आसमान अपना आँगन / अभिमन्यु अनत / पृष्ठ 1

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एक

वह रोज देखता था उन उफनती, दहाड़ती लहरों को।

वह रोज देखता था उन शांत, अडिग काली चट्टानों को।

कभी वह अपने को उन लहरों की तरह महसूसता और कभी उसे ऐसा एहसास होता कि वह भी चट्टान ही तो था। लहरों के अपने संकल्प थे, चट्टानों के अपने प्रण थे और उसमें तो उन दोनों के वे प्रण और संकल्प—दोनों मौजूद थे। ठीक लहरों की तरह वह भी जीवन भर यही चाहता था कि अपने सामने की हर दीवार पर वह प्रहार करता रहे—करता रहे जब तक कि वे सारी दीवारें चकनाचूर होकर उसका रास्ता न छोड़ दें। चट्टानों की तरह उसने हमेशा अपने को अडिग और अखंडित बनाए रखने की चेष्टा की थी। लेकिन जिस तरह लहरें चट्टानों से टकरा-टकरा फेनिल टुकड़ों में या तो बिखर जाती थीं या फिर लौट जाती थीं मझधार को, ठीक उसी तरह नए सिरे से शक्ति अर्जित करके वह भी कई बार टूटा और कई बार जहाँ से यात्रा शुरू की थी वहीं लौटता भी रहा था। चट्टानों की ही तरह वह ज्वार-भाटों से अपने को जहाँ खंडित होने से बचाता रहा वहीं लहरों के प्रण को तोड़ने की असफलता का भी एहसास करता था।

इधर स्थायी रूप से वह समुद्र किनारे के इस बँगले में रह रहा था जिसका नाम उसने पहले तो ‘नशेमन’ रखा था, पर बाद में बदलकर ‘आशियाना’ कर दिया था। अर्थ भले एक ही था, पर उसे लगा था कि ‘नशेमन’ को ‘आशियाना’ में बदल देने से घर का—और उसके आँगन का पूरा नक्शा ही बदल गया था। बँगले का इन दोनों नामों से पहले भी एक नाम था—उस पहले मालिक का दिया हुआ, जिसने उसे बनाया था और वह नाम फ्रेंच में था—‘मेजों इव्र’—नशीला घर। उसने उस नाम पट्ट को बँगले के आगे से उस समय हटाया जब उसे अपना स्थायी निवास तय कर लिया था। वह दस महीनों से अधिक ‘मेजों इव्र’ में नहीं रहा था और उससे आधी अवधि ही ‘नशेमन’ में रहा था। अब तो कोई चार वर्ष होने को थे, जब से वह ‘आशियाना’ में रह रहा था। पाँच वर्षों से अधिक समय से वह हर शाम पश्चिमी क्षितिज पर सूरज को अस्त होते देखता आ रहा था। बँगला द्वीप के जिस इलाके में था वहाँ सूर्योदय देख पाना तो असंभव था; पर उसने तो जब भी सूरज को डूबते हुए देखा था तो इस भावना के साथ कि वह कल उगने वाले सूरज को ओझल होते देख रहा था। कुछ ही दूरी पर मुनमुन अपने छोटे पगों से बालू पर के जहाँ-तहाँ के पत्थरों पर उछल-कूद कर रही थी।

हंस का जन्म अंग्रेजों के राज्य में हुआ था; इसलिए उसके जन्मपत्र पर उसका जो नाम लिखा हुआ था उसे उसने अपना नाम कभी माना ही नहीं था। उसे बताया गया था कि उसकी माँ ने हिंदी के किसी कवि के नाम पर उसका नाम लिखवाया था; पर ब्रिटिश साम्राज्य के सिविल स्टेट्स क्लर्क ने उसका नाम ‘हरिवंश’ न लिख कर ‘हरा बाँस’ लिख डाला था। उसने अपनी बड़ी बहन से यह सुन रखा था कि उन दिनों लोग अपने बच्चों को असली नाम से नहीं पुकारते थे। डरते थे कि कहीं कोई डायन या ओझा उस असली नाम पर जादू-टोना न चला दे। इसलिए सभी लोग उसे उसी नाम से पुकारते थे जिस नाम से उसे उसकी माँ पुकरती थी। वह अपनी फ्रेंच रचनाएँ भी ‘हंस’ नाम से ही लिखता था। वह केवल उसका पिता था जिसने उसे हमेशा ‘हरिवंश’ कहकर पुकारा था। अपनी पहली कविता उसने ‘हंस’ नाम से लिखी थी और अपनी पहली पेंटिंग पर भी उसने यही हस्ताक्षर रखा था। वह अपने पहले कविता-संग्रह की अंतिम कविता को पूरा करने में लगा हुआ था, जब नंदिनी की पहली चिट्ठी उसे मिली थी। वह उसके अपने पाँचवें पत्र का पहला उत्तर था और पत्र के अंतिम वाक्य को हंस ने अपने पहले संग्रह का नाम दे दिया था। उसकी अपनी लिखी छह पुस्तकों के बीच ‘वह पहली और अंतिम चिट्ठी’ आज भी दीवार के तख्ते पर सबसे पहले स्थान पर थी।

आज कोई दो घंटे पहले शोभा के द्वारा परोसे खाने को खा चुकने के बाद जब वह अपने नए चित्र को अधूरा छोड़कर पहले से अधूरी छूटी कविता को पूरा करने बैठा था कि तभी नंदिनी का फोन आ गया था—कई साल बाद। नंदिनी का पहला फोन।

उसे विश्वास नहीं हुआ था। उसका अपना नंबर डायरेक्टरी में नहीं था, इसलिए उसे हैरानी भी हुई थी और वह पूछ बैठा था, ‘‘तुम्हें मेरा फोन नंबर किसने दिया ?’

उत्तर में उधर से प्रश्न आया था, ‘क्या बताना जरूरी है ?’

इस समय समुद्र के सामने चट्टानों पर खड़ा वह खुद चट्टान की सी स्थिरता के साथ दो घँटे पहले की पाँच-सात मिनटों की फोन पर की उस बात के बारे में सोचे जा रहा था। वह चट्टानों के बाच की एक चौड़ी-चपटी चट्टान पर खड़ा था। आगे कोई तीस फीट तक जो चट्टानें थीं उनसे टकरा-टकराकर लहरें कराहती हुई छितरा रही थीं। वह सूर्यास्त को निरखने के लिए खड़ा नहीं था; क्योंकि क्षितिज पर लालिमा फैलने में दो-ढाई घंटे बाकी थे। सामने—कुछ भीतर, समंदर जहाँ शांत था वहाँ—पानी की हरियाली विविधता लिये हुए थी। उसके बाद जहाँ प्रवाल रेखा थी वहाँ के ज्वार-भाटे उसके अपने पास की लहरों से कई गुना अधिक विद्रोही थे। एक अकेली नाव बादबान (पाल) ताने दक्षिण की ओर कोई मील भर के रेतीले तट की ओर तेजी से लपक रही थी। उसकी नजर सामने अपने बँगले की बालकनी पर पहुँची, जहाँ शोभा अपनी सफेद साड़ी में अटारी की सफाई करती दिखाई पड़ी क्षण भर के लिए उसे नंदिनी की याद जाती रही और वह सोभा के बारे में सोचने लगा।

हंस के कानों में लहरों की आवाज और हवा की जोरदार साँय-साँय के साथ नंदिनी की आवाज की अनुगूँज फिर से आ गई। वह कहाँ से बोली थी, इसकी भी जानकारी उसने नहीं दी थी और न ही अपनी उस घबराहट का कारण हंस को बता सकी थी। अगर मुनमुन बालू पर दौड़ती हुई उसके आगे न आ जाती तो हंस खयालों में खोया रह जाता।

कल रात शोभा के घर लौटने से पहले ही हंस ने उससे कह दिया था सुबह वह उसे आते ही जगा दे, जिसका मतलब था—सुबह छह से पहले। यही कारण था कि सोभा रोजाना की अपेक्षा पंद्रह मिनट पहले ही बँगले पर पहुँच आई थी। अपने पास की दोहरी चाभी से उसने मुख्य दरवाजा खोला। अपने साथ लाए दूध के पात्र को हाथ में थामे वह सीधे रसोई में पहुँचने की आदी थी; पर इस बार वह दूध को सामने मेज पर रख कर सीधे ऊपर पहुँची। गलियारे की बत्ती जलाई और हंस के कमरे के सामने पहुँचकर उसने दरवाजे पर दस्तक दी।

एक बार, दो बार, तीसरी बार पर जाकर भीतर से उनींदी आवाज आई, ‘‘व्ही किसानला सा ?’’

‘‘मैं हूँ। छह बजने को हैं।’’

‘‘ठीक है। मैं नहाकर सिर्फ चाय ही पीयूँगा, नाश्ता मत तैयार करना। साढ़े छह बजे मुझे घर से निकल जाना है।’’ शोभा रसोई में आ गई। उसने पहले चाय बनाई और जल्दी-जल्दी आलू के पकौड़े तैयार करने में लगी हुई थी कि हंस अपनी कमीज के ऊपरी बटन को लगाते हुए भीतर आ गया।

पकौड़े की गंध पाकर वह बोला, ‘‘नहीं, मैं पकौड़े नहीं लूँगा, मुझे केवल चाय दे दो।’’

तब तक शोभा पकौड़े को कड़ाही से निकाल कर प्लेट में रख चुकी थी। मेज पर रखते हुए वह बोली, ‘‘पता नहीं, आप कब तक बाहर रहें। पेट में कुछ तो होना चाहिए। चाय तैयार होते-होते आप खा लेंगे।’’ यह कहकर शोभा ने केतली से कप में चाय उड़ेली, फिर दूध के बाद शक्कर मिलाने लगी।

हंस ने प्लेट से एक पकौड़ा उठाया और उसका एक टुकड़ा मुँह में पहुँचाने के बाद कहा,

‘‘दो सप्ताह हो गए, मैं ‘प्रीतिराज’ नहीं गया। वैसे भी आज वहाँ दो नई परिचारिकाओं की भरती होनी है। कल शाम मैनेजर ने फोन पर कहा था कि मेरा वहाँ होना बहुत जरूरी है।’’

हंस के सामने चाय रखने के बाद शोभा ने धीमें स्वर में पूछा, ‘‘प्रीतिराज’ ?’’

हंस ने अपने मुँह के टुकड़े को भीतर पहुँचाने के बाद उस छोटे से प्रश्न का उत्तर दिया,

‘‘अरे हाँ, तुम्हें नर्सिंग होम का नाम नहीं बताया। बात यह है कि मेरी माँ कि इच्छा थी कि मेरे पिता विकलांग बच्चों के लिए एक नर्सिंग होम बनवाएँ। मैंने अपनी माँ की इच्छा पूरी करने के लिए अपने दो घरों में एक घर को ही नर्सिंग होम में परिवर्तित कर दिया। मेरी माँ का नाम प्रीतिदेवी लछमन था और पिता का नाम राजवंत रामटहल। मैंने अपनी माँ के पहले नाम से ‘प्रीति’ लिया और पिता के नाम से पहले ‘राज’—इस तरह नर्सिंग होम का नाम ‘प्रीतिराज’ हो गया। किसी दिन तुम्हें दिखाने ले चलूँगा।’’

‘‘मुनमुन बता रही थी कि बहुत बच्चे हैं वहाँ।’’

‘‘पिछले साल नब्बे बच्चे थे। इनमें न देख पानेवाले और कुछ बच्चे शारीरिक एवं मानसिक कमजोरी लिए हुए भी हैं। इस समय मैं सोचता हूँ, संख्या सौ से ज्यादा हो गई होगी।’’

‘‘तब तो बहुत खर्च आता होगा।’’

‘‘जिनके पैसे ये हैं, वे तो खर्च करने के लिए रहे ही नहीं। उनके नाम पर खर्च करके यह सोच लेता हूँ कि वे लोग मेरे साथ हैं।’’

हंस ने एक दीर्घ श्वास लिया और एक पकौड़े को उठाकर उसे प्लेट में ही इधर उधर करते हुए शोभा को बिना देखे कहा, ‘‘खासकर जब मैं उस घर के विस्तृत प्रांगण में होता हूँ, जहाँ हम एक साथ रहे, तो अब उनकी उपस्थिति का एहसास मुझे जीनेका बल देता है।’’

शोभा की आँखें एकाएक सजल हो गईं थीं; पर वह उन डबडबा आए आँसुओं को बहने से रोके रही। बाकी पकौड़ों को प्लेट में ही छोड़कर हंस चाय का कप हाथ में लिये खड़ा हो गया।

चाय गरम थी, फिर भी उसने दो लम्बी चुस्कियाँ लीं। चाय का कप उठाने के पहले से ही सूझ आई बात को उसने शोभा के सामने रखना चाहा, ‘शोभा, मैं...मैं तुम्हारी तश्वीर बनाना चाहता हूँ। ऐसी तस्वीर जिसमें कोई अपनी आँखों के छलछला आए आँसुओं को छलकने से रोक कर मुस्कराती रहे।’ पर चाह कर भी नहीं रख पाया।

शोभा ने जल्दी से जूठी प्लेट को उठाकर वॉश-बेसिन में रख दिया। हंस को एक मिनट से ज्यादा लगा कप को खाली करने में। उसके हाथ से खाली कप लेते समय शोभा ने उसके कंधे पर से एक बाल को चुटकी से पकड़ कर खिड़की से बाहर फेंक दिया।

रामोतार सुबह का अखबार लिये आ गया। हंस ने उसके हाथ से अखबार लेकर जल्दी-जल्दी सुर्खियां देखीं और मेज पर रख दिया।

यह ‘आशियाना’ में शोभा और मुनमुन के प्रवेश के चंद दिन पहले बीती घटना थी।

लाल सूरज अपनी किरणों को समेटकर नीले आसमान और अधभूरे-अधसफेदी लिये बादलों के टुकड़ों पर सिंदूरी और गुलाबी छाप को छोड़े जा रहा प्रतीत हो रहा था हंस इधर जब से ‘आशियाना’ को अपना बसेरा बनाए हुए था, हर शाम सूरज को विभिन्न रंग-सज्जा में धरती के इस हिंद महासागर-भाग से विदाई लेते देखता आ रहा था। उसने बहुत कम अवसरों पर सूर्योदय देखा था। ग्राँ-बे के जिस स्थान पर उसका अपना बँगला था वहाँ से पश्चिमी क्षितिज पर डूबता सूरज तो वह देख पाता था, पर सुबह के सूरज को वह तब ही देख पाता था जब वह पेड़ों और इमारतों के ऊपर पहुंच जाता था। उसे अपना सूरज उस पूर्वी सूरज से हमेशा अधिक प्रिय लगा था।

‘आशियाना’ के सामने की काली चट्टानों पर बॉबी उसकी बगल में बैठा हुआ था। कभी-कभी अपनी जगह से उठकर तितलियों और चिड़ियों को फुदकती पाकर वह उन तक दौड़ जाता था और फिर लौट आता था अपने मालिक के पास। हंस कभी-कभार उसे इस तरह देखता रहता, गोया वह उसकी उन बातों के एक-एक शब्द को समझ लेता था। हंस ने सूरज को ओझल हो जाने दिया, उसके बाद बॉबी की ओर देखा और बोला था, ‘‘बॉबी, मैंने तुम्हें कभी नहीं बताया न कि मैं एक फरार आदमी हूँ। मुझे जिस चारदीवारी के भीतर होना चाहिए था, मैं वहाँ न होकर इधर भाग आया हूँ। जिन पिछले सारे लोगों से मैं जुड़ा हुआ था उन सभी से अपने को रिहा करके मैं इस इलाके में आ गया था। उस कैद से भागकर चाहा था कि अपने सारे अतीत को भुला दूँ और यहाँ के एकांत में आगे के जीवन को बसर करूँ; पर कितना कठिन होता है बीते हुए कैदी जीवन को भुलाना !’

बॉबी उसे देखता रह गया था। कभी पूंछ हिला जाता और कभी हंस के हाथ पर जीभ फेर जाता। हंस को लगता कि उसके जिस एकाकीपन को कोई नहीं समझ पाया, उसे उसका यह प्यारा कुत्ता समझता था। उसकी पूरी-की-पूरी खुली मिलाकर हंस ने आगे कहा था, ‘उस अतीत से मुक्त होकर भी मैं अब इधर अपने आपको जैसे कैद में पाने लगा हूँ। और यह कैद तो कभी-कभी उस पहली कैद से भी अधिक कष्टदायी लगती है। मैं यह तो नहीं जान पाया कभी कि कोई गुनाह करने के बाद सलाखों के पीछे की वह कैद की यातना कैसी होती है, पर मुझे नहीं लगता कि मानसिक तौर पर वह मेरी कैद से अधिक पीड़ा लिये हो सकती है। हाँ, बॉबी, एक बात जरूर है। मेरी उस कल की जिंदगी और आज की इस जिंदगी में एक अंतर अवश्य है। कल मैं स्वयं अपना ही कैदी था और आज एक फरार जीव हूँ, जो अपने में कैदी होने के एहसास को बहुत अधिक कम हुए नहीं पा रहा। कल तक मेरी सारी धन-दौलत, जमीन-जायदाद मुझे एक बोझ सी प्रतीत होती रही थी, आज कम-से-कम उस अकुलाहट से अपनो को बचा तो पाया हूँ।’

बॉबी ने अपने सिर को ऊपर-नीचे हिला दिया था। हंस ने उसके सिर पर हाथ फेर कर उसे बताया था कि एक वही तो है जो उसको समझ लेता है।

‘बॉबी, अगर अनवर चाचा प्रीतिराज नर्सिंग होम के लिए मेरे हौसले नहीं बढ़ाते तो मैं आज भी धन को व्यवसाय का साधन माने उसके बोझ से दबा रहता। ‘प्रीतिराज नर्सिंग होम ने मुझे यह सिखा दिया कि जमीन-जायदाद से प्राप्त धन को जरूरतमंदों के हित में लगाकर सही सुख, सही आनंद की अनुभूति की जा सकती है। आज मैं कुछ करके खुश तो जरूर हूँ, लेकिन यह खुशी कई बार अधूरी सी लगती है। तुम मेरे अकेलेपन की कड़वाहट को थोड़ा-बहुत कम कर जाते हो, लेकिन...’ वह सोच उठा कि इससे आगे वह बॉबी को और क्या बताए। उसने बस कह दिया था, ‘कुछ ऐसी बाते हैं जो तुम नहीं समझ पाओगे, बॉबी।’

बॉबी ने जैसेकि बात समझ ली हो—सिर हिलाकर हामी भर दी थी।

देखते-ही-देखते सूरज डूब गया था।


और यही वह दृश्य था जिससे हंस के अपने भीतर का विश्वास कभी डूबा नहीं। वह अपने से कहता, ‘और तब तक उसकी आस्था बनी रहेगी जब तक सूरज डूबकर उगता रहेगा।’

कुछ ही देर में धुँधलके के बाद अँधेरा छाने लगा था। बॉबी ने ‘आशियाना’ की ओर देखा था, फिर हंस की ओर—और भौंक पड़ा था। उस संकेत को समझकर हंस ने ‘आशियाना’ की ओर देखा था, जो अँधेरे में डूब रहा था। वह उठा और बॉबी के साथ घर में रोशनी लाने के लिए आगे बढ़ गया था।