आशा का अन्त / बालमुकुंद गुप्त
माई लार्ड! अबके आपके भाषणने नशा किरकिरा कर दिया। संसारके सब दुःखों और समस्त चिन्ताओंको जो शिवशम्भु शर्मा दो चुल्लू बूटी पीकर भुला देता था, आज उसका उस प्यारी विजयापर भी मन नहीं है। आशासे बँधा हुआ यह संसार चलता है। रोगीको रोगसे कैदीको कैदसे, ऋणीको ऋणसे कंगालको दरिद्रतासे, - इसी प्रकार हरेक क्लेशित पुरुषको एक दिन अपने क्लेशसे मुक्त होनेकी आशा होती है। चाहे उसे इस जीवनमें क्लेशसे मुक्ति न मिले, पर आशाके सहारे इतना होता है कि वह धीरे-धीरे अपने क्लेशोंको झेलता हुआ एक दिन इस क्लेशमय जीवनसे तो मुक्त हो जाता है। पर हाय। जब उसकी यह आशा भी भंग हो जाय, उस समय उसके कष्टका क्या ठिकाना! -
"किस्मत पे उस मुसाफिरे खस्ताके रोइये। जो थक गया हो बैठके मंजिलके सामने।
बड़े लाट होकर आपके भारतमें पदार्पण करनेके समय इस देशके लोग श्रीमान्-से जो जो आशाएं करते और सुखस्वप्न देखते थे, वह सब उड़नछू हो गये। इस कलकत्ता महानगरीके समाचारपत्र कुछ दिन चौंक चौंक पड़ते थे कि आज बड़े लाट अमुक मोड़पर वेश बदले एक गरीब काले आदमीसे बातें कर रहे थे, परसों अमुक आफिसमें जाकर कामकी चक्कीमें पिसते हुए क्लर्कोकी दशा देख रहे थे और उनसे कितनीही बातें पूछते जाते थे। इससे हिन्दू समझने लगे कि फिरसे विक्रमादित्यका आविर्भाव हुआ या अकबरका अमल होगया। मुसलमान खयाल करने लगे, खलीफा हारूंरशीदका जमाना आगया। पारसियोंने आपको नौशीरवाँ समझनेकी मोहलत पाई थी या नहीं, ठीक नहीं कहा जासकता। क्योंकि श्रीमान्-ने जल्द अपने कामोंसे ऐसे जल्दबाज लोगोंको कष्ट-कल्पना करनेके कष्टसे मुक्त कर दिया था। वह लोग थोड़ेही दिनोंमें इस बातके समझनेके योग्य होगये थे कि हमारा प्रधान शासक न विक्रमके रंग-ढंगका है, न हारूं या अकबरके, उसका रंगही निराला है। किसीसे नहीं मिलता।
माई लार्ड! इस देशकी दो चीजोंमें अजब तासीर है। एक यहांके जलवायुकी और दूसरे यहांके नमककीं, जो उसी जलवायुसे उत्पन्न होता है। नीरससे नीरस शरीरमें यहांका जलवायु नमकीनी ला देता है। मजा यह कि उसे उस नमकीनीकी खबर तक नहीं होती। एक फारिसका कवि कहता है कि हिन्दुस्थानमें एक हरी पत्ती तक बेनमक नहीं है, मानो यह देश नमकसे सींचा गया है। किन्तु शिवशम्भु शर्माका विचार इस कविसे भी कुछ आगे है। वह समझता है कि यह देश नमककी एक महाखानि है, इसमें जो पड़ गया, वही नमक बन गया। श्रीमान् कभी चाहें तो सांभर-झीलके तटपर खड़े होकर देख सकते हैं, जो कुछ उसमें गिर जाता, वही नमक बन जाता है। यहांके जलवायुसे अलग खड़े होकर कितनोंहीने बड़ी-बड़ी अटकलें लगाई और लम्बे चौड़े मनसूबे बांधे पर यहांके जलवायुका असर होतेही वह सब काफूर हो गये।
अफसोस माई लार्ड! यहांके जलवायुकी तासीरने आपमें अपनी पिछली दशाके स्मरण रखनेकी शक्ति नहीं रहने दी। नहीं तो अपनी छ: साल पहलेकी दशासे अबकी दशाका मिलान करके चकित होते। घबराके कहते कि ऐं! मैं क्या हो गया? क्या मैं वही हूं, जो विलायतसे भारतकी ओर चलनेसे पहले था? बम्बईमें जहाजसे उतरकर भूमिपर पांव रखतेही यहांके जलवायुका प्रभाव आपपर आरम्भ होगया था। उसके प्रथम फलस्वरुप कलकत्तेमें पदार्पण करतेही आपने यहांके म्यूनिसिपल कारपोरेशनकी स्वाधीनताकी समाप्ति की। जब वह प्रभाव कुछ और बढ़ा तो अकाल पीड़ितोंकी सहायता करते समय आपकी समझमें आने लगा कि इस देशके कितनेही अभागे सचमुच अभागे नहीं, वरंच अच्छी मजदूरीके लालचसे जबरदस्ती अकालपीड़ितोंमें मिलकर दयालु सरकारको हैरान करते हैं। इससे मजदूरी कड़ी की गई।
इसी प्रकार जब प्रभाव तेज हुआ तो आपने अकालकी तरफसे आंखोंपर पट्टी बांधकर दिल्ली-दरबार किया।
अन्तको गत वर्ष आपने यह भी साफ कह दिया कि बहुतसे पद ऐसे हैं जिनको पैदाइशी तौरसे अंग्रेजही पानेके योग्य हैं। भारतवासियोंकी सरकार जो देती है, वह भी उनकी हैसियतसे बढ़कर है। तब इस देशके लोगोंने सभक लिया था कि अब श्रीमान्-पर यहांके जलवायुका पूरा सिक्का जम गया। उसी समय आपको स्वदेशदर्शनकी लालसा हुई। लोग समझते चलो अच्छा हुआ, जो हो चुका, वह हो चुका, आगेकी तासीरकी अधिक उन्नतिसे पीछा छूटा। किन्तु आप कुछ न समझे। कोरियामें जब श्रीमान्-की आयु अचानक सात साल बढ़कर चालीस होगई, उस समय भी श्रीमान्-की समझमें आ गया था कि वहीं की सुन्दर आवहवाके प्रतापसे आप चालीस सालके होनेपर भी बत्तीस तेंतीसके दिखाई देते हैं। पर इस देशकी आवहवाकी तासीर आपके कुछ समझमें न आई। वह विलायतमें भी श्रीमान्-के साथ लगी गई और जबतक वहां रहे, अपना जोर दिखाती रही। यहां तक कि फिर आपको एक बार इस देशमें उठा लाई, किसी विघ्न वाधाकी परवा न की।
माई लार्ड! इस देशका नमक यहांके जलवायुका साथ देता है, क्योंकि उसी जलवायुसे उसका जन्म है। उसकी तासीर भी साथ साथ होती रही। वह पहले विचार-बुद्धि खोता है। पीछे दया और सहृदयताको भगाता है और उदारताको हजम कर जाता है। अन्तको आंखोंपर पट्टी बांधकर, कानोंमें ठीठे ठोककर, नाकमें नकेल डालकर, आदमीको जिधर तिधर घसीटे फिरता है और उसके मुंहसे खुल्लम खुल्ला इस देशकी निन्दा कराता है। आदमीके मनमें वह यही जमा देता है कि जहांका खाना वहांकी खूब निन्दा करना और अपनी शेखी मारते जाना। हम लोग उस नमककी तासीरसे बेअसर नहीं हैं। पर हमारी हड्डियां उसीसे बनी हैं, इस कारण हमें इतना ज्ञान रहता है कि हमारे देशके नमककी क्या तासीर है। हमलोग खूब जानते थे कि यदि श्रीमान् कहीं दूसरी बार भारतमें आगये तो एक दम नमककी खानिमें जाकर नमक हो जावेंगे। इसीसे चाहते थे कि दोबारा आप न आवें। पर हमारी पेश न गई। आप आये और आतेही उस नमककी तासीरका फल अपने कौंसिल और कानवोकेशनमें प्रगट कर डाला।
इतने दिन आप सरकारी भेदोंके जाननेसे, अच्छे पद पानेसे, उन्नतिकी बातें सोचनेसे, सुगमतासे शिक्षा लाभ करनेसे, अपने स्वत्वोंके लिये पार्लीमेण्ट आदिमें पुकारनेसे, इस देशके लोगोंको रोकते रहे। आपकी शक्तिमें जो कुछ था, वह करते रहे। पर उसपर भी सन्तोष न हुआ, भगवानकी शक्तिपर भी हाथ चलाने लगे। जो सत्यप्रियता इस देशको सृष्टिके आदिसे मिली है, जिस देशका ईश्वर "सत्यंज्ञानमनन्तम्ब्रह्म" है, वहांके लोगोंको सभामें बुलाके ज्ञानी और विद्वान्-का चोला पहनकर उनके मुंहपर झूठा और मक्कार कहने लगे। विचारिये तो यह कैसे अधःपतन की बात है? जिस स्वदेशको श्रीमान्-ने आदर्श सत्यका देश और वहांके लोगोंको सत्यवादी कहा है, उसका आला नमूना क्या श्रीमान् ही हैं? यदि सचमुच विलायत वैसाही देश हो, जैसा आप फरमाते हैं और भारत भी आपके कथनानुसार मिथ्यावादी और धूर्त देश हो, तोभी तो क्या कोई इस प्रकार कहता है? गिराके ठोकर मारना क्या सज्जन और सत्यवादीका काम है? अपनी सत्यवादिता प्रकाश करने के लिये दूसरे को मिथ्यावादी कहनाही क्या सत्यवादिताका सबूत है?
माई माई लार्ड! जब आपने अपने शासक होनेके विचारको भूलकर इस देशकी प्रजाके हृदयमें चोट पहुंचाई है तो दो एक बातें पूछ लेनेमें शायद कुछ गुस्ताखी न होगी। सुनिये, विजित और विजेतामें बड़ा अन्तर है। जो भारतवर्ष हजार सालसे विदेशीय विजेताओंके पांवोंमें लोट रहा है, क्या उसकी प्रजाकी सत्यप्रियता विजेता इंगलेण्डके लोगोंकी सत्यप्रियताका मुकाबिला कर सकती है। यह देश भी यदि विलायतकी भांति स्वाधीन होता और यहांके लोगही यहांके राजा होते तब यदि अपने देशके लोगों को यहांके लोगोंसे अधिक सच्चा साबित कर सकते तो आपकी अवश्य कुछ बहादुरी होती। स्मरण करिये, उन दिनोंको कि जब अंग्रेजोंके देशपर विदेशियोंका अधिकार था। उस समय आपके स्वदेशियोंकी नैतिक दशा कैसी थी, उसका विचार तो कीजिये। यह वह देश है कि हजार साल पराये पांवके नीचे रहकर भी एकदम सत्यतासे च्युत नहीं हुआ है। यदि आपका युरोप या इंगलेण्ड दस साल भी पराधीन हो जाते तो आपको मालूम पड़े कि श्रीमान्-के स्वदेशीय कैसे सत्यवादी और नीति-परायण हैं। जो देश कर्मवादी है, वह क्या कभी असत्यवादीहो सकता है? आपके स्वदेशीय यहां बड़ी-बड़ी इमारतेंमें रहते हैं, जैसी रुचि हो, वैसे पदार्थ भोग सकते हैं। भारत आपके लिये भोग्यभूमि है। किन्तु इस देशके लाखों आदमी, इसी देशमें पैदा होकर आवारा कुत्तोंकी भांति भटक-भटककर मरते हैं। उनको दो हाथ भूमि बैठनेको नहीं, पेट भरकर खानेको नहीं, मैले चिथड़े पहनकर उमरें बिता देते हैं और एक दिन कहीं पड़कर चुप-चाप प्राण दे देते हैं। हालकी इस सर्दीमें कितनोंहीके प्राण जहां-तहां निकल गये। इस प्रकार क्लेश पाकर मरनेपर भी क्या कभी वह लोग यह करते हैं कि पापी राजा है, इससे हमारी यह दुगाति है? माई लार्ड! वह कर्मवादी हैं, वह यही समझते हैं कि किसीका कुछ दोष नहीं है - सब हमारे पूर्व कर्मोका दोष है। हाय। हाय। ऐसी प्रजाको आप धूर्त कहे हैं।
कभी इस देशमें आकर आपने गरीबोंकी ओर ध्यान न दिया। कभी यहांकी दीन भूखी प्रजाकी दशाका विचार न किया। कभी दस मीठे शब्द सुनाकर यहांके लोगोंको उत्साहित नहीं किया - फिर विचारिये तो गालियां यहांके लोगोंको आपने किस कृपाके बदले में दीं? पराधीनताकी सबके जीमें बड़ी भारी चोट होती है। पर महारानी विक्टोरियाके सदय बरतावने यहांके लोगोंके जीसे वह दुःख भुला दिया था। इस देशके लोग सदा उनको माता तुल्य समझते रहे, अब उनके पुत्र महाराज एडवर्डपर भी इस देशके लोगोंकी वैसीही भक्ति है। किन्तु आप उन्हीं सम्राट् एडवर्डके प्रतिनिधि होकर इस देशकी प्रजाके अत्यन्त अप्रिय बने हैं। यह इस देशके बड़ेही दुर्भाग्यकी बात है। माई माई लार्ड! इस देशकी प्रजाको आप नहीं चाहते और वह प्रजा आपको नहीं चाहती, फिर भी आप इस देशके शासक हैं और एक बार नहीं दूसरी बार शासक हुए हैं, यही विचार विचारकर इस अधबूढ़े भंगड़ ब्राह्मणका नशा किरकिरा हो-हो जाता है।
['भारतमित्र', 25 फरवरी, 1905 ई.]