आवश्यक कर्तव्य / ब्रह्मर्षि वंश विस्तार / सहजानन्द सरस्वती
जैसे यह बात दिखलाई गई है कि गोसाईं लोगों को प्रणाम करना बहुत ही निंदित और अनुचित है। परंतु लोग अन्ध परम्परावश करते चले आते हैं और समझदार होने पर पीछे से भी छोड़ देते हैं। उसी तरह यह भी देखा जाता है कि बहुत से ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वंशों के आचार्य या मन्त्र देनेवाले (कान फूँकनेवाले) गुरु वे ही गोसाईं या निरक्षर भट्टाचार्य और दुराचारी याचक दलवाले ब्राह्मण उसी पूर्वोक्त अंधीपरम्परा के अनुसार चले आते हैं। परंतु उनको हटा कर अपने ही दल का गुरु बनाना चाहिए क्योंकि अब उनमें वह योग्यता न रह गई जो उनके पूर्वजों में थी। शास्त्रकारों का तो यहाँ तक कथन है कि यदि गुरुवंश या आचार्य वंश अपढ़ और दुराचारी हो गया हो तो उसे आगे के लिए ही नहीं छोड़ देना चाहिए, किंतु जिस समय ही उसके इन दुर्गुणों का पता लग जावे उसी समय उसे त्याग देना चाहिए। जैसा कि वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकांड में श्रीराम जी के प्रति लक्ष्मण जी ने कहा है कि :
गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानत:।
उत्पथं प्रतिप्रन्नस्य शास्त्रौस्त्यागो विधीयते॥
अर्थात ‘गुरु भी यदि अभिमानी हो जावे, अपने कर्तव्य और अकर्तव्य को न जाने और शास्त्रनिंदित काम करता हो तो उसको दंडित करने और उसे त्याग देने की आज्ञा शास्त्रों में है।
पूर्व ग्रन्थ के अवलोकन से ब्राह्मणों का सच्चा स्वरूप और उनके धर्मों का यथावत ज्ञान हो गया और यह विदित हो गया कि उनका सच्चा स्वरूप वही है जो अयाचक नामधारी ब्राह्मणों का सदा से ही चला आता है। इसीलिए औशनसस्मृति में लिखा भी है कि :
अहिंसैकपरो नित्यमप्रतिग्राहिणस्तथा।
सत्रिणो दाननिरता: ब्राह्मणा: पंक्तिपावना:॥
अर्थात ‘जो ब्राह्मण हिंसा और प्रतिग्रह (दान लेने) से रहित हों और सत्र (यज्ञ) करनेवाले एवं दान देनेवाले हों, वे पंक्तिपावन कहलाते हैं, अर्थात जिस पंक्ति में बैठते हैं उसे पवित्र कर देते हैं।’ इसलिए हमारा वक्तव्य इन अयाचक ब्राह्मणों के स्वरूप या धर्म के विषय में कुछ नहीं रह गया, जिसके लिए विवाद या आकांक्षा हो। इसी से हम इन सब विषयों को अब यहाँ पर ही छोड़ कर ग्रन्थ के अन्त में ब्राह्मण आदि वर्णों के अत्यन्त उपयोगी और नित्य, अथवा नित्य नहीं तो बहुधा पड़नेवाले विषयों का कुछ संक्षेपत: निरूपण कर देते हैं। जिससे लोगों को अल्प श्रम से ही विशेष लाभ हो। मनु भगवान ने अपनी स्मृति के द्वितीय अध्याय में ब्राह्मण के जन्म से ले कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश में प्रथम के धर्मों को बतलाया है। ये संक्षेपत: वे हैं :
नामधोमं दशम्यां तु द्वादश्यां वास्य कारयेत्।
पुण्ये तिथौ मुहूर्ते वा नक्षत्रो वा गुणान्विते॥ 30॥
मंगल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्।
वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्॥ 31॥
शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्॥ 32॥
ततश्च नाम कुर्वीत पिता वै दशमेऽहनि।
देवपूर्वं नराख्यं हि शर्मवर्मादिसंयुतम्॥ 3। 10। 8॥
शर्मवद्ब्राह्मणस्योक्तं वर्मेतिक्षत्रासंयुतम्।
गुप्तदासात्मकं प्रशस्तं वैश्यशूद्रयो:॥ 3। 10। 9।
चतुर्थे मासि कर्त्तव्यं शिशोर्निष्क्रमणं गृहात्।
षष्ठेऽन्नप्राशनं मासि यद्वेष्टं मंगलं कुले॥ 34॥
चूडाकर्म द्विजातीनां सर्वेषामेव धर्मत:।
प्रथमेऽब्दे तृतीये वा कर्त्तव्यं श्रुतिचोदनात्॥ 35॥
गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्।
गर्भादेशकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विश:॥ 36॥
ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यं विप्रस्य पंचमे।
राज्ञो बलार्थिन: षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे॥ 37॥
आषोडशाद्ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते।
आद्वाविंशात् क्षत्राबंधोराचतुर्विंशतेविंश:॥ 38॥
अत ऊधर्वं त्रायोऽप्येते यथाकालमसंस्कृता:।
सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिता:॥ 39॥
नैतैरपूतैर्विधिवदापद्यपिहि कर्हिचित्।
ब्राह्मान्यौनांश्च सम्बन्धनाचरेद्ब्राह्मण: सह॥ 40॥
कार्ष्णरौरवबास्तानि चर्माणि ब्रह्मचारिण:।
वसीरन्नानुपरूव्येण शाणक्षौमाविकानि च॥ 41॥
मौंजी त्रिवृत्समा कार्याश्लक्ष्णा विप्रस्य मेखला।
क्षत्रियस्य तु मौर्वीज्या वैश्यस्य शणतान्तवी॥ 42॥
कार्पासमुपवीतंस्याद्विप्रस्योर्ध्ववृत्तां त्रिवृत्।
शणसूत्रमयं राज्ञो वैश्यस्याविकसौत्रिकम्॥ 44॥
ब्राह्मणो वैल्वल्पालाशौक्षत्रियोवाटखादिरौ।
पैलवौदुम्बरौ वैश्यो दण्डानर्हन्ति धर्मत:॥ 45॥
केशांतिकोब्राह्मणस्यदंड:कार्य: प्रमाणत:।
ललाटसम्मितो राज्ञ:स्यात्तु नासान्तिको विश:॥ 46॥
पिता पितामहा भ्राता ज्ञातयो गोत्रजाग्रजा:।
उपायनेऽधिकारीस्यात् पूर्वाभावे पर: पर:॥ वृद्धगर्ग॥
पितैवोपनयेत्पूर्वं तदभावे पितु: पिता।
तदभावे पितुर्भ्राता तदभावे तु सोदर:॥ वृद्धगर्ग॥
उपनीयगुरु:शिष्यंशिक्षयेच्छौचमादित:।
आचारमग्निकार्यं च संधयोपासनमेव च॥ 69॥
प्राक्कूलान्पर्युपासीन: पवित्रौश्चैपावित:।
प्राणायामैस्त्रिभि: पूतस्तत ओंकारमर्हति॥ 75॥
अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापति:।
वेदत्रायान्निरदुहद्भूर्भुव:स्वरितीति च॥ 76॥
त्रिभ्य एव तु वेदेभ्य:पादं पादमदूदुहत्।
तादिस्यृचोऽस्या:सावित्रया: परमेष्ठी प्रजापति:॥ 77॥
एतदक्षरमेतां च जपन्व्याहृतिपूर्विकाम्।
सन्ध्ययोर्वेदविद्विप्रो वेदपुण्येनयुज्यते॥ 78॥
सहस्रकृत्वस्त्वभ्यस्य बहिरेतत् त्रिकं द्विज:।
महतोऽप्येनसो मासात्तवचेवाहिर्विमुच्यते॥ 79॥
एतयर्चा विसंयुक्त: काले च क्रियया स्वया।
ब्रह्मक्षत्रियवडयोनिर्गर्हणां याति साधुषु॥ 80॥
ओंकारपूर्विकास्तिस्त्रो महाव्याहृतयोऽव्यया:।
त्रिपदा चैव सावित्री विज्ञेयं ब्रह्मणोमुखम्॥ 81॥
योऽधीतेऽहन्यहन्येतांस्त्रीणिवर्षाण्यतन्द्रित:।
स ब्रह्म परमभ्येति वायुभूत:खमूर्तिमान॥ 82॥
एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायाम: परन्तप:।
सावित्रयास्तुपरंनास्तिमौनात्सत्यंविशिष्यते॥ 83॥
विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टोदशभिर्गुणै:।
उपां:शुस्याच्छतगुण: साहस्रोमनस: स्मृत:॥ 85॥
पूर्वांसंधयांजपंस्तिष्ठेत्सावित्रीमार्कदर्शनात्।
पश्चिमां तु समासीन:सम्यगृक्षविभावनात्॥ 101॥
पूर्वां सन्ध्यांजपंस्तिष्ठन्नैशमेनोव्यपोहति।
पश्चिमांतुसमासीनोमलंहंतिदिवाकृतम्॥ 102॥
नतिष्ठति तु य:पूर्वां नोपास्तेय श्च पश्चिमम्।
स शूद्रवद्बहिष्कार्य: सर्वस्माद्द्विजकर्मण:॥ 103॥
विप्रोवृक्षस्तस्यमूलंचसंध्यावेदा: शाखाधर्मकर्माणि
तस्मान्मूलंयत्नतोरक्षणीयंछिन्नेमूलेनैवशाखानपत्रम्। वि.।
शय्यासनेऽध्याचरिते श्रेयसानसमाविशेत्।
शय्यासनस्थश्चैवैनं प्रत्युत्थायाभिवादयेत्॥ 119॥
ऊर्घ्वंप्राणाह्युत्क्रामन्ति यून:स्थविर आयति।
प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान्प्रतिपद्यते॥ 120॥
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपिसेविन:।
चत्वारि सम्प्रवर्र्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्॥ 121॥
अकारश्चास्य नाम्नोन्ते वाच्य: पूर्वाक्षर: प्लुत:।
आयुष्मान्भव सौम्येति वाच्यो विप्रोऽभिवादने॥ 125॥
ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् क्षत्राबंधुमनामयम्।
वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रमारोग्यमेव च॥ 127॥
उपाध्यायान्दशाचार्यआचार्याणां शतं पिता।
सहस्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते॥ 145॥
न हायनैर्नपलितैर्न वित्तेन न बंधुभि:।
ऋषयश्चक्रिरे धर्मं योऽनूचान: स नो महान॥ 154॥
विप्राणां ज्ञानतोज्यैष्ठयं क्षत्रियणां तु वीर्यत:।
वैश्यानां धान्यघनत: शूद्राणामेव जन्मत:॥ 155॥
न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिर:।
यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवा:स्थविरंविदु:॥ 156॥
यथाकाष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग:।
यश्च विप्रोऽनधीयानस्त्रायस्ते नामविभ्रति॥ 157॥
यथा षण्ढोऽफल: स्त्रीषु यथा गौर्गविचाफला।
यथाचाज्ञेऽफलंदानं तथा विप्रोनृचोऽफल:॥ 158॥
वेदमेव सदाऽभ्यस्येत्तापस्तप्स्यन्द्विजोत्ताम:।
वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तप: परमिहोच्यते॥ 166॥
नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसन्निधौ।
गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनोभवेत्॥ 198॥
यं मातापितरौ क्लेशं सहेते संभवे नृणाम्।
न तस्य निष्कृति: शक्या कत्तरुं वर्षशतैरपि॥ 227॥
तयोर्नित्यं प्रियं कुर्यादाचार्यस्य च सर्वदा।
तेष्वेव त्रिषु तुष्टेषु तप: सर्वं समाप्यते॥ 228॥
सर्वे तस्यादृता धर्मा यस्यैंतेत्रयआदृता:।
अनादृतास्तु यस्यैते सर्वास्तस्याफला: क्रिया:॥ 234॥
इसका अनुवाद यह है कि ‘पुत्र के उत्पन्न होने के ग्यारहवें अथवा तेरहवें दिन उसका नाम रखें अथवा अच्छी तिथि, अच्छे मुहूर्त और शुभ नक्षत्र में उसके बाद भी जब चाहे तभी रखे। ब्राह्मण का नाम मंगल सूचक होना चाहिए। पुत्र का नाम पिता ही रखे और वह नाम पुरुष वाचक और आदि में देवताओं के नाम से युक्त हो जैसे सोम शर्मा आदि, न कि यमुना प्रसाद वगैरह। ब्राह्मण के नाम के अन्त में शर्मा पदवी, क्षत्रिय की वर्मा, वैश्य की गुप्त और शूद्र की दास पदवी होनी चाहिए। बच्चे को जन्मवाले (प्रसूति) गृह से चौथे मास में बाहर निकालना और छठे महीने में अन्न प्राशन (अन्न खिलाना) उचित है, अथवा जैसी कुल परम्परा हो वैसा ही करे। एक अथवा तीन वर्ष के होने पर बालक का मुंडन करवाना चाहिए। गर्भ के आठवें वर्ष ब्राह्मण का, ग्यारहवें वर्ष क्षत्रिय का और बारहवें वर्ष वैश्य का उपनयन संस्कार (यज्ञोपवीत वा जनेऊ) होना चाहिए। परंतु यदि ब्राह्मण को ब्रह्मतेज की, क्षत्रिय को बल की और वैश्य को धन की इच्छा हो तो क्रम से 5, 6 और 8 वर्षों में ही यज्ञोपवीत करे। जन्म से 16वें वर्ष तक भी ब्राह्मण का, 22वें तक क्षत्रिय का और 24वें तक वैश्य का यज्ञोपवीत कर देने से वे पतित नहीं हो सकते। परंतु इसके उपरांत बिना यज्ञोपवीत के वे लोग गायत्री पतित और सत्पुरुषों द्वारा निंदित होते और व्रात्य कहलाते हैं। ये लोग प्रायश्चित्त¹ कर के फिर संस्कार और यज्ञोपवीत द्वारा
¹ व्रात्य लोगों के लिए प्रायश्चित्त मनुस्मृति के ग्यारहवें अध्याय में इस प्रकार लिखा हुआ है:-
येषां द्विजानां सावित्री नानूच्येत यिथाविधि।
तांश्चारयित्वात्रीन्कृछान यथाविध्युपनाययेत्॥ 191॥
अर्थात ‘जिन लोगों के संस्कार ठीक समय पर न होने से वे व्रात्य हो गए हों, उनसे तीन कृछ (प्राजापत्य) व्रत करवा कर पुन: विधिवत् उनके यज्ञोपवीत करवावे।
प्राजापत्य का स्वरूप मनु भगवान ने स्वयं आगे बतलाया है:-
त्रयहं प्रातस्त्रायहं सायं त्रयहमद्यादयाचितम्।
त्रयहं परंच नाश्नीयात् प्राजापत्यं चरन्द्विज:॥ 211॥
अर्थात ‘प्रथम तीन दिन तक दिन में, बाद तीन दिन तक रात्रि में और फिर तीन दिन तक बिना माँगे किसी समय मिलने पर एक बार भोजन करे और फिर तीन दिन तक भूखा ही रहे तो एक प्राजापत्य (कृछ्) व्रत होता है।’
सायंद्वार्विंशतिर्ग्रासा: प्रात: षड्विंशतिस्तथा।
अयाचिते चतुर्विंशत् परं चानशनं स्मृतम्॥
कुक्कुटाण्डप्रमाणं च यावांश्च प्रविशेन्मुखम्।
एतं ग्रासं विजानीयात् शुद्धयर्थं ग्रासमात्मन:॥
हविष्यंचान्नमश्नीयाद्यथा रात्रौ तथा दिवा।
यदि पवित्र न किए जावे, तो ब्राह्मण इनके साथ खान-दान, पठन-पाठन और विवाह सम्बन्ध कभी भी न करें। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ब्रह्मचारियों को बिछाने के लिए क्रमश: कृष्णमृग, रुरुमृग, और बकरे के चर्म और पहनने के लिए सन, दुकूल और भेड़ी के बालों के कंबल रखने होते हैं। ब्राह्मण ब्रह्मचारी के लिए कमर में पहनने को तीन तागेवाली मूँज की मौंजी (मेखला) बनानी चाहिए, क्षत्रिय के लिए मूर्वा औषधि की धनुष की ताँत की तरह और वैश्य को सन की तीन तागेवाली। ब्राह्मण का जनेऊ रुई का, क्षत्रिय का सन का और वैश्य का भेड़ के बाल का होता है। ब्राह्मण के लिए बिल्व अथवा पलाश, क्षत्रिय को वट या खदिर और वैश्य के लिए (या गूलर के दंड बनाने चाहिए)। ब्राह्मण का दंड शिखा तक, क्षत्रिय का ललाट तक और वैश्य का नासिका तक होना चाहिए। यज्ञोपवीत काल में प्रथम तो पिता ही गायत्री का उपदेश करे, परंतु उनके न रहने पर पितामह, भाई, दायाद और गोत्रवाले क्रम से एक के न रहने पर दूसरे गायत्री का उपदेश करें। परंतु जब ये कोई भी न हो तो कुलीन ब्राह्मण ही करे। यज्ञोपवीत के बाद गुरु शौच, आचार, अग्निहोत्र और सन्ध्योपासन शिष्य को सिखलावे। कुशों का अग्रभाग पूर्व को कर के उन पर बैठे और कुशों से शरीर पर जल छिड़के और तीन प्राणायाम कर के पुन: ओंकार युक्त गायत्री का उच्चारण करे। ओंकार में जो 'अं', 'उ' और 'म' ये तीन अक्षर हैं उन्हें और भू:, भुव: और स्व: इन महाव्याहृतियों को परमात्मा ने क्रम से तीनों वेदों से मथ कर निकाला है। और गायत्री मन्त्र के 24 अक्षरों में से जो आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण हैं, उन्हें भी क्रम से तीनों वेदों से ही दुह कर भगवान से निकाला है। इसलिए ये सायं-प्रात:काल जो ब्राह्मण ओंकार, व्याहृति और गायत्री मन्त्र को मिला कर-ओं भूर्भुव:स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात - जप करता है उसे सब वेदों के पाठ करने का पुण्य मिलता है¹
¹ यद्यपि यह प्रमाण मिलता है :
ओंकार पूर्वमुच्चार्य भूर्भुव: स्वस्तथैवच।
अन्ते च प्रणवं दद्यादेतज्जपमुदाहृतम्॥
अर्थात ‘प्रथम ओंकार, फिर भूर्भुव: स्व: और उसके बाद 'तत्सवितु:' इत्यादि और अन्त में पुन: ओंकार लगा कर जप करना चाहिए।’ तथापि देवीभागवत में लिखा है कि :
सम्पुटैकषडोंकारा गायत्री त्रिविधा मता।
तत्रौकप्रणवा ग्राह्या गृहस्थैर्ब्रह्मचारिभि:॥
अर्थात ‘दो, छह और एक ओंकारवाला, इस प्रकार गायत्री मन्त्र तीन प्रकार का है। उनमें से गृहस्थ और ब्रह्मचारी को एक ओंकारवाले का अर्थात आदि में ही ओंकार लगा कर जप करना चाहिए।’ इस वचन के अनुसार दो ओंकार वाला वानप्रस्थ के लिए है, गृहस्थ और ब्रह्मचारी एक ही ओंकार लगावें, ऐसा ही प्रतीत होता है मनु जी की भी ऐसी सम्मति प्रतीत होती है।
अर्थात ‘आपस्तंब लिखते हैं कि दिन में 26, रात्रि में 22 और बिना माँगे 24 ग्रास खावे। ग्रास मुर्गी के अंडे भर के हो, अथवा मुख में जितना जा सके उतने बड़े हो। सर्वदा हविष्य (खीर वगैरह, भोजन करना चाहिए। किसी के मत से व्रात्यस्तोम भी प्रायश्चित्त के लिए करते हैं।’
एक मास तक ग्राम से बाहर एक हजार प्रतिदिन गायत्री जप करने से महापाप से भी आदमी वैसे ही छूट जाता है, जैसे सर्प केंचली से अलग हो जाता है। सायं-प्रात:काल जो द्विज इस गायत्री का जप और अग्निहोत्र आदि नहीं करता है उसको सत्पुरुष निंदित समझते हैं। ओंकार और तीन महाव्याहृतियों के सहित गायत्री मन्त्र परमात्मा का मुख हैं। जो ब्राह्मण इस पूर्वोक्त गायत्री का तीन वर्ष तक बराबर जप करता है वह स्वेच्छाविहारी और परमात्मा का स्वरूप हो जाता है। ओंकार परमात्मा का स्वरूप है, प्राणायाम से बढ़ कर तपस्या और गायत्री से बढ़ कर मन्त्र नहीं है और मौन रहने की अपेक्षा सत्य बोलना अच्छा है। सब यज्ञों की अपेक्षा बोल कर भी गायत्री या अन्य मन्त्र का जप करना दस गुना फल देता है, केवल ओष्ठ हिलते हुए जप करना सौगुना मन ते जप करना तो हजार गुना फल देनेवाला है। प्रात: काल में खड़ा हो कर तारे दीखते रहने से सूर्य के दीखने तक और सायंकाल में सूर्य दीखते रहने से तारे दीखने तक बैठ कर जप करे। प्रात:काल खड़े हो कर गायत्री जपने से रात्रि-भर भूल-चूकवाले पापों का, और सायंकाल बैठ कर जपने से दिनभर के ऐसे पापों का नाश हो जाता है। जो एक दिन भी प्रात: और सायं संध्या नहीं करता वह शूद्र की तरह किसी भी द्विज कर्मों का अधिकारी नहीं रहता है। ब्राह्मण रूप वृक्ष की जड़ संध्या, शाखा वेद और अन्य धर्म-कर्म पत्ते हैं, अत: संध्या रूप जड़ की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि जड़ के कटने पर शाखा और पत्ते एक भी नहीं रह सकते। अपने से श्रेष्ठ माता-पिता वगैरह के आने के समय छोटे लोगों के प्राणाम ऊपर को निकलते हैं, परंतु उठ कर उन बड़ों को प्रणाम करने से फिर शरीर में रह जाते हैं। माता-पिता आदि बड़ों के साथ अथवा उनके सामने आसन या खाट पर न बैठे और यदि बैठा भी हो तो उनके आने पर उठ कर उन्हें प्रणाम करे। जो वृद्ध जनों को नित्य प्रणाम और उनकी सेवा करते हैं उनकी आयु, विद्या, यश और बल बढ़ते हैं। अपने से छोटे ब्राह्मण को प्रणाम करने पर 'हे सौम्य आयुष्मानन्भव' ऐसा कहना चाहिए।
यदि समान अथवा अल्प अवस्थावाला विशेष अपरिचित कोई भी ब्राह्मण मिले तो उसे प्रणाम न कर 'कुशलम्?' ऐसा पूछे, क्षत्रिय को 'अनामयम्?', वैश्य को, 'क्षेमम्?' और शूद्र को 'आरोग्यम्?' ऐसा केवल पूछ भर ले। दस उपाध्याय के बराबर एक आचार्य, सौ आचार्य के बराबर एक पिता और हजार पिता के बराबर एक माता श्रेष्ठ है। अवस्था अधिक होने, बाल पकने और अधिक धन और बंधु वर्ग होने से ब्राह्मण श्रेष्ठ नहीं होता। किंतु जो भी वेदशास्त्र का ज्ञाता है वही श्रेष्ठ है। अधिक ज्ञानवाला ही ब्राह्मण, अधिक बलवाला क्षत्रिय, अधिक धनवाला वैश्य और अधिक अवस्थावाला शूद्र ही श्रेष्ठ माना जाता है। इसलिए बाल पकने से ही ब्राह्मण श्रेष्ठ नहीं होता। किंतु यदि अल्प अवस्थावाला भी वेदज्ञ हो तो वही श्रेष्ठ है। जैसे काठ का हाथी और चमड़े का मृग बेकार है, वैसे ही जो ब्राह्मण नहीं पढ़ता वह नाममात्र के ही लिए है। जैसे स्त्री के लिए नपुंसक पति, गाय के लिए गाय और मूर्ख को दान देना ये सब निष्फल है, वैसे ही वेद का न जाननेवाला ब्राह्मण ही निष्फल है। यदि ब्राह्मण को तप करना हो तो वह वेद का ही अभ्यास करे, क्योंकि उसके लिए वही महान तप है। ज्ञानोपदेश करनेवाले गुरु तथा श्रेष्ठजनों के सन्मुख नीचे पर बैठे। उनके सामने हाथ-पाँव फैला कर न बैठें। पुत्र के जन्म में माता-पिता को जो क्लेश होता है उसका उद्धार पुत्र से सैकड़ों वर्षों में भी नहीं हो सकता। माता, पिता और ज्ञानोपदेश करनेवाले गुरु के इच्छानुसार ही सदा काम करे, क्योंकि उनके प्रसन्न रहने से ही सब तपस्याओं का फल मिल जाते हैं। जो इन तीनों का आदर करता है, उसने सब धर्म कर लिए। परंतु जो इनका आदर करता है उसके सभी धर्म निष्फल हो जाते हैं।
इसके बाद भगवान मनु ने तृतीय अध्याय में इस प्रकार लिखा है :
असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितु:।
सा प्रशस्त्रा द्विजातिनां दारकर्मणि मैथुने॥ 5॥
महान्त्यपि समृद्धानि गीडजाविधनधान्यत:।
स्त्री संबन्धो दशैतानि कुलानि परिवर्जयेत्॥ 6॥
हीनक्रियं निष्पुरुषं निश्छन्दो रोमशार्शसम्।
क्षय्यामयाव्यपस्मारि श्वित्रिकुष्ठिकुलानि च॥ 7॥
आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम्।
आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्म: प्रकीर्तित:॥ 27॥
न कन्याया: पिता विद्वान गृह्णीयाच्छुल्कमण्वपि।
गृहणंछुल्कं हि लोभेन स्यान्नरोऽपत्यविक्रयी॥ 51॥
स्त्रीधानानि तु ये मोहादुपजीवन्ति बान्धवा:।
नारीयानानि वस्त्रां वा ते पापायान्त्यधोगतिम्॥ 52॥
कुविवाहैं: क्रियालोपैर्वेदानध्यायनेन च।
कुलान्यकुलतां यान्ति ब्राह्मणातिक्रमेण च॥ 63॥
पंच सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्कर:।
कण्डनी चोदकुम्भश्च वध्यते यास्तुवाहयन॥ 68॥
तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभि:।
पंच क्लृप्ता महायज्ञा: प्रत्यहं गृहमेधिनाम्॥ 69॥
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ: पितृयज्ञस्तु तर्पणम्।
होमोदैवोबलिर्भौतोनृयज्ञोऽतिथिपूजनम्॥ 70॥
देवताऽतिथिभृत्यानां पितृणामात्मनश्च य:।
न निर्वपति पंचानामुच्छ्वसन्न स जीवति॥ 72॥
कुर्यादहरह: श्राद्धमन्नाद्येनोदकेन वा।
पयोमूलफलैर्वापि पितृभ्य:प्रीतिमावहन॥ 82॥
वैश्वदेवस्य सिद्धस्य गृह्येग्नौ विधिपूर्वकम्।
आभ्य:कुर्याद्देवताभ्यी ब्राह्मणो होममन्वहम्॥ 84॥
अग्ने सोमस्यचैवादौ तयोश्चैव समस्तयो:।
विश्वेभ्यश्चैवदेभ्य: धान्वन्तरय एव च॥ 85॥
कुह्वैचैवानुमत्यै च प्रजापतय एव च।
सह द्याबापृथिव्योश्च तथा स्विष्टकृतेऽन्तत:॥ 86॥
एवं सम्यग्घविर्हुत्वा सर्वदिक्षु प्रदक्षिणम्।
इन्द्रान्तकाप्पतीन्दुभ्य: सानुगेभ्यो बलिं हरेत्॥ 87॥
मरुद्भ्यइतितुद्वारि क्षिपेदप्स्वद्भ्यइत्यपि।
वनस्पतिभ्यइत्येवं मुसलोलूखले हरेत्॥ 88॥
उच्छीर्षकेश्रियैकुर्याद्भद्रकाल्यै च पादत:।
ब्रह्मवास्तोष्पतिभ्यांतु वास्तुमध्ये बलिं हरेत्॥ 89॥
विश्वेभ्यश्चैवदेभ्यो बलिमाकाश उत्क्षिपेत्।
दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यो नक्तचारिभ्य एव च॥ 90॥
पृष्ठवास्तुनि कुर्वीत बलिं सर्वात्मभूतये।
पितृभ्यो बलिशेषं तु सर्वं दक्षिणतो हरेत्॥ 91॥
शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्।
वायसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वमेद्भुवि॥ 92॥
द्वौ दैवे पितृकार्येत्रीनेकैकमुभयत्रा वा।
भोजयेत्सुसमृद्धोऽपि न प्रसज्येत विस्तरे॥ 125॥
सत्क्रियां देशकालौच शौचं ब्राह्मणासंपद:।
पंचैतांविस्तरोहंति तस्मान्नेहेतविस्तारम्॥ 126॥
श्रोत्रियायैवदेयानि हव्यकव्यानिदातृभि:।
अर्हत्तामायविप्राय तस्मै दत्तां महाफलम्॥ 128॥
एकैकमपिविद्वांसं दैवे पित्रयेचभोजयेत्।
पुष्कलं फलमाप्नोति नामन्त्रज्ञान्बहूनपि॥ 129॥
ज्ञाननिष्ठाद्विजा:केचित्तपोनिष्ठास्तथापरे।
तप: स्वाध्यायनिष्ठाश्च कर्मनिष्ठास्तथापरे॥ 134॥
ज्ञाननिष्ठेषु कव्यानि प्रतिष्ठाप्यानि यत्नत:।
हव्यानि तु यथान्यायं सर्वेष्वेवचतरुष्वपि॥ 135॥
एष वै प्रथम: कल्प: प्रदाने हव्यकव्ययो:।
अनुकल्पस्त्वयं ज्ञेय: सदा सदि्भरनुष्ठित:॥ 147॥
मातामहं मातुलं च स्वस्त्रीयं श्वशुरं गुरुम्।
दौहित्रां विट्पतिं बंधुमृत्विग्याज्यौचभोजयेत्॥ 148॥
न ब्राह्मणं परीक्षेत दैवे कर्मणि धर्मवित्।
पित्रये कर्मणि तु प्राप्ते परीक्षेत प्रयत्नत:॥ 149॥
चिकित्सकान्देवलकान मांसविक्रयिणस्तथा॥ 152॥
भृतकाधयापको यश्च भृतकाध्यायपितस्तथा॥ 156॥
कुशीलवऽवकीर्णो च वृषलीपतिरेवच।
ब्राह्मैर्यौनैश्च संबन्धौ: संयोगं पतितैर्गत:॥ 157॥
हस्तिगोश्वोष्ट्रदमको नक्षत्रौर्यश्चजीवति॥ 162॥
आचारहीन: क्लीवश्च नित्यं याचनकस्तथा।
कृषिजीवीश्लीपदी च सदि्भर्निन्दित एवच॥ 165॥
एतांविगर्हिताचारानपाङ्क्तेयान्द्विजाधामान।
द्विजातिप्रवरो विद्वानुभयत्रा विवर्जयेत्॥ 167॥ याज्ञ.।
अग्रया: सर्वेषु वेदेषु श्रोत्रियो ब्रह्मविद्युवा।
वेदार्थविज्ज्येष्ठसामा त्रिमधुस्त्रिपर्णिक:॥ 219॥
स्वस्त्रीयऋत्विग्यामातृयाज्यश्वशुरमातुला:।
त्रिणाचिकेत दौहित्र शिष्यसंबंधिबान्धावा:॥ 220॥
कर्मनिष्ठास्तपोनिष्ठा: पंचाग्निब्रह्मचारिण:।
पितृमातृपराश्चैव ब्राह्मणा: श्राद्धसंपद:॥ 221॥
इन सब पूर्वोक्त श्लोकों का तात्पर्य यह है कि ‘जो स्त्री माता के पाँच पुरुषों तक की अथवा माता के गोत्र की न हो तथा पिता के सात पुरुषों तक की और पिता के भी गोत्र की न हो उससे ही विवाह करना चाहिए। जिस वंश में जात कर्म और प्रेत कर्म आदि न होते हों केवल लड़कियाँ हों, वेद न पढ़ा जाता हो, शरीर में अधिक बाल होता हो, बवासीर हो, क्षय और अन्य रोग हों, श्वेत और दूसरे प्रकार के कुष्ठ हों, धन-धान्य से पूर्ण भी इन दस कुलवालों के साथ विवाह न करे। कन्या और वर दोनों को प्रीतिपूर्वक बुला, सुंदर वस्त्र पहना और आभूषणों से अलंकृत कर शास्त्र ज्ञानी और शीलवान वर को जो विधिवत कन्यादान किया जाता है उसे ही ब्राह्म विवाह कहते हैं। कन्या का पिता वर से कुछ भी न ले, क्योंकि ऐसा करना कन्या विक्रय कहलाता है। जो मनुष्य मोहवश कन्या के बदले वर से द्रव्य, दासी, यान या वस्त्र आदि लेते हैं वे पापी नरकगामी होते हैं। कुत्सित विवाह करने, संध्या और अग्निहोत्र आदि के न करने, वेदों के पठन-पाठन न करने और विद्वान एवं तपस्वी ब्राह्मण का निरादर करने से वंश नीच हो जाते हैं। गृहस्थों के यहाँ चूल्हा, चक्की, ओखली, झाड़ई, जल के पात्र ये पाँच स्थान हिंसा के हैं, जिनसे प्रतिदिन पाप हुआ करता है। इन्हीं पाँच हत्याओं को मिटाने के लिए महर्षियों ने गृहस्थों को प्रति दिन पंच महायज्ञ करने को बतलाया है। वेद शास्त्रों तथा स्तोत्र आदि का पठन-पाठन ब्रह्मयज्ञ, तर्पण, पितृयज्ञ, अग्निहोत्र अथवा अन्य गायत्री आदि मन्त्र द्वारा हवन देवयज्ञ, भोजन के समय काक वगैरह की बलि (भाग) निकालना भूत यज्ञ और अतिथि सत्कार मनुष्य यज्ञ कहलाता है। जो इन पाँच यज्ञों को नहीं करता, वह श्वास लेता हुआ भी मुर्दा है। प्रतिदिन पितरों की तृप्ति के लिए अन्न, जल, दूध, मूल या फलों से ही श्राद्ध करे, और इसी प्रकार पितृपक्ष आदि में भी। अग्निहोत्र की अग्नि से भिन्न अग्नि में पकाए अन्न से बलि वैश्यदेव करने के लिए इन अगले मंत्रों से हवन करे। (1) अग्नए स्वाहा, (2) सोमाय स्वाहा, (3) अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा, (4) विश्वेभ्गो देभ्य: स्वाहा, (5) धान्वंतरए स्वाहा, (6) कुह्नैस्वाहा, (7) अनुमत्यै स्वाहा,(8) प्रजापतए स्वाहा, (9) द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा, (10) अग्नएस्विष्टकृते स्वाहा। इसके बाद पूर्व दिशा में, (11) इन्द्रायनम: इंद्रपुरुषेभ्योनम:। दक्षिण दिशा में, (12) यमायनम: यमपुरुषेभ्योनम:। पश्चिम दिशा में, (13) वरुणायनम: वरुणपुरुषेभ्योनम:। उत्तर दिशा में, (14) सोमायनम: सोमपुरुषेभ्योनम:। द्वार में, (15) मरुद्भयोनम:, जल में, (16) अद्भयोनम:, ओखली और मूसल पर, (17) वनस्पस्पतिभ्योनम:। घर के उत्तर-पूर्व कोने या खाट के सिरहाने की ओर, (18) श्रियै स्वाहा। घर के दक्षिण-पश्चिम कोने या खाट के पाँव के भाग की ओर, (19) भद्रकाल्यैनम:। मकान के मध्य में, (20) वास्तोष्पतिभ्यां नम:, आकाशमें, (21) विश्वेभ्यो देभ्यो नम:, दिन में, (22) दिवाचरेभ्यो भूतेभ्योनम:, रात में, (23)नक्तंचारिभ्यो भूतेभ्योनम:। कोठे पर अथवा अपने पीछे, (24) सर्वात्मभूतएनम:, दक्षिण मुख हो और जनेऊ को अपसव्य (बाएँ) कर, (25) स्वधा पितृभ्य:, इस मन्त्र से दक्षिण दिशा में बचे अन्न की बलि दे। थोड़ा दूसरा अन्न ले कर, (26) श्वभ्योनम:, (27) पतितेभ्योनम:, (28) पापरोगिभ्योनम:, (29) वायसेभ्योनम:, और (30) कृमिभ्योनम:। इन मंत्रों से जमीन पर बलि दे। इसके बाद अतिथि को भोजन करवावे।
बहुत धनी होने पर भी जब कभी श्राद्ध और देवयज्ञ करें तो देवयज्ञ में दो और श्राद्ध में तीन अथवा दोनों एक ही एक ब्राह्मण खिलावे, अधिक नहीं। बहुत ब्राह्मण खिलाने से एक तो अच्छे और सुपात्रा ब्राह्मण नहीं मिलते, दूसरे उनका सत्कार ठीक नहीं होता, तीसरे उत्तम स्थान और चौथे उत्तम काल में उन्हें भीड़ के कारण खिला नहीं सकते और पाँचवें पवित्रता भी नहीं रह जाती। इसीलिए अधिक ब्राह्मणों को भोजन न करावें। अत्यन्त योग्य और वेदशास्त्रों के जाननेवाले ही ब्राह्मण को यज्ञ अथवा श्राद्ध में भोजन करवाना चाहिए, तभी फल मिलता है। यज्ञ और श्राद्ध में एक-एक भी विद्वान ब्राह्मण को खिलाने से महाफल की प्राप्ति होती है, न कि बहुत से मूर्खों के खिलाने से। कोई ब्राह्मण ज्ञानी, कोई तपस्वी, कोई वेद पढ़नेवाले और कोई यज्ञ आदि कर्म करनेवाले होते हैं। उनमें से श्राद्ध में केवल ज्ञानी को ही खिलाना चाहिए, परंतु देवकार्य में चारों प्रकार के ब्राह्मणों को। यदि इस प्रकार के योग्य ब्राह्मण मिल सकें, तभी उन्हें श्राद्ध आदि में भोजन करावे। परंतु ऐसे ब्राह्मणों के न मिलने पर सर्वदा सत्पुरुष लोग जिन्हें खिलाया करते हैं, वे ये हैं, अपने नाना, मामा, बहन के लड़के, ससुर, आचार्य, माता, पिता, लड़की के पुत्र, दामाद, भाई-बिरादर, और यज्ञ कराने और करनेवाले इनको श्राद्ध में भोजन करावे। देव कार्य में तो खिलाने के समय ब्राह्मणों की विशेष परीक्षा न भी करे, परंतु श्राद्ध में तो यत्नपूर्वक परीक्षा करें। दवा करनेवाले (वैद्य), मूर्ति दिखा कर पैसे माँगनेवाले, मांस बेचनेवाले, रुपया ले कर पढ़ने और पढ़ानेवाले, नाचने और गानेवाले, शूद्र अथवा अन्य जाति की स्त्री को रखनेवाले, पतितों (नीचों) के साथ पठन-पाठन करनेवाले, हाथी, गाय, घोड़े और ऊँटों को फँसानेवाले, ज्योतिषी, भ्रष्टाचार, नपुंसक, नित्य नाच करनेवाले, अपने हाथों हल जोतनेवाले और सत्पुरुषों द्वारा निंदित इत्यादि निषिद्ध, पंक्ति में बैठाने के अयोग्य और अधम ब्राह्मणों को बुद्धिमान कभी भी यज्ञ या श्राद्ध में भोजन न करावे।
याज्ञवल्क्यस्मृति में भी लिखा है कि युवावस्थावाले वेदों के विलक्षण ज्ञाता, सामान्यत: वेदों और उनके अर्थों के जाननेवाले, सामवेद, ऋग्वेद और यजुर्वेदों के कुछ-कुछ अंशों के पंडित, बहन के लड़के, यज्ञ करानेवाले, दामाद, यज्ञ करनेवाले ससुर, मामा, लड़की के लड़के, शिष्य, दायाद, (भाई-बिरादर), नातेदार, कर्मकांडी और तपस्वी, अन्य योग्य ब्राह्मण, पाँचों अग्नियों की उपासना करनेवाले, ब्रह्मचारी और माता-पिता के भक्त ब्राह्मण, इतने ही लोगों को श्राद्ध में भोजन करवाना उत्तम है।
श्राद्ध का काल भी सामान्यत: मनु जी ने आगे कह दिया है :
यथाचैवापर: पक्ष: पूर्वपक्षाद्विशिष्यते।
तथा श्राद्धस्य पूर्वाह्णदपराह्णो विशिष्यते॥ 278॥
रात्रौ श्राद्धं न कुर्वीत राक्षसी कीर्तिता हि सा।
सन्ध्ययोरुभयोश्चैव सूर्येचैवाचिरोदिते॥ 280॥
अर्थात ‘जैसे श्राद्ध के लिए शुक्लपक्ष की अपेक्षा कृष्णपक्ष उत्तम है वैसे ही दिन के पूर्वार्द्ध भाग से उत्तारार्द्ध भाग श्रेष्ठ है। रात्रि राक्षसी हैं, इसीलिए रात्रि को, दिन-रात के संधिकाल में और सूर्य निकलने के बाद ही तुरंत श्राद्ध न करे।’
घर या सापिंड (मरे या जन्मे से 7वीं पीढ़ी तक) में किसी के मर जाने या जन्म लेने से ब्राह्मण दस दिन तक अशुचि रहता और यदि जन्म या मरण के दस दिन के भीतर ही दूसरा जन्म या मरण हो जावे, तो साधारण तया दस दिन के बाद ही दूसरे जन्म और मरण का, भी अशौच मिट जाता है। जैसा कि मनु भगवान ने पाँचवें अध्याय में लिखा है :
अन्तर्दशाहे स्यातां चेत्पुनर्मरणजन्मनी।
तावत्स्यादशुचिर्विप्रो याव त्स्यादनिर्दशम्॥ 79॥
शुध्ययेद्विप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिप:।
वैश्य: पंचदशाहेन शूद्रो मासेन शुद्धयति॥ 83॥
अर्थात ‘यदि जन्म के दस दिन के भीतर ही फिर जन्म और मरण हो जावे तो प्रथम के दस दिन पूरे होने तक ही ब्राह्मण अशुचि रहता हैं। ब्राह्मण जन्म और मरण में दस दिन तक अशुचि रहता है, क्षत्रिय बारह दिन तक, वैश्य पंद्रह दिन तक और शूद्र एक मास तक अशुचि रहता हैं। इस विषय का विशेष प्रचार आगे उत्तर परिशिष्ट में मिलेगा। अशौच काल में नैमित्तिक कर्म दान आदि तो नहीं ही करने चाहिए। यही सभी ऋषियों का मत हैं। परंतु नित्यकर्म संध्या आदि में विवाद है। किसी का मत है कि -
संधयां पंचमहायज्ञान्नैत्यकं स्मृतिकर्म च।
तन्मध्ये हापयेदेषां दशाहान्ते पुन: क्रिया॥
मरणाशौचमाख्यातं जननेऽप्येवमेव च॥ जाबालि॥
अर्थात ‘जाबालिस्मृति में लिखा है कि जन्म या मरण काल में दस दिन तक संध्या, पंच महायज्ञ, अन्य नित्य कर्म और प्रतिमा पूजा आदि इन सभी का त्याग कर देना और उसके बाद करना चाहिए।’
परंतु निर्णय सिंधु आदि ग्रन्थों में यह सिद्ध किया है कि अशौच काल में भी नित्य कर्मों का त्याग नहीं होता है। इसीलिए अन्य ग्रन्थकारों ने यह लिखा है कि संध्या वगैरह नित्यकर्मों में भी जितने कर्म बिना जल के हो, उन्हें तो कर ले, परंतु आचमन या सूर्य को अर्घ प्रदानादि न करे। इसीलिए यह विषय विवाद का हो गया और इनमें बहुत से मत हो गए। ऐसी दशा में चाहे बिलकुल ही करे या केवल गायत्री आदि जप ले और प्राणयाम कर ले इसमें मर्जी की बात है। परंतु प्रतिमा की पूजा आदि तो नहीं ही करे। यह भी लिखा है कि :
अजागावौ महिष्यश्च ब्राह्मणो च प्रसूतिका।
दशरात्रोण शुद्धियन्ति भूमिस्थं च नवोदकम्॥
अर्थात ‘बकरी, गाय, भैंस और ब्राह्मणी ये सब पुत्रजन्म के दस दिन बाद शुद्ध हो जाती है और जमीन पर पड़ा हुआ नया पानी भी शुद्ध ही होता है।’ संध्या काल में प्राणायाम का मन्त्र यह है :
ओं भू: ओं भुव: ओं स्व: ओं मह: ओं जन: ओं तप: ओं सत्यम् ओं तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात् ओं आपोज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्मभूर्भुव: स्वरोम्।
जैसा कि योगी याज्ञवल्क्य ने लिखा है कि :
सव्याहृतिं सप्रणवां गायत्री शिरसा सह।
त्रि: पठेदायतप्राण: प्राणायाम: स उच्यते॥
अर्थात ‘ओंकार, सप्तव्याहृति, गायत्री मन्त्र और 'आपोज्योती' इत्यादि सिर मन्त्र इन सबों को मिला तीन बार पढ़ कर प्राणों के रोकने का नाम प्राणायाम है।’
गायत्री मन्त्र से शिखा बंधन करना और सूर्य को अर्घ भी देना चाहिए। जैसा कि लिखा है कि :
स्मृत्वोंकारं च गायत्रीं निबध्नीयाच्छिखां तत:।
कराभ्यां तोपमादाय गायत्रीया चाभिमंत्रितम्॥
आदित्याभिमुखस्तिष्ठॅस्त्रिरूधर्वं सन्ध्ययो: क्षिपेत्।
सकृदेव तु मधयाद्दे क्षेपणीयं द्विजातिभि:॥
अर्थात ‘ओंकार सहित गायत्री पढ़ कर शिखा बाँधो। दोनों हाथों की अंजलि में जल ले, गायत्री पढ़ कर प्रात: और सायंकाल सूर्य की तरफ ऊपर को उसे तीन बार फेंके परंतु मधयाद्द में एक ही बार।
गायत्री मन्त्र के विषय में प्रतिदिन के लिए लिखा है कि :
अष्टोत्तारशतं नित्यमष्टाविंशतिरेव वा।
विधिनादशकं वापि त्रिकालेषुजपेद्बुधा:। व्यास॥
आरभ्यानामिकामधयं पर्वाण्युक्तान्यनुक्रमात्।
तर्ज्जनीमूलपर्यन्तं जपेद्दशसु पर्वसु॥
मध्यमांगुलिमूले तु यत्पर्वद्वितयं भवेत्।
तं वैं मेरु विजानायाज्जपे तं नातिलंघयेत्॥ गा. क.॥
अर्थात ‘प्रतिदिन 108, 28 अथवा कम से कम 10 बार तीनों काल में जप करे। अनामिका अँगुली के मध्य पर्व (पोर) से आरंभ कर क्रम से 10 पर्वों पर बराबर जपे। परंतु मध्यम अँगुली के जड़ के दो पर्वों को छोड़ दे, क्योंकि वे अँगुली के मेरु हैं और जप में मेरु का लंघन नहीं किया जाता है।’
गायत्री मन्त्र का यह अर्थ है कि : ओंकार स्वरूप व सर्वरक्षक। भूर्भुव: स्व: - तीनों लोकस्वरूप, या स्वयंभू, सर्वाधार और आनन्द स्वरूप। तत - संपूर्ण वेदों और शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित। वरेण्यं - सबके भजन और प्रार्थना के योग्य। सवितु: - जगत् और प्राणियों के कल्याण को उत्पन्न करनेवाले। देवस्य - स्वयं प्रकाश स्वरूप परमात्मा के। भर्ग: - ज्योति: स्वरूप को। धीमहि-हम लोग ध्यान करते हैं। य: - जो ज्योति: स्वरूप। न: - हम लोगों की। धिय: - बुद्धियों को। प्रचोदयात् - अपनी ओर, विचारऔर सत्कर्मों में लगावे। अर्थात ‘संपूर्ण जगत् को रचनेवाले और प्राणियों के कल्याणकर्ता स्वयं प्रकाश स्वरूप परमात्मा के इस ज्योति:स्वरूप का ध्यान हम लोग करते हैं, जो ओंकार स्वरूप, और सर्वरक्षक तीनों लोक स्वरूप और स्वयंभू, सर्वाधार, आनन्द स्वरूप, सब शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित और सभी लोगों की प्रार्थना एवं भजन के योग्य हैं। वह ज्योति:स्वरूप हमारी बुद्धियों को अपनी ओर, सत्कर्म और विचार में लगावे।’
पुराने यज्ञोपवीत (जनेऊ) के त्यागने का मन्त्र यह है :
एताबद्दिपर्यन्तं ब्रह्म त्वं धारितं मया।
जीर्णत्वात्तवत्परित्यागो गच्छ सूत्र यथासुखम्।
इस मन्त्र से जनेऊ को सिर की तरफ से निकाल कर पवित्र स्थान में रख दे। नवीन यज्ञोपवीत धारण करने के बाद पुराने को निकालना चाहिए। धारण करने का मन्त्र यह है :
यज्ञोपवीतं परमं पवित्र प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्र यं प्रतिमु×च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तुतेज:
यज्ञो पवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि॥
इस मन्त्र को पढ़ कर गृहस्थ को सर्वदा दो जनेऊ और ब्रह्मचारी को एक धारण करना चाहिए। जनेऊ के विषय में ऐसा लिखा हुआ है :
पृष्ठवंशे च नाभ्यां च धृतं यद्विन्दते कटिम्।
तद्धार्यमुपवीतं स्य:न्नातिलम्बं नचोच्छितम्। छं. पं.॥
ब्रह्मचारिण एकं स्यात्स्नातस्य द्वे बहूनि वा॥
विना यज्ञोपवीतेन तौयं पिवति यो द्विज:।
उपवासेन चैकेन पंचगव्येन शुद्धयतिं।
विना यज्ञोपवीतेन विण्मूत्रोत्सर्गकृद्यदि।
उपवासद्वयं कृत्वा दानैंर्होमैस्तु शुद्धयति॥
सूतके मृतके चेव गते मासचतुष्टये।
नव यज्ञोपवीतानिं धृत्वा जीर्णानि संत्यजेत्॥ संग्रह॥
अर्थ यह है कि 'नाभि और पीठ पर होता हुआ जो यज्ञोपवीत कमर तक पहुँच जावे वही उत्तम और धारण करने योग्य है, उससे छोटा या बड़ा नहीं। ब्रह्मचारी को एक और गृहस्थ को साधारणत: दो जनेऊ पहनने चाहिए। जो द्विज बिना जनेऊ के पानी पी लेता है वह एक दिन उपवास करने और पंचगव्य पीने से शुद्ध हो जाता है। यदि बिना जनेऊ के मल-मूत्र का त्याग कर दे तो दो दिनों के उपवास के बाद दान और होम द्वारा शुद्ध हो जाता है। सूतक में, मृतक में और चार मास बीतने पर नए यज्ञोपवीत को पहन कर पुराने को त्याग देना चाहिए।’ जनेऊ बनाने के विषय में मदन पारिजात में लिखा है कि पवित्र देश में हाथ के कते पवित्र सूत 96 चतुरंगुल (चौआ) का जनेऊ बनावे। चतुरंगुल (चौआ) चारों अंगुलियों को सटा कर उनकी जड़ में बनाना चाहिए और दस बार गायत्री को पढ़ कर जल से जनेऊ का अभिमन्त्रण करना चाहिए। प्रवरग्रंथि भी रहे।
स्नान काल में प्रतिदिन नीचे लिखे मंत्रों से तर्पण करना चाहिए। देव तर्पण में जनेऊ सीधा ही रहे, पितृ तर्पण में बाएँ कंधे पर और ऋषि तर्पण में गले में लटकना चाहिए, और देव तर्पण में प्रत्येक मन्त्र से एक-एक अंजली, ऋषि तर्पण में दो-दो और पितृतर्पण में तीन-तीन देनी चाहिए।
देव तर्पण-ब्रह्मादयो देवास्तृप्यन्ताम्। ओं भूर्देवास्तृप्यन्ताम्। ओं भुवर्देवास्तृप्यन्ताम्। ओं स्वर्देवाष्तृप्यन्ताम्। ओं भूर्भुव:स्वर्देवास्तृप्यन्ताम्॥ ऋषि तर्पणओं सनकादिद्वैपाय-नादयोऋषयस्तृप्यन्ताम्। ओं भूवर्ऋषयस्तृप्न्ताम्। ओं स्वर्ऋषयस्तृप्ययन्ताम्। ओं भूर्भुव: स्वर्ऋषस्तृप्यन्ताम्॥ पितृ तर्पण-ओंकव्यवाडनलादय: पितरस्तृप्यन्ताम्। भू: पितरस्तृप्यन्ताम्। ओं भुव: पितरस्तृप्यन्ताम्। ओं स्व: पितृरस्तृप्यन्ताम्। ओं भूर्भुव: पितरस्तृप्यन्ताम्॥
इसके बाद आचमन कर, जनेऊ को सीधा कर के 'यक्ष्म' तर्पण करे, अर्थात नीचे लिखे मन्त्र से जल के किनारे एक अंजलि दे। मन्त्र -
यन्मया दूषितं तोयं शरीरमलसंभवात्।
तस्य पापस्य शुद्धयर्थं यक्ष्मैतत्तो तिलोदकम्॥
इसके बाद अपनी दक्षिण ओर तृण अथवा लता आदि में शिखा के जल को निचोड़ दे। मन्त्र यह है -
लतागुल्मेषु वृक्षेषु पितरो ये व्यवस्थिता:।
ते सर्वे तृप्तिमायान्तु मयोत्सृष्टै: शिखोदकै:॥
ब्राह्मण को भोजन काल में संक्षेपत: यह विधि करनी चाहिए :
जल अथवा भस्म से चौकोना मण्डल बना कर उसके ऊपर अन्न का पात्र रखे और नमो भगवते वासुदेवाय' इस मन्त्र से हाथ में जल ले कर दाहिनी तरफ से थाली के चारों ओर गिरावें। इसे पंक्ति वारण कहते हैं। पुन: हाथ जोड़ कर अन्न की स्तुति करे। उसका मन्त्र यह है : ‘ओं नम: शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नम: शिवाय च शिवतराय च’ इसके बाद हाथ में जल ले कर दिन में 'सत्यन्त्वत्तौनपरिषिंचामि' इस मन्त्र से और रात में 'ऋतं त्वा सत्येन परिषिंचामि' इस मन्त्र से उस जल को अन्न पर छिड़क कर हाथ से अन्न का स्पर्श करे। उसका मन्त्र यह है, 'तेजोसि शुकमस्यमृतमसि धामनामासि। प्रियं देवानामनाधृष्ट देव यजनमसि।' फिर इन तीनों मंत्रों को पढ़ कर थाली से उत्तर एक से उत्तर दूसरी और उससे उत्तर तीसरी इस प्रकार तीन बलि दे। मन्त्र ये हैं : 'ओं भूपतए स्वाहा नम:। ओं भुवन पतये स्वाहा नम:। ओं भूतानां पतये स्वाहा नम:।' बाद को बाएँ हाथ में जल ले कर ‘अमृतोपस्तरणमसि' इस मन्त्र से उसे पी जावे। और फिर जरा-जरा अन्न ले कर पाँच प्राणाहुति करे, अर्थात नीचे के मंत्रों को पढ़-पढ़ कर पाँच बार मुख में डाले। मन्त्र ये हैं : ‘प्राणाय स्वाहा। ‘अपानाय स्वाहा। ‘व्यानाय स्वाहा। ओं समानाय स्वाहा। ओं उदानाय स्वाहा।' फिर बाएँ हाथ में जल ले कर दोनों नेत्रों में लगावे। पंक्ति वारण, प्राणाहुति और नेत्र में जल लगाना, ये तीन काम तो भोजन काल में अवश्य कर के फिर भोजन करे। याद रहे प्राणाहुति पर्यंत जितनी बलि वगैरह दी जाती है वह केवल घृत या मीठा से मिश्रित अन्न या केवल अन्न की हो, न कि उसमें नमक का सम्बन्ध हो। इसके अनंतर विष्णु के स्मरणपूर्वक बाएँ हाथ से शिखा को खोल कर चुपचाप भोजन करे। भोजन के बाद उच्छिष्ट अन्न में से बेर के फल-भर की चित्राहुति पात्र की बाईं ओर दे। फिर दाहिने हाथ में जल ले कर 'ओं अमृतापिधानमसि स्वाहा' यह मन्त्र पढ़ कर उसका आधा पी कर शेष उसी 'चित्राहुति' पर गिरा दे। फिर चुपचाप बाएँ हाथ से शिखा बाँध, उसे चित्राहुति आदि को काकों को दे कर हाथ, मुँह आदि धो डाले और एक आचमन कर के
अगस्त्यं वैनतेयं च शनिं च वडवानलम्।
अन्नस्य परिणामार्थं स्मरेद्भीमं च पंचमम्॥
इस मन्त्र को पढ़ता हुआ पेट पर हाथ फेरे। इति भोजन विधि:।
इति श्री ब्रह्मर्षि वंश विस्तरे पूर्व परिशिष्टम्॥