आषाढ़ का फिर वही एक दिन / पंकज सुबीर

Gadya Kosh से
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टिंग-टिड़िंग टिड़िंग-टिड़िंग, टिंग-टिड़िंग टिड़िंग-टिड़िंग, ये मोबाइल का अलार्म है। जो रोज़ सुबह खंडहर हो चुके सरकारी आवासों वाली तीन मंज़िला बिल्डिंग के दूसरे माले में बजता है। क़तार में खड़ी, पीले रंग से पुती हुई इन बिल्डिंगों में कई-कई परिवार समाये हुए हैं। समाये हुए हैं दो कमरों, किचिन, लेट बाथ वाले मकानों की दुनिया में। उन्हीं में से एक मकान में ठीक पाँच बजे बजता है ये मोबाइल। वैसे तो लगभग हर घर में इसी समय किसी न किसी रूप में ये अलार्म बजता है। मगर कहानी चूँकि भार्गव बाबू की है सो बात को उन तक ही केन्द्रित रखा जाये। छोटे, पुराने, घिसे हुए मोबाइल के अलार्म की आवाज़ सुनकर जाग उठते हैं भार्गव बाबू। जाग कर पहले अपनी हथेलियों को देखते हैं। किसी पत्रिका में जब से पढ़ा है कि लक्ष्मी लाने का ये एक तरीक़ा है तब से वे ऐसा करने लगे हैं। हालाँकि उन्होंने 'कराग्रे वसते लक्ष्मी...' को भी शुरू-शुरू में याद करने की कोशिश की थी, क्योंकि पत्रिका में लिखा था कि हथेलियों को देखते समय इस श्लोक को साथ में पढ़ना है। मगर, वे याद नहीं कर पाये। एक दो बार ऐसा लगा भी याद हो गया है, किन्तु, कराग्रे वसती के बाद के शब्द याद ही नहीं आ पाते। अब वे खाली हथेलियों को ही देखते हैं। हथेलियों को देखने के बाद भार्गव बाबू के मुँह से एक स्थायी स्वर निकलता है 'ए ऽऽऽ'। यह स्वर पास में सो रही पत्नी को जगाने के लिये होता है। उत्तर में पत्नी का स्वर आता है 'हूँ ऽऽऽ'। इस ए और हूँ के साथ दोनों की सुबह हो जाती है। भार्गव बाबू बिस्तर से उठ खड़े होते हैं। मँझोले क़द, लगभग गंजा सिर, तोंद बहुत ज़्यादा से कुछ कम, हर आकार के छेदों से युक्त आस्तीन वाली बनियान और पट्टे वाली चड्डी पहने ये हैं पचास वर्षीय भार्गव बाबू। होंगे पचास से शायद कुछेक ऊपर ही। गंजे सिर और बनियान को हटा दिया जाये तो पत्नी भी लगभग ऐसी ही है। दोनों की बीमारियाँ भी लगभग समान ही हैं। बीपी, डायबिटिज़, कोलेस्ट्राल। पत्नी को थायराइड के रूप में एक अतिरिक्त बीमारी की बढ़त हासिल है। बीमारियों के आगमन के बाद से ही शैल्फ में आसव, अमृत, पुष्पी, रिष्ट जैसे प्रत्ययों से युक्त बोतलें आ गईं हैं। दोनों पूरी श्रद्धा के साथ इनका सेवन करते हैं, किन्तु, बीमारियाँ भी उतनी ही श्रद्धा के साथ डटी हुई हैं।

भार्गव बाबू बिस्तर छोड़ने के बाद पहला काम दवा लेने का ही करते हैं। एक आसव सुबह उठते ही पीना होता है। भार्गव बाबू ने एक चम्मच आसव पिया और लेट-बाथ में से 'लेट' की तरफ़ निकल गये। इन सरकारी आवासों में लेट-बाथ अलग-अलग हैं। भार्गव बाबू पहली बार 'लेट' जाते हैं तो लेट से कुछ लेट निकलते हैं। असंतुष्ट से। पत्नी तब तक चाय बना चुकी होती है। भार्गव बाबू पहले ताँबे के लोटे में रात भर का रखा हुआ पानी पीते हैं और फिर चाय का गिलास लेकर बाहर के कमरे में आ जाते हैं। गिलास इसलिये कि ये भार्गव बाबू की एकमात्र चाय है जो वह दिन भर में पीते हैं। एक बार में ही पूरा गिलास भर के मन भर के पी लेते हैं। बाहर के कमरे में उनका बेटा सोता है। बेटी की पिछले साल शादी कर चुके हैं। बेटा पढ़ाई पूरी कर चुका है और अब दोस्तों की मोटरसाइकल पर भोपाल की सड़कों के विन्यास और भौगोलिक स्थिति पर शोध कर रहा है। कुल मिलाकर ये कि सड़कें नाप रहा है। भार्गव बाबू के साथ बेटे के सम्बंध ऐसे हैं कि बेटा अपनी तरफ़ से मधुर रखता है, किन्तु भार्गव बाबू मधुर होने नहीं देते। उनका सोचना है कि सम्बंध मधुर हो गये तो बेटा पैसे माँगने में वैसे नहीं हिचकेगा जैसे आज हिचकता है। चाय पीने का कार्यक्रम बहुत अनौपचारिक-सा होता है। उसके बाद भार्गव बाबू फिर से अंदर के कमरे में जाते हैं। बेटे के रिटायर हो चुके लोअर और टी शर्ट, जो अब उनके हो चुके हैं को पहनते हैं, मोबाइल उठाते हैं और निकल पड़ते हैं।

भार्गव बाबू के मकान के ठीक पीछे ही एक बड़ा-सा मैदान है। उसी में सुबह की सैर पर जाते हैं भार्गव बाबू। पहले नहीं जाते थे, डायबिटीज होने के बाद जाने लगे हैं। साढ़े पाँच से छः के बीच के समय में। वे अभी भी सैर कर रहे हैं। कोशिश करते हैं तेज़-तेज़ चलने की, मगर कुछ क़दम चल कर ही स्पीड धीमी करनी पड़ती है। जब स्पीड धीमी करते हैं तो बुदबुदा कर एक बार स्वयं को गाली देते हैं, इस बात के लिये कि अब दौड़ने की भी ताक़त नहीं बची है उनमें। भार्गव बाबू की ये एक और विशेषता है जिसे यहाँ साइलेंट पर रखा गया है, वह है हर वाक्य में कम से कम दो गालियाँ और यदि किसी एक वाक्य में दो गालियाँ आ रही हैं तो उनमें अनुप्रास अलंकार अवश्य हो। इसके साथ-साथ वे 'तीन जूते' मारने की बात भी जोड़ देते हैं। मोबाइल बज रहा है। केवल समय देखने के लिये मोबाइल को सैर पर लाते हैं लेकिन यहाँ भी बज उठता है कमबख़्त। 'हाँ गोंई बोलो' भार्गव बाबू हलो के साथ उत्तर नहीं देते, हाँ गोंई (दोस्त) के साथ ही मोबाइल शुरू करते हैं। उधर से कोई अपने प्रमाण पत्र की याद दिलाने के लिये कॉल कर रहा है। 'तो गोंई अब ऐसा करो कि मेरे घर ही आकर बैठ जाओ, आपने पैसे दिये हैं तो अब तो आपने ख़रीद लिया है हमें। अब सुबह छः बजे से रात के दस बजे तक आप चाहे जब फ़ोन कर लो।' इस बीच में भार्गव बाबू तीन प्रकार की गालियाँ, पाँच बार कथन में समाविष्ट कर चुके हैं। उधर वाला आदमी यक़ीनन शर्मिंदा हो रहा होगा सुबह-सुबह गालियाँ खाकर। मगर वह भी क्या करे उसकी अटकी पड़ी है। कॉल कट चुका है और भार्गव बाबू फिर से सैर पर कन्सन्ट्रेट हो गये हैं। मोबाइल फिर से बजता है। 'तो गोंई ऐसा करो तुम शिकायत कर दो मेरी कि मैंने तुमसे रिश्वत ली है।' भार्गव बाबू ग़ुस्से में हैं। 'जब कह रहे हैं कि आपकी फाइल साहब की टेबल पर है, जब साहब दस्ख़त करेंगे तभी तो दूँगा आपको काग़ज़ कि वैसे ही दे दूँ बिना दस्ख़त के?' दस्तख़त को छोटा करके केवल दस्ख़त बोलते हैं भार्गव बाबू। ये कॉल भी कट गया है। सुबह की सैर फिर से पूर्ववत जारी है। मोबाइल फिर से बजा है मगर इस बार भार्गव बाबू के तेवर बदले हुए हैं। 'नहीं सर मैं तो वैसे भी सैर कर रहा हूँ।' इस बार उधर साहब हैं। फिर कुछ प्रकार का होता है 'हओ' '...' 'हओ' '...'। उधर से बार-बार कुछ कहा जाता है और भार्गव बाबू हर बार केवल हओ (हाँ) कह रहे हैं। बीच में कुछ दिन उन्होंने योगा भी करने की कोशिश की थी लेकिन मोबाइल के साथ सैर तो हो सकती है योगा नहीं। सैर के दौरान वे सैर कर रहे अन्य लोगों से पहचान का प्रयास भी नहीं करते, यदि कोई करता है तो उसे भी इग्नोर कर देते हैं। आदमी पहचान बढ़ा कर ऑफिस आ जाये और बिना पैसे दिये काम करवा ले जाये तो? इसी चक्कर में वे आस पड़ोस के लोगों से भी सम्बंध नहीं रखते। पास पड़ोस में सम्बंध न रखने का एक कारण और ये भी है कि यदि आप पड़ोसियों के घर जाएँगे तो वे भी आपके यहाँ आएँगे। यदि आप उनके घर चाय नाश्ता करके आएँगे तो वे भी आपके यहाँ करना चाहेंगे। भार्गव बाबू मानते हैं कि पड़ोसियों से सम्बंध रखने में ये दो तरफा नुक़सान है एक तो चाय नाश्ते पर ख़र्चा करो और दूसरा जब इन पड़ोसियों का कोई काम उनके ऑफिस में पड़ जाये तो उसे भी फ्री में करो।

भार्गव बाबू घर लौट रहे हैं। छः बजने के पहले वे घर लौट आते हैं। छः बजे नल आते हैं। नल से पानी भरने के मामले में उनको किसी पर विश्वास नहीं है। पत्नी कई बार कह चुकी है कि मैं भर लिया करूँगी आप थोड़ी देर और सैर कर लिया करो, मगर वे नहीं मानते। वे नल जाने से पहले एक-एक बूँद निकाल लेना चाहते हैं। घर पहुँच कर वे बाहर के कमरे में सोये हुए बेटे को कुछ हिकारत की नज़र से देखते हैं और अंदर चले जाते हैं। 'कब तक सोएँगे लाट साहब?' ये भी एक स्थायी वाक्य है जो कमोबेश रोज़ पूछा जाता है। पत्नी शुरू में इसका उत्तर देती थी, अब नहीं देती। मालूम है उत्तर प्राप्त करना इस प्रश्न का उद्देश्य नहीं है। कोई भी उत्तर उनको संतुष्ट नहीं कर सकता। उत्तर के उत्तर में उनके पास दूसरा प्रश्न तैयार होता है। घर आकर पहला काम ये किया है मोबाइल को ऑफ कर दिया है। अब ये मोबाइल नाश्ता कर लेने तक बंद ही रहेगा। भार्गव बाबू मोटर का प्लग लगा कर उसे तैयार कर रहे हैं। नल आते ही मोटर चालू कर पानी को खींचने की प्रक्रिया चालू होगी। एक-एक बूँद खींच लेने की प्रक्रिया। जिसके बारे में बाद में पत्नी अपने रिश्तेदारों से कहती हैं कि 'ये तो पानी की मछली हैं...'। सबसे पहले ड्रम, फिर बाल्टियाँ, फिर छोटे बर्तन और फिर बात और छोटे बर्तनो तक आ जाती है। ग़नीमत है तब तक नल के जाने का समय हो जाता है। पत्नी को सबसे बड़ी चिंता यही होती है कि अगर किसी दिन नल ज़्यादा समय के लिये आ गये तो क्या होगा? मगर अभी तक तो ऐसा हुआ नहीं है। नल जाने के बाद वे एक लम्बी साँस लेते हैं या शायद छोड़ते हैं और अब वे तैयार हैं दूसरी बार 'लेट' जाने के लिये। दूसरी बार 'लेट' से लेट तो नहीं निकले मगर असंतुष्ट तो निकले ही हैं। इस बार वे आसव, पुष्पी और अमृत बनाने वाली कम्पनियों को गालियाँ देते हैं 'सब साले नकली माल बेच रहे हैं'।

अब सुबह का अगला चरण। भार्गव बाबू 'लेट-बाथ' के दूसरे खंड 'बाथ' में जा रहे हैं। पहले मंजन, फिर शेव और फिर स्नान। हाथ में धुले हुए अंतःवस्त्र लिये, टॉवेल लपेटे, मुँह ही मुँह में कोई मंत्र बुदबुदाते वे निकल आये हैं। कपड़ों को बॉलकोनी में बँधी रस्सी पर सुखाने डाल कर अब वे भगवान से दो चार होने जा रहे हैं। भगवान जो किचन में एक प्लायवुड के मंदिर में बैठे दीवार पर लटके हैं। एक दो तस्वीरें हैं और एक दो पीतल की मूर्तियाँ हैं। भार्गव बाबू ने एक अगरबत्ती निकाल कर जलाई है और उसे घुमाते हुए कुछ अस्पष्ट-सा पढ़ रहे हैं। पत्नी कई बार कह चुकी है कि एक अगरबत्ती नहीं जलाते हैं, दो जलाया करो। मगर रोज़ एक ही अगरबत्ती जलती है। पूजा के दौरान ही वे जायज़ा ले लेते हैं पूरे किचन का। पूजा हो गई, अब वापस कमरे की तरफ।

भार्गव बाबू किचन से निकले और पत्नी किचन में चली गईं हैं। नाश्ता और लंच बॉक्स बनाने के लिये। नाश्ता लगभग तय है, आम के अचार के साथ तेल में सिंके पराँठे। पराँठे दो से तीन नहीं होना है। भार्गव बाबू हर बार यही सोचते हैं कि इतना नियमित खान पान होने के बाद भी ये पेट का आकार लगातार बाहर की तरफ़ क्यों होता जा रहा है। ख़ैर, अब भार्गव बाबू तैयार हो रहे हैं। तैयार होने के पहले भाग में सारे शरीर पर सरसों का तेल लगाया जा रहा है, बचे खुचे बालों में भी वही लग रहा है। गाँव भले छूट गया हो लेकिन गाँव के संस्कार नहीं छूटे हैं। केश तेल, माइश्चुराइज़र और बॉडी लोशन, तीनों का एक ही विकल्प सरसों का तेल। भार्गव बाबू तैयार हो रहे हैं और उधर पत्नी ने बेटे को जगा कर, हड़का कर बाहर के कमरे से 'लेट' भेज दिया है। बेटा अपने सोने का दूसरा चरण भार्गव बाबू के दफ़्तर जाने के बाद पूरा करता है। आज सोमवार है, आज धुले हुए कपड़े पहने जाएँगे। भार्गव बाबू के पास ऑफिस पहनने के छः जोड़ कपड़े हैं। हर सोमवार को धुले हुए प्रेस करे हुए एक जोड़ी निकलते हैं और मंगलवार को दूसरी जोड़ी। ये दोनों जोड़ी कपड़े पूरे सप्ताह इसी प्रकार अल्टरनेट पहने जाते हैं। बीच में कोई इमरजेंसी आ जाये तो बात अलग है नहीं तो ये कपड़े रविवार को ही खूँटी से उतर कर धुलने जाते हैं। आज भार्गव बाबू ने हल्की नीली लाइनिंग की शर्ट निकाली है। वैसे उनके पास की सारी छः शर्टें ऐसी ही हैं, हल्की नीली लाइनिंग, हल्की ब्राउन लाइनिंग, हल्के हरे चौखाने आदि आदि। भार्गव बाबू अब तैयार हो चुके हैं।

दूसरा कमरा जिसे ड्राइँग रूम कहा जा सकता है उसमें अब भार्गव बाबू नाश्ते के लिये आ चुके हैं। घड़ी साढ़े आठ के आस पास है। भार्गव बाबू के घर समाचार पत्र नहीं आता। वे सुबह की ख़बरें टीवी से प्राप्त करते हैं। पराँठे के कौर, अचार के मसाले के साथ उदरस्थ करने में जुटे हैं भार्गव बाबू। बीच-बीच में किसी नेता को टीवी पर देख लेते हैं तो मुँह ही मुँह में बुदबुदा देते हैं 'सब चोर हैं...' और वाक्य में आदत के अनुसार कम से कम दो गालियाँ। भार्गव बाबू का एक पराँठा समाप्त हो चुका है और पत्नी एक कप दूध कर रख गई है। वैसे भार्गव बाबू दोनों पराँठे ख़त्म करने के बाद ही दूध पीते हैं, लेकिन कभी-कभी दूसरा पराँठा दूध में डुबो-डुबो कर खाते हैं, जैसा आज कर रहे हैं। घड़ी की सुई धीरे-धीरे नौ की तरफ़ बढ़ रही है। भार्गव बाबू का घर से निकलने का समय हो रहा है। पत्नी ने खाने का डिब्बा और पानी की बोतल लाकर मेज पर रख दी है और वहीं पास बैठ गई है। 'केबल टीवी वाले का पैसा देना है, दो महीने का हो गया है। गैस की सर्विसिंग करवानी है जलते-जलते भक-भक करती है। अम्मा की दवा भेजनी है, बीनू आया था। आज दाल ख़ाली राई से बघारी है, जीरा ख़तम हो गया है, दो दिन से और हींग भी नहीं है। आज चीनू का बर्थडे है, उसको विश कर देना।' ये सारी सूचनाएँ पत्नी भार्गव बाबू तक पहुँचा रही है। देखने में बिल्कुल नहीं लग रहा है कि वह भार्गव बाबू से ही बात कर रही है। ऐसा लग रहा है जैसे किसी अप्रत्यक्ष को सम्बोधित कर रही है। घर का सारा सौदा सुलफ, सब्ज़ी-भाजी भार्गव बाबू ही लाते हैं। पत्नी को केवल यही छुटपुट काम करने होते हैं जिनके लिये वह अभी बात कर रही है। 'महीने में पन्द्रह दिन तो केबल बंद रहता है फिर पूरे महीने के काहे के पैसे। मेरे सामने आये माँगने वाला, दूँगा तीन जूते और ये विश-टिश करने का काम तुम लोग ही करा करो, अपने बस का नहीं है ये।' केबल वाले को अनुप्रास अलंकार में दो सेट गालियाँ भी दीं भार्गव बाबू ने। भार्गव बाबू तीसरी सूचना पर भकभका जाते हैं ताकि आगे की सूचनाएँ आनी बंद हो जाएँ। नाश्ता हो चुका है। मोबाइल को चालू कर लिया है। पानी की बॉटल और लंच बॉक्स को सहेज कर बैग में रख रहे हैं अब वे। जेब से कुछ पैसे निकाले, गिने और वहीं टेबल पर रख दिये 'चार सौ हैं, अब इससे ज़्यादा नहीं हैं मेरे पास अभी।' पत्नी को पता है कि चार सौ कह रहे हैं तो ढाई सौ से तीन सौ के बीच में होंगे। इस बात पर शाम को कोई विवाद भी नहीं होगा। इनको पता है कि कम दे रहा हूँ और उनको पता है कि कम मिल रहे हैं।

अब भार्गव बाबू सड़क पर आ गये हैं। बैग कंधे पर टँगा है। बस स्टॉप तक पैदल जाना है। मोड़ पर हनुमान जी का मंदिर है, भार्गव बाबू का पहला स्टॉप। मंदिर में हाथ जोड़ कर कुछ देर बुदबुदाते हैं, पता नहीं क्या। जब मंदिर से निकलते हैं तो माथे पर सिंदूर का गोल टीका लगा होता है, जिसके बीच में कुछ भभूत लगी होती है। ये टीका भार्गव बाबू का पूरा व्यक्तित्त्व बदल देता है। अब भार्गव बाबू एकदम बमचिक ईमानदार, निष्ठावान, धर्मप्रेमी, कर्त्तव्य परायाण और जाने क्या-क्या लग रहे हैं। ये लगना उनके लिये ज़रूरी भी है। सारा खेल तो इसीका है। भार्गव बाबू अब मंदिर से बस स्टॉप की तरफ़ चल पड़े हैं। अब मोची से जूते पालिश करवाने हैं। भार्गव बाबू पहले कभी जूते पॉलिश नहीं करवाते थे। अब करवाते हैं। इस मोची का कोई काम उनकी टेबल पर फँसा था। मोची के पास देने को पैसे नहीं था। समझौता ये हुआ कि वह काम के बदले में उतनी बार भार्गव बाबू के जूतों पर पॉलिश कर दिया करेगा। 'उतनी बार' मतलब कितनी बार ये कुछ तय नहीं था। अभी तक वह 'उतनी बार' पूरा नहीं हुआ है। जूते पॉलिश होने तक भार्गव बाबू बाजू की किताब की दुकान के बाहर लटक रहे अख़बारों की हेडिंग पढ़ लेते हैं। वही लटक लटके में। बस स्टॉप पर सुबह भीड़ भाड़ रहती है। दफ़्तर जाने वालों की भीड़ भाड़। सड़क पर एक भ्रष्टाचार विरोधी रैली निकल रही है। भार्गव बाबू मन ही मन में बुदबुदाये 'सब साले चोर हैं'। उनकी इच्छा हो रही है कि रैली में सबसे आगे झंडा लेकर चल रहे व्यक्ति को रोकें और अपने सुप्रसिद्ध 'तीन जूते' लगाएँ और कहें कि तुम चला के बता दो इत्ती तनखा में घर। मगर उससे पहले ही बस आ गई है। बस में सवार भार्गव बाबू चल पड़े हैं दफ़्तर की ओर। बस में बैठ कर जब कुछ सेट हो गये तो बैग की चोर जेब में हाथ डाल कर कुछ निकाला और निकाले हुए कुछ में से कुछ अपने मुँह में डाल लिया और चबाने लगे। शेष कुछ हाथ में है। दफ़्तर में जब कोई पार्टी होती है तो ये ड्राय फ्रूट्स की आठ दस मुट्ठियाँ बैग के हवाले कर देते हैं। वही चबा रहे हैं अभी। बस में पूरा समय यही बस एक काम है।

बस स्टॉप से कुछ दूर तक पैदल और ये आ गया दफ़्तर। भार्गव बाबू की टेबल वैसी ही साफ़ सुथरी है जैसी वे कल छोड़ कर गये थे। जाते समय अलग-अलग दराज़ों में फाइलें जमा कर रख कर जाते हैं वे। किस फाइल का पैसा आ गया है, किसका आधा आया है, किसका नहीं आया है और किसका आएगा भी नहीं। नहीं वाले मामलों से उनको घोर चिड़ है। पिछले महीने वे अपनी सगे साले से कोई काग़ज़ बनवा कर देने के पाँच सौ ले चुके हैं। साले को कहा 'ऊपर तो देने पड़ते हैं' और साहब को कहा 'साले का काम है...'। मगर फिर भी नहीं वाले सिफारिशी मामले आ ही जाते हैं। साढ़े दस बज चुके हैं। काम का समय हो चुका है। भार्गव बाबू का काम ठीक समय पर ही शुरू होता है। बैग को टेबल के नीचे एक कोने में रख कर वे कुर्सी पर जम गये हैं। झुक कर दराज़ से फाइलें निकाल कर टेबल पर रख रहे हैं। वे फाइलें जिनकी दान दक्षिणा का काम पूरा हो चुका है। जिनका अधूरा है या हुआ ही नहीं है वे वहीं रहेंगी दराज़ में। अब वे ऊपर की दराज़ खोल कर सामान निकाल रहे हैं रजिस्टर, पेंसिल, पिन होल्डर आदि आदि।

'बाबूजी मेरा कारड...' भार्गव बाबू को कुर्सी पर जमते देख एक आ गया और आकर अपना सवाल प्रस्तुत कर दिया। उन्होंने हिकारत के साथ उसकी तरफ़ देखा और कुछ अनुप्रासों के साथ बोले 'क्यों गोंई, रात में क्या इधर ही बिस्तर लगा के सो गये थे। सुबह हुई नहीं कि आन ठाड़े हुए माथे पर ...' आने वाला वाक्य में प्रयुक्त गालियों के बोझ से दबा 'हें हें-हें हें' करने लगा। 'चाय लाऊँ बाबूजी?' उसने एक बार फिर कोशिश की। 'अच्छा? अब हमारे पास यही रह गया है कि तुम्हारी चाय पीएँ?' भार्गव बाबू वैसे तो दिन भर चाय पीते ही नहीं लेकिन उनको रिश्वत का कोई भी दूसरा भौतिक संस्करण वैसे भी बिल्कुल पसंद नहीं है। वे ऐसी किसी भी पेशकश को मिलते ही ख़ारिज कर देते हैं, एकाध मोची वाले केस के अपवादों को छोड़कर। उनका ऐसा मानना है कि पाँच रुपल्ली की चाय पिला कर आदमी पाँच सौ देने के बजाय सीधा तीन सौ पर आ जाता है। चाय पीने वाले कभी समझ भी नहीं पाते कि पाँच रुपये की चाय ने दो सौ का नुक़सान कर दिया है। 'क्या मेरे मोड़े से मोड़ी ब्याहनी है तुझे जो चाय पिला रहा है? हाँ?' ऐसे किसी भी प्रयास में भार्गव बाबू एकदम तल्ख हो जाते हैं। विनम्रता ओढ़ी नहीं कि जेब कटी, ये दुनिया घूम-घूम कर विनम्र लोगों को ढूँढती है और उनको मूर्ख बनाती है। हालांकि भार्गव बाबू 'मूर्ख' के स्थान पर एक दूसरा शब्द उपयोग करते हैं। 'अब गोंई तुम ज़रा घूम कर तो आओ, हमें ज़रा काम काज समझ लेने दो, भुनसारे से आकर छाती पर मूँग मत दलो।' भार्गव बाबू जान गये हैं कि आज ये पैसे लेकर आया है, तभी चाय पिलाने की बात कर रहा है। प्रत्यक्ष में इसीलिये कुछ बेरुखी दर्शा रहे हैं।

आदमी सकुचाया हुआ वहीं खड़ा है। उसका हाथ जेब में चला गया है जहाँ से कुछ निकालते-निकालते वह बार-बार रुक रहा है। 'वो...ये...मैं...' आदमी ने जेब से हाथ को बाहर निकाल अनकहा-सा कुछ कहा। भार्गव बाबू ने हाथ में पकड़ी हुई गाँधी जी की छवियों को देखा और अनुमान से जान लिया कि पूरे हैं। 'लाओ' उल्टे हाथ को आगे बढ़ा कर उसकी चारों उँगलियों को अंदर बाहर करते हुए इशारा किया। भार्गव बाबू हमेशा उल्टे हाथ से ही रिश्वत लेते हैं, उनका मानना है कि ईश्वर ने सारे ग़लत काम करने के लिये उल्टा हाथ बनाया है। आदमी ने अपने हाथ को उनके हाथ पर खाली कर दिया। भार्गव बाबू ने अपने हाथ को पैर के पास रखे बैग की आगे की जेब में ख़ाली कर दिया। भार्गव बाबू का पूरा काम 'खुल्ला खेल फ़रुक्काबादी' है, जब हर शाम साहब के कक्ष में जाकर हिसाब के साथ उनका हिस्सा देते हैं तो किससे डरें? 'जाओ अब लंच बाद आना, कार्ड ले जाना।' आदमी चला गया हाथ जोड़ कर। भार्गव बाबू ने उसकी फाइल को भी दराज से निकाल कर टेबल वाली फाइलों में रख दिया। अब वे फाइलों में जल्दी-जल्दी नोटिंग वगैरह कर रहे हैं। इतने व्यस्त हैं कि सिर भी ऊपर नहीं कर रहे हैं। यदि देवतागण इस दृश्य को देख लें तो तुरंत बादलों के किनारे पर खड़े होकर फूल बरसाने लगें। कितना कर्त्तव्य पारायण जीव है ये। घड़ी की सुइयाँ सरक रही हैं, भार्गव बाबू काम में लगे हैं। दूसरे सेक्शन के लोग भी आने लगे हैं, दफ़्तर धीरे-धीरे हलचल से भर रहा है। साढ़े ग्यारह बज गये हैं। साहब आ गये हैं। भार्गव बाबू कुर्सी से उठ कर खड़े हो गये हैं नमस्कार करने के लिये। साहब अंदर चले गये हैं। अब भार्गव बाबू को 'टिंग-टाँग' की प्रतीक्षा है। इस प्रतीक्षा में वे फाइलों पर जल्दी-जल्दी काम कर रहे हैं। दस पन्द्रह मिनट बाद 'टिंग-टाँग' हुई। भार्गव बाबू सचेत हो गये। चपरासी ने उधर से ही इशारा किया साहब बुला रहे हैं। भार्गव बाबू सारी फाइलों को समेट चल पड़े।

'कितनी फाइलें हैं?' साहब व्यस्त दिखने का प्रयास कर रहे हैं। भार्गव बाबू को पता है कि ये केवल प्रयास ही है, हक़ीक़त में वे ऑफिस में उतने ही व्यस्त हो सकते हैं जितने भार्गव बाबू चाहें। 'पच्चीस फाइलें हैं, पन्द्रह तो प्रमाण पत्र के लिये हैं और दस लाइसेंस की हैं और बाक़ी ये पाँच।' भार्गव बाबू का स्वर मुलायम हो चुका है। अदब से भरी मुलामियत। मुलायिमत जो मुलाजिमत की सबसे आवश्यक शर्त है। 'ये पाँच...?' साहब की भृकुटियाँ कुछ ऊपर की और खसक गईं हैं। 'जी ये जन सेवा खाते में हैं, दो मंत्रीजी के पहचान वाले हैं, दो बड़े साहब के हैं और एक के लिये बाई साहब जी का फ़ोन आया था।' बाई साहब जी मतलब साहब की धर्मपत्नी। साहब पत्नी का नाम आते ही धीमे से मुस्कुराये 'हूँ हूँ...जनसेवा खाता...'। भार्गव बाबू सकपका गये 'नहीं वह बाई जी साहब वाला नहीं, वह तो...'। 'लाइये लाइये दिखाइये फाइलें...' साहब ने भार्गव बाबू को असहज होते हुए देखा तो बोले।

साहब के साथ भी भार्गव बाबू का एक अजीब-सा रिश्ता है। बिल्कुल साफ़ हिसाब किताब का। भार्गव बाबू ने हर साहब के साथ यही रिश्ता रखा है। जानते हैं कि साहब गिनता जाता है कि वह कितनी फाइलों पर साइन कर रहा है। दो प्रमाण पत्र, तीन लाइसेंस, चार स्वीकृति पत्र। मतलब पाँच सौ प्लस तीन हज़ार प्लस दो हज़ार, कुल जमा पाँच हज़ार पाँच सौ। जैसे ही साहब के हिसाब के ठीक अनुरूप राशि हाथ में धरी, साहब हुए मुरीद। जनसेवा खाते के काम इसीलिये वे अलग से गिना देते हैं, ताकि साहब उसे जोड़ में शामिल न करें। भार्गव बाबू जानते हैं कि ऊपर से भले ही कोई साहब ये दिखाये कि उसे कोई परवाह नहीं है कितनी फाइलें साइन हो रही हैं, किन्तु, अंदर ही अंदर सब गिनते हैं। भार्गव बाबू की सबसे बड़ी सफलता यही है कि वह साहब की गिनती को कभी भी ग़लत नहीं होने देते। 'ये रामचरण वाले मामले में तो हमने पहले आपत्ती लगा दी थी न?' साहब ने एक फाइल पर नाम देख कर क़लम रोक दी। 'जी सर मगर वह अब एनओसी ले आया है, ये लगी है पीछे।' भार्गव बाबू ने फाइल के पीछे लगा एक काग़ज़ खोल कर दिखाया। साहब संतुष्ट हो गये साइन कर दिया। 'आज मैं लंच के बाद नहीं आऊँगा, कुछ काम है। जो काम है सब लंच से पहले करवा लेना।' मतलब ये कि पैसों का हिसाब भी लंच से पहले कर देना। साहबों की बातों के दूसरे अर्थ भार्गव बाबू ख़ूब जानते हैं। उन्हें कोई चिंता नहीं है क्योंकि वे सारा काम कैश में ही करते हैं। जिस फाइल का पूरा पैमेंट आ न गया हो उसे साहब के सामने पेश ही नहीं करते हैं। पेश करने का मतलब है साहब की गिनती में आ जाना।

साहब एक बार पूरी फाइल को देखते हैं, साथ के सारे डाक्यूमेंट्स चैक करते हैं और फिर भार्गव बाबू की ऊँगली जहाँ रखा जाती है वहाँ-वहाँ साइन कर देते हैं। यह एक धीमी प्रक्रिया है। भार्गव बाबू इस दौरान कुर्सी लेकर बैठते नहीं है। साहब के ठीक बाजू में खड़े रहते हैं। उनके अनुसार सदाशयता दिखाने के लिये साहब लोग भले ही कह देते हैं कि बैठ जाइये, मगर हक़ीक़त ये है कि साहब लोगों को पसंद रहता है उनका अधीनस्थ उनके सामने बैठे नहीं। इसलिये वे कभी नहीं बैठते, घंटे-घंटे भर खड़े रहते हैं। इस दौरान यदि साहब ने दो बार चाय मँगा कर पी ली है और भार्गव बाबू से भी पीने का पूछ लिया तो वे उसके लिये भी विनम्रता पूर्वक एसीडिटी का बहाना बना कर टाल देते हैं। किसी साहब के साथ चाय नहीं पी है उन्होंने। सुबह घर पर चाय पीने के बाद दिन भर चाय नहीं पीने का नियम बनाया ही इसलिये है। उनकी सिद्धांत पुस्तक में ये भी लिखा है कि कोई साहब ये पसंद नहीं करता कि उसका अधीनस्थ उसके साथ में चाय पिये। भार्गव बाबू अपनी इस सिद्धांत पुस्तक के हिसाब से ही चलते हैं और आज तक कभी भी फेल नहीं हुए हैं। साहबों के साथ एक विशिष्ट दूरी बना कर रखने की कला वे जानते हैं।

फाइलें साइन होने के बाद भार्गव बाबू तुरंत बाहर आ गये हैं। अब वे अपनी कुसी पर वापस बैठ गये हैं, जहाँ अब कुछ भीड़-सी हो रही है। 'आप सब लोग लंच के बाद आइये... अभी ज़रा साहब के साथ मीटिंग है।' भार्गव बाबू ने सबको हाथ से इशारा करते हुए कहा। 'लंच से पहले कोई काम नहीं होगा, यहाँ भीड़ बढ़ाने से कोई मतलब नहीं है, साहब देखेंगे तो नाराज़ होंगे।' साहब की नाराज़ी से सब डरते हैं, फाइल तो उनने ही साइन करनी है। सब चले गये। डेढ़ बज रहे हैं, मतलब ये कि साहब बस उठने में ही हैं। भार्गव बाबू ने बैग खोला उसमें से एक पैकेट निकाला, टेबल पर रखी एक फाइल उठाई और साहब के कमरे की तरफ़ बढ़ गये। साहब कम्प्यूटर पर कुछ कर रहे हैं। भार्गव बाबू ने फाइल ले जा कर टेबल पर रख दी 'जी ये एक फाइल रह गई थी।' साहब ने खुली हुई फाइल को चैक किया और साइन कर दिये। भार्गव बाबू ने धीरे से साथ में लाया पैकेट साहब के उस ब्रीफकेस में रख दिया जो टेबल पर खुला हुआ रखा रहता है। इस प्रकार की साहब रखते हुए देख भी लें और असहज भी न हों। भार्गव बाबू की ये अपनी ही कला है, जानते हैं कि भ्रष्ट से भ्रष्ट अधिकारी भी रिश्वत में पैसे लेते समय असहज हो जाता है। भार्गव बाबू अपने अधिकारी को कभी असहज नहीं होने देते। अधिकारी 'रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई... ' की तरह सहज बना रहता है। जाने कब, कौन, ब्रीफकेस में नोटों का पैकेट रख गया, पता ही नहीं चला।

अब भार्गव बाबू वापस अपनी कुर्सी पर आ गये हैं। साहब कुछ ही देर में अपने कक्ष से निकले और धड़धड़ाते हुए चले गये। वैसे तो लंच का समय डेढ़ बजे है लेकिन आज पौने दो बज गये हैं। भार्गव बाबू ने अपना टिफिन और पानी की बोतलें निकाल ली हैं। अब कोई उनको डिस्टर्ब नहीं कर सकता। टेबल पर एक पुराना अख़बार बिछा कर दस्तरख़ान सजा लिया है। सुरजने की फलियों और आलू की झोलदार सब्ज़ी, हरी मिर्च के तड़के वाली दाल, मूँगफली-लहसुन की चटनी, तीन रोटियाँ और चावल। भार्गव बाबू मगन हो कर खाना खा रहे हैं। सुरजने की फली का टुकड़ा उठाते हैं और उसे एक सिरे से पकड़ कर दाँतों से पूरा चूस डालते हैं। भोजन उनके लिये एक राग है, ताल है, लय है। भोजन समाप्त होने तक समय दो से कुछ ऊपर हो गया है। लोग आने लगे हैं लेकिन दूर खड़े भोजन की समाप्ति की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

सवा दो बजे गये हैं। भार्गव बाबू हाथ-वाथ धोकर, टेबल को साफ़ करके अब तैयार हो चुके हैं दूसरी पारी के लिये। 'ले ले जा तेरा कार्ड, उठ भुनसारे से आर कर-कर रहा है मेरे में।' कार्ड प्राप्त करने वाला भार्गव बाबू की तल्ख मुखमुद्रा के बाद भी कृतकृत्य होता चला गया है। 'साहब तो कर ही नहीं रहे थे, कह रहे थे काग़ज़ पूरे नहीं हैं। कैसे करवाया मैं ही जानता हूँ। लो ले जाओ और हाँ इसकी आठ दस फोटो कॉपी करवा लेना, ओरिजनल को सँभाल कर रखना, नहीं तो फिर हमारे माथे पर आन ठाड़े हो जाओगे डुप्लीकेट कॉपी के लिये।' स्वीकृति पत्र लेने आई महिला के साथ आये लड़के को झिड़की वाले अंदाज़ में समझा रहे हैं। ये भी उनकी अपनी स्टाइल है। पैसे लिये तो काम करने के लिये हैं, कोई हराम के नहीं लिये जो किसी के दबे-बँधे रहें। ज़रा-सी मीठी आवाज़, नरम टोन में बात की तो सामने वाले माथे पर चढ़ जायेगा, ये सोच कर कि रिश्वत ले ली है इसलिये नरम हो रहे हैं। जिससे रिश्वत ले लेते हैं उससे हमेशा डाँट डपट वाले अंदाज़ में ही बात करते हैं। किसी का मोबाइल कॉल आ गया है अपने काम के लिये 'गोंई अब तुम ऐसा करो की अपनी फाइल वापस ले जाओ, कल साहब आएँगे तो उनके पास सीधे जाकर करवा लेना। कल काग़ज़ जमा करे हैं और आज सिर पर मच-मच कर रहे हैं।' अब पूरा समय भार्गव बाबू के इन्हीं कड़वे प्रवचनों से ऑफिस को गूँजना है कुछ प्रवचन सामने खड़े हुए बंदे को तो कुछ मोबाइल करने वाले को। 'सुनो गोंई तुमने पैसे दिये हैं अपनी सुविधा के लिये। काम जल्दी करवाने के लिये। कौन कह रहा है पैसे दो। वह लिखा है उधर बोर्ड पर कि लाइसेंस देने की समय सीमा एक माह है। आवेदन कर दो, अगर सब काग़ज़ पत्तर ठीक हुए तो एक महीने में तो हमें देना ही है लाइसेंस। मगर आपका तो वोइ है कि गेड़े पर लगी बरात और दूल्हे को लगी।' पैसे देने वाले को जताते रहते हैं कि तूने पैसे देकर हमपे कोई एहसान नहीं किया।

'आपसे तीन दिन पहले कही थी कि माताजी के दस्ख़त करवा के एनओसी दे जाना, वह तो आज ला रहे हैं और ऊँची आवाज़ में बातें कर रहे हैं। गेल में हगें और आँखें दिखाएँ।' चार बजते-बजते भार्गव बाबू की बातचीत में कहावतें आने लगती हैं। फिर किसी का मोबाइल पर कॉल आ गया है 'आज तो बड़े बाबूजी-बाबूजी कह के बुला रहे हैं, उस दिन तो मुख्यमंत्री से शिकायत करने की धमकी दे रहे थे। तनक में समधन, समधन-सी और तनक में समधन कुतिया सी।' इन सब कहावतों के बीच गालियों का अनुप्रास आ आकर वाक्य के सौंदर्य में इस प्रकार से श्रीवृद्धि कर रहा है कि यदि कोई भाषा विज्ञानी इन वाक्यों को सुन ले तो अश-अश कर उठे। 'गोंई तुमने आज काग़ज़ दिये हैं और आज ही पूछ रहे हैं कि कब तक हो जायेगा काम। उधर जाओ पहले आवक बाबू के पास से इसकी आवक करवा लाओ। नहीं कहीं कुछ नहीं देना है, जाओ उनको दे दो बस।' इस ऑफिस में भार्गव बाबू के अलावा कहीं कोई रिश्वत नहीं लेता है। यहाँ एकल खिड़की व्यवस्था है। 'आपको उस दिन साहब के पास भेजा था कि थोड़ा रो देना, घिघिया देना तो उसमें तो आपको शरम आ रही थी अब यहाँ मेरे सामने टसुए बहा रहे हैं। ओने गाऊँ, कोने गाऊँ, भरी सभा में नाक कटाऊँ। उस दिन साहब के सामने रो गा देते तो हमको भी सपोर्ट हो जाता बात रखने का।' धीरे-धीरे घड़ी की सुइयाँ सरक रही हैं और भार्गव बाबू के वाक्यों की तल्ख़ी भी बढ़ती जा रही है। कुछ नई-नई गालियाँ भी आ रही हैं। 'गोंई अब एक काम करते हैं कि पोस्ट ऑफिस जाकर रसीदी टिकट भी हम ही ले आते हैं, हिनहिनाए हैं तो लीद भी हमी को करनी है।' फाइल निकालना, काग़ज़ देना और पावती लेना सब काम भार्गव बाबू इस प्रकार करते हैं मानो विष्णु की तरह चतुर्भुज हो गये हैं और इस दौरान अलग-अलग लोगों से अलग-अलग विषय पर ब्रह्मा की तरह चतुर्मुख होकर बात करते हैं। 'बहन जी आपसे कहा था कि आप ख़ुद मत आना किसी बच्चे को भेज देना काग़ज़ लेकर। लाइये दीजिये काग़ज़ और अब कल शाम को बच्चे को भेज दीजियेगा कार्ड लेने।' साढ़े पाँच से ऊपर हो चुके हैं, अब भार्गव बाबू काम को समेटने में लग गये हैं। भीड़ भी लगभग छँट गई है। काम करवाने वाले लोग काम के साथ-साथ गालियों का परशाद भी लेकर जा चुके हैं।

अब उनके हाथ तेज़ी के साथ चल रहे हैं। टेबल लगभग साफ़ सुथरी हो चुकी है। फाइलें वरीयता के अनुसार दराजों में जमा कर ताला लगाते जा रहे हैं। सील, स्टेपलर, पेंसिल सब दराज में समाते जा रहे हैं वापस। छः बजने में पाँच मिनट पर टेबल ठीक उसी प्रकार साफ़ सुथरी हो चुकी है जैसी सुबह थी। कहीं कोई भी काग़ज़ या अन्य चीज़ अब टेबल पर नहीं है। 'विनय, दिवाकर, मोहन, भागीरथ ऽऽऽ' , चारों एक-एक करके आए और अपना-अपना हिस्सा भार्गव बाबू से प्राप्त करके चले गये। आख़िर में चपरासी भागीरथ आया और अपना हिस्सा लेकर गया। साहब के हिसाब की ही तरह इस हिसाब किताब में भी भार्गव बाबू पूरे ईमानदार हैं, किसी को निगने की भी ज़रूरत नहीं होती पैसे। न आज तक किसीने पूछा है कितने हैं।

भार्गव बाबू अब वापस सड़क पर हैं। बैग में से एक कपड़े का ख़ाली झोला निकाल कर हाथ में ले लिया है। सब्ज़ी वाले की दुकान पर आ खड़े हुए हैं। 'क्यों रे कल तो तू कह रहा था एकदम अच्छी तुरई है, पूरी कड़वी निकली, मैं ही मिलता हूँ चूना लगाने के लिये।' सब्ज़ी वाले लड़के को उनके सब्ज़ी ख़रीदने के दौरान क़रीब तीस चालिस गालियाँ तो खानी ही हैं। उसकी क़िस्मत से अगर कोई महिला आ गई तो ही गालियाँ बंद होनी हैं। 'आज अगर कुछ ख़राब निकल गया तो तीन जूते लगाऊँगा कल आकर।' सब्ज़ी वाले के बाद अगला पड़ाव किराने वाला है। 'लो गोंई ये हज़ार रुपये और जमा कर लो हिसाब में और एक शेविंग क्रीम, पाव भर जीरा और एक हींग की डिबिया दे दो।' भार्गव बाबू एक तारीख़ को महीने भर का किराना ले जाते हैं और बीस तारीख़ से पहले थोड़ा-थोड़ा करके पूरा हिसाब कर जाते हैं। तनख़्वाह जस की तस बैंक में जमा रहती है। केले का ठेला देखकर कर रुक गये हैं, बुँदकी वाले पके केले उनकी कमज़ोरी हैं। कपड़े के झोले में अब सब्ज़ी और किराने के साथ एक दर्जन केले भी रखा गये हैं। चलते-चलते अचानक ठिठक गये हैं, अम्मा की दवाई लेनी हैं।

सात बजे गये हैं अब भार्गव बाबू बस में बैठे हैं। बैग में हाथ डाल कर फिर अपना ड्राइ फ्रूटिया चुरगम निकाल लिया है। आँखें बंद करके उसको चुगल रहे हैं। चेहरे पर थकान अभी भी नहीं है। अचानक कुछ याद आया तो मोबाइल पर कर रहे हैं 'हाँ गोंई चीनू, हैप्पी बड्डे गोंई। ऐसा करियो जब इधर आओ तो घर ज़रूर अइयो, बढ़िया हज़ार रुपये की शर्ट दिलवानी है तुमको।' चीनू भार्गव बाबू के भानेज हैं। इन्जीनियरिंग कॉलेज में पढ़ते हैं। भार्गव बाबू सबको इसी प्रकार मोबाइल पर ही गिफ़्ट देते हैं। इन गिफ़्टों को मोबाइल पर ही लोग लेते हैं और मोबाइल पर ही भूल जाते हैं। कोई घर आ भी गया तो भार्गव बाबू तो मिलने नहीं हैं, वह तो दिन भर दफ़्तर में रहते हैं। आठ बजे घर का स्टॉप आया है। लौटते में बस कुछ घूम कर आती है सो अधिक समय लगाती है। अब रास्ते का कोई काम नहीं है सीधे ही घर जाना है। कंधे पर बैग और हाथ में सामान का झोला टाँगे सधे क़दमों से घर की तरफ़ लौट रहे हैं भार्गव बाबू।

सवा आठ बज रहे हैं अब आज के दिन में बस डेढ़-पौने दो घंटे शेष हैं, क्योंकि पौने दस-दस तक भार्गव बाबू सो जाते हैं। आते ही कपड़े वगैरह उतार कर रात वाली पोशाक पट्टे की चड्डी और बनियान में आ गये हैं और सीधे 'लेट' में घुस गये हैं। इस बार 'लेट' से संतुष्ट चेहरे के साथ बाहर आये हैं और अब 'बाथ' में हैं। समय हाथों से फिसलता जा रहा है। दिन की रेत के अंतिम कण गिर रहे हैं। तरोताज़ा होकर अब बाहर के कमरे में हैं भार्गव बाबू। टीवी चालू कर दिया है। अब केवल एक घंटा शेष है। दुनिया जहान की सूचनाएँ समाचार चैनल से आ रही हैं, भार्गव बाबू की ऊँघ के चलते सब गड्ड-मड्ड हो रही हैं। 'खाना' पत्नी की आवाज़ से ऊँघ टूट गई। सुबह जिस स्थान पर नाश्ता किया था अब वहाँ खाने की थाली रखी है। पिसी हुई पालक की सब्ज़ी, खड़े मूँग की सूखी सब्ज़ी, हरी चटनी, कटे हुए टमाटर-प्याज़, साबुत हरी मिर्च, बिर्रे की रोटी और गुड़-घी। भार्गव बाबू की थाली से गाँव अभी भी विदा नहीं हुआ है। अब ये भोजन आने वाले पूरे एक घंटे तक चलेगा। बीच-बीच में रोटी लाती हुई पत्नी सूचनाएँ भी देती जायेगी। 'टीनी (बेटी) का फ़ोन आया था कह रही थी कँवर साब आ रहे हैं इस तरफ़ अगले महीने, मैंने कह दिया कि वह आ रहे हैं तो तू भी आ जा। कह रही थी पूछ कर बताऊँगी उनसे।' बिर्रे की रोटी को पालक में मीस लिया है भार्गव बाबू ने और अब उसको खाने का आनंद ले रहे हैं। बीच-बीच में गुड़ भी खाते जाते हैं। या कभी-कभी मिर्च को उठाकर कुतर लेते हैं। 'विपक्ष ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर तीखे तेवर अपनाते हुए कहा है कि गुड्डू (बेटा) गया था रोज़गार दफ़्तर में पंजीयन करवाने, वहाँ तीन सौ रुपये ऊपर से माँग रहे हैं।' ये टीवी और पत्नी की दो सूचनाएँ थीं जो गड्ड-मड्ड हो गईं हैं। एक ही बड़े कौर में मूँग की सब्ज़ी की बड़ी मात्रा को मुँह में रखकर उसे सेट करने की कोशिश में लगे हैं भार्गव बाबू। 'चीनू जी को बर्थडे विश करने के लिये कॉल किया था जीजी कह रही थीं कि अगर गैस की टंकी पर बढ़ाये गये दाम तुरंत वापस नहीं लिये गये तो वे सरकार से समर्थन वापस ले लेंगी।' एक बार फिर से दो सूचनाएँ गड्ड-मड्ड हो गईं हैं। भार्गव बाबू बिर्रे की रोटी को गुड़ घी में मीस कर चूरमा बनाने में जुटे हैं।

भोजन पूरा हो चुका है। टेबल से थाली हट चुकी है। अब वहाँ दूध का गिलास, प्लेट में दो केले और एक आसव और एक पुष्पी की शीशी रखा गईं हैं। भार्गव बाबू एक कौर केले में से काटते हैं और फिर एक घूँट दूध पीते हैं। 'बीनू आए थे अम्मा की दवा लेने मैंने कह दिया कि कल आ जाना आज तो अमेरिका ने पाकिस्तान पर द्रोण हमले तेज़ कर दिये हैं।' नींद की ख़ुमारी में सूचनाएँ छिछल-बिछल हो रही हैं। कहाँ से आ रही हैं किसमें मिल रही हैं कुछ पता नहीं चल रहा है। साढ़े नौ बजे भार्गव बाबू ने आसव का सेवन किया और स्टूल साफ़ हो गया है। अब वहाँ एक प्लेट में दवाएँ रखी हैं दो टेबलेट एक केप्सूल। बहुत बुरा मुँह बनाते हुए भार्गव बाबू ने उनको भी निकल लिया। अब वे दीवार से टिक कर टीवी देख रहे हैं 'बिग बॉस के नये सीज़न में...श्रीलंका के प्रधनमंत्री कल आएँगे...भारतीय क्रिकेट टीम ने...जंतर मंतर पर प्रदर्शन किया...सलमान खान की आने वाली फ़िल्म में...पूरा का पूरा विपक्ष भाग लेगा...' सूचनाएँ-सूचनाएँ सूचनाएँ, भार्गव बाबू गर्दन झुकाए ऊँघ रहे हैं। सुइयाँ पौने दस पर आ गईं हैं। 'सो जाइये' पत्नी की तेज़ आवाज़ से जागते हैं। रिमोट से टीवी बंद कर देते हैं और 'बाथ' की ओर बढ़ गये हैं। घड़ी में दस बजने को हैं, भार्गव बाबू बिस्तर में हैं। नींद बहुत तेज़ी के साथ अपनी गिरफ़्त में ले रही है। पट्टे की चड्डी और छेदों वाली बनियान पहना शरीर धीरे-धीरे खर्राटे छोड़ कर नींद का एलान कर रहा है। दस बज गये हैं, भार्गव बाबू सो चुके हैं।