आशुतोष गोवारिकर की फिल्म मोहनजोदड़ो / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 21 मार्च 2014
आशुतोष गोवारिकर की फिल्म 'मोहनजोदड़ो' में ऋतिक रोशन ने काम करना स्वीकार कर लिया है। इस टीम ने 'जोधा अकबर' नामक सार्थक सफल फिल्म की रचना की थी और उस दौर में इतिहास आधारित यह कल्पना मात्र चालीस करोड़ में बननी संभव हुई क्योंकि ऋतिक और ऐश्वर्या राय बच्चन का मेहनताना आज की तरह आकाश नहीं छू रहा था। उस दौर में उद्योग के विशेषज्ञों का ख्याल था कि 'मुगले आजम' इस तरह दर्शक के अवचेतन में दर्ज है कि आशुतोष की चेष्टा तुलना में मार खा सकती है जबकि एक ही काल खंड पर ये दो अलग कहानियां थी और तुलना की आवश्यकता ही नहीं थी। दर्शक तुलना के चक्कर में नहीं पड़े और जोधा अकबर की प्रेमकथा का आनंद लेने में सलीम-अनारकली का पूरी तरह काल्पनिक अफसाना बाधा नहीं बना। एक ही कालखंड होने के कारण मुगल इतिहास के जानकर महसूस करते हैं कि आशुतोष गोवारिकर के प्रयास में अधिक विश्वसनीयता थी और ए.आर. रहमान का संगीत भी मुगल संगीत के बेहद नजदीक था जबकि 'मुगले आजम' में 'मोहे पनघट पर छेड़ गयो नंदलाल' लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह की रचना थी और इसे मुगल नहीं माना जा सकता। दरअसल लोकप्रियता का आधार विश्वसनीयता नहीं होता, उसका रसायन ही अलग होता है। यही कारण है कि 'मुगले आजम' का स्थान अलग है परंतु वह पारसी थियेटर के ज्यादा नजदीक थी और आशुतोष गोवारिकर की रचना हॉलीवुड की ऐतिहासिक फिल्मों की तरह आपकी तर्क शक्ति से छेड़छाड़ नहीं करती।
बहरहाल यह सब लिखने का तात्पर्य यह है कि आशुतोष गोवारिकर का आग्रह अंतरराष्ट्रीय गुणवत्ता है और वे अपने ढंग से शोध करके विश्वसनीयता प्रदर्शित करना चाहते हैं। आशुतोष गोवारिकर की 'लगान' एक अद्भुत सिनेमाई अनुभव था और उसमें प्रदर्शित अंग्रेज लगते थे ना कि उनके कैरीकेचर जैसे कि वे मनोज कुमार की 'क्रांति' में लगते थे। गांव के नौसीखिए क्रिकेट खिलाड़ी डॉन ब्रेडमैन की तरह नहीं थे वरन् वे एक चुनौती में जी जान झोंकने वाले जुझारु व्यक्ति नजर आते थे। आशुतोष गोवारिकर अरसे से मनोरंजन जगत से जुड़े हैं, उन्होंने टेलीविजन पहले किया था और अब फिर 'स्टार' पर 'एवरेस्ट' प्रस्तुत करने जा रहे हैं। उनकी अभिषेक बच्चन अभिनीत 'खेलें हम जी जान से' स्वतंत्रता संग्राम के एक अनछुए विषय पर बनाई गई थी जिसमें किशोर वय का विद्रोह था और फिल्म नहीं चली परंतु उसकी विश्वसनीयता पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं है। यह बताना कठिन है कि आशुतोष ने रांघेय राघव का उपन्यास 'मुर्दों का टीला' पढ़ा है या नहीं क्योंकि उस उपन्यास का आधार भी मोहनजोदड़ो ही है। मुझे उस उपन्यास को पढ़े अरसा हो गया है और जाती हुई सी स्मृति में कुछ भी दर्ज नहीं है परंतु रांघेय राघव और आशुतोष गोवारिकर का अपने काम के प्रति समर्पण का भाव समान है, दोनों को रचनाधर्मिता का अनुशासन भी समान है। वह उपन्यास शोध में सहायक हो सकता है परंतु फिल्म का एकमात्र स्त्रोत नहीं हो सकता। मोहनजोदड़ो के अवशेष खो गई सभ्यता के विषय में गहरी जानकारी देता है और यह आभास भी होता है कि वह गौरवशाली सभ्यता थी। इन अवशेषों के नजदीकी अध्ययन से उसके पतन के कारण भी सामने आते हैं।
तमाम गुजश्ता सभ्यताएं जानकारियों के अभाव या तानाशाही प्रवृतियों के कारण नष्ट होती है। रोमन साम्राज्य का पतन भी 'हम सर्वश्रेष्ठ हैं' के अहंकार के कारण हुआ था। अगर गुजश्ता सभ्यताएं अत्यंत वैभवशाली होते हुए भी ज्ञान पिपासा के अभाव या कम हो जाने के कारण नष्ट हुई है तो मौजूदा सभ्यता संभवत: जानकारियों की अधिकता या ज्ञान के लिए असीमित पिपासा के कारण मर सकती है। यह उन विलक्षण सभ्यताओं के बल को ही साबित करती है कि उनके अवशेष आज भी अध्ययन के लिए उपलब्ध है जैसे कोई साहसी उदात स्वभाव का व्यक्ति छल से मारे जाते समय भी अपने कातिल के सुराग कहीं छोड़ जाता है। घायल शेर का खून ही शिकारी को उसका पता बताती है।
यह मनुष्य का विचित्र स्वाभाव है जैसा कि यक्ष के एक प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठिर ने कहा था कि मृत्यु के आवश्यमभावी होने के तथ्य को हम जानकर उससे अनजान बने रहने की चेष्टा करते है, कि वह तमाम अनुभवों के बाद भी पुरानी गलतियों को दोहराता है। आज भी हम क्षेत्रियता का जहरफैला रहे है, तत्कालिक लाभ के लिए भविष्य को गिरवी रख रहे है। आज भारत के वैभवशाली अतीत की दुहाई देने वाले स्वयंभू महान नेता मोहनजोदड़ो को बिहार में बताते है। उनका तो भूगोल भी आर्य जाति के उद्भव को उस उतरध्रुव बताते है जो बिहार में था। ज्ञान-अज्ञान के मुखौटे को विविधता कौन जानता है।