आवाज ही पहचान है, गर याद रहे / ममता व्यास
अक्सर हम बहुत-सी आवाज़ों से खुद को घिरा हुआ पाते हैं। जन्म से लेकर शमशान तक ये आवाज़े हमारा पीछा नहीं छोड़ती। मशीनों की आवाज़ें, गाड़ियों की आवाज़े, लोगों की आवाज़े... अनगिनत आवाज़ें। जानी-अनजानी आवाज़े। हमेशा कानों में शोर मचाती हैं। बाहरी आवाज़ों को अनसुना कर दो तो भीतर से आवाज़ आने लगती है । इक़ दिन इन सब से उकताकर, जब मैंने सभी आवाजों को अनसुना कर दिया, तो जानते हैं क्या हुआ? मुझे बेजान वस्तुओं की आवाज़, उनकी बातें सुनाई देने लगी। अब आलम ये कि सभी आसपास की चीज़ें बतियाती नज़र आती हैं।
उस दिन अस्पताल में अकेले बैठी हुई थी। कई तरह की आवाज़े सुनी। नर्स के हाथों में सफ़ेद पट्टी और दवा आपस में कह रही थीं: “देखो ना, उस मरीज के शरीर पर कितने घाव हैं। उसकी देह के घाव तो एक दिन हम भर ही देंगी लेकिन उसके मन पर पड़े घाव कैसे भर सकेगे? ऐसी कोई मलहम नहीं बनी, आजतक जो शब्दों के घावों को भर सके।“
तभी डाक्टर के टेबिल पर रखा हुआ स्टेथस्कोप बोल पड़ा: “भीतर की बात ना करो तो ही बेहतर है। मैं जब-जब किसी के दिल की धड़कन सुनता हूँ तो मुझे अक्सर धड़कनों में किसी ना किसी का नाम सुनाई देता है। लेकिन मैं हमेशा उस नाम को छुपा कर सिर्फ टिक-टिक की आवाज सुना देता हूँ। कमाल ये की नासमझ डॉक्टर कभी भी दिल की आवाज नहीं सुन पाते।“
अरे मेरी भी तो सुनो –ई. सी. जी. मशीन बोल उठी: “मेरा अहसान मानो, मैंने अभी-अभी उस मरीज के दिल में झाँक कर देखा तो वहाँ एक चेहरा था। लेकिन मैंने उस चेहरे का चित्र नहीं बनाया। सिर्फ दिल की गति के चित्र खींचे।
“और मैंने भी उसके दिमाग में चल रहे बहुत से तूफ़ानो की आवाज सुनी लेकिन ये डाक्टर नहीं सुनते ये आवाज।“ धीरे से एम.आर. आई. रिपोर्ट बोली।
कमरा नंबर ९ का बेड बोला: “कल जो मरीज मरा था ना, सभी डॉक्टर कह रहे थे की उसकी मौत हार्ट-अटैक से हुई। लेकिन मैं जानता हूँ कि वो अपने परिवार की बेरुखी से मरा था। यहाँ हर मरने वाला अपने-अपने कारणों से बहुत पहले ही मर चुका होता है। बस डाक्टर किसी भी बीमारी का नाम उसे दे कर तसल्ली करते है।“
मैं सोचने लगी, ये आवाजे कितनी अच्छी है। कितनी सच्ची हैं। क्यों सच्ची आवाजे नहीं सुनी जाती? कितना सुनते हैं हम जिन्दगी भर। इसकी, उसकी, सबकी आवाज़। काश... चोखट पर बंधे मन्नत के धागे की आवाज़ मंदिर का देवता सुन लेता। किनारे पर दम तोड़ती नदी की आवाज़ सागर सुन लेता। दस्तक की आवाज़ दरवाज़े सुन लेते। मुस्कानों की आवाज़ होंठ सुन लेते। उत्तर की आवाज, प्रश्न सुन लेता। रेल की आवाज प्लेफार्म सुन लेता। किसी अभिशप्त जलपरी की आवाज कोई मछुआरा सुन लेता।
लेकिन नहीं सुनी जाती ये आवाज़े। कितनी पुकार, कितनी आवाज़े बंजारों की तरह भटक रही है आसमानों में। लहरें बनकर सिसक रही सागरों में। सपने बन के तरस रही पलकों पे। कितनी आवाज़े आपको जीने नहीं देती। कितनी आवाज़े मरने भी तो नहीं देती। कितनी आवाज़े जगाती है। सिरहाने आ-आ कर उठाती है। जब कोई नहीं बोलता, तब ये आवाज़े बोलती हैं। सच्ची बात बोलती हैं। कोई नहीं बच सका इनसे। ये आवाज़े कभी नहीं मरती। ये पीछा करती हैं। हिसाब मांगती हैं। आहों के। आंसुओं के। हर शब्द का ब्यौरा। हर दर्द भरी पुकार का खाता है इनके पास। हम सभी किसी न किसी आवाज़ के कर्जदार हैं। उसके इशारों पर चले जा रहे हैं। कहाँ से आती है? कहाँ ले जायेगी कौन जाने? इनके पास सभी सवालों के जवाब भी है। ये कभी गुम नहीं होती। हम रहे ना रहे ये आवाज़े जरुर रहेगी। ये सौ सवाल करेगी। नाम गुम जायेगा। चेहरा भूल जायगा। पहचान भी मिट जायगी। लेकिन ये आवाज... हाँ आवाज ही, पहचान है गर याद रहे..