आश्वस्ति / एक्वेरियम / ममता व्यास
Gadya Kosh से
तुम मेरे होने को लेकर इतने आश्वस्त कैसे हो सकते हो, जबकि बहुत पहले ही मैं तुम्हारे हाथों से छूट कर, टूटकर बिखर कर, खत्म हो चुकी थी।
मेरे लगातार बोलने से और तुम्हारी गहरी चुप्पी ने हमारे बीच संदेह के, दु: ख के और शंकाओं के पहाड़ बना दिए हैं।
तुम उन दिनों सूरज, चांद, प्रेम, पहाड़, खाई, आत्मा आदि को शब्दों में बांध रहे थे और मैं चुपचाप धीरे-धीरे तुमसे अपने बंधन खोल रही थी। तुम्हारे पास तुम्हारी इच्छाएँ, तुम्हारा अहम् और तुम्हारा ज्ञान चौकड़ी जमाये बैठा था लेकिन मैं तुमसे बहुत दूर निकल आई थी। धीरे से कहा था मैंने-"जा रही हूँ मैं।"
तुमने सुना ही नहीं। तुमने एक बार भी रोका नहीं, रोकना क्या था तुमने तो सर उठाकर देखा तक नहीं।
तुम अब भी आश्वस्त हो कि मैं वही हूँ लेकिन मैं जानती हूँ मैं अब कहीं नहीं हूँ।