आसमां पर है खुदा और जमीं पर हम / जयप्रकाश चौकसे

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आसमां पर है खुदा और जमीं पर हम
प्रकाशन तिथि :23 नवम्बर 2014


त्रिशा गुप्ता 'पी.के' के आकलन में स्पष्ट करती हैं कि राजकुमार हीरानी की फिल्म ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती नहीं देती। वे भली-भांति जानते हैं कि अनगिनत लोग जीवन के असमान युद्ध में निहत्थे हैं आैर केवल उनकी आस्था उन्हें सहारा देती है। मनुष्य द्वारा ईश्वर की खोज या उनकी आस्था इस फिल्म के कटघरे में नहीं खड़ी है वरन ईश्वर के नाम पर व्यवसाय करने वालों की आलोचना भी इस कदर हास्य रस में सरोबार करके रची है कि जिन पर व्यंग्य किया जा रहा है, वे मुस्कुराए बिना नहीं रहते। राजकुमार हीरानी आैर अभिजात जोशी शरद जोशी या हरिशंकर परसाई की तरह तिलमिला देने वाली चोट नहीं करते वरन श्री लाल शुक्ल के 'राग दरबारी' की तरह आपको गुदगुदाते हुए सोचने पर भी मजबूर करते हैं। वे के.पी. सक्सेेना आैर काका हाथरसी की तरह आपको हंसा रहे हैं। हीरानी आैर जोशी अपने व्यक्तिगत संशय को दबा देते हैं आैर अपनी कथा को विश्वसनीयता इतनी कलात्मकता से देते हैं कि आप फिल्म से आत्मीय तादात्म्य बिना लेते हैं। उनके अन्य ग्रह से आए नायक का अपने ग्रह से संचार का यंत्र चोरी चला गया है आैर चोर का ट्रांजिस्टर उसके हाथ लग गया है जिसकी पहुंच सीमित है आैर वह अपने घर वापसी का कोई संदेश नहीं भेज सकता। उसके सरल प्रश्नों के उत्तर में सारे 'कन्फ्यूजाए' लोग कहते हैं कि 'भगवान जाने', अत:, वह भगवान की मूर्ति खरीदता है जिनकी अलग-अलग साइज उसे चौंकाती है। ज्ञातव्य है कि मोहम्मद साहब ने इस्लाम में मूर्ति पूजा केवल इसलिए वर्जित की कि अलग साइज खरीदने वाले की आर्थिक हैसियत से जुड़ती है कि अमीर बड़ी मूर्ति खरीदे आैर गरीब छोटी। समानता के आधार सिद्धांत को इससे हानि हो सकती थी। अब दुर्भाग्य से इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ दिया गया है आैर उसकी अच्छाई पर भी परदा पड़ गया है। सारे धर्मों में सत्य की साधना समान है।

बहरहाल हीरानी का नायक मूर्ति से भूख शांत करने की प्रार्थना करता है आैर मंदिर के बाहर भीख मांगने वालों की कतार में बैठा है तो उसे भोजन मिल जाता है परंतु जब कुछ आैर के लिए प्रार्थना करता है तब पूरी होने पर दुकानदार से कहता है कि इसकी 'बैटरी' बदलो। हीरानी कोई छोटी सी बात भी अधूरी नहीं छोड़ते। क्लाइमैक्स में नायक अपने उपग्रह पर धरती से ढेरों बैटरीज ले जा रहा है क्योंकि उसे अपने ट्रांजिस्टर कम टेप पर नायिका की आवाज ताउम्र सुननी है। प्रेम-कथा में इस तरह वे कसक पैदा करते हैं।

उपग्रह से आए नायक की नजर से हीरानी हमें मनुष्यों की विसंगतियां आैर जीवन के विरोधाभास दिखा रहे हैं। वह 'नायक' हमारे लिए अजीब है तो हम उसके लिए अजनबी हैं। वह महसूस करता है कि मूल मुद्दों पर चिंता नहीं करते हुए हम साध्य की जगह साधनों में उलझे हैं। यहां तक कि पोशाक से मनुष्य की पहचान तय करते हैं। याद आता है राजकपूर की 'श्री 420' का संवाद "खा गई कपड़ों से धोखा, इंसान कपड़े पहनता है, कपड़े इंसान को नहीं आेढ़ते, बिछाते या पहनते हैं।" हमने सत्य जैसी सरल चीज को कितना दुरूह बना दिया है।

बहरहाल 'हीरानी' चोर से मिले ट्रांजिस्टर का इस्तेमाल कई जगह करते हैं। रेलवे स्टेशन पर आतंकवादियों के धमाके में अपने पहले मित्र भैरों को वह खो देता है आैर उसके साथ आए 'चोर' की भी मृत्यु हो जाती है जिस कारण वह टेलीविजन पर संवाद हार सकता है। ट्रांजिस्टर नीचे गिरता है आैर उस पर साहिर लुधियानवी का लिखा 'फिर सुबह होगी' का गीत बजता है जो इस फिल्म का थीम सांग भी हम मान सकते हैं। जरा गीत पर गौर फरमाएं- "आसमां पर है खुदा आैर जमीं पर हम, आजकल वो इस तरफ देखता है कम, आजकल किसी को वो टोकता नहीं, चाहे कुछ भी कीजिए रोकता नहीं, हो रही है लूट मार, फट रहें हैं बम, किसके भेजे वह यहां खाक हाथ थामने, इस तमाम भीड़ का हाल जानने, आदमी हैं अनगिनत, देखता है कम, जो भी वो ठीक है फिक्र क्यों करें, हम ही सब जहां की फिक्र क्यों करें, जब उसे ही गम नहीं हमें क्यों हो गम, आसमां पर है खुदा आैर जमीं पर हम।" इस महान गीत की धुन खय्याम साहब ने हीं बनाई है जिनकी अपार प्रतिभा के साथ कभी न्याय नहीं हुआ।

त्रिशा गुप्ता सही फरमाती है कि हमने अपने आपको बांटने के लिए कितने निरर्थक कायदे कानून बना लिए हैं। 'पी.के' के नायक के पान से सने आेंठ मुस्कुरा रहे हैं आैर उसके सारे हास्य व्यंग्य का लाइमलाइट मनुष्य पर है, वह हम पर ंस रहा है आैर हम उस पर- बस यही है हीरानी का संसार जिसे जाने वह किस उपग्रह से हमारे लिए लाता है