आवारा कुत्ते / सुमन सारस्वत

Gadya Kosh से
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रेवती ने जबरदस्ती आंखें खोलीं। वह और सोना चाहती थी। परंतु वॉर्ड के बाहर चहल-पहल बढ़ गई थी जो उसकी नींद में बाधा डाल रही थी। वैसे भी हॉस्पिटल में किसको नींद आती है! रेवती ने मोबाइल फोन ऑन करके देखा- अभी सुबह के छह भी नहीं बजे थे। भोर में चार बजे के बाद ही उसकी आंख लग पाई थी। उसने अपनी बगल में देखा। नवजात शिशु चैन से सोया था। दो नन्हीं-नन्हीं पलकें इस तरह मुंदी थीं जैसे किसी चित्रकार ने ब्रश घुमा दिया हो। एक स्मित-रेखा उसके होठों पर खिंच गई। कुछ घंटे भर पहले कितना रो रहा था। पूरी रात खड़ी रह कर उसे बांहों के झूले में झुलाती रही थी। रेवती की पलकें झपक जाती थीं लेकिन इन महाशय की आंखों में नींद का दूर-दूर तक नामों-निशान नहीं था। लगता था कि इसे पता ही नहीं कि आंखें बंद भी करते हैं। ...और अब देखो, पलकें मूंद कर ऐसे सोए हैं जनाब, जैसे ये पलकें कभी खुलेंगी ही नहीं - रेवती मुग्ध-भाव से एकटक शिशु को निहारे जा रही थी।


रेवती ने बगल की खाट पर देखा रेशमा भी शांत पड़ी थी बिलकुल अपने नवजात शिशु की तरह। ‘वाह, मुझे जगाकर मां-बेटे चैन की बंसी बजा रहे हैं।’ रेवती की आवाज में शिकायत नहीं एक प्यार-भरा उलाहना था। जाने कितने पल बीत गए , रेवती की आंखें शिशु से हट ही नहीं रही थीं। ‘कितना भोला, मासूम और निश्चल लग रहा है!’ रेवती ने हौले-से बच्चे के गालों को अपने गालों से सहलाया। उसे ऐसा लगा जैसे इस निर्दोष बालक के स्पर्श से उसका तन-मन शांत हो गया हो। मन के विकार नष्ट हो गए हों। वह इस अनभूति को जीती रही। शिशु कुनमुनाया। रेवती ने उसे हाथों से हल्की-हल्की थपकी दी। बच्चा फिर शांत हो गया।

‘...ओस की बूंद की तरह एकदम निर्दोष, निश्कलुषित है। काश, दुनिया की मैल... इसके मन को कभी छू न पाए, बड़ा होकर यह भी एक आदर्श पुरुष बने।’ रेवती आंखें बंद कर प्रार्थना की तरह बुदबुदाई। तभी रेशमा ने करवट ली। हिलते ही दर्द से उसकी आंखें खुल गयीं। रेशमा कहां सो पाई थी रात भर। एक तो उसका सिजेरियन हुआ था ऊपर से रात भर बच्चा रो रहा था। यह तो रेवती थी जो बिना धैर्य खोये रातभर जच्चा-बच्चे को संभालती रही। रेवती को जगी देखकर रेशमा मुस्कुराई। ‘गुड-मॉर्निंग, रेवती।’ कहते हुए उसकी आवाज में दर्द के साथ ‘धन्यवाद’ भी मिला हुआ था। ‘वेरी-वेरी गुड मॉर्निंग रेशमा! मां बनने की पहली सुबह मुबारक हो।’ रेवती ने बड़ी गर्मजोशी से शुभकामनाएं दीं।


रेशमा ने एक लंबी मुस्कान से उसे ‘थैंक यू, सो मच!’ कहा। रेशमा की नजरें अपने नवजात शिशु पर ही जमीं थीं। आंखों ही आंखों से वह उसे दुलरा रही थी। रेवती ने बच्चे को अपने बेड से उठाकर रेशमा की बगल में सुला दिया। ‘लो अपनी अमानत ! मेरा एक्सपीरिएंस कहता है कि जनाब, लंबी सोएंगे। आखिर मैंने भी दो बच्चे पैदा किए हैं। इस मामले में भी तुमसे सीनियर हूं।’ हंसते हुए रेवती ने अपनी सीनियॉरिटी दिखा ही दी। ‘एस मैम, यू आर!’ रेशमा ने बड़े अदब से सिर झुकाया, इस पर दोनों सहेलियां खिलखिला पड़ीं। मगर दूसरे ही पल उन्होंने खुद को कंट्रोल किया कहीं उनकी शैतानी से नन्हा शिशु जग न जाए। रेवती को चाय की तलब हो रही थी। फ्रेश होने के लिए चाय से अच्छी चीज और क्या हो सकती थी ! उसने रेशमा को बताया कि सात बजे नर्स आएगी स्पंज देने के लिए, तब तक रेशमा सो जाए तो अच्छा रहेगा। ...और अब वह चाय पीने के लिए बाहर जा रही है। रेशमा सोने का उपक्रम करने लगी। वॉश-रूम में हाथ-मुंह धोकर रेवती कमरे से बाहर निकल आई। कॉरीडोर पार करके, गेट से निकलकर अब वह अस्पताल के बाहर थी। रेवती ने यहां-वहां देखा - एक भी चाय की टपरी खुली नजर नहीं आई। वह कुछ कदम चलकर फुटपाथ पर आ गई। देखा तो सामने वाले फुटपाथ पर एक टपरी खुली थी। दो-तीन ग्राहक खड़े थे। रेवती ने एक स्पेशल चाय का ऑर्डर दिया और इंतजार करने लगी।

फुटपाथ पर जहां वह खड़ी थी वहां से अस्पताल की पूरी इमारत नजर आ रही थी। यह एक बड़ा-सा अस्पताल था। इस समय पूरा फुटपाथ किसी उजड़े चमन की तरह दिख रहा था। कितना खाली-खाली और गंदा भी। वरना दिन भर कितनी चहल-पहल रहती है। पूरे फुटपाथ पर स्टॉल लगे रहते हैं। स्वीपर जब आएगा तब आएगा, मगर फुटपाथ अभी काफी गंदा था।

‘मैडम, आपकी चाय।’ चायवाले ने आकर रेवती की एकाग्रता भंग कर दी। फुटपाथ की सफाई का मुआयना अधूरा ही रह गया। रेवती ने गरम-गरम चाय होठों से लगाई - ‘वाह, क्या सॉलिड चाय है। मजा आ गया।’ उसने मन ही मन चाय की तारीफ की। रेवती एक स्कूल में टीचर है। और चाय पीने की शौकीन। जब भी कोई उससे चाय पीने के लिए पूछता है तो वह कभी ना नहीं कहती। वह मानती है कि टीचरों को चाय पाने का कर्मसिद्ध अधिकार है। वह ‘टीचर’ शब्द की व्याख्या इस तरह करती है - टी - चर, यानी टी (चाय) को चरने वाला। फिर खुद ही अपने जोक पर हंस देती है। सिर्फ एक जोक ही नहीं चाय पिलानेवाले को धन्यवाद के साथ-साथ एक गरमा-गरम शेर भी सुना डालती है - ‘एक दोशी$जा के लबों की तरह इसमें गरमाहट भी है और मिठास भी’


खुशमिजाज रेवती की संगत हर किसी को भली लगती है। वह खुद भी कितनी भली है। हर किसी की भरसक सहायता के लिए तत्पर रहती है। आज भी वह पूरी रात खराब करके अपनी टीचर सहेली रेशमा की मदद के लिए अस्पताल में रुकी रही। रेशमा की यह पहली डिलीवरी है। रेवती और रेशमा में अच्छी जमती है। रेवती ने पहले ही रेशमा से कह दिया था कि अगर रात में रुकने की जरूरत पड़ी तो वह बेहिचक रुक सकती है क्योंकि उसके पति शेखर रात में आसानी से बच्चों को संभाल सकते हैं। फिर सुबह होते ही वह घर चली जाएगी। वैसे भी उसके पति उसे बहुत को-ऑपरेट करते हैं। इस मामले में वह खुद को किस्मतवाली मानती है। पत्नी को प्यार तो ऐसे किया जाता है जैसे शेखर, रेवती को करता है। शेखर कितना सभ्य, कितना सुसंस्कारी है! कभी-कभी तो रेवती को ऐसा लगता है कि कहीं शेखर उसके अंदर के पुरुष अंश का विस्तार तो नहीं। शेखर का ध्यान आते ही रेवती का चेहरा भोर के कमल की तरह खिल उठा। उसने चाय की अगली चुस्की ली। इस बार तो चाय में जैसे सुरूर आ गया। शादी के बाद दस सालों में रेवती इतनी शेखरमय हो चुकी है कि उसे लगता है कि अगर उसका जन्म नारी के रूप में न होकर एक पुरुष के रूप में हुआ होता तो वह बिलकुल शेखर की तरह ही होती। रेवती को बड़़ा भला लग रहा था इस समय शेखर को याद करके। वह थोड़़ा और सुकुन से शेखर के बारे में सोचना चाहती थी अगर जरा बैठने को मिल जाए तो कितना अच्छा रहे... रेवती ने दाएं-बाएं नजरें घुमायीं। दायीं ओर एक फर्लांग की दूरी पर उसे पत्थर की एक गुलाबी बेंच दिखाई दी। वह उस तरफ बढ़़ चली। बेंच पर बैठते-बैठते उसने उस पर लगी नेमप्लेट को पढ़़ लिया था। यह एक मशहूर चैरिटेबल ट्रस्ट था। पूरे शहर में इस ट्रस्ट के प्याऊ और बेंचेस लगी हैं। आज उसने मन ही मन उस ट्रस्ट वालों को धन्यवाद दिया। अब रेवती इत्मीनान से अपने प्रिय पति के बारे में सोच सकती थी। और वह सोचने भी लगी, शेखर के बारे में। रेवती सोच रही थी - काश , हर पुरुष में थोड़़ी दया और करुणा होती तो आज दुनिया की सूरत कुछ और ही होती। इतना सारा सोचते-सोचते रेवती की चाय खत्म हो गई। सोचों में गुम रेवती चाय का पूरा लुत्फ नहीं उठा पाई। ‘एक चाय और मिल जाए तो मजा आ जाए , रियली...’ ‘तो फिर तुझे रोका किसने है...’ रेवती के मन ने उसे टोका। ‘वेरी गुड, मैं एक और चाय का आर्डर करती हूं।’ रेवती ने चाय की टपरी की ओर देखा कि उसे वहां उठकर न जाना पड़़े। बैठे-बैठे ही चाय मिल जाए। ...और सच में उस समय चाय वाले की नजरें उससे मिलीं। रेवती ने फटाक से ऊंगली के इशारे से एक और चाय का ऑर्डर दे दिया। रेवती की जीभ पर चाय का स्वाद बना हुआ था। स्वाद के लिए वह अपनी ही जीभ चूसने लगी किसी चटोरी की तरह।

चाय आने की उकताहट में रेवती की नजरें टाइम-पास करने के लिए इधर-उधर भटकने लगीं।

उसके ठीक दायीं तरफ फर्लांग भर की दूरी पर एक दीवार थी। यह सड़क़ यहीं आकर खत्म हो जाती थी। सड़क़ के उस पार होगा कुछ, मगर इधर गंदगी का ढेर लगा हुआ था।

गार्बेज भरे नीले रंग के बड़़े-बड़़े डस्टबिन खड़़े थे। इतनी सुबह म्यूनिसपालिटी का डंपर तो आता नहीं सो गली के आवारा कुत्ते इन डिब्बों पर मुंह मार रहे थे। अस्पताल का जैविक कचरा भी वहीं फेंका जाता था जो कुत्तों के लिए किसी दावत से कम नहीं होता था।

रेवती उसी तरफ देखने लगी-उफ् कितनी गंदगी है। अस्पतालवालों को ऐसे कचरे खुलेआम सड़क़ पर थोड़़े ही फेंकने चाहिए ? ...ये बीमारी का घर हैं। इनसे वातावरण कितना प्रदूषित होता है।

‘हुंह...जाने दो अपने को क्या?’ रेवती ने खुद ही पल्ला झाड़़ा।

तभी एक दुस्साहसी कुत्ता एक डस्टबिन पर चढ़़ गया। अंदर ही अंदर उसने मुंह मारा और मुंह में कुछ दबाए कूद पड़़ा। उसे देखकर दो-तीन कुत्ते आ गए। छीना-झपटी होने लगी। रेवती ध्यान से देखने लगी कि क्या है? रेवती ने जो देखा तो उसका मुंह बिचक गया। वे कुत्ते एक सैनिटरी पैड को लेकर आपस में भिड़े हुए थे। गंदे रक्त से सने उस पैड को वे आवारा कुत्ते खोद-खोदकर चूस रहे थे। रेवती को उबकाई आने लगी। उसका मुंह पनिछा गया। ‘पिच’ से उसने थूक मारा ... ‘यक् ...सो डिस्कस्टिंग...’ कहते हुए उसने नजरें घुमा लीं। ‘तड़ाक’ की आवाज के साथ मिनरल वॉटर की एक बोतल कहीं से आकर उन कुत्तों पर गिरी। कुत्तों के साथ-साथ रेवती की नजरें भी बोतल की दिशा में घूम गयीं। फिर उसने जो देखा तो... ‘ओ माय गॉड...!!’ रेवती के मुंह से हठात् निकला। ‘ओ शिट...!’ उसने घृणा से अपने मुंह पर हाथ रख लिया। रेवती वहां से न आंखें हटा पा रही थी, न उससे देखा ही जा रहा था। रेवती ने फिर भी देखा। वह देख रही थी - एक नंग-धड़़ंग औरत खड़़ी थी दीवार के कोने में। टूटे-फूटे कबाड़़ के बीच उसका ठिकाना था शायद। कुत्तों को बोतल उसी ने खींचकर मारी था। रेवती विस्फरित नेत्रों से देख रही थी। ओह ...घृणा की ऐसी मूरत उसने आज तक नहीं देखी थी। किसी आदिम युग की मादा लग रही थी वो। देह पर एक भी सूत नहीं था। गंदे बालों की जटाएं उसके स्तनों और पीठ पर बिखरी थीं। उससे नीचे देखने का साहस रेवती नहीं कर पाई। पूरे बदन पर मैल की मोटी परत चढ़़ी हुई थी।


रेवती की आंखें नीची हो गईं। एक झलक में जो उसने देखा तो वह उसे फिर देखने को नजरें नहीं उठा पाई। नेपथ्य में उस औरत की अस्पष्ट, अर्थहीन आवाजें रेवती के कानों से होती हुई मस्तिष्क में छितराने लगीं। रेवती को समझते देर न लगी कि यह महिला विक्षिप्त है तभी तो इस तरह घूम रही है। थोड़़ी सहानुभूति उभर आई उसके मन में। जी में आया कि उसे घर ले जाए , नहला-धुला कर अच्छे से कपड़े पहना दे। ‘जरा देखूं तो बिचारी क्या कर रही है! शायद, मैं कुछ कर पांऊ इसके लिए...’ सोचकर रेवती ने उसकी तरफ देखने के लिए हिम्मत बटोरी। इस बार रेवती ने उसे गौर से देखा - जैसे मन ही मन तौल रही हो कि वह उसकी क्या और कितनी मदद कर सकती है? रेवती के मन में अपार करुणा भर आई थी इस समय। एक कुत्ता उस औरत के करीब खड़ा पूंछ हिला रहा था। जैसे दोनों में कोई मूक-संभाषण चल रहा हो। अगले पल वह कुत्ता दूसरे कुत्तों की ओर मुड़ गया। उसे जाते देख वह औरत फिर बड़बड़ाई। कुत्ते से इस तरह संभाषण करते देख रेवती बरबस हंस पड़ी - ‘पगली कहीं की।’ पगली इस बार घूमी। अब तक उसका आधा बदन छिपा था वह भी रेवती के सामने आ गया। ‘ओ शिट् - शिट् ... ये तो प्रेग्नेंट है।’ रेवती को काटो तो खून नहीं। उसने अंदाजा लगाया, आठवां महिना बीत चुका होगा। आगे की आशंका से उसका रोम-रोम सिहर उठा। वह सामने देख रही थी ऐसे मार्मिक दृश्य की उसने कभी कल्पना नहीं की थी। ऐसा नहीं है कि कभी किसी पागल को न देखा हो। बहुतेरे देखे थे उसने पागल- बस अड्डे, रेल्वे स्टेशनों, मंदिरों के आस-पास। मगर इतनी बुरी हालत में कोई पगली नहीं दिखी। रेवती ने फिर उस पगली की तरफ देखा, दो-चार कुत्ते उसके इर्द-गिर्द खड़़े थे जैसे वह भी उन्हीं के बीच की हो। रेवती उसकी मानसिक दशा का अंदाजा लगाने की कोशिश करने लगी। मगर पगली के भावों को पकड़़ नहीं पाई। ‘बेचारी पर मुसीबतों का ऐसा कौन-सा पहाड़़ गिर पड़़ा होगा जो इसका मानसिक संतुलन बिगड़़ गया।’ रेवती खुद से ही बोली। ‘...और ऐसा क्या अनर्थ हुआ होगा कि इसे अपने औरत होने का एहसास भी नहीं बचा जो यह नंगी फिर रही है...एक औरत कितनी भी बेबस हो जाए पर वह अपनी लाज कपड़़ों से ढंकना नहीं भूलती...!’

‘... हे भगवान,क्या तुम भी इसकी लाज नहीं बचा पाए...’ उसने आसमान की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा, दुख से रेवती की आंखें छलछला आईं।

वह पगली अब भी कुत्तों से घिरी थी। ऐसा लग रहा था कुत्ते उससे परिचित थे और जैसे उस पगली को भी अपने होने न होने का कोई होश नहीं था। ऐसी भी क्या मानसिक बीमारी जो तन-मन की सुध न रहे? इसे देखकर ऐसा भ्रम हो रहा है जैसे किसी को जीवन से विरक्ति हो गई हो और जिसने मोह-माया एवं जीवन की सभी सुविधाओं का त्याग कर दिया हो।

रेवती को भ्रम हो रहा था कि जैसे मोह-माया से परे कोई दिगंबरा हो जो मानव और जानवर का भेद मिटाकर इन श्वानों के साथ घूम रही है।


रेवती सोच रही थी - जिसे अपनों ने छोड़़ दिया है जानवर आज उसके अपने हो गए हैं। कभी-कभी इंसान, जानवरों से भी गए-गुजरे हो जाते हैं। इस पगली का क्या कोई भी नहीं? कभी तो इसका अपना परिवार होगा। और देखो, आज यह बेचारी विक्षिप्त अवस्था में दर-बदर हो गई है...बेचारी।’

रेवती को उस पगली के घरवालों पर गुस्सा आया -उनसे बड़़ा बेरहम कौन होगा, जिन्होंने ये भी नहीं सोचा एक विक्षिप्त और बेबस औरत इस दुनिया में कैसे जी पाएगी? इंसान के भेस में घूमनेवाले भेड़िये क्या इस पगली को यूं ही छोड़़ देंगे? सोचते-सोचते रेवती आक्रोश से भर उठी।

‘जब वे दरिंदे उसे अपनी हवस का शिकार बना रहे होंगे तो इस बेचारी को बचाने कोई नहीं आया होगा ? क्या बीती होगी इस पर ? एक उस दिन ही या कई बार इसे सैनिटरी पैड की तरह नोंच-नोंच खाया होगा उन ‘आवारा कुत्तों’ ने? रेवती का मुंह फिर पनिछा गया। उसने ‘पिच’ से फिर थूक दिया।

‘मुंसीपाल्टी वाले आवारा कुत्तों को पकड़़ कर ले जाते हैं। उनकी नसबंदी करते छोड़़ देते हैं। तो क्या मुंसीपाल्टी वाले इन ‘आवारा कुत्तों’ की नसबंदी नहीं कर सकते जो समाज में गंदगी फैलाते हैं...?’

रेवती के मन में कई सवाल कुलबुलाने लगे, जैसे - क्या पुलिसवलों की नजर इस पर नहीं पड़ी होगी! क्या उन्होंने इसे किसी मानसिक अस्पताल में ले जाने की तकलीफ नहीं उठाई? शहर भर में तो इतनी सारी समाजसेवी संस्थाएं हैं क्या किसी की नजर इस पर नहीं पड़ी होगी?

तभी एक हाथ उसकी ओर बढ़़ा - वह चौंक उठी यह चायवाला लड़क़ा था जो उसकी दूसरी चाय ले आया था। रेवती चाय हाथ में लिए बैठी रही। उसका जी खराब हो रहा था इस समय। उससे चाय पी नहीं गई। उसने बगल में चाय ढरका दी। उठ खड़़ी हुई कपड़़े झाड़़ती हुई। जैसे कोई अनदेखी-सी गंदगी की परत पर चढ़़ गई हो उस पर। वह घर की तरफ बढ़़ चली। अस्पताल पीछे छूट गया।

रेवती वापस अस्पताल नहीं जा पाई। उसे लगा जैसे उस पर गंदगी की छाया पड़़ गई हो।

... और रेवती किसी हाल में नहीं चाहती थी कि इस गंदगी की छूत रेशमा के मासूम और निष्पाप शिशु को लगे...


शाम होने को थी रेवती ने रोज की तरफ अपने सारे काम निपटा लिए। बीच में एक बार फोन पर रेशमा और बेबी का हाल भी जान लिया। सब-कुछ सामान्य था।

क्या सब-कुछ सामान्य था? रेवती को कुछ कचोट रहा था। क्या ... ? वह समझ नहीं पा रही थी। छह बज चुके थे। गैस पर चढ़ी चाय खदक रही थी। और फिजा में चाय की खुशबू लहरा रही थी। चाय की खुशबू से ही रेवती को नशा होने लगता था। फिर ऐसा क्यों नहीं? चाय पीने बैठी। चाय रोज जैसी ही बनी थी, पर वह स्वाद नहीं आ रहा था। उसकी जीभ का स्वाद खो गया है या मन कहीं खोया हुआ है! रेवती समझ नहीं पा रही थी उसके मन पर क्या आकर बैठ गया है? चाय की चुस्कियों के साथ कुछ तो तैरने लगता था उसके मन में। आज दिन भर में पांच बार चाय पी और हर बार ऐसा ही हुआ। अब तो उसे अपने मन से ही पूछना पड़ेगा।

‘हां तो रेवती बता...’ उसने अपने अंतरमन में झांका पर कोई हलचल नहीं हुई। मन को खोदकर देखा, पर कोई हरकत नहीं हुई।

...अब ? अब क्या करे? जरूर कोई गलती हुई है उससे, तभी तो मन उससे रूठा हुआ है। कोई जवाब नहीं दे रहा। उसने दिन भर की घटनाओं को रिवाइंड करना शुरू किया। शायद कोई सूत्र हाथ लगे मन की नाराजगी का। एक सेकेंड से कम समय में वह सुबह के दृश्य में पहुंच गई जहां पत्थर की बेंच पर बैठी वह चाय पी रही थी और सामने थी

- दिगंबरा, आवारा कुत्तों से घिरी। और वहीं पर मन चमका - काश ! इसे घर ले जाऊं, नहलाऊं -धुलांऊ ... !

... तो इस बात पर मेरा मन नाराज है कि मैंने उसका कहा क्यों नहीं माना !

‘चल रेवती तेरे मन की करते हैं।’

मन चहका - ‘चलो ! ’

रेवती ने आलमारी खोली .उसकी उँगलियाँ और दिमाग दोनों चल रहे थे . अपने बैग में जाने क्या-क्या ठूंसा फिर स्लीपर फटकारती हुई निकल पड़ी. रिक्शे में बैठे-बैठे पति को फोन कर दिया .

रेवती से पहले ही उसका मन वहां पहुँच चुका था . अब उसे अपने मन की करनी थी. शाम धुंधली चादर तान के खड़ी हो गयी थी. रेवती आज जो करना चाहती थी उसके लिए उसे दिन के बेहया उजाले की दरकार न थी . एक हुलस से वह आगे बढ़ रही थी तो वहीँ दूसरी ओर एक झिझक उसके क़दमों से लिपट रही थी . उसे कूड़े के ढेर की बढ़ते देख फुटपाथिये दुकानदार नज़ारा देखने लगे. रेवती उसे ढूढ रही थी जो उसकी चेतना पर सिल रखकर बैठ गयी थी . वह एक कोने में बैठी कुछ बिद्खोर रही थी . रेवती आगे बढ़ी .पगली ने हाथ झटक कर चले जाने का इशारा किया. मगर रेवती हिली नहीं . अपने आदेश का पालन न होता देख पगली रानी बिदक गयीं . आव देखा न ताव पास पड़े अपने हथियारों के जखीरे से एक पत्थर दे मारा . पक्का निशाना ... रेवती के माथे से खून की धार फूट पड़ी . उसकी चीख सुनकर तमाशबीन करीब आ गए .

'मैडम ... आप इदर कायको आया ... जास्ती लगा तो नहीं ?' चाय वाला लड़का उसके करीब ही था. रेवती ने बहते खून की परवाह न कर लड़के से मदद मांगी .

रेवती आगे बढ़ती जा रही थी और तमाशा देखती भीड़ भी...

खून देखकर पगली सहम गयी . तभी रेवती ने पलक झपकते उसे कसकर सीने से भींच लिया . भीड़ भौंचक्की देखती रह गयी .

रेवती ने बैग में से निकालकर एक नायटी पहना उसे दी . फिर एक ओढ़नी उसे ओढ़ा दी मनो आज से उसने पगली की सरपरस्ती ले ली हो . रेवती की करुणा ने पगली के तेवर ढीले कर दिए . वह उसका हाथ थामे अस्पताल की ओर बढ़ चली . दोनों कुत्ते सिपाही की मुस्तैदी से साथ-साथ चले .... उनके पीछे तमाशबीनों का हुजूम .... उन्होंने न कभी ऐसा देखा न सुना !

रिसेप्शन पर पहुँच कर काफिला रुका सिस्टर केस पेपर बनाने को तैयार न थी . हाथ नचाकर बोली - ऐसा कैसे चलेंगा ? पहले डिपोजीट भरने का .

रेवती तैयारी से आई थी उसने 10 हजार निकल के रख दिए.

सिस्टर बोली - 15 हजार मांगता .

लाचारी में रेवती ने इधर-उधर देखा . भीड़ में से एक बोला - ये लो मैं एक हजार देता . बात की बात में 5 हजार पुरे हो गए . सिस्टर ने फार्म भर दिया . बोली -

'इसका रिश्तेदार का साईन मांगता . कौन है ...?'

भीड़ बगलें झाँकने लगी .

' ये एक औरतजात है ... ये मेरी बहन लगती है ... ' और रेवती ने दस्तखत कर दिए .

भीड़ में हर्षातिरेक छा गया . वार्डबॉय आया और व्हीलचेयर पर पेशंट को बिठा के आगे बढ़ गया . रेवती भी पीछे लपकी .तभी एक आदमी आगे आया बोला -

'सिस्टर फिकिर करने का नहीं ... अपुन लोक तुम्हारे साथ है .... वो पगली आज से हम सबकी बेहेन है ... '

दूसरी सुबह ... रेशमा की खाट के सामने की खाट पर थी दिगम्बरा और उसकी नवजात बच्ची ....

रेवती की आँखें दिगंबरा को ही देख रही थीं . उसके बदन पर अस्पताल का गाउन था... एकदम सफ़ेद, कोरा !

'आवारा कुत्तों' के वहशी पंजों के निशा नहीं दिख रहे थे उस कोरे गाउन के नीचे.