आवाज़ / सुभाष नीरव
पापा को कहीं बाहर जाना था। कल रात दुकान से लौटकर पापा ने बस इतना ही कहा कि वह सुबह सात बजे वाली ट्रेन पकड़ेंगे और परसों लौटेंगे, कुछ लोगों के साथ। यह सब बोलते समय पापा का स्वर कितना ठंडा था। ऐसा लगा, जैसे कुछ छिपा रहे हों।
सुबह वह पापा से पहले उठ गई। पापा को जगाया और खुद काम में लग गई। पापा अमूमन छह-साढ़े छह बजे तक उठ जाया करते हैं। जब तक वह नहा-धोकर तैयार होते हैं, वह सारा कामकाज निपटा चुकी होती है। पापा आठ बजे तक निकल जाया करते हैं– दुकान के लिए। नौ बजे तक वह भी कालेज के लिए निकल पड़ती है। पिंकी का स्कूल उसके रास्ते में पड़ता है, इसलिए रोज उसे अपने साथ लाती-ले जाती है वह।
आज छुट्टी का दिन है। छुट्टी के दिन वह खुद को बहुत अकेला महसूस करती है। अकेलेपन का अहसास न हो, इसलिए वह खुद को घर के हर छोटे-मोटे काम में जानबूझकर उलझाये रखती है।
पापा के चले जाने के बाद उसने पूरे मन से घर की साफ-सफाई की। खिड़की-दरवाजों के पर्दे धोकर सूखने के लिए डाल दिए। दीवारों पर की धूल को झाड़ा-पोंछा और खिड़कियों के शीशे चमका दिए। और तो और, सीलिंग-फैन को भी साफ कर दिया है और सेल्फ में इधर-उधर बिखरी पड़ी पुस्तकें भी करीने से सजा दी हैं।
कल ‘कुछ लोग’ आ रहे हैं, पापा के साथ। ‘कुछ लोग...’ उसके पूरे शरीर में सिहरन-सी दौड़ गई यह सोचकर। क्षणांश, उसके तन और मन में गुदगुदी-सी हुई और दूसरे ही क्षण भय और घबराहट। हृदय की धड़कनें बढ गईं।...
कैसे वह उन लोगों के सम्मुख जा पाएगी ? वे क्या-क्या प्रश्न करेंगे उससे ? पहला अवसर है न... वह तो एकदम नर्वस हो जाएगी। मम्मी जीवित होती तो बहुत सहारा मिल जाता। उसकी सहेली सुमन ने ऐसे अवसरों के कितने ही किस्से एकान्त में बैठकर सुनाये हैं उसे। उन किस्सों की याद आते ही उसका दिल घबराने लगता है। कैसे अजीब-अजीब से प्रश्न पूछते हैं ये लोग ! एजूकेशन कहाँ तक ली है ? सब्जेक्ट्स क्या-क्या थे ? यह विषय ही क्यों लिया ? खाना बनाने के अलावा और क्या-क्या जानती हो ? फिल्म देखती हो ? कितनी ? कैसी फिल्में अच्छी लगती हैं ? वगैरह-वगैरह। अच्छा-खासा इंटरव्यू ! उत्तर ‘हाँ’ ‘न’ में नहीं दिया जा सकता। कुछ तो बोलना ही पड़ता है। शायद, मंशा यह रहती हो कि लड़की कहीं गूंगी तो नहीं, हकलाती तो नहीं। लड़की को जानबूझकर इधर-उधर बिठाएंगे-उठाएंगे, उसकी चाल परखेंगे। कहीं पांव दबाकर तो नहीं चलती ? यानी हर तरह से देखने की कोशिश की जाएगी।
कई दिनों से पापा कुछ ज्यादा ही परेशान से नज़र आते हैं। कहते तो कुछ नहीं, पर उनकी चुप्पी जैसे बहुत कुछ कह जाती है। सुबह पापा के कमरे में अधजली सिगरेटों का ढेर देखकर वह हैरत में पड़ जाती है। पहले तो पापा इतनी सिगरेट नहीं पीते थे !... लगता है, पापा रात भर नींद से कश-म-कश करते रहते हैं। रातभर जूझते रहते हैं अपने आप से, अपनी अन्तरंग परेशानियों से।
लेकिन, उसे लेकर अभी से इतना परेशान होने की क्या ज़रूरत है ? भीतर ही भीतर घुटते रहने की क्या आवश्यकता है ? क्या पापा अपनी चिन्ता को, अपनी परेशानियों को उससे शेयर नहीं कर सकते ? वह जवान होने पर क्या इतनी परायी हो गई है ? इस तरह के न जाने कितने प्रश्न उसके अंदर धमाचौकड़ी मचाये रहते हैं आजकल।
पापा ऐसे न थे। कितना बड़ा परिवर्तन आ गया है, पापा में अब। मम्मी की मौत ने उन्हें भीतर से तोड़कर रख दिया है जैसे। कितने हँसमुख थे पहले ! इस घर में कहकहे गूँजते थे उनके ! दुकान पर भी ज्यादा नहीं बैठते थे। जब-तब किसी न किसी बहाने से घर आ जाया करते थे। प्यार से उसे ‘मोटी’ कहा करते थे। मम्मी से अक्सर कहा करते– “देखो, बिलकुल तुम्हारी तरह निकल रही है। जब तुम्हें ब्याहकर लाया था, तुम ठीक ऐसी ही थीं।...”
मम्मी पहले तो लज्जा जातीं, फिर नाराजगी जाहिर करते हुए कहतीं, “यह क्या हर समय मेरी बेटी को ‘मोटी-मोटी’ कहा करते हो ? नाम नहीं ले सकते ?”
मम्मी की याद आते ही उसकी आँखें भीग गईं। कितना चाहती थीं उसे ! जवानी की दहलीज पर पांव रख ही रही थी कि यकायक उसने मम्मी को खो दिया। वह दिन उसे भूल सकता है क्या ?... नहीं, कदापि नहीं। वह दृश्य उसकी आँखों के सामने अब भी तैर जाता है। ज़िन्दगी और मौत के बीच संघर्ष करती मम्मी। मम्मी मरना नहीं चाहती थी और मौत थी कि उन्हें और जिन्दा नहीं रहने देना चाहती थी। ऐसे दर्दनाक क्षणों में मम्मी को उसी की चिन्ता थी। आखिरी सांस लेने से पहले मम्मी ने पापा से कहा था– “देखो, सुमि को अच्छे घर ब्याहना। मेरी परी-सी बेटी का राजकुमार-सा दूल्हा हो।“
पापा ने शायद तब पहली बार महसूस किया होगा कि उनकी बेटी जवान हो रही है। उसके लिए अच्छा-सा वर ढूँढ़ना है। और शायद तभी से पापा की खोज जारी है।
पापा का उदास, चिन्तित चेहरा कभी-कभी उसे भीतर तक रुला देता है। ऐसे में, दौड़कर पापा की छाती से लिपट जाने और यह कहने की इच्छा होती है कि पापा, मैं अभी शादी नहीं करुँगी। अभी तो मैं बहुत छोटी हूँ।... लेकिन, कहाँ कह पाती है यह सब। पापा और उसके बीच, मम्मी की मौत के बाद जो खाई उभर आई है, चुप्पियों से भरी, उसे वह मिटा नहीं पाती। क्या जवान होने का अहसास, बाप-बेटी के बीच इतनी खाइयाँ पैदा कर देता है ! बस, वह सोचती भर रह जाती है यह सब।
“मैं जल्दबाजी में कुछ नहीं करना चाहता।" पापा का अस्फुट-सा स्वर।
“ठीक है, आप अच्छी तरह सोच लें।" बिचौलियानुमा व्यक्ति की आवाज़।
“...”
“पर, निर्णय तो आपको ही करना है, दुनिया का क्या है ?”
दबी-दबी जुबान में होतीं इस प्रकार की बातों के कुछ टुकड़े बगल के कमरे में बैठे हुए या किचन में चाय तैयार करते समय उसके कानों में अक्सर पड़ते रहते हैं। पिछले कुछ महीनों से इन लोगों का आना-जाना बढ़ा है। कौन है ये लोग, वह नहीं जानती।
पिछले कई दिनों से पापा कई बार मौसी और मामा के घर आये-गए हैं। जितनी जल्दी-जल्दी उनके यहाँ आना-जाना हुआ है पिछले दिनों, पहले नहीं होता था। पापा क्यों आजकल बार-बार मौसी और मामा के यहाँ आते-जाते हैं ? आखिर, बेटी का मामला ठहरा। कोई कदम उठाने से पहले वह अपने से बड़ों की राय ले लेना चाहते हैं शायद। लेकिन, यह भी सही है, पापा जब-जब मौसी और मामा के घर से लौटे हैं, ज्यादा ही थके और मायूस-से लौटे हैं।
कभी-कभी वह सोचती है, अभी तो इण्टर ही किया है उसने। घर का सारा कामकाज उसी के कंधों पर है। पिंकी की देखभाल भी उसे ही करनी पड़ती है। मम्मी की मौत के समय तो वह बहुत छोटी थी। वही उसके लिए सब कुछ है– मम्मी भी, दीदी भी। वह चली जाएगी तो कौन करेगा घर का सारा काम ? पापा तो दुकान पर रहते हैं, सारा-सारा दिन। शायद, तब कोई आया रख लें। पर, ऐसे में पिंकी की पढ़ाई, उसकी देखभाल, उसका विकास क्या सही ढंग से हो पाएगा ? क्या सोचकर पापा इतनी जल्दी मचा रहे हैं ? शायद, लड़के वाले जल्दी में हों और पापा को लड़का जँच गया हो।
मन में उठते जाने कितने ही प्रश्नों के उत्तर वह खुद ही गढ़ लेती है और उनसे संतुष्ट भी हो जाती है। लेकिन, जवान होती उम्र के साथ-साथ दिल में उमंगों का ज्वार कभी-कभी इतनी जोरों से ठाठें मारने लगता है कि वह ज़मीन से उठकर आकाश छूने लगती है। अकेले बैठे-बैठे वह सपनों की रंगीन दुनिया में पहुँच जाती है। लड़कियाँ शायद इस उम्र में ऐसे ही स्वप्न देखती हैं। अपने सपनों के राजकुमार की शक्ल आसपास के हर जवान होते लड़के से मिलाती हैं। उनका हर स्वप्न पहले से ज्यादा हसीन और खूबसूरत होता है। आसपास गली-मोहल्ले में कहीं बारात चढ़ेगी तो दौड़कर बारात देखने में आगे रहेंगी। और तो और, घोड़ी पर सवार किसी के सपनों के राजकुमार से अपने-अपने सपनों के राजकुमार की तुलना करेंगी। हर बार उन्हें अपने सपनों का राजकुमार अधिक हसीन नज़र आता है। तन-मन को एक सुख गुदगुदाता हुआ बह जाता है। ऐसा सुख जो न अपने में ज़ज्ब किए बनता है और न ही किसी से व्यक्त किए। ऐसे में, किसी अन्तरंग साथी की, मित्र की, बेइंतहा ज़रूरत महसूस होती है।
आजकल उसके साथ भी तो ठीक ऐसा ही हो रहा है। जब कभी वह तन्हां होती है, स्वयं को ऐसे ही सपनों से घिरा हुआ पाती है। उसे लगता है, वह गली-मोहल्ले की औरतों से, अपनी सखियों से घिरी बैठी है, शरमायी-सी ! हथेलियों पर मेंहदी की ठंडक महसूस हो रही है। ढोलक की आवाज़ के साथ-साथ गीतों के बोल उसके कानों में गूँजते हैं–
बन्ने के सर पे सेहरा ऐसे साजे
जैसे सर पे बांधें ताज, राजे-महाराजे
लाडो ! तेरा बन्ना लाखों में एक
काहे सोच करे...।
और तभी उसे मम्मी की याद आ जाती है। सपनों के महल जादू की तरह गायब हो जाते हैं। उसके इर्द-गिर्द गीत गातीं, चुहलबाजी करती स्त्रियाँ नहीं होतीं, खामोश दीवारें होती हैं। चुप्पियों से भरा कमरा होता है। सामने, ठीक आँखों के सामने, टेबुल पर रखा मम्मी का मुस्कराता चित्र होता है। बेजान ! वह उठकर मम्मी का चित्र अपने सीने से लगा लेती है। भीतर ही भीतर कोई रो रहा होता है उसके। मम्मी के बोल फिर एकबारगी हवा में तैरने लगते हैं– ‘सुमि को अच्छे घर ब्याहना। मेरी परी-सी बेटी का राजकुमार-सा दूल्हा हो।‘
आज पापा को लौटना है। कुछ लोगों के साथ। जाने कब लौट आएं। न पिंकी को स्कूल भेजा है, न ही वह खुद कालेज गई है। पिंकी को और खुद को तैयार करने में जितना अधिक समय उसने आज लगाया, पहले कभी नहीं लगाया। जितनी देर आइने के सामने बैठी रही, खुद के चेहरे में मम्मी का चेहरा ढूँढ़ती रही। साड़ी में कितनी अच्छी लगती है वह ! आज उसने मम्मी की पसन्द की साड़ी पहनी है– हल्के पीले रंग की। साड़ी पहनते समय उसे लगा, जैसे मम्मी उसके आस-पास ही खड़ी हों। जैसे कह रही हों– ‘नज़र न लग जाए तुझे किसी की !’
रह–रहकर उसका दिल जोरों से धड़कने लगता है।
शाम के चार बजे हैं। बाहर एक टैक्सी के रुकने की आवाज़ ने उसके हृदय की धड़कन तेज कर दी है। धक्...धक्... धड़कनों की आवाज़ कानों में साफ सुनाई देती है। पिंकी दौड़कर, खोजती हुई-सी उसके पास आई और फिर चुपचाप बिना कुछ कहे-बोले बैठक में चली गई। उसकी सहमी-सहमी आँखों में कौतुहल साफ दिखाई दे रहा था। बगल के कमरे में होने के बावजूद उसने हर क्षण के दृश्य को अपनी आँखों से पकड़ने की कोशिश की।...
पापा की आवाज़ उसे स्पष्ट सुनाई देने लगी। कैसे हँस-हँसकर बातें कर हैं पापा ! पापा की आवाज़ में अचानक हुए इस परिवर्तन को देख वह चौंक गई। बिलकुल वैसी ही आवाज़ ! जैसी मम्मी के रहते हुआ करती थी। उसके चेहरे पर एकाएक खुशी की एक लहर दौड़ गई। कब से तरस रही थी वह, पापा की इस आवाज़ के लिए।
पापा ने सहमी-सहमी-सी खड़ी पिंकी को शायद गोद में उठा लिया है। प्यार से चूमते हुए बोले हैं, “यह है हमारी पिंकी बिटिया...।“
“अरे बेटे, तुमने किसी को नमस्ते नहीं की ?... नमस्ते करो बेटे... अच्छा इधर देखो... ये कौन है ?... ये हैं... तुम्हारी... नई मम्मी...।“
नई मम्मी !
वह स्तब्ध रह गई।
सहसा, उसे लगा कि वह हवा में उड़ रही थी और अभी-अभी किसी ने उसके पर काट दिए हैं। वह ज़मीन पर आ गिरी है–धम्म् से ! इसकी तो उसने कल्पना तक न की थी !
उसकी समझ में कुछ नहीं आया। धराशायी हुए सपनों पर आँसू बहाये या अपनी नई मम्मी को पाकर
खुश हो ! एकाएक, उसने खुद को संभालने की कोशिश की और अगले क्षणों के लिए स्वयं को तैयार करने लगी। यह सोचकर कि न जाने कब पापा उसे बुला लें, नई मम्मी से मिलवाने के लिए !
अब उसके कान पापा की आवाज़ का इन्तज़ार कर रहे थे।