आशीष / पद्मजा शर्मा
वह ईमानदार और काबिल चिकित्सक था। पिता चपरासी थे। आर्थिक तंगी के बावजूद उसने अपने बहन-भाइयों के ठीक-ठाक से विवाह किये। माल प्रैक्टिस में उसका विश्वास नहीं था। शायद इसी से अब तक रहने के लिए घर सरीखा घर भी नहीं बनवा पाया था।
परेशान, वह कभी ज्योतिषी को अपनी जन्म पत्री दिखाता। कभी मंदिर में तेल चढ़ाता तो कभी घी। वास्तुकार के निर्देशानुसार कभी कुर्सी बदलता तो कभी उसकी दिशा। पर बात नहीं बनी।
किसी सुबह एक ग्रामीण वृद्ध मरीज आया। उसने जांचा। पर्ची पर दवाइयाँ लिख दीं।
दोपहर को चिकित्सक की पत्नी बेटे को विद्यालय से लाने के लिए घर से निकली। देखा वह ग्रामीण सिर झुकाए पेड़ तले बैठा है। उसे आश्चर्य हुआ। बड़े आदर से उसने पूछा-
'बाबा, यहाँ क्यों बैठे हो?'
'बस का किराया चुकाकर दो सौ रुपये बचे थे। सौ रुपये साहब की फीस के दे दिए. दवाई के लिए पैसे पूरे नहीं हैं। गांव चला गया तो, दवा के लिए लौट नहीं पाऊँगा। बस भाड़ा लगेगा। काम खोटी होगा। क्या करूँ, यही सोच रहा हूँ।'
वृद्ध के बोलों में चिंता और गरीबी का कम्पन्न साफ सुनाई दे रहा था।
चिकित्सक की पत्नी तत्काल भीतर गई. कुछ रुपये लाई. वृद्ध को दिए. रुपये देखकर उसकी आँखों से अविरल आंसू बहने लगे। उसने हजारों आशीषें दीं और चला गया।
थोड़े दिनों में ही चिकित्सक के पास मरीजों की भीड़ पडऩे लगी। चिकित्सक को हैरत हो रही थी कि अचानक इतनी भीड़ कैसे।
पत्नी ने पति को वृद्ध वाला किस्सा सुनाया। वह सब समझ गया।
चिकित्सक ने प्रण किया कि वह मरीजों से पैसे कम, आशीषें ज़्यादा लेगा।
तब से उसका काम और नाम दिन दूनीं रात चौगुनी गति से बढऩे लगा।