आस्वाद के अलग धरातल से प्रतिरोध की महीन आवाजें / राहुल सिंह
चाहे बात कहानियों के मार्फत की जाए या फिर कहानीकार के, योगेंद्र आहूजा इन दोनों दृष्टियों से किसी आलोचक को 'कंफर्ट जोन' से बाहर आने को विवश करते हैं। उसकी एक बड़ी वजह योगेंद्र आहूजा की कहानियों के एक नितांत अलग आस्वाद के होने से है, जिसके प्रति हमारे कहानीगत संस्कार अभ्यस्त नहीं हैं। इसलिए इस आस्वाद की बुनावट और उसके मूल में निहित आंकाक्षाओं को जानने की कोशिशों से, संभवतः इस दिशा में थोड़ी दूरी तय की जा सकती है। आमतौर पर हर कहानीकार अपने अनुभव जगत के कुछ हिस्सों के साथ कहानी की दुनिया में दाखिल होता आया है और योगेंद्र आहूजा भी इस लिहाज से अपवाद नहीं हैं। इसे उनकी 'सिनेमा-सिनेमा' और 'गलत' नामक शुरुआती दो कहानियों में स्पष्टतया देखा जा सकता है। लेकिन इन दो कहानियों में कुछ ऐसे बीज भी हैं जो योगेंद्र आहूजा की कहानियों में आगे चलकर विकसित होते हैं। मसलन योगेंद्र आहूजा की कहानियों में सिनेमा एक 'रेफरेन्स प्वाइंट' की तरह आता है। सिनेमा देश-काल के संकेतक के तौर पर व्यवहृत होता है। यथार्थ की बुनने में ब्यौरों की भूमिका आगे भी बदस्तूर जारी रहती है। भाषा कहानी और कविता के छोरों के बीच जो बहना शुरू करती है, तो आगे भी बहती चलती है। तो शुरुआत योगेंद्र आहूजा की इन दो कहानियों से ही करते हैं।
योगेंद्र आहूजा की आरंभिक कहानियों की कच्ची सामग्री भी उसी अनुभव जगत से आई है, जहाँ से अमूमन आया करती हैं, मतलब गम-ए-रोजगार और गम-ए-इश्क के इलाके से। 'सिनेमा-सिनेमा' एकरेखीय कथानकवाली कहानी है। यह कहानी अनुभव की गाँठों से बँधी स्मृतियों की पोटली सरीखी है। कहानी इन पंक्तियों के साथ खुलती है कि 'जिन पाँच-छह बरसों की यह कहानी है, उनमें महाद्वीपों में मरोड़ उठी थी।'(पृ 11, अँधेरे में हँसी, भारतीय ज्ञानपीठ)। योगेंद्र आहूजा की इस पहली कहानी में काल बोध को वैश्विक परिप्रेक्ष्य से जोड़ कर रखा गया है। बाकायदा मिखाईल गोर्बाचोव एक इतिहास पुरुष की तरह कहानी में आते हैं। पर कहानी व्यक्तिगत स्तर पर संतरण करती है। यदि कहानी में व्यक्त संकेतों के जरिए आप उस समय की शिनाख्त करना चाहें तो काफी मुश्किल पेश आती है और मिखाईल गोर्बाचोव आदि का आना बेजा जान पड़ता है। 'सिनेमा-सिनेमा' के ठीक बाद आई कहानी 'गलत' 1980-81 के दिनों की तो बात करती है पर शहर के नाम पर चुप्प लगा जाती है। 'सन 1980-81 के उन दिनों में इस शहर में जमीनों की कीमतें अचानक आकाश छूने लगी थीं।'(पृ 40, वही)। इस कहानी से भी उसके लोकेल का पता नहीं चलता है। इस बात पर इसलिए जोर दे रहा हूँ कि यथार्थपरक लगने के बावजूद इन दोनों कहानियों में अनुभूति और स्मृति का ही बोलबाला है। फर्क सिर्फ इतना है कि 'गलत' में अनुभूति और स्मृति के साथ विचार भी आ मिलता है। अनुभूति और स्मृति की फाँकों को विचारों से ढँकने की कोशिशें कहानी के 'पन' को नुकसान पहुँचाती हैं। योगेंद्र आहूजा के यहाँ ब्यौरा यथार्थ की निर्मिति का निर्णायक घटक है। पर बाजदफा ब्यौरों की अधिकता उसके गढ़े जाने की ओर भी संकेत करती है। संरचना के धरातल पर 'गलत', 'सिनेमा-सिनेमा' की तुलना में ज्यादा प्रौढ़ है। 'सिनेमा-सिनेमा' की एकरेखीय संरचनात्मक कथात्मकता की तुलना में 'गलत' में वृत्तीय संरचनात्मकता, कथात्मकता के धरातल पर ज्यादा प्रौढ़ जान पड़ती है। संरचनात्मक धरातल पर कहानी दो वृत्तों में संचरण करती है। एक अपेक्षाकृत लघु वृत्त है और दूसरा अपेक्षाकृत उससे बड़ा किंतु निर्णायक। कहानी का पहला फेरा एक मित्र मंडली के स्वप्न और संघर्ष के दिनों को सामने रखता है और कहानी का दूसरा फेरा पंद्रह साल के अंतराल के बाद एक चिट्ठी के बहाने उनके स्वप्नों और उनके विचलन को खँगालता है। सर्वेश्वर इन दो वृत्तों को जोड़नेवाली एक गुम हो चुकी कड़ी है। बहुत बारीकी से पढ़ने पर इस बात का बोध होता है कि सर्वेश्वर एक एक्टिविस्ट हो गया था और उसकी दयनीय मौत कहानी की सतह के काफी नीचे दबी है। ऊपर जबर्दस्त कोलाहल है। उसके दोस्त अपनी-अपनी जिंदगी में मस्त है। एक विचार या एक आदर्श की मौत की अनुगूँज एक कैरियरिस्ट-कैपेटिलिस्ट-अफार्चुनिस्ट-कंस्यूमरिस्ट समाज में अनसुनी रह जाती है, जो गलत है। सर्वेश्वर की मृत्यु के मान के निगलेजिबिल हो जाने से इस कहानी की संरचना की ओर बरबस ध्यान जाता है। यदि आप इस कहानी के विधागत साँचे का अतिक्रमण कर उसे अपनी कल्पना में सिनेमा के फार्म में रूपांतरित कर सके तो सर्वेश्वर के मृत्यु का वह अंडरटोन बहुत लाउड होकर उभरता है और उसकी ध्वन्यात्मकता अलग-अलग तरह से प्रतिध्वनित होती जान पड़ती है। एक एक्टिविस्ट की अननोटिस्ड रह गई जिंदगी और मौत किसी भी देश समाज के लिए 'गलत' ही कही जा सकती है। और यहाँ से योगेंद्र आहूजा के विकसित होते सरोकारों की ओर भी ध्यान जाता है।
इन दोनों कहानियों में कुछ और बातें भी हैं, जिसका विकास योगेंद्र आहूजा की परवर्ती कहानियों में देखा जा सकता है। इनमें सबसे उल्लेखनीय है - उनकी भाषा। उनके पास शुरू से ही एक सधी हुई भाषा है, जो कहानी के धरातल पर परिवेशगत यथार्थ को संप्रेषित कर पाने में सक्षम है। उनकी भाषा की एक विशेषता कहानियों को दृश्यों में गूँथ सकने की उनकी क्षमता है। जैसे - वे 'सिनेमा-सिनेमा' में लिखते हैं कि 'सिनेमा घर बहुत पुराना था, फिल्में भी पुरानी लगती थीं, और हाल की हवा में एक पुरानेपन की गंध तिरती रहती थी। पर्दा मटमैला, कुछ-कुछ झुलसा हुआ-सा था, कुर्सियाँ बदरंग और टूटी-फूटी, और दरवाजों के खुलने पर पीछे के पेशाबघर की एक मरती-सी बू दौड़ी आती थी।'(पृ 40, वही) भाषा की इस खूबी के साथ उनके यहाँ भाषिक अनुप्रयोग की एक कमी भी लगातार देखी जा सकती है और वह है कॉमा (,) के असंगत प्रयोग का। इसके अलावे भी भाषागत विन्यास की दो चूकें उनके यहाँ बराबर देखी जा सकती हैं। एक तीन डॉट्स (...) के बेजा बहुप्रयोग की और दूसरा कई बार यथाप्रसंग परिच्छेद के न बदले जाने की। हालाँकि इसकी ओर बहुत ध्यान नहीं जा पाता है, पर यह चीजें उनके लेखन में है। इन कमियों से इतर उनकी भाषा की एक दूसरी खूबी कहानी के बीच-बीच में काव्यात्मक भाषा के इस्तेमाल की है। जैसे - 'उस रात का चेहरा बनाया जाता तो वह बिल्ली जैसा होता, चेहरे पर शरारत लिए एक धूर्त और चालाक बिल्ली।', 'आसमान एक तेज, गर्म, लपलपाते चाकू की तरह तना रहता था।' (पृ 11, वही)
अपने कथ्य को संप्रेषित कर सकने में सक्षम-समर्थ भाषा के बावजूद बाद की उनकी कहानियों की संरचना और उनके लेखन का अलहदा ढंग कई बार अभिप्राय को सहजता से संप्रेषित नहीं कर पाता है। एक किस्म का धुँधलापन उनकी बाद की कहानियों में रह-रह कर महसूस होता है। यों तो इसे 'गलत' में भी एक हद तक देखा जा सकता है, पर 'एक पुरानी कहानी' में यह धुँधलापन ज्यादा गाढ़ा है। इसकी एक बड़ी वजह कहानी में या कहानी के समानांतर चलनेवाली अवांतर कहानियाँ हैं। इन अवांतर कहानियों के प्रति योगेंद्र आहूजा की संजीदगी के कारण, कई बार वे अवांतर नहीं जान पड़ती हैं। इस तरह उनकी बाद की कहानियाँ द्विध्रुवीय हो जाती हैं। इन मल्टीफोकल कहानियों के साथ सबसे बड़ी दिक्कत कहानी के नाभिक के पहचान की है। इसलिए योगेंद्र आहूजा की कहानियों की एक साथ अनेक व्याख्याएँ संभव है। क्योंकि यह इस पर निर्भर करता है कि आप किस सूत्र को ज्यादा महत्वपूर्ण मान रहे हैं। इसलिए उनकी कहानियों के संदर्भ में किसी नतीजे पर सहजता से नहीं पहुँचा जा सकता है और उनकी कहानियों के द्वारा पेश की गई इस चुनौती के कारण ही किसी आलोचक को उनकी कहानियों पर बात करने के लिए अपने 'कंफर्ट जोन' से बाहर आने की जरूरत बनती है।
'सिनेमा-सिनेमा' की वैयक्तिकता, 'गलत' की सामाजिकता को फलाँगते हुए 'एक पुरानी कहानी' में योगेंद्र फिर कहानी के संरचनागत धरातल पर एक नए प्रयोग के साथ दाखिल होते हैं। 'मुक्तिबोध पर श्री अशोक वाजपेयी के एक संस्मरण के कुछ अंशों के काल्पनिक पुनर्लेखन' पर आधारित यह कहानी फिर अपने शिल्प के कारण ठिठकाती है। कहानी 1942 में आरंभ होकर एक झटके में साल 1959 में दाखिल हो जाती है। दो कहानियाँ एक साथ चलती हैं, बीच-बीच में एक दूसरे से होकर गुजरती हुईं एक रामसहाय श्रीवास्तव और उसके गुमशुदा बेटे अवधेश की और दूसरी गजानन माधव मुक्तिबोध की। इन दोनों कहानियों को मुखबिरों की एक पीढ़ी जोड़ती है। कहानी के केंद्र में मुक्तिबोध हैं और परिधि में रामसहाय श्रीवास्तव। साथ-साथ चलती इन कहानियों का बीच-बीच में एक दूसरे से होकर गुजर जाना एक कहानी के अभीष्ठ को लेकर एक दुचित्तेपन को जन्म देता है। कहानीकार का मंतव्य कभी कहानी के केंद्र में तो कभी कहानी की परिधि में पसरा प्रतीत होता है। योगेंद्र आहूजा की कहानियों को लेकर निर्णयात्मक नहीं हुआ जा सकता है। यह छूट न तो वह अपने पाठकों को देते हैं और न आलोचकों को। शायद यही वजह है कि उन पर ईमानदारी से बात करने के बावजूद उनकी रचनाशीलता को लेकर विश्वास या दावे के साथ कुछ कहा नहीं जा सकता है। आखिर ऐसा क्यों होता है?
क्या यह योगेंद्र आहूजा के लेखन की समस्या है? या फिर इसकी कुछ और वजहें हैं? यहाँ से विचार की दो-तीन दिशाएँ फूटती हैं। एक कहन और उसके ढब की, दूसरे रचनात्मक रवैए की और तीसरे उसके संप्रेषण की। जहाँ तक कहन और उसके ढब का सवाल है तो इस लिहाज से योगेंद्र आहूजा की अपनी अदा है। जिसमें लगातार कथात्मक संरचना के धरातल पर कुछ नया करने की आकांक्षा है। इससे वे लगातार खुद का अतिक्रमण करते चलते हैं। दूसरा विषयगत वैविध्य का उनका आग्रह हर बार एक नए क्षेत्र में ले जाता है। तो एक साथ हर बार कंटेंट-कन्स्ट्रक्ट-कन्सर्न-क्राफ्ट के स्तर पर कुछ नया करने की चाहत उनके साथ-साथ, उनके पाठक और आलोचकों के लिए भी चुनौतीपूर्ण हो जाती है। चूँकि उनके पास अपने अभिप्रेय को व्यक्त करने लायक एक सक्षम-समर्थ भाषा है इसलिए संप्रेषण में आनेवाली समस्या के लिए भाषा कतई जिम्मेदार नहीं है। यह कुछ और ही है। इस संदर्भ में कुछेक सवाल महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि कहानी के बारे में वे खुद क्या सोचते हैं? मतलब एक विधा के बतौर कहानी से वे क्या चाहते हैं? कहानी को एक पाठक की किन जरूरतों को पूरा करना चाहिए? कुल मिलाकर कहें तो कहानी का उनका अपना परसेप्शन क्या है? वृहत्तर रूप से यह सवाल लेखकीय सरोकारों से जुड़ता है। उनकी कहानियों के बारे में यह बात काफी दिलचस्प है कि उनकी कहानियों से उनके लेखकीय सरोकारों का तो पता चलता है, पर फिर भी कहानियों में एक धुँधलापन बना रहता है। तो बात घूम फिर कर आती है एक रचनाकार की चाह और उसके सामर्थ्य की। अपने परसेप्शन या विजन को पन्नों पर बखूबी उतारना बहुत बड़ी बात है। और यह जरूरी नहीं कि हर बार इसमें कामयाबी हासिल हो। कई बार लिखने के दौरान बात बदल-बदल जाती है।
कहानी और कथानक में भेद करते हुए संभवतः नामवर सिंह ने बड़े मार्के की बात की थी कि कहानी 'क्या' का जवाब देती है और कथानक 'क्यों' का। योगेंद्र आहूजा की कहानियों में मोटे तौर पर इस 'क्या' का जवाब तो मिलता है, पर बहुत से 'क्यों' अनुत्तरित रह जाते हैं। इस धुँधलेपन के कारण संप्रेषण से लेकर अर्थ ग्रहण तक की समस्याएँ पैदा होती है। इसे उदाहरण के जरिए समझते हैं। जैसे 'गलत' कहानी को लें। कहानी में डिटेलिंग का काफी इस्तेमाल है। लेकिन उन ब्यौरों के बीच कई जरूरी सवाल अनुत्तरित हैं। खासकर सर्वेश्वर के आखिरी पंद्रह साल के बारे में निश्चित तौर पर ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता है। जबकि उसकी मौत ही पूरी कहानी में एक कंट्रास्ट पैदा करती है, एक सापेक्षता की गुंजाइश पैदा करती है, आत्मावलोकन के लिए जगह बनाती है। इसलिए कहानी में एक किस्म के अधूरेपन का बोध होता है। इस अधूरेपन का विस्तार 'एक पुरानी कहानी' में अवधेश की गुमशुदगी के संदर्भ में भी देखने को मिलता है। सर्वेश्वर की ट्रेन में मौत और अवधेश का ट्रेन से गुम हो जाना और फिर दोनों के पिताओं का लगभग मानसिक संतुलन खो देने में गजब की समरूपता है। 'गलत' की तुलना में 'एक पुरानी कहानी' में यह धुँधलका और गाढ़ा है, जिसको गहराने में संयोगों की गहरी भूमिका है। अवधेश कहानी की शुरुआत में लापता हो जाता है, जिस जासूस के कारण वह लापता हुआ है, उसका आत्मिक वंशज संयोग से कुछ सालों के बाद उसके पिता रामसहाय श्रीवास्तव के घर में बतौर किरायेदार रहने को आता है। और जब वह सेवापूर्व अवकाश ले रहा होता है, तो उसकी विरासत सँभालनेवाला भी उसी घर का किरायेदार हो जाता है। लेकिन अंत में जाकर यह ज्ञात होता है कि संयोगों की अधिकता बस संयोग भर थी। फिर मन में एक सवाल उठता है कि क्या अवधेश और उसके पिता रामसहाय श्रीवास्तव कहानी में नहीं आए होते तो भी कहानी की सेहत पर कोई खास असर पड़ता क्या? जवाब पाकर कोफ्त होती है। इसी से अनायास 'अँधेरे में हँसी' में सँवरू का गायब होना याद आता है। और फिर योगेंद्र आहूजा की कहानियों में अचानक से गुमशुदा लोगों की एक सूची सामने आ जाती है। 'सिनेमा-सिनेमा' में हरीश जया के साथ घर छोड़ कर भागता है, 'गलत' में सर्वेश्वर बिना बताए कहीं स्कूल में मास्टर होकर चला जाता है, 'एक पुरानी कहानी' में अवधेश' गायब हो जाता है, 'अँधेरे में हँसी' में सँवरू गायब हो जाता है। इस तरह से गुमशुदगी योगेंद्र आहूजा की इन कहानियों में एक साहित्यिक कौशल जैसी चीज बन कर उभरती है, जो कहानी में रोचकता को बनाए रखने का उपादान-सी लगती है। योगेंद्र आहूजा की इन कहानियों के आधार पर एक बात जो पुख्ता तौर पर कही जा सकती है वह यह कि वे कहानी में रोचकता को किसी भी सूरत में बनाए रखने के आग्रही हैं, इसलिए वे कहानियों की शुरुआत में एक जिज्ञासा या रहस्य के तत्व को प्रायः रख देते हैं। मसलन 'इस कहानी में मिखाईल गोर्बाचोव का क्या काम, आप यही सोच रहे हैं न? रुकिए थोड़ा-सा और।' ('सिनेमा-सिनेमा', वही, पृ 16), 'एक बहुत पुरानी कहानी है जो शुरुआत के पहले ही खत्म हो गई और अंत के बाद दुबारा शुरू। वह कहानी मुक्तिबोध के जले और झुलसे शब्दों में ही ठीक से कही जा सकती थी, मगर नहीं लिखी गई, क्योंकि सब कुछ लिखने की जिम्मेदारी अकेले मुक्तिबोध की नहीं थी।' ('एक पुरानी कहानी, वही, पृ 73), 'यह संवाद जिस व्यक्ति को संबोधित है, उसके बारे में आपको वक्त आने पर बताया जाएगा।' ('पाँच मिनट, पृ 92, पहल-86) इन कहानियों से इतर 'गलत', 'अँधेरे में हँसी', 'मर्सिया', 'कुश्ती' और 'खाना' आदि में जिज्ञासा और रहस्यमयता के घटकों को देखा जा सकता है।
'अँधेरे में हँसी', 'मर्सिया', 'कुश्ती', 'खाना' और 'पाँच मिनट' आदि कहानियों में जो एक बात सामान्य है, वह उनमें अंतर्निहित प्रतिरोध (इनहेरिट रेसिस्टेन्स) की चेतना है। इन पाँच कहानियों में योगेंद्र आहूजा की हाशिए के प्रति पक्षधरता को महसूस किया जा सकता है। इनमें व्यक्त अल्पसंख्यकों और निम्न जनों की चिंता को, बजाए किसी विमर्श के मार्फत समझने के, एक मनुष्य के बुनियादी मानवाधिकारों के आईने में देखना ज्यादा बेहतर जान पड़ता है। क्योंकि दलित विमर्श के संकुचित दायरे में वे समाते नहीं हैं और सबाल्टर्न चिंताओं की व्यापकता की को वे पूरा नहीं करते हैं। फासिज्म के किसी भी रूप को लेकर वे बहुत संवेदनशील हैं और उनकी शुरुआती कहानियों के साथ इन पाँच कहानियों में भी वह पूरी मुखरता के साथ मौजूद है। फासिज्म उनके लिए 'जीरो टोलरेन्स जोन' है। 'अँधेरे में हँसी' की पृष्ठभूमि में 1992 का वह धार्मिक उन्माद है। जिसने इस देश की संविधान, जो कि इसे एक समाजवादी लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष और गणतांत्रिक राज्य होने की कटिबद्धता ज्ञापित करता है, को झूठा साबित करता है। भारत के इतिहास के एक शर्मनाक लम्हें को कहानीकार इस रूप में दर्ज करता है कि उसके बाद इस देश में कई प्रकार की हँसियाँ खामोश हो गईं। इस धर्मनिरपेक्ष देश में हिंदू वक्त की आमद को योगेंद्र आहूजा बेहद मानीखेज ढंग से 'मर्सिया' में दर्ज करते हैं। ('दस बरस पहले जब गुजरात की रात में जलने और खून की गंध के बीच हिंदू समय की आमद हुई थी।' (वही, पृ 135) 'मर्सिया' हाल के दौर में लिखी गई उन चंद उम्दा हिंदी कहानियों में शुमार करने लायक है, जिसे उपलब्धि के बतौर गिनाया जा सकता है। सांप्रदायिक मानसिकता के प्रतिरोध के लिए कला के एक खास रूप का चुनाव और कहानी में उसकी संजीदा बुनावट काबिले तारिफ है। सांगीतिक पृष्ठभूमि पर लिखी, यह हिंदी में संभवतः अपने किस्म की अकेली कहानी है। कहानी इतिहास के पन्नों से उस सांस्कृतिक सामासिकता की शिनाख्त करती है, जिसकी जड़ें शताब्दियों गहरे धँसी हैं। और अक्सरहाँ बुरे वक्त में या हिंदू होते वक्त में वह उसी अतल गहराई से अपने लिए प्राणधारा खींचती है। प्रतिरोध की जो बारीकी या महीनी इस कहानी में है, वह बेजोड़ है। कथ्य, तथ्य, विषय, विचार, भाषा सबकी संरचनात्मक एकरूपता (स्ट्रक्चरल यूनिटी) इस पूरी कहानी को एक सुगठित इकाई में तब्दील कर देती है। 'मर्सिया' मेरी समझ में योगेंद्र आहूजा की एक उम्दा कहानी है।
'मर्सिया', 'खाना' और 'पाँच मिनट' में योगेंद्र आहूजा की पिछली और अन्य कहानियों की तुलना में इस अर्थ में अलहदा हैं कि इन कहानियों में वैचारिकता का आग्रह एक परिपक्व रूप में उभर कर आता है। इन कहानियों में अनुभूतियों की जगह पर विचार-तत्व की प्रधानता देखने को मिलती है। इन अलग-अलग थीम की कहानियों के केंद्र में विचार ही बार-बार प्रतिध्वनित होता है। योगेंद्र आहूजा ने विचार के तंतुओं को जिस सावधानी और कौशल के साथ इन कहानियों में पिरोया है, वे उन्हें बतौर कहानीकार एक अलग पहचान देता है। मौसिकी, खाना और वक्त के जरिए वे प्रतिरोध की एक नई इबारत को अंजाम देते हैं।
योगेंद्र आहूजा की कहानियाँ 'सिंगल रीडिंग' की कहानियाँ नहीं हैं, एकाध को छोड़कर। अपने धुँधलेपन के कारण वे कई पाठ की माँग करती हैं। इन कहानियों में व्याप्त एंबीग्युटी और कांपेलेक्स्टिी के कारण यह मास अपील पैदा नहीं करती हैं। लेकिन इनकी पठनीयता से इनकार नहीं किया जा सकता है। एक खास किस्म के आस्वाद के कारण इनकी कहानियों को चाहनेवालों की एक अलग जमात हो सकती है, पर हिंदी के परंपरागत कहानी के पाठकों की कहानीगत संवेदना योगेंद्र आहूजा की कहानियों के प्रति खुद को अभ्यस्त नहीं पाती है। यह ऐसा तथ्य है जिससे संभवतः योगेंद्र आहूजा अनजान नहीं हैं। 'खाना' कहानी में एक जगह रतनलाल के खत के बारे में माधव मुरमू अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखता है कि 'पत्र नहीं, यह एक कहानी है जिसे पत्र की तरह लिखा गया है। मगर पारंपरिक तरीके की सीधी-सादी कहानी नहीं, हिंदी की आधुनिक कहानियों की तरह जटिल और दुर्बोध जो कुछ ज्यादा धीरज और एकाग्रता चाहती हैं। यह कथा और निबंध - या 'विमर्श', जैसा इन दिनों कहने का चलन है - एक साथ होने की कोशिश करती है और इस कोशिश में कथा तत्व उसमें झीना हो जाता है। मगर वह उन्हें संबोधित नहीं जिन्हें कहानी में महज किस्से या मजे की कामना होती है। वह चाहती है कि उसे मजे के लिए नहीं, बल्कि पूरी गंभीरता से पढ़ा जाए, उसका एक-एक लफ्ज। इस वक्त की कहानी पर यह एक अज्ञानी और फिजूल इल्जाम होगा कि वह पूर्वज और अग्रज लेखकों की कहानियों की तरह नहीं है। इसका जवाब देने की जरूरत नहीं, इसलिए कि उन पूर्वजों ने अपने पूर्वजों की तरह नहीं लिखा था और अपने वक्त में ऐसे इल्जामों को अनसुना किया था। ध्यान आता है कि उन्हीं पूर्वजों में से एक, हिंदी के जनकवि ने यह विदग्ध वाक्य लिखा था कि 'बुजुर्गों को छाती पर नहीं, आरामकुर्सी पर बिठाना चाहिए।' (तद्भव-25, पृ 224)
योगेंद्र आहूजा की समस्त कहानियों पर तफ्सील से चर्चा करना यहाँ संभव नहीं है। इसलिए उनकी एक कहानी 'पाँच मिनट' के जरिए कुछ बातें रख रहा हूँ। कहानी के केंद्र में जो घड़ीसाज है उसकी जिंदगी को वह जिन संकेतों से भरते हैं, वह डिटेलिंग देखने लायक है। कहानी में बिखरे इन टुकड़ों को एक जगह रख रहा हूँ, जिससे उनकी भाषिक पकड़ पर थोड़ी रोशनी पड़ सके। 'घर में बहुत सारी घड़ियाँ थीं, सबकी सब खुट्टल, कंडम, रुकी हुई, बेकार, बमुश्किल एकाध को छोड़कर, जो किसी कोने में टिक-टिक किए जाती थी। एक कमरा पूरी तरह घड़ियों से भरा था, ऊबड़-खाबड़, गोल-चैकोर, छोटी-बड़ी, जनाना और मर्दाना हर तरह की, अधिकतर पुरानी लेकिन कुछ नई भी। पता नहीं, वे कब, कहाँ से हमारे घर आईं थीं। कुछ देशी और कुछ विदेशी। उनके पेंडुलम और पुर्जे फर्श पर लुढ़कते रहते थे, सुइयाँ इधर-उधर पड़ी रहती थीं। बहुत सी घड़ियों में मकड़ियाँ रहती थीं, उनके जाले दिखाई देते थे। वे हमारे बरतन थे और तकिए भी। उन्हीं को चौकी बनाकर नहा लेते थे। उन्हीं में से एक पर लालटेन रखकर देर रात तक मेरी बहन पढ़ती थी, आँखें बंद कर मन ही मन राम के, नदी के, वृक्ष के रूप याद करती थी... रामः रामौः रामाः, राम रामौ रामा - संस्कृत में वह इतनी तेज निकली थी, इतनी होशियार कि क्या बताऊँ, लेकिन बेवकूफ भी थी, समझती थी कि उसकी चौकोर दीवाल घड़ी का किसी को नहीं पता जिसमें वह देविंदर की खूशबूदार चिट्ठियाँ छुपाती है। ...लेकिन मेरी उस घड़ी का घर में किसी को नहीं पता था जिसमें मैं कभी-कभी कट्टे और छुरे छुपाता था। ...सिरहाने पर अलार्म घड़ी के खोल में उसके दाँत डूबे रहते थे। पानी उड़ जाता था, सूखी तली में दाँत गरमी में ऐंठ जाते थे। ...घड़ियों से भरे हुए घर में वक्त का अंदाजा लगाते हुए हम सोने की तैयारी करते थे। ...अँधेरे में ही उसने अपनी साड़ी ठीक की थी, बाल सँवारे थे और बाहर जाकर आँगन में लगे हैंड पंप को बिना आवाज किए, हौले हाथों से सिर्फ इतना चलाया था कि बस एक घड़ी, एक अलार्म घड़ी के खाली खोल के बराबर पानी निकल सके।' (पहल-86)
'पाँच मिनट' एक लंबे काल खंड की घटनाओं को एक क्रम में पिरोती है। उन घटनाओं का उनके देश काल के हिसाब से एक अर्थ ध्वनित होता है और अर्थो के कुछ स्फुलिंग उस काल खंड से छिटक कर बाहर भी गिरते हैं। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की पृष्ठभूमि से शुरू होकर कहानी द्वितीय विश्व युद्ध से होती हुई वापस स्वातंत्र्योत्तर भारत में लौटती है। इस लंबे काल खंड और कहानी के कई स्तरों पर संचरण के बावजूद योगेंद्र आहूजा की कहानियों के बारे में एक और गौरतलब बात यह है कि इनकी कहानियाँ अपने तईं लंबी होने के बावजूद कहीं से औपन्यासिक नहीं लगती हैं। इसकी गहराई में पैठें तो मालूम होता है कि इसकी बड़ी वजह उस विषय, विचार और थीम का योगेंद्र आहूजा के द्वारा किया गया दोहन है। मतलब यह कि कहानियाँ जिन विषयों या विचार को केंद्र में रखकर लिखी जाती हैं, उनकी संभावनाओं का पर्याप्त मात्रा में वे दोहन करते हैं। इससे एक ओर तो उनमें कुछेक अवांतर कथाओं का समावेश होता है और उनकी वजह से कहानी की लंबाई में इजाफा भी होता है। इन अवांतर कथाओं के कारण कहानी में कम से कम दो नाभिक तो होते ही हैं। कई बार इन अवांतर कथाओं की सीधी संबद्धता मुख्य कथानक से सहजता से लक्षित नहीं होती है और पाठक सिंगल रीडिंग में उनके अभिप्रेत तक नहीं पहुँच पाता है। (हमें याद रखना चाहिए कि एक कहानी को कई बार पढ़ने के लिए आलोचक तो अभिशप्त हो सकता है, पर पाठक नहीं।) दिलचस्प यह भी है कि उनकी पहली मैच्योर कहानी 'सिनेमा-सिनेमा' को दरकिनार कर दें तो एकरेखीय संरचनावाली उनकी 'कुश्ती' और 'इतने सारे शब्द' जैसी कहानियाँ उनकी अन्य कहानियों की बनिस्पत कमजोर जान पड़ती हैं।
'पाँच मिनट' के केंद्र में एक बेहद प्रतिभाशाली घड़ीसाज है। कहानी का एक अंश उसकी इस काबिलियत को संबोधित है। उसकी इस असाधारण प्रतिभा का कोई लाभ उसके परिवार को नहीं मिलता है। बल्कि उसके परिवार के टूटने-बिखरने-बिलखने की जो दास्तान है, वह त्रासद होने के साथ-विडंबनामूलक है। घड़ीसाज का बड़ा लड़का भानू गुरबत के दिनों में तीन-चार सौ रुपए के लोभ में नेपाल से तस्करी कर लाती इलेक्ट्रानिक घड़ियों के साथ अपने पहले प्रयास में ही पुलिस के हत्थे चढ़ जाता है। उसके बाद बात-बेबात पर बाजदफा उसका पकड़ा जाना। 'क्योंकि उन जैसों के लिए एक बार पकड़े जाने का मतलब है हमेशा पकड़े जाना।' उसकी बेटी मालती का रेलवे के तार बाबू बोहरा साहब के बड़े लड़के के प्रेम में पड़कर आत्महत्या करना। अपनी बहन की आत्महत्या के बदले में छोटे भाई की जिंदगी का खानाबदोश हो जाना और आजाद भारत में अपनी काबिलियत के कारण अपने सहकर्मियों की प्रताड़ना झेलता घड़ीसाज। लेकिन घड़ीसाज के जीवन से जुड़े और बिखरे संकेतों को गौर से पढ़ें तो वह महज एक घड़ीसाज न होकर एक विचार (आइडिया) और उस विचार के क्रियान्वयन का उपादान भी जान पड़ता है। घड़ी एक मशीन होती है। वह खराब हो जाए तो उसके पुर्जों को ठीक कर उसकी खराबी दूर की जा सकती है। इसमें ओमेगा की एक अलार्म घड़ी का जिक्र आता है। जिसके बारे में घड़ीसाज ने अपने छोटे बेटे को बतलाया था कि 1903 में जब वह घड़ी बनी थी उसी साल उसके मालिकों की मौत हो गई थी और वह घड़ी अपने 'पुराने मालिकों की याद में उदास रहती थी और वक्त से पिछड़ गई थी। ...रात भर जागकर, आँखों पर वही खुर्दबीन चढ़ाए घड़ीसाज ने वह घड़ी रिपेयर की - पुर्जे धोकर और ढीले पेंच कस कर नहीं, बल्कि जो उसकी असली जरूरत थी, उसे ढाँढ़स और हिम्मत देकर।' (पहल-86, पृ 96,101) क्या ऐसा संभव जान पड़ता है? इसके साथ एक दूसरे प्रसंग को रखकर देखते हैं। घड़ीसाज की प्रतिभा का उसके 'भारतीय' सहकर्मियों के द्वारा मजाक बनाया जाना और ब्रिटिश मूल के कप्तान हीथक्लिफ द्वारा उसकी प्रतिभा की पहचान अकारण नहीं है। हिटलर के हमलों के आगे पस्त फ्रांस और ब्रिटेन के बारे में कैप्टेन घड़ीसाज से कहता है कि 'यह एक बहुत बड़ी लड़ाई है, वह अकेले नहीं लड़ी जाती, इसमें सैकड़ों हजारों को मिलकर लड़ना होता है, सबकी घड़ियाँ दुरुस्त होनी चाहिए और सब में एक ही वक्त होना चाहिए खास तौर पर तब जब जीत और हार के बीच बस इतना फासला होता है, जितना... जितना चाकू की धार - और जब कोई एक घड़ी खराब होने का, किसी के एक पाँच मिनट भी लेट होने का मतलब हो सकता है, खेल खत्म और देश गुलाम।' (पहल-86, पृ 103) इन दो प्रसंगों को कहानी में स्वयं मुक्तिबोध की उपस्थिति और उनके इन विचारों से जोड़कर देखें जब वे शांता मुक्तिबोध को कह रहे हैं कि 'वो मुसलमान शायर ने कहा है कि जो 'जुज' में 'कुल' न देखे, वह लौंडा है, उसकी नजर में मोतिया है। जुज के माने अंश और कुल यानी संपूर्ण। समझदार लोग इसका तब्सिरा यूँ करें कि सृष्टि के एक एक कण में, हर परमाणु में परमेश्वर मौजूद है तो मुझे कोई एतराज नहीं लेकिन मेरे लिए इसका मतलब सिर्फ इतना है कि हर मनुष्य मानव जाति है। और फिर पूरी कहानी के दौरान एक अंतराल पर आनेवाले उन नामालूम से शब्दों की बारंबारता पर ध्यान दीजिए जहाँ अपमान के क्षणों में योगेंद्र आहूजा सिर्फ इतना लिखते हैं कि 'बात यह है कि कोताही हो या थोड़ी भी देर हो जाए तो वो लोग बिगड़ते हैं, वही लफ्ज दे मारते हैं।' (पहल-86, पृ 109) और कहानी के आखिर में आने वाले उन लफ्जों की सूची पर गौर करें - 'नीच जात, छोटी जातवाले, कमीने लोग, बास्टर्ड्स और अबे ओए।' (वही, पृ 113) इन टुकड़ों को जब जोड़कर देखते हैं तब कहानी का निहितार्थ समझ में आता है। एक सामाजिक इकाई के बतौर भारतीय सामाजिक ढाँचे की अपूर्णता का बोध हमें होता है। जिस समाज का एक बड़ा तबका सिर्फ जन्मगत आधारों पर प्रताड़ना और अपमान का अधिकारी हो जाता है। उस समाज के पास पराधीनता का एक लंबा गौरवपूर्ण इतिहास हो तो उस पर अचरज नहीं करना चाहिए। यह है योगेंद्र आहूजा के प्रतिरोध की वह महीनी जिस तक सिंगल रीडिंग में पहुँच पाना थोड़ा मुश्किल होता है। यही वह ढब है जिसे मैं योगेंद्र आहूजा का कहानियों के साथ अलग ढंग से किया जानेवाला बर्ताव (ट्रीटमेंट) कह रहा था।
यदि इन निहितार्थों तक न भी पहुँचें तो भी इनकी कहानियों में बात करने के लिए पर्याप्त तत्व होते हैं। पर योगेंद्र आहूजा की कहानियों के संदर्भ में जो बात खास ध्यान रखने की है, वह यह कि इनकी कहानियों के केंद्र में विचार ही रहा करते हैं। इसलिए उस केंद्रीयता की पहचान जरूरी है। संकेतों को पढ़ना आवश्यक है, उसकी ध्वन्यात्मकता की पहचान आवश्यक है। विचारों की उस बुनावट में शिल्प की महती भूमिका होती है। योगेंद्र आहूजा की कहानी में गजानन माधव मुक्तिबोध एक संदर्भ की तरह आते हैं। मुक्तिबोध के लेखकीय सरोकार को वे अपने लिए प्रेरक पाते हैं। 'एक पुरानी कहानी' में मुक्तिबोध स्वयं मौजूद हैं और वे एक युवा साथी को हिंदी का राइटर होने का मतलब समझाते हुए कह रहे हैं कि 'पार्टनर यह गरीब मुल्क है जो कल तक गुलाम था। यहाँ राइटर होने का मतलब बिलकुल अलग है पार्टनर, इसे समझ लेना बहुत जरूरी है। ...कविता कोई खंदक या जंगल जैसी जगह नहीं है, जहाँ हिस्ट्री से, समय से निजात पाने को थोड़ी देर छिपा जा सके, कि इतिहास से मुँह छुपाना उसी तरह नामुमकिन है जिस तरह अपनी छाया फलाँगना, कविता में इस तरह की कोशिशों का भी एक छोटा-मोटा असफल इतिहास है, और फिर कुछ देर के बाद यह कि कवि के भीतर एक मँगते जैसी विनय होनी चाहिए, उसे इस धरती के बाशिंदों के उत्ताप, पसीने, शरीर की गंध और आँतों की मरोड़ को आभ्यंतरित करने का प्रयास करना चाहिए, कभी यह न भूलते हुए कि हम एक गरीब माँ-बाप की संतान हैं। ...हिंदी जाति के लेखक या कवि को विनम्रता का कोई हक नहीं। यह फटेहाल और दलिद्दर महाजाति बयान के बाहर गरीबी और अपमान झेलती आई है, इसलिए इस जाति के लेखकों पर यह एक अतिरिक्त जिम्मेदारी है - अभिमान की जिम्मेदारी। हिंदी के लेखक को अभिमानी होना चाहिए, अकड़दार... नहीं तो उसे दुनिया की किसी भी भाषा में लिखना चाहिए, लेकिन हिंदी में नहीं। ...हिंदी कवि को सर्वदा एक सात्त्विक गुस्से से खौलना चाहिए और एक खास तरह की वर्ग-अकड़ को हिंदी कविता का अनिवार्य तत्व होना चाहिए, उससे वे दुरात्माएँ दूर रहेंगी जो बहला-फुसलाकर चमक-दमक के रास्ते पर...।' कहना न होगा कि योगेंद्र आहूजा की कहानियों से न सिर्फ उनका स्वाभिमान झलकता है बल्कि उनकी वर्गीय पक्षधरता भी जाहिर होती है। 'खाना' कहानी के अंत में जब रतनलाल अपने अतीत के पन्नों को खँगालता उस क्षण में पहुँचता है, जहाँ उसने आखिरी बार जीवन में स्वाद या जायके को महसूस किया था, तो वह कहानी के स्तर पर बड़ा कन्विंसिंग लगता है। पर आगे जब माधव मुरमू का खत आता है और उसमें माधव मुरमू उसके बेजायका हो चुकी जिंदगी के असल कारण का उल्लेख करते हुए लिखता है कि 'ऐसा वर्गांतरण के दौरान होता है। बीच के वक्फे में पुराने वर्ग की याद पूरी तरह उस वर्ग का नहीं होने देती जिसे अपनाने जा रहे हो। तुम्हारे मामले में यह वक्फा कुछ ज्यादा लंबा हो गया है, बस इतनी सी बात है। अपनी गरीबी की याद और हम जैसों का खयाल तुम्हारे जेहन (या हलक) में अभी तक अटका है और वही खानों का स्वाद नहीं लेने देता।' (तद्भव, पृ 225) अंतर्वस्तु के धरातल पर योगेंद्र आहूजा की कहानियों में उनकी वर्ग दृष्टि को देखा जा सकता है और परंपरागत पाठकों की अनदेखी करते हुए अपने ढंग से कथात्मक संरचना की निर्मितियों में उनके स्वाभिमान को देखा जा सकता है।