आहट के भय से पत्रकारों की हत्या / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :28 मार्च 2018
एक पत्रकार की मौत हो गई। वह ट्रक हादसा हो सकता है या प्रायोजित हत्या भी हो सकती है। बेंगलुरू मंे गौरी लंकेश की दिन-दहाड़े हत्या कर दी गई। मध्यप्रदेश अन्य सभी प्रांतों से कई मामलों में बहुत आगे हैं। किसानों की आत्महत्या, छात्रों की पिटाई, शिक्षा का व्यापम महाघोटाला और 45 पत्रकारों की संदिग्ध मौतें। उत्तर प्रदेश में महज पांच पत्रकार मारे गए हैं, त्रिपुरा में तीन पत्रकारों की हत्या हुई।
कलाइडोस्कोप नामक फूंकनीनुमा वस्तु को घुमाते रहने पर उसके भीतर रंगीन कांच के टुकड़े अलग-अलग पैटर्न बनाते हैं। केवल एक अंतर है कि हमारे समाज के कलाइडोस्कोप में कुछ पत्थर काले रंग के हैं जैसे खून जमने के बाद कुछ समय बीतने पर लाल धब्बे काले पड़ जाते हैं।
मधुर भंडारकर की 'पेज थ्री' में एक खोजी पत्रकार बड़े कांड को उजागर करता है और सारे सबूत अपने संपादक को देता है। अखबार मालिक के दवाब में संपादक सबूत नष्ट कर देता है। पत्रकार को नौकरी से निकाल दिया जाता है और वह खोटे सिक्के की तरह अखबार बाजार में कहीं नहीं चल पाता। यह जरूर है कि हर दफ्तर में 'सत्यमेव जयते' सुनहरे अक्षरों में अंकित होता है। अरसे पहले शशि कपूर अभिनीत 'न्यू दिल्ली टाइम्स' नामक फिल्म में दिखाया गया था कि तथाकथित 'लौह पुरुष पत्रकार' के पैर कच्ची मिट्टी के बने होते हैं। इसके अपवाद भी हैं जैसे अमेरिका के वाटरगेट स्कैंडल का सूत्रधार एक पत्रकार ही था। गुरुदत्त की फिल्म 'मि. एंड मिसेस 55' का नायक एक अखबार में कार्टून बनाता है। एक धनाढ्य महिला उस पर आरोप लगाती है कि वह कम्युनिस्ट तो नहीं है तो वह कहता है कि वह कार्टूनिस्ट है परंतु बात तो एक ही है।
हमारे देश में महानतम कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण हुए हैं और उनके पहले पृष्ठ पर प्रकाशित होनेे वाले कार्टून संपादकीय का सा महत्व रखते थे। वे प्रतिदिन सुबह 9 बजे दफ्तर आते थे। सारे अखबार पढ़ते और सोचते रहते कि उस दिन वे क्या बनाएं। घंटों आत्ममंथन करने के बाद एक विचार बिजली की तरह कौंधता था और फिर कुछ देर में ही वे अपना काम करके घर लौट जाते थे। वे भारी कदमों से दफ्तर आते थे परंतु काम पूरा करने के बाद मानो उनके पैरों में पंख लग जाते थे और उड़कर घर लौटते थे। हर सृजनशील व्यक्ति को काम करना पहाड़ उठाने जैसा लगता है परंतु काम होते ही वह कपास का ढेर उठाने की तरह लगता है। पत्रकारिता- ईमानदार पत्रकारिता हमेशा ही जोखिम भरी रही है। पत्रकारिता का एक घातक पक्ष यह है कि पत्रकार मात्र सनसनीखेज काम करना चाहते हैं। अाम आदमी के रोजमर्रा के जीवन के कष्ट पर वे प्रकाश नहीं डालते, क्योंकि इसमें कोई सनसनीखेज बात नहीं है। पत्रकारों ने राजकुमारी डायना की कार का पीछा ऐसे किया मानो कुत्ते किसी शिकार का पीछा कर रहे हैं। इसी कारण कार दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। जब जैकलिन कैनेडी पत्रकारों से बचने के लिए एक द्वीप पर रहने गईं तो पत्रकारों ने समुद्र के भीतर तैरकर उनके समुद्र स्नान के फोटो लिए। ख्यात संपादक राजेंद्र माथुर का कथन था कि जीवन से ज्यादा चरित्र महत्वपूर्ण है, आदमी मर जाना पसंद करेगा परंतु अपने यश की हत्या सहन नहीं कर सकता। इसलिए पत्रकार को किसी भी व्यक्ति के बारे में सोच-समझकर लिखना चाहिए। बहरहाल, वर्तमान में राष्ट्रीय कहे जाने वाले अंग्रेजी भाषा के अखबार अवाम के दर्द को बयां नहीं करते परंतु दक्षिण भारत का अखबार ' द हिंदू' और हमारा अपना 'दैनिक भास्कर' यह काम कर रहा है।
भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में श्यामलाल, दुर्गाप्रसाद और ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे पत्रकार हुए, जिनके लिखे का प्रभाव हुक्मरानों पर पड़ता था। आज़ादी के बाद कई वर्षों तक प्रधानमंत्री संपादकों की राय लेते थे और पाठकों के संपादक के नाम लिखे पत्रों का भी बहुत महत्व था। वर्तमान में ऐसा माहौल है कि अखबारों में प्रकाशित आलोचना का कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता। पत्रकारिता प्रभावहीन जरूरत हो गई है परंतु उसका हव्वा आज भी बना हुअा है। नेताओं को अपने साये से भी भय लग रहा है। इसी कारण 45 पत्रकार मार दिए गए हैं। भय की चादर एक छोर से दूसरे छोर तक तनी हुई है। बकौल अमेरिकी पत्रकार व लेखिका जेनेट मैल्कम, 'वह हर पत्रकार जो मूर्ख नहीं है और न ही आत्ममुग्ध भलीभांति जानता है कि कहां क्या हो रहा है परंतु सच को उजागर करने पर भी कहीं कुछ नहीं होता।' अपने प्रभावहीन होने का दंश बहुत मारक होता है। नेता और पत्रकार दोनों ही प्रभावहीन हो चुके हैं। खोखली घोषणाओं और पूरा नहीं करने वाले वादों ने एक वैकल्पिक संसार रच दिया है और हम सब जीवन-जीवन खेल रहे हैं।
पत्रकारिता के प्रभावहीन बना दिए जाने वाले दौर में भी पत्रकारों की हत्या व्यवस्था के बोडमपन को उजागर करती है। चेतन आनंद की हकीकत के लिए कैफी आज़मी के गीत की पंक्ति याद आती है, 'जरा सी आहट होती है तो दिल सोचता है कहीं ये वो तो नहीं।' इस तरह आहट के भ्रममात्र से पत्रकारों की हत्या हो रही है।