आशीर्वाद-सा सवाल / जयप्रकाश मानस

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गाँव की गलियों में साँझ उतर रही थी, जब आसमान पर काले बादल छा गए, जैसे कोई पुरानी स्मृति उदास हो उठी। आँधी की साँसें तेज़ हुईं, जैसे समय की लहरें दीवारों को छू रही हों।

लोग भागे—मौलवी, पंडित, बनिया, मोची, जुलाहा—सब अपने-अपने घर छोड़कर बरगद के नीचे बनी मड़ई में जा छिपे। मड़ई की छत हवा में काँप रही थी, जैसे कोई कागज़ का घर जो टूटने से पहले थम गया हो।

मौलवी ने दुआ पढ़ी, पंडित ने मंत्र जपा। बनिया ने अपनी थैली थामी, मोची ने अपने औज़ार। जुलाहा चुप था, उसकी आँखें हवा की तरह डोल रही थीं।

"यह आँधी सब कुछ ले जाएगी,"-बनिया बुदबुदाया, जैसे कोई बच्चा अपनी पतंग खोने से डरता हो।

"आँधी न मज़हब देखती है, न जात,"-जुलाहे ने कहा, जैसे कोई सत्य जो हवा में तैरता हो। मौलवी ने सिर हिलाया, "हक़ीकत है, ये मड़ई सबकी है।" पंडित ने जोड़ा-"जैसे ये बरगद, जो सबको छाया देता है।"

रात गहराई। आँधी ने छप्पर उड़ाए, पेड़ हिलाए, पर मड़ई में लोग एक-दूसरे के क़रीब आए। मोची ने सूखी रोटियाँ बाँटीं, बनिए ने पानी का लोटा थमाया।

"हम सब एक ही मिट्टी के हैं,"-मौलवी ने कहा, जैसे कोई दीया, जो अँधेरे में जल उठा हो।

सुबह आँधी थम गईं। गलियाँ कीचड़ से भरी थीं, पर आसमान साफ़ था, जैसे कोई चेहरा जिसे आँसुओं ने धो दिया हो। लोग अपने घरों की ओर लौटे, पर बरगद के नीचे ठहरे। वे बुदबुदाए, जैसे आशीर्वाद दे रहे हों: "क्या हर बस्ती में ऐसी आँधी नहीं उठनी चाहिए?" बरगद की पत्तियाँ हिलीं, जैसे वह सारी बस्तियों को गले लगाना चाह रही हों।

-0-