आस्था बनाम आस्था का व्यापार / जयप्रकाश चौकसे

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आस्था बनाम आस्था का व्यापार
प्रकाशन तिथि : 28 सितम्बर 2012


फिल्म 'ओह माय गॉड' का नायक कांजी मेहता धर्म के नाम पर चल रहे व्यापार की पोल खोल देता है और जब जनता धर्म के ठेकेदारों की पिटाई करना चाहती है, तब वह उन्हें रोककर इन ठेकेदारों को सुरक्षित जाने की अपील करता है। वह आम आदमी से कहता है कि इन झूठे आडंबरों की अवहेलना करें, उनकी 'दुकानें' बंद कर दें। सबसे बड़े मठाधीश मिथुन जाते समय कहते हैं कि धर्म एक अफीम है, इसकी लत आसानी से नहीं छूटती और कुछ ही समय बाद ये सब हमारी 'दुकानों' पर लौटेंगे, ये हजारों वर्ष पुरानी लत है। दरअसल इस अंतिम दृश्य में हम आस्था का आदर्श और आस्था के व्यापार की ताकत देखते हैं। मिथुन द्वारा बोला संवाद भारतीय सामूहिक अवचेतन का गहन क्लोज-अप है, उसका यथार्थ है। मनुष्य में आत्मविश्वास की कमी है और वह अपनी आस्था की खोट के कारण ही इन 'दुकानों' की ओर भागता है, जहां सुख, संतान, सफलता और स्वर्ग के 'पुडिय़ा' ताबीज बेचे जाते हैं और धर्मभीरु लोगों को न केवल 'नर्क' का भय दिखाया जाता है, वरन उसके तथाकथित श्रेणीकरण का भेद भी बताया जाता है, जिसे सुनकर लगता है कि नर्क पकौड़े तलने की 'दुकान' है।

'ओह माय गॉड' गुजराती और हिंदी में प्रस्तुत अत्यंत लोकप्रिय नाटक पर आधारित फिल्म है और फिल्मकार ने रंगमंच से फिल्म पर लाने की प्रक्रिया में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन किए हैं। उसकी सबसे बड़ी सफलता यह है कि 'राउडी राठौर' और 'तीस मार खां' को 'भगवान कृष्ण' के रूप में अत्यंत प्रभावोत्पादक और विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत किया है और वह इस अंतर को रेखांकित करता है कि 'वो करे तो रासलीला, हम करें तो कैरेक्टर ढीला।' इस फिल्म में 'लीला' मनोरंजक लगती है, क्योंकि खेल बदलकर कांजी बनाम कृष्ण हो जाता है। अक्षय कुमार ने इस फिल्म में बेहतरीन अभिनय किया है। परेश रावल तो इस फिल्म की केंद्रीय ऊर्जा हैं और मिथुन चक्रवर्ती ने अत्यंत कुशलता से ऐसे मठाधीश की भूमिका की है, जिसके सेक्सुअल रुझान अलग हैं और प्रशंसा की बात है कि इसके सूक्ष्म संकेत ऐसे बने हैं कि बात अश्लील नहीं लगती। इस तरह के अभिनय में हर मुद्रा को माप-तौलकर दर्शाना आसान काम नहीं था।

दरअसल यह हंसने-हंसाने वाली फिल्म राष्ट्रीय महत्व की गंभीर बात को मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत करती है। इस देश की अपार राष्ट्रीय ऊर्जा और संपत्ति को धर्म के नाम पर लूटा जा रहा है और यह सबसे बड़ा एवं भयावह भ्रष्टाचार है। जो स्वयंभू महान लोग विदेशों में छुपाए काले धन को वापस लाकर आम आदमी को करोड़पति बनाने का दावा कर रहे हैं, उन्हें कालेधन के सबसे बड़े व्यापार से भारत की संपत्ति को मुक्त कराना चाहिए, जिससे सचमुच में आम आदमी अपनी कड़ी मेहनत की कमाई का अपव्यय रोककर अमीर हो सकता है। तमाम ठियों पर जमा 'चढ़ावा' देश के बजट के लगभग बराबर है। सारी प्रगति इस जगह जाकर थम जाती है और राष्ट्रीय फिल्म का यही फ्रीज शॉट है - चलायमान होते हुए स्थिरता का आभास देना। खेल शताब्दियों पुराना और चतुराई से गढ़ा तमाशा है।

इस फिल्म की सहयोगी निर्माता अश्विनी यार्डी हैं, जिन्होंने 'कलर्स' चैनल पर वर्षों इस तरह के खेल रचे हैं। उन्होंने अत्यंत चतुराई से आधुनिकता से ओतप्रोत कृष्ण को केवल एक शॉट में उनकी लोकप्रिय छवि के साथ भी प्रस्तुत किया है। यह कार्य वैसा ही है, जैसे किसी ग्रंथ में एक वाक्य को इटैलिक्स में मुद्रित करना। यह मनोरंजक फिल्म किसी भी धर्म और आस्था के खिलाफ नहीं है, वरन आस्था को उसके आडंबर से मुक्त करके उसे अपने सच्चे रूप में ही स्थापित करती है। यह इस खेल में अपव्यय को अपराध की तरह प्रस्तुत करती है। दरअसल पूरी फिल्म अल्कोहल एनोनिमस क्लिनिक की तरह है, जिसमें आपको नशे से मुक्त कराने का उपचार चल रहा है।

गौरतलब यह है कि क्या मठाधीश मिथुन सही सिद्ध होंगे कि अफीम की इस लत से कोई मुक्ति नहीं या कांजी मेहता, जो इस व्यापार के खिलाफ सारे प्रमाण गीता, कुरान और बाइबिल से ही प्राप्त करता है? माला जपना और मंत्र को आत्मसात करने में अंतर है।