे। सागौन और बबूल के पेड़ों के अलावा वहाँ झाड़ियाँ और उनके झुरमुट बहुत थे। ऊँची-ऊँची लेंटिना और गाजर घास से वहां की धरती ढंकी हुई थी। मैंने सोचा, शायद चित्रकार वहाँ कलर्स इकट्ठा करने आता होगा क्योंकि कई बार उसने कहा था कि वह अपनी पेंटिंग के विषय और मैटीरियल, दोनों से ऊब चुका है। शायद वह किंडूरी की पहाड़ियों और जंगल में पाई जाने वाली काली, पीली, सफेद और गेरुआ मिट्टी और कई तरह के जंगली फूलों से रंग इकट्ठा करने में लगा होगा।

वह मुझे एक नाले की ढलान पर एक जंगली पौधे के पास चुपचाप बैठा दिखा। उसके कपड़े मटमैले थे और उसकी दाढ़ी धूल और मिट्टी में लिथड़ी हुई थी। वह उस अजनबी जंगली पौधे को टकटकी लगाकर देख रहा था। बगल में उसकी स्केच बुक और उसका झोला पड़ा हुआ था। उसके चेहरे की वीरानी में से कोई गहरी करुणा और चिंता झाँक रही थी।

‘उस दिन यह मुझे पहली बार मिला था।’ उसने उस पौधे की ओर इशारा किया। ‘इसे कोई रोग है और यह मर रहा है।’ मुझे वह गौतम बुद्ध या प्रभु यीशु की तरह लगा। ‘ऐसा कोई दूसरा पौधा इस इलाके में कहीं नहीं है। अपनी नस्ल का यह अब अकेला यहाँ बचा है। अंतिम ...एकदम आखिरी ...!’’

मैंने साफ-साफ देखा उसकी आँखों में डर था।

मुझे अचानक मारे गए कवि (हालाँकि तब तक वह मारा नही गया था) के संग्रह के शीर्षक के पीछे से झाँकता वह शब्द याद आया, जो शायद तपेदिक के बुखार में डूबा, काँप रहा था और जिसका अर्थ भी ‘अंतिम’ या ‘आखिरी’ जैसा था।

‘पिछले हफ़्ते मैं इसकी कुछ पत्तियाँ तोड़कर ले गया था और अपने स्टूडियो में एक काँच के गिलास में पानी डाल कर रख दिया था।’ चित्रकार ने बताया। ‘मैंने सोचा था कि जो पौधा अब हमारी धरती से विलुप्त होने वाला है, कम से कम उसका रंग बचा कर मैं अपनी किसी पेंटिंग में इस्तेमाल कर लूंगा। अब इसी तरीके से हम चीज़ों को बचा सकते हैं। असल में जब इतनी चीज़ें ख़त्म हो रही हैं, किसी तरह हम उनकी स्मृतियाँ ही बचा सकें तो बहुत है!’

वह कुछ देर के लिए रुका फिर उसने कहा-‘लेकिन, जानते हो क्या हुआ ? उस गिलास का पानी दो घंटे के भीतर बर्फ़ की तरह जम गया। सफ़ेद। इतना गाढ़ा कि मुझे चाकू से उसे काट कर बाहर निकालना पड़ा।’

वह अपनी रूमाल से उस पौधे की सूखती पत्तियों की गर्द और मैल पोंछने में लग गया। इतने हलके हाथों से कि पत्तियों को कोई दर्द न हो। वह पौधा सचमुच गहरे बुखार में था, बहुत कमज़ोर। उसमें जीवन अब बहुत थोड़ा बाकी बचा था।

‘इसकी जड़ों में शायद कैंसर है या कोई दूसरा संक्रामक रोग... पहले मैंने यही सोचा था। फिर मैंने इसके जड़ों के इर्द-गिर्द की ज़मीन को खोदा...। सोचा था दिल्ली की किसी अच्छी नर्सरी से कोई दवा ले आऊंगा, कोई अच्छा डि-इनफेक्टिसाइड... लेकिन ...!’

कुछ पल चुप रहने के बाद भर्राई, चिंतित और डरी हुई आवाज़ में उसने कहा-‘असल में कैंसर या कोई दूसरी संक्रामक बीमारी इस पौधे की जड़ों को ही नहीं, ज़मीन की मिट्टी को भी लग चुकी है। ...और यह तेज़ी से फैलती जा रही है।’

‘मैंने वनौषधि की एक किताब में देखा कि इस पौधे को ‘जल-जमनी’ कहते थे।’ उसने कुछ देर बाद कहा।

मैंने उसके स्केच बुक के पन्ने पलटे। उसने बहुत से ड्राइंग्स बना रखे थे। तरह-तरह की पत्तियाँ और टहनियाँ थीं। चिड़ियाँ, गायें, बकरियाँ। एक पन्ने पर उसने लिखा था-‘कैंसर’ और उस पर उसने इसी पौधे का स्केच बना रखा था। उस स्केच में यह पौधा अपनी मृत्यु के बिलकुल क़रीब लग रहा था। उसका जीवन लगभग बुझने के अंतिम पल में था।

मैंने देखा मेरा दोस्त चित्रकार रो रहा था।

‘मेरा इस शहर में रहने का मन नहीं पड़ता। ...घर भी जाता हूँ तो लगता है मेरे घर का जीवन भी इस पौधे की ही तरह धीरे-धीरे बुझ रहा है। मेरे बेटे को जानते हो... बस एक उसी के लिए मैं ज़िंदा रहे आना चाहता हूँ। मैं जानता हूं कि अगर मैं मर गया तो वह फिर किसी से कोई बात नहीं कर पाएगा। बचपन से ही वह सिर्फ देख भर सकता है। जिन इशारों और हरकतों से वह कुछ कहता है, उसे पूरे शहर में सिर्फ मैं समझता हूँ।’

‘उसकी माँ भी उससे संपर्क नहीं कर सकती।’ उसने जोड़ा और चुप हो गया।

जब हम दोनों लौट रहे थे, तो रास्ते में उसने कहा था -‘क्या तुम्हें नहीं लगता कि जिस समय में हम लोग रह रहे हैं, उसमें हम लोग घटनाओं और चीज़ों को सिर्फ देख भर सकते हैं ? कुछ कर नहीं सकते ?’

उस रात हम दोनों ने खूब शराब पी। हमने बहुत पुराने, लगभग भुला दिये गये गाने गाये। कई-कई बार हम फूट-फूट कर रोते रहे। हमने प्रार्थनाएँ कीं।


इस बात को भी बीते हुए कई साल हो गये हैं, जब उस रात उसने मुझे, मेरे कविता संग्रह के लिए, दीवार से उतार कर, वह चित्र दिया।

वह कलर पेंटिंग नहीं, कलम से बनाया गया स्केच था। वह स्केच लकड़ी के फ्रेम के भीतर था। उसमें सात-आठ साल का एक बच्चा था, जिसकी आंखों में एक अज़ीब-सा भय और निरीहता थी। कुछ-कुछ उस पौधे के स्केच की तरह, जिसे मैंने अपने दोस्त चित्रकार की ड्राइंग-बुक में देखा था।


बहुत देर तक वह उस चित्र को पकड़ कर बैठा रहा। मैंने उसे इस तरह पहली बार देखा था। वह कहीं अपने आप में खो गया था। फिर उसने मेरी ओर देखा और बोला -‘यह मेरे जीवन का सबसे कीमती और सबसे अलग चित्र है। कलादीर्घाओं में और बाज़ार में शायद इसकी कोई कीमत नहीं होगी। मैं इसे कभी बेच भी नहीं सकता।’

‘यह चित्र मेरे बेटे का है, जो मेरे मरने के बाद संसार में किसी को कुछ बता नहीं पाएगा। मैं इसी के लिए जीना चाहता हूँ।’

कुछ देर तक उस स्केच को देखने के बाद उसने कहा-‘क्योंकि इस चित्र के बिना मैं कोई और चित्र बना नहीं सकता और सच पूछो तो इसको देखे बिना मैं जी भी नहीं सकता ...!’ इतना कह कर बहुत अजब तरीके से वह हँसा -‘तुमने बचपन में माँ या नानी-दादी से वह कहानी ज़रूर सुनी होगी, जिसमें जंगल में किसी पुराने किले के खंडहर में रहने वाले किसी दानव के प्राण, कई समुद्र पार, कई महाद्वीपों से दूर, किसी आइसलैंड के पर्वत की चोटी पर एक पिंजड़े में कैद तोते के भीतर रहते थे... जिसे हर बार कोई राजकुमार उसके खंडहर में आकर, उस तोते की गर्दन मरोड़ जाता था और उसकी बेटी को लेकर चला जाता था... मेरी जान भी समझ लो, ठीक उस अभागे दानव की तरह, इस चित्र में है!’

रात के डेढ़ बज चुके थे। बाहर कोई शोर नहीं रह गया था। शहर का ट्रैफिक सो चुका था। स्टूडियो में सिर्फ हमारी सांसों की आवाज़ें रह गईं थीं।

हमने जितनी शराब पी थी और जितनी प्रार्थनाएँ की थीं ...और जितने गाने गाए थे, उन सबकी खुमारी अभी बाकी थी। हम दोनों की आँखें अभी तक सूख नहीं पाईं थीं।

उसने मेरी ओर देखा। उसकी आंखें लाल थीं।

उसने वह चित्र मुझे देते हुए कहा-‘ इसे ले जाओ। लेकिन जैसा यह है, उसे इसी तरह लौटाना। इसे कोई नुकसान न पहुँचे। ...तुम समझ रहे हो ना ?’ उसकी आँखों में तैरती आशंका को मैं साफ़-साफ़ देख सकता था।

एक पल को लगा, मुझे उस चित्र को सौंपते हुए वह मुझसे अपने प्राणों की भीख मांग रहा है।

वहाँ से चलने के पहले मुझे उसका एक वाक्य और सुनाई पड़ा था। या शायद दुख और शराब के नशे में मुझे ऐसा लगा हो। वह वाक्य भी बीमार और बुखार में डूबा लग रहा था:

‘उस किले के प्राचीन खंडहर में रहने वाले अभागे दानव की बेटी तक उसकी सगी नहीं हुई। कितना अकेला था वह! है ना ?’


इस घटना को घटे हुए भी तेईस-चैबीस साल हो चुके होंगे। लेकिन इस बार स्मृति से वापस आज के समय में लौटना दुखदायी था। इस किस्से की जो लिपियाँ, समय की सुरंग में पीछे की दिशा में जाती हुईं, इटैलिक्स में बदल कर तिरछी और टेढ़ी हो गईं थीं, वे फिर स्वाभाविक आकार और रूप में वापस नहीं आना चाहती थीं।

सच पूछें तो मैं खुद भी उस बीते समय से लौटना नहीं चाहता था। मैं चाहता था कि मैं वहीं रह जाऊँ, जहाँ मेरा वह दोस्त चित्रकार मिट्टी और फूलों से रंग इकट्ठा करता हुआ कुछ अलग तरह के चित्र बनाना चाहता था। उस समय से जहाँ किंडूरी की पहाड़ियों की तलहटी में, एक सबसे अलग, अपनी प्रजाति का अंतिम पौधा, अपनी जड़ों और आसपास की ज़मीन में फैल रहे कैंसर से जी-जान से जूझ रहा था। जीवित रहे आने की विकट लड़ाई। बुखार, सन्निपात, निर्बलता के बीच...छूटती-टूटती साँसों की अजब जिजीविषा, अपनी आसन्न पराजय को हर पल, हर सेकेंड अस्वीकृत करती हुई।

मैं अगर उसी समय में रहा आता तो अब तक उस कवि की हत्या भी ठेकेदार के हाथों नहीं हुई होती, जो तीस साल पहले, पान की गुमटी के पास, एक अलग-सा नीला कोट पहने मुझे मिला था और जिसने मुझे अपना वह कविता-संग्रह दिया था, जिसके शीर्षक के पीछे से बुखार में डूबा एक ऐसा शब्द झाँक रहा था, जिसका अर्थ ‘अंतिम’ या ‘आख़ीर’ जैसा कुछ था।

उस रात, जब डेढ़ या दो बजे रहे होंगे, और चित्रकार ने जब मेरी कविताओं के पहले संग्रह के आवरण के लिए मुझे फ्रेम में जड़ा चित्र सौंपा था, तो एक-दूसरे से विदा लेने के पहले हम दोनों एक-दूसरे के गले मिल कर खूब रोए थे।

मैं अच्छी तरह से जानता था कि हम सब एक दूसरे के लिए किस हद तक चिंतित और अनिवार्य थे। और एक-दूसरे को किस हद तक चाहते थे।

शायद हम उस बीमार पौधे और शीर्षक के पीछे से झाँकते, बुखार में डूबे शब्द या पुरानी लोककथा के जंगल में, किसी प्राचीन किले के खंडहर में रहते अभागे दानव की तरह... किसी भी तरह आने वाले समय में जीवित रहे आना चाहते थे।


मैं उस चित्र को लेकर जब शहर की पुरानी बस्ती की चाट-पकौड़ी वाली सबसे सँकरी गली में प्रकाशक की दूकान में पहुँचा तो उस रोज़ वह ब्रेड पकौड़ा नहीं, बीकानेरी समोसा खा रहा था। उसने मुझसे भी समोसा खाने के लिए कहा, लेकिन मैंने मना कर दिया।

उन दिनों मैं बहुत गरीबी में, दक्षिणी दिल्ली के बेरसराय मोहल्ले में, भैंस के एक कटरे में, अपने परिवार के साथ रहता था। मुझे यह ठीक भी नहीं लगता था कि घर में मेरे बच्चे और पत्नी भूखे बैठे हों और मैं प्रकाशक की दूकान में बैठ कर बीकानेरी समोसे खाऊँ।

मैंने वह चित्र सामने की मेज़ पर रखा। समोसे वाली प्लेट के ठीक बगल में।

प्रकाशक वाश-बेसिन में कुल्ला करके, तौलिये से हाथ और मुँह पोंछता हुआ कुर्सी पर बैठते हुए बोला-‘हूँ ...! लेकिन ये तो स्केच है ? सिर्फ काले और सफेद में।’

उसकी आवाज़ में निराशा और खीझ थी।

‘मैंने तो शानदार ‘कवर’ के बारे में सोचा था। रंगीन। याद होगा आपको। मैं तो उस पुलिस वाले से भी बेहतर आपका प्रोडक्शन चाहता था। आपकी कविताएँ, समझिये मैं नॉनस्टॉप पढ़ गया। एक साँस में।’ कुछ देर तक उस स्केच को देखते रहने के बाद उसने कहा-‘बिक्री के लिहाज़ से भी ये बहुत डल बनेगा। ...क्या आपके कविता-संग्रह के आवरण के लिए ये चित्र ज़रूरी है ?’

‘हां,’ मैंने बहुत ठंडी आवाज़ में कहा। ‘ऐसा ही समझ लीजिए।’

‘आपने चेक जमा कर दिया था क्या ?’ उसने अचानक पूछा।

‘कौन-सा चेक ?’ मैं सचमुच उस चेक की बावत भूल चुका था।

‘जो मैंने उस दिन एडवांस अगेंस्ट रॉयल्टी आपको दिया था। साढ़े सात सौ का !’ उसकी आवाज़ में तल्ख़ी थी।

‘जमा तो कर दिया लेकिन ढाई सौ छोड़ कर बाकी रुपये बैंक अकाउंट खोलने में लग गये। ...लेकिन उसकी कोई बात नहीं!’ मैंने उससे कहा।

‘यानी, आप मुझे यह समझाना चाहते हैं कि अभी तक आपका कोई बैंक अकाउंट ही नहीं था ? ...और आप दिल्ली में इतने दिनों से अपने पूरे परिवार के साथ रह रहे हैं ? बल्कि आपके बच्चे भी हैं।’ उसकी आवाज़ में गुस्सा और व्यंग्य दोनों था।

‘मेरे बच्चों को छोड़िये।... उस पुलिस वाले के कविता-संग्रह का क्या हुआ ? बारह सौ बाइस प्रतियाँ बिकीं?’

प्रकाशक के चेहरे पर खुशी लौट आई। मुस्कान जो इस बीच नदारद थी, अपनी सारी बारीकियों और रंगों के साथ उसकी आँखों, गालों और होठों में फैल गई।

‘क्या बात करते हैं आप ? बारह सौ बाइस ? अब तक छह हज़ार प्रतियाँ जा चुकी हैं। चार बार प्रिंट ऑर्डर देना पड़ा। राजभाषा विभाग, ग्रंथ अकादेमी, तेरह केंद्रीय विश्वविद्यालय, रेलवे बोर्ड, अड़तालीस लाइब्रेरीज़ ....! चार भाषाओं में उसका अनुवाद हो रहा है। होम मिनिस्टर और गवर्नर ने विमोचन किया। कोई अख़बार ऐसा नहीं, जहां उसकी रिव्यू नहीं आई।’

अचानक उसकी आवाज़ में व्यंग्य फिर वापस आया-‘और एक ये आपका संग्रह? फिर ऐसा आवरण ? पाँच सौ प्रतियां निकालने में पाँच साल लग जाएंगे हमें। वो तो समझो... जैसे लक्ष्मी गणेश के सामने हम अगरबत्ती जला देते हैं, ऐसे ही आप जैसों का संग्रह छाप देते हैं। ...ये चैरिटी है, बिजनेस नहीं ...समझे आप !’

मैं जब वहाँ से लौट रहा था तो मैंने ज़ोर देकर पांचवीं बार उससे कहा -‘सरावगी जी, किसी भी तरह इस चित्र को कोई नुकसान नहीं पहुँचना चाहिए। ...इसकी कॉपी कराके आप मुझे ज़ल्द से ज़ल्द लौटा दें। फोन कर दें, मैं आकर ले जाऊंगा।’

‘ठीक है...ठीक है ! कितनी बार कहोगे यार !’ प्रकाशक ने झुंझलाते हुए कहा।


यह घटना भी तभी की है। आप लिपियों और उनके तिरछे हो जाने से जान ही गए होंगे। दिन-हफ़्ते-महीने बीतते रहे। मेरा संग्रह छप गया। उसे समकालीन कविता का एक ग्यारह सौ रुपये वाला ‘प्रतिष्ठित’ पुरस्कार भी मिल गया। हालाँकि मैं खोज़ नौकरी रहा था, जो कहीं नहीं मिलती थी।

जब चित्रकार दोस्त को मैंने संग्रह दिया तो वह बहुत खुश हुआ था। हम दोनों ने उस रात उस किताब का जश्न मनाया। गाने गाए, शराब पी और खरोड़े खाकर सारी रात दिल्ली की सड़कों पर स्कूटर पर घूमते रहे।

मैं जब जब प्रकाशक से वह चित्र मांगता, जो मैंने उसे दिया था, वह अगले हफ़्ते या बगले महीने का वायदा कर लेता। कभी कहता कि वह गोदाम में पड़ा है। कभी बतलाता कि वह आर्टिस्ट के पास है और वह अभी छुट्टी पर गया है।

मैं चिंतित हो रहा था। क्योंकि मेरा चित्रकार दोस्त, मुझसे बार-बार वह चित्र वापस मांगता। कई बार देर रात गये उसका परेशान-सा फोन आता कि वह न तो कोई नया चित्र बना पा रहा है, न उसका दिल कहीं लगता है।


उस रात बिजली चली गई थी। शायद हमारे इलाके का कोई ट्रांसफार्मर जल गया था। गाढ़े अंधकार में गर्मी और उमस थी। आधी से भी अधिक रात बीत चुकी थी, जब टेलिफोन की घंटी बजी। दूसरे छोर से दोस्त चित्रकार की आवाज़ आ रही थी:

‘किंडूरी की पहाड़ियों की तलहटी में जिस जल-जमनी का पौधा हमने देखा था, जो कैंसर से अकेला लड़ रहा था। कल उसकी मृत्यु हो गई। वह सूख चुका था। उसे दर्द बहुत रहता था। बुखार उतरता ही नहीं था।....’

उसकी गहरी साँस मुझे फोन पर सुनाई पड़ी। जैसे वह किसी यंत्रणा से मुक्त हुआ हो। छुटकारे की साँस।

‘चलो, अच्छा हुआ। आज़ाद हुआ वह। ...लेकिन अब पता नहीं, इस धरती पर वैसा कोई दूसरा पौधा है भी या नहीं। ...लेकिन सुनो ...! कैंसर या जो भी संक्रामक रोग है ...वह फैल रहा है। मैंने किंडूरी की पहाड़ियों के आसपास पाई जाने वाली मिट्टी से रंग इकट्ठे करने चाहे थे न ? काले, पीले, गेरुए, लाल, सफेद, कत्थई रंग...! मैंने पाया है कि उन सब रंगों में संक्रमण हो चुका है।...वे बीमार हैं ...और जीवित रहे आने के लिए वे प्राणपन के साथ लड़ रहे हैं...!’

बहुत देर तक मैं उसकी साँसों का चलना टेलिफोन के इस छोर पर सुनता रहा। उधर कोई बेचैन-सी खामोशी थी, जिसकी आहट मुझे मिल रही थी। ...आखिर वह बोला: ‘मैं बार-बार नहीं कहना चाहता। लेकिन तुम जैसे भी हो... उस प्रकाशक से मेरा स्केच हासिल करो। ...मैं इन दिनों कुछ नहीं कर पा रहा हूँ। कैनवस की मूल आकृतियों को तो छोड़ो, मैं तो पृष्ठभूमि को भी नहीं रंग पाता।... जैसे ही ब्रश उठाता हूँ ...बस सामने की दीवार दिखाई देने लगती है।... वह जगह डरावने ढंग से खाली है, जहाँ वह था। जैसे कोई ऐसा भयावह आकाश, जिसमें एक भी नक्षत्र न बचा हो...

इन दिनों मेरे सपने में बस वही बार-बार दिखाई देता है ...! ...और उसके साथ वह पौधा ...और मिट्टी के बीमार रंग ...’

उसकी साँसें उठ गिर रही हैं। क्या उन्हें भी संक्रमण हो रहा है?

मैं डरा हुआ हूँ।

पत्नी कहती है, बाहर किसी के चलने की आवाज़ आ रही है।

‘कौन ...? ...कौन है ?’ मैं चीखता हूँ।


बाहर दुनिया थी, जो बहुत तेज़ी से बदल रही थी। जहाँ मैं रहता था, उसके आसपास उन्नीस शॉपिंग माल्स बन गये थे। मल्टी-प्लेक्सेज़, एड-लैब्स का आइमेक्स, फोर-डी वंडरवल्र्ड, स्काइस्क्रेपर्स .....। मेट्रो रेल चलने लगी थी।

इतना बड़ा बाज़ार आ गया था, चारों ओर, और वह फैलता जा रहा था। उसकी सीमाएँ कहीं नहीं थीं। वह अनहद था।

लेकिन ऐसी घटनाएँ भी इन दिनों घटने लगीं थीं, जिनके बारे में पहले सोचना तक मुमकिन नहीं था। जहाँ मैं रहता था, उससे बस दो-ढाई किलोमीटर दूर, एक बड़ी कोठी में रहने वाला एक अमीर-ऐय्याश अपने नौकर के साथ मिल कर आसपास झुग्गियों में रहने वाले गरीबों के नन्हें-नन्हें बच्चों और बच्चियों से बलात्कार करने के बाद उनके गोश्त का कबाब बना कर खाने लगा था।

शहर के दक्षिणी हिस्से में एक ऐसा अस्पताल था, जिसमें लोगों को, जिनमें ज़्यादातर गरीब होते थे, बेहोश करके उनके गुर्दे निकाल कर अमीरों के लगा दिया जाता था।

मोबाइल आ चुका था। प्लाज़्मा टी० वी० और एल० सी० डी० मॉनिटर आ गये थे। लैपटॉप और आइपॉड को आये अर्सा गुज़र चुका था।

हिंसा समुद्र की तरह या आकाश की तरह, चारों ओर थी। चुने हुए लोगों के घर रुपया बरसने लगा था। फोब्र्स की सूची में मेरे देश के दस लोग दुनिया के सबसे अमीर खरबपतियों में शामिल हो गए थे।

यह बहुत पुरानी बात नहीं है। तीन-चार साल ही हुए होंगे। उस कवि की हत्या हुए दस-बारह साल बीत चुके थे, जो पान की गुमटी के पास, अलग-से नीले रंग का कोट पहने, बीड़ी का बंडल खरीदते हुए मिला था और जिसने अपना कविता-संग्रह मुझे दिया था, जिसके शीर्षक के पीछे से बुखार में डूबा वह शब्द झाँक रहा था, जिसका अर्थ ‘अंतिम’ या ‘आखीर’ जैसा कुछ था। जिस कवि के सारे अंग, एक-एक कर काटने के बाद उसके सिर को ठेकेदार ने धड़ से अलग किया था और थाने के फाटक के पास फेंक कर चिल्लाया था: ‘देख लो सब लोग। अब वक़्त बदल चुका है। जो भी ठेकों का विरोध करेगा, उसका यही हाल होगा।’

ऐसा कह कर, आज से कई साल पहले वह इमली की चटनी ओर समोसा खाने चला गया था।

मैं कई बार उस प्रकाशक की दूकान में जा चुका था। वह हर बार चित्र लौटाने की बात को आगे खिसका देता था। अब वह ब्रेड पकौड़ा, पुदीने की चटनी या बीकानेरी समोसे खाता नहीं मिलता था। कभी वह डोमिनो का पीत्ज़ा, कभी केंटुकी चिकेन, कभी कोई मेक्सिकन या इटालियन व्यंजन खाता दिखता। मेरे हुलिये से वह बेचैन होने लगता। उसके चेहरे की मुस्कान गायब हो जाती और वहाँ परेशानी की लकीरें पैदा हो जातीं।

कुछ बाद में उसने अपनी दूकान के रिसेप्शन पर और फाटक पर दरबान को बोल दिया था कि मुझे बाहर से ही लौटा दिया जाय। उसकी हिंदुस्तान में चार सौ दूकानें खुल चुकी थीं। वह भी तीस साल पहले वाले टेरिकॉट की पतलून पहनने वाले उजाड़ से आदमी की तरह ओमेगा की डिज़ाइन्ड डायमंड रिस्टवाच पहनने लगा था। मैं अक्सर उसकी रंगीन तस्वीरें अखबारों में देखता था, जिसमें वह कभी उपराष्ट्रपति, कभी किसी मंत्री या कार्पोरेट किंग के साथ किताबों के विमोचन समारोह में महत्वपूर्ण आलोचकों, विद्वानों, अफसरों और कवियों से घिरा किसी हरे-भरे पेड़ की तरह मुस्कुराता दिखता था।

जिस भाषा में मैं लिखता था, उसमें ऐसे लेखक बहुत बड़ी संख्या में आ गये थे, जिनकी कारों में लाल-पीली बत्तियां लगी होती थीं। वे सरकार द्वारा सत्तावान् बना दिये गये थे।

मेरे चित्रकार दोस्त का फोन कभी-कभी अब भी आता था। रात में उसकी साँसों का उठना-गिरना और उसकी खामोशी अक्सर दूसरे सिरे पर सुनाई देती रहती।

हर गरीब और कमज़ोर आदमी अपने घर और ज़मीन से बेदखल हो रहा था। गाँवों में, जहाँ किसान और खेतिहर रहते थे, वहाँ विधवाओं की संख्या बहुत बढ़ गयी थी। गाँव छोड़-छोड़कर लोग पता नहीं कहाँ भाग रहे थे।


‘अगले हफ़्ते ‘आदिवर्ण’ कलादीर्घा में मेरा एकल रिस्ट्रोस्पेक्शन है। तुम्हें ज़रूर आना है।’ आधी रात चित्रकार दोस्त का फ़ोन आया। बहुत देर तक उसकी साँसें दूसरे छोर पर चलती रहीं। मैं डर रहा था। लेकिन डरने से क्या होता है?

‘देखो, एक बार फिर कोशिश करके देखो। ...तुम समझ सकते हो !’ उसकी आवाज़ बहुत कमज़ोर थी। इतनी कि मुझे लगा कभी भी उसकी साँसें उखड़ सकती हैं।’ मेरी अपनी सांसों का भी हाल ऐसा ही था।

‘मेरे चित्रों की इंटरनेशनल मार्केट रेटिंग हुई है। पेरिस और न्यूयार्क में ! ...उस जल-जमनी के जो चार चित्र मैंने मिट्टी और फूलों-पत्तियों के रंग से बनाये थे ...उनके आक्शन की प्रीमियम ही ढाई करोड़ से ऊपर की है। ...मेरी समस्या समझो। यह सिर्फ़ एमोशनल मामला नहीं है। ...बाज़ार मौके दे रहा है। इसमें हमारे दुखों का भी दाम है...। ’ वह हाँफ रहा था। उसकी आवाज़ में व्याकुलता थी।

‘तुमने भी बहुत झेला है। ....तुम्हारी कविताएँ भी अब बिकेंगी। ...मुझे मेरे चित्र अब किसी दूसरी जगह ले जाएंगे। यहाँ जैसी हालत हो रही है, उसमें हमारा यहाँ रह पाना मुश्किल होता जाएगा। ... तुम भी यहां नहीं जीवित रह पाओगे।’

कुछ देर चुप रहने के बाद उसने कहा-‘ मेरी दिक्कत यह है कि मैं उस स्केच के बिना वैसी पैंटिंग्स नहीं कर पाता, जैसी मैं चाहता हूँ। ...कोशिश करो ...उस प्रकाशक के ँुंह पर हम रुपये दे मारेंगे !’


मैं अगले ही दिन चित्र लेने गया। दरवाज़े पर गार्ड ने मुझे रोका। मेरा और मेरे झोले का सेक्योरिटी चेक किया। अंदर रिसेप्शन पर दो घंटे तक किसी मवाली की तरह बैठा रहा। मैं जानता था कि वह प्रकाशक मुझे फिर टालेगा।

मैंने सबसे पहले उसके चेंबर के शीशे तोड़े। वह अंदर तीन-चार चमकदार लोगों से घिरा था। इनमें से कई अफसर और उनके चापलूस थे, जो सबके सब कवि बने हुए थे।

इसके बाद सिर्फ कोहरा है। मुझे फिर समय में पीछे जाना पड़ेगा, जहाँ चेहरे टेढ़े और लिपियाँ तिरछी हो जाती हैं। वस्तुएँ और घटनाएँ अपना आकार और प्रकार खो देती हैं।

मैं सचमुच नहीं जानता कि उसके बाद क्या हुआ। मेरी आँखों के सामने कोई घना कोहरा छा गया। लगा कि कोई भूकंप आया है या कोई आतंकवादी हमला वहाँ हुआ है। ऐसे वारदात इन दिनों बहुत होने लगे थे। निश्चित ही यह नौ/ग्यारह के बाद की घटना है।

बस एक विस्फोट की आवाज़ मुझे आखीर में सुनाई पड़ी थी।

यह मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि वह आवाज़ मेरे भीतर से आई थी, या धमाका बाहर कहीं हुआ था।

आँखें खुलीं तो मैं अस्पताल में था। पत्नी और बेटे बैठे हुए थे। पता चला था कि मुझ पर एफ० आई०आर० दर्ज़ है। मेरी जमानत की सुनवाई कल है।

मैं जमानत पर छूट गया और ‘आदिवर्ण’ कलादीर्घा में अपने दोस्त के रिट्रोस्पेक्शन में गया। वह एक बहुत सफल प्रदर्शनी थी। लगभग सारे प्रमुख कला समीक्षक, पत्रकार और कला-संग्राहक वहाँ आये हुए थे। कई वी० आई० पी० भी थे। सारा मीडिया मौज़ूद था।

लेकिन वहाँ वह नहीं था। कहीं भी।

मेरा दोस्त। चित्रकार। वह जो मुझे बेतहाशा प्यार करता था, ठीक उस अलग प्रजाति के अंतिम पौधे की तरह, जिसे कैंसर था और जो किंडूरी की पहाड़ियों की तलहटी में मर चुका था।

‘आदिवर्ण’ कलादीर्घा की दीवार पर, जहाँ उसके सारे चित्र अलग-अलग शीर्षक और कीमत के साथ टंगे थे और हर चित्र पर एक अलग ‘स्पॉट लाइट’ थी, उसी दीवार के ठीक बीचों-बीच एक चौकोर-सी जगह डरावने ढंग से खाली छोड़ दी गई थी।

वहां सिर्फ शून्य था, जिसके ऊपर एक धुंधली रोशनी का वृत्त गिर रहा था। नीचे शीर्षक के साथ, कागज़ की पट्टी पर लिखा हुआ था:

‘चाइल्ड एंड हिज़ पोस्थ्युमस फ्यूचर’

‘पेंटिंग मिसिंग’

पता चला, पिछली रात मेरा दोस्त चित्रकार, इसी खाली जगह के लिए एक बच्चे का स्केच बना रहा था, जब उसे ‘ब्रेन हेमरेज’ हुआ। वह ‘अपोलो’ के आई०सी०यू० में बेहोश पड़ा है। ‘कॉमा’ में।


ऐसा ही होता है, जब कोई बीमार शब्द, पौधा या आदमी किसी संक्रमित समय में पीछे की ओर, उल्टी दिशा में चलना चाहता है। ऐसे में सब कुछ इटेल्क्सि में तिरछा और टेढ़ा हो जाता है। चीज़ें अपना आकार और प्रकार खो देती हैं।

उस रोज़ आखि़र उसने हार मान ली होगी। उसे लग गया होगा कि अब प्रकाशक की दूकान या गोदाम से मैं उस स्केच को वापस हासिल नहीं कर पाऊंगा। वह अचानक रात में बेचैन हो उठा होगा।

उसने स्टूडियो में अपने ईज़ल के सामने की दीवार को देखा होगा। वहाँ वह डरावनी खाली ज़गह थी, जो पहले उस डरे हुए सात-आठ साल के बच्चे के स्केच से ढँकी रहती थी और अब जिसकी प्रतिलिपि मेरे कविता-संग्रह के आवरण पर थी।

उसने ईज़ल पर खाली सफे़द कागज़ चढ़ाया होगा। अपना स्केच पेन निकाला होगा और कुछ रेखाएँ खींचीं होंगी।

बस यही वह बिंदु या पल है, जहाँ से सब कुछ विनष्ट होना शुरू होता है।

वह बच्चा, जिसका स्केच उसने पाँच-छह साल पहले बनाया था, वह बच्चा अब पाँच-छह साल बड़ा हो चुका होगा। उसने उसका पुराना डरा हुआ चेहरा याद करने की कोशिश की होगी, कुछ इस तरह कि उसकी स्मृति से प्रत्यावर्तित हो कर वह इमेज उसके मस्तिष्क के रेटिना तक पहुँच जाय। लेकिन ऐसा करने के लिए उसे अपने समय में पाँच-छह साल पीछे की ओर चलना पड़ा होगा। ......और ऐसा करते हुए वह तिरछा और टेढ़ा-मेढ़ा होने लगा होगा। वह इटैलिक्स में बदलने लगा होगा। उसके शरीर के हर अंग तिरछे होने लगे होंगे। उसके गुर्दे, लीवर ....उसकी शिराएँ और धमनियाँ, उसका हृदय ... और बहता हुआ रक्त। फिर अंत में उसका मस्तिष्क और वहाँ मौज़ूद सारी स्मृतियाँ .....

...अचानक उसका चेहरा किसी कमज़ोर नाजुक आईने के कई टुकड़ों में तिड़क गया होगा। कोई हलकी-सी आवाज़ भी वहाँ पैदा हुई होगी, जिसे कॉमा में जाने के ठीक पहले उसने सुना होगा। उसके द्वारा सुनी गई वह आखिरी आवाज़ रही होगी।

मेरे साथ भी यह हो सकता है। कभी-भी। इसीलिए मैं भी यहाँ से चल देना चाहता हूँ। मैं माइग्रेशन के लिए संसार के तमाम देशों में प्रार्थनापत्र भेजूंगा।

लेकिन मेरा यहाँ से जाना वैसा नहीं होगा, जैसा किसी एन०आर०आई० या किसी कालसेंटर या किसी एम०एन०सी० का जाना होता है। यह जाना वैसा भी नहीं होगा जैसा विजय माल्या आई०पी०एल० की क्रिकेट टीम लेकर दक्षिण अफ्रीका या इंगलैंड चला जाता है। यह जाना वैसा होगा जैसे कोई अशवत्थ वृक्ष - पीपल, प्लाक्ष या बरगद धरती में दूर-दूर तक, दसों दिशाओं में फ़ैलीं अपनी जड़ें समेट ले और कहीं और चल दे....।

...या जैसे गंगा या यमुना, अपने उदगम से, अपना सारा जल और सारे स्रोत समेट ले और जीवित रहने के लिए कहीं और चल दे।

मैं अपने सारे असबाब....सारा सामान अब समेट रहा हूँ। मैं अब इटैलिक्स में तिरछा नहीं होना चाहता।


इस घटना को तीन साल हो गये। मेरा दोस्त अभी तक ‘अपोलो’ में है। वह इस वक़्त भी ‘कॉमा’ में है। ‘वेंट्रिलेटर्स’ की मदद से उसके फेफड़े चल रहे हैं और उसका दिल धड़क रहा है। मशीनों की वज़ह से उसकी धमनियों और शिराओं में रक्त दौड़ रहा है।

डॉक्टर कहते हैं, उसे तब तक इसी तरह रहना पड़ेगा, जब तक उसके मस्तिष्क की मृत्यु नहीं होती।

लेकिन इस दुनिया में मैं अकेला ऐसा हूँ, जो यह जानता है कि अगर मुझे प्रकाशक की गोदाम या दूकान से वह खोया हुआ ‘स्केच’ मिल जाय और मैं तीन साल से ‘कॉमा’ में पड़े अपने दोस्त के कान में फुसफुसाकर यह खबर दूँ, तो वह अभी-भी वापस जीवन में लौट सकता है।

यही वह संभावना है, जो हमारे समय में अब तक किसी कदर बची हुई है।