आशंका / सरस्वती माथुर
"आज क्या तुम आटो से दफ़्तर आई हो राधिका?"
"अरे नहीं रागिनी तेरे पति ने ही तो छोड़ा मुझे, कह रहे थे अभी तुम काम में लगी हो ज़रा देर लगेगी तुम्हें तो, मैंने उन्हें कहा भी कि आपका रास्ता एकदम दूसरे छोर पर है -दिक़्क़त होगी पर वो माने नहीं।" उसकी बात सुन रागिनी फीकी सी हँसी हंस दी। फिर दोनों बतियाती अपनी अपनी डेस्क पर बैठ गयीं। रागिनी ने आँखें मूँद कर ठंडी साँस ली और ना चाह कर भी सुबह के उन क्षणों में चली गयी जब उसने अपने पति से आग्रह किया था--"हरी, क्या मुझे दफ़्तर छोड़ दोगे?"
"नहीं रागिनी आज मेरी ज़रूरी मीटिंग है।मैं बाॅस से पहले पहुँचना चाहता हूँ।तुम प्लीज़ बस से निकल जाओ। " हरी ने स्पष्ट मना कर दिया।
"चलो ठीक है।" कह कर रागिनी ने घर के शेष काम निपटाये।बस स्टाॅप पर पहुँची तो पड़ोसन में रहने वाली राधिका जो साथ ही काम करती थी उसे दिखी नहीं --वो हैरान थी कि बस तो नियत समय पर ही आती है कहाँ गयी जबकि जब वो लाॅन में लगे चिड़ियाओं के परिंडे में पानी डालने आई थी तो उसने राधिका को बस स्टाॅप की तरफ़ जाते देखा था। आफिस पहुँची तो रिसेप्शन पर खड़ी राधिका फ़ोन पर बतिया रही थी।
"मैडम चाय।" चपडासी की आवाज़ से वह वर्तमान में लौट आई। निगाहें उठाई तो रागिनी ने देखा कि राधिका बड़ी तन्मयता से डेस्क पर बैठी फ़ाइलें निपटा रही थी । वह चाय पीते हुअे नि:शब्द बैठी उसे काम करते देखती रही पर जाने क्यों आज उसका मन काम में नहीं लग पा रहा था।