आस्था और कर्तव्य : काम की ईमानदारी / जयप्रकाश चौकसे

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आस्था और कर्तव्य : काम की ईमानदारी
प्रकाशन तिथि :08 जून 2015


अभी तक विज्ञान ने अनेक क्षेत्रों से अंधेरा हटा दिया है परंतु अभी भी अनेक क्षेत्रों में अंधकार कायम है। इसके साथ यह भी सच है कि अंधेरे के अभ्यस्त अनेक लोग प्रकाश आने के बाद भी उस पर पूरी तरह यकीन नहीं करते। अनेक क्षेत्रों में अभी अलसभोर है गोयाकि चम्पई अंधेरा और सुरमई रोशनी मिल रही हैं। महान कवि रवींद्रनाथ टैगोर ध्यानस्थ होकर दिवंगत लोगों की आत्मा का आह्वान करते थे, जिसे प्लेनचैट कहा जाता है और आत्माओं से बात करते थे। इसी तरह एक बार सत्यजीत रॉय के दिवंगत बुजुर्ग की आत्मा ने उन्हें कहा कि युवा सत्यजीत राय को शांति निकेतन में अध्ययन के लिए बुलाएं और गुरु रवींद्रनाथ टैगोर ने अगले ही दिन सत्यजीत राय को शांति निकेतन बुला लिया। सत्यजीत राय की अपु ट्रायोलॉजी की विश्व व्यापी सफलता के बाद उनसे पूछा गया कि वे उपरोक्त बात में यकीन करते हैं? उन्होंने कहा कि गुरु रवींद्रनाथ टैगोर कई दिवगंत आत्माओं से तादात्म्य स्थापित करते थे, अत: कैसे यकीन न करें कि मेरे बुजुर्ग के आग्रह पर उन्हें शांति निकेतन बुलाया गया। दरअसल, स्वप्न में दिवगंत को देखना और प्लेनचैट में जागते हुए आत्मा का आह्वान, दो अलग-अलग बाते हैं। सपने हमारे अवचेतन का आईना होते हैं और उनका विधिवत अध्ययन किया जा रहा हैं परंतु आत्मा का आह्वान तर्क से परे है और जो लोग यकीन करते हैं उनका भी कहना है कि ये प्रयोग हमेशा सफल नहीं होते। विज्ञान स्थापित प्रयोग दोहराए जाते हैं।

सत्यजीत राय की फिल्में तथार्थवादी हैं और तर्कसम्मत होने के साथ उनमें उच्चतम जीवन मूल्य रहे हैं। वे मनुष्य की करुणा के गायक हैं। अत: उनका प्लेनचैट पर यकीन थोड़ा अजीब-सा लगता है। दरअसल, गुरुदेव के प्रति उनकी श्रद्धा इतनी गहरी थी कि वे उनकी किसी बात पर विवाद नहीं करना चाहते थे परंतु सत्यजीत राय की निष्ठा अपने माध्यम पर इतनी गहरी थी कि उन्होंने 'चारूलता' के क्लाइमैक्स में परिवर्तन किया। उन्होंने गुरुदेव की एक कथा से प्रेरित फिल्म बनाई थी, जिसमें जमींदार अपने स्वप्न में देखता है कि उनकी बहू देवी का अवतार है। इसके बाद बहू को देवी की तरह पूजा जाने लगा और सहज स्वाभाविक जीवन से वह दूर कर दी गई और उनका पति के साथ भी रिश्ता पहले की तरह सामान्य नहीं रह पाया। वह बेचारी देवी की छवि ढोते-ढोते परेशान हो गई। इस फिल्म में भी जमींदार के स्वप्न दृश्य में उन्होंने बहु के माथे पर लगे गोल बड़े टीके को कुछ इस तरह से प्रस्तुत किया कि जमींदार को उसमें देवी दिखी। यहां गौरतलब यह है कि अपने सिनेमाई कर्तव्य के निर्वाह में सत्यजीत राय ने कोई कमी नहीं की। जमींदार के भ्रम को भी सिनेमाई विश्वसनीयता के दायरे में किया। अन्य निर्देशक के हाथ यह दृश्य 'साक्षात दर्शन' का हो जाता। एक तरफ सत्यजीत राय की गुरुदेव के प्रति आस्था और दूसरी तरफ उनका काम था, जिसमें उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। आम जीवन में प्राय: लोग अपनी व्यक्तिगत आस्था को अपने काम में घसीट लेते हैं और उनकी तर्कशक्ति शिथिल हो जाती है। कुछ कारोबारी ताकतों ने आस्था को भी ऐसा जुनून में बदल दिया कि मनुष्य तर्क तिरोहित करके अंधानुकरण करने लगता है। इस तरह मनुष्य भेड़ों में बदल जाते हैं और भेड़ियाधसान अत्यंत भयावह परिणाम देता है।

सभी लोग काम के महत्व को जानते हैं और जिन आख्यानों के बहाने मनुष्य को भेड़ों में बदला जाता है, वे भी कर्म की महानता की ही बात करते हैं। क्या मनुष्य को आस्था में डूबना, काम में डूबने से अधिक आसान लगता है? क्या आस्था में डूबना सुविधाजनक होता है? यह संभव है कि तर्क की तराजू पर तोलना कुछ असुविधाजनक लगता है और एकनिष्ट होकर अपने काम में डूबना कठिन है। यह इसलिए भी होता है कि हमें रुचियों के अनुरूप काम नहीं मिल पाता, हमें काम ढोना पड़ता है। इसी तरह अनचाहे रिश्तों मे बंधकर भी हम अपने जीवन को बोझ बना लेते हैं। हम सत्यजीत राय की तरह आस्था और काम का निर्वाह क्यों नहीं कर पाते? प्लेनचैट हो या आत्मा को बुलाने की जादूई-सी प्रक्रिया सभी हमारे अवचेतन के गढ़े हुए खेल हैं। अजूबे भी अवचेतन की तीव्र इच्छा का परिणाम हो सकते हैं। आस्था बनाम काम कोई विवाद नहीं परंतु काम में आस्था सीधा रास्ता है।