आहो आहो संझा गोसाइँनि / विद्यानिवास मिश्र
एक बार अपनी श्रेष्ठतम कृति वाणी के सौंदर्य से स्रष्टा स्वयं विमोहित हो गए और उसके पीछे अनुधावन करने लगे। ब्रह्मा की उस मोहतनु को शिव ने शर से बींध कर नष्ट करना चाहा, सो उसी तनु से संध्या की उत्पत्ति हुई, और संध्या न केवल आत्मचितन और वंदना की बेला बनी, बल्कि जिसे मनुष्य की दुर्बलता कहा जाता है उस प्रेम की गहराई की माप भी बन गई। ऋषियों ने उसकी इसीलिए यदि अपने ढंग से वंदना की, तो विजन वन से अधिक आँगन में जीवन क सत्य का दर्शन करने वाली भारतीय नारी ने अपने ढंग से संझा माई की विनती की। संध्या मोह और ज्ञान की संधि तो बनी ही, वह नारी और पुरुष के मिलन की भूमि भी बनी। इसी से विवाह जैसे पुनीत और गंभीर संस्कार के पूर्व उसका आराधन लोक-रीति और गीति का अनिवार्य अंग बन गया।
विवाह के पाँच दिन पूर्व ऐसी दिन भर चावल-दाल फटकते-बीनते हल्दी पीसते और पियरी रँगते जब गृह-नारी थक जाती है, तब गोधूलि आते ही, आँगन लीप-पोतकर, नहा-धोकर और एकदम सुस्थिर होकर वह पाँत बाँध कर बैठ जाती है। उस समय समाधिस्थ तन्मयता के साथ वह संझा का आह्वान करने जब बैठती है तो उसको उस क्षण में देखना उसकी आराधना को देखना है। इन गीतियों में मैं उनका पलायन नहीं पाता, मुझे तो लगता है कि गृहस्थ जीवन के लिए इन्हीं गीतियों में वे प्रेरणा का संचय करती हैं। कहने के लिए तो इसमें कोई खास बात नहीं होती, तीन पुस्त पहले तक के मरे लोगों का नाम ले-लेकर उनकी असीस माँगी जाती है, संध्या का आवाहन होता है। जीवित वधुओं का नाम ले-लेकर उनसे 'दियना' जलाया जाता है, वर के मंगलमय भविष्य की काव्यमय कामना की जाती है। अमवा के नाई बाबु मउरें, महुअवा कुचलागें, पुरइन पात अस पसरैं, कँवल अस विहँसें (वर आम की तरह मंजरित हो, महुए की तरह पुष्पित हो, पुरइन की तरह प्रसृत हो और कमल की तरह विहसित) पर कहने के लिए न होता हो। समझने के लिए तो उन शब्दों में पुनरुक्ति हो, अनलंकृति हो, अर्थ में अचमत्कृति हो, अपरिष्कृति हो, किंतु ध्वनि और रस का छिड़काव तो मिलता है। व्यंग्य कभी-कभी केवल कंठ के स्वर में रहता है, यहाँ तो गीतियों का पूरा आरोह-अवरोह की एक महान गौरव की अभिव्यक्ति करता हुआ जान पड़ता है।
संझा-गीतिमाला में पहली गीति है,
आहो आहो संझा गोसाइँनि ईहे तीनिउ रउरे नव गुन ईहे तीनिउ रउरे बड़ा बरह्मा विशुन महेश ईहे तीनिउ दिहलें असीस ... ... राम चिरंजिव हाथ चँवर ले बिनवैं ईहे तीनिउ भगतिनि आगर संझा गोसाइँनि आहो आहो (तीन गुणों से नव गुण करने वाली तुम्हीं हो। तुम्हारे सबसे बड़े आराधक हैं ब्रह्मा, विष्णु, महेश। ये तीनों वर को आशीर्वाद देते हैं। वह हाथ में चँवर लेकर विनती करता है। यही तीनों भक्ति के आकार हैं।)
मैंने जब-जब यह गीति सुनी है, तब-तब लगा है कि वेद-मंत्रों का उच्चारण हो रहा है, वैसी ही गंभीरता, वैसी ही पवित्र तन्मयता और वैसी ही मोहकता से अभिभूत हो गया हूँ। मुझे ऐसा लगा है कि ज्ञान का सूर्य अस्त होते-होते अपनी त्रसरेणुओं की लाली इस जनगीति पर बिखेरता चला गया है। इस गीति में केवल त्रिगुणात्मिका प्रकृति की वंदना ही नहीं, बल्कि मुनष्य के लिए उन्नयन की प्रेरणा भी मिलती है। सांसारिक संबंधों में भी मनुष्य ऊर्ध्वमुखीन हो सकता है, इस गीति का ही संदेश है। मनु-याज्ञवल्क्य-वाल्मीकि- व्यास और कालिदास-भवभूति के जीवनदर्शन का यही निचोड़ है। संज्ञा की दूसरी गीति में नववधुओं के नाम लेकर उनके दैनिक कार्य की एक झाँकी दी जाती है।
हमरी कुलनंदनी कवन देई साँझे दियना बारेली भोर बढ़ंनिया आँगन (हमारे कुल की नंदिनी ... देवी संध्या में दिया जलाती है और भोर होते ही आँगन की बुहारु में लग जाती हैं) कुलवधू को गृहलक्ष्मी के पवित्र पद पर आसीन होकर ज्योति जगाने का ही केवल गौरव नहीं प्राप्त होता, बल्कि समस्त बाह्य और आभ्यंतर कलुष के परिमार्जन का दुष्कर सेवाकार्य भी उसी के पल्ले पड़ता है, इस गीति का यही संदेश है, भावी वधू को उसके कर्तव्य तथा अधिकार की यही दीक्षा है। नया रक्त ही संध्या के ध्वांत में नित्य नया आलोक भरने में सक्षम हो सकता है और साथ ही नए रक्त से ही नवप्रभात के स्वागत में सजग तैयारी की आशा की जा सकती है। यदि नई बहू के के आने पर प्रदोष-वेला उदास रही और प्रत्यूषवेला मलिन तो फिर कुल उससे नंदित कहाँ, कुल को नंदित करने के लिए प्रेम और सेवा की ही साधन हैं, प्रेम तरल ज्योति प्रदान करता है और सेवा स्वयं मलिन बनकर जगत की मलिनता दूर करती है; ठीक उसी तरह प्रदोषसंध्या अमृतवर्ति पूरकर क्षीरोदधि का समस्त नवनीत भरकर विश्व-मंदिर में सोमदीप जलाती है। उसकी देखा-देखी सुरसुंदरियाँ अपने-अपने महलों में बाहर-भीतर अगनित झिलमिल दिप जलाने लगती हैं और प्रत्यूषसंध्या रविकिरणों की सुनहली बुहारू से बुझते दीपों के साथ-साथ उनकी जली-अधजली बातियों की राख बटोरकर पश्चिम समुद्र में डाल देती है। विश्व-अजिर एकदम धुलकर चमक उठता है। इन दोनों महनीय सांध्यवेलओं का श्रृंगार ही सौभाग्यवती कुलवधू का श्रृंगार है, रात में कल्पना की भाँति लुभावना और मोहक और दिन में सूर्य के प्रकाश की भाँति शुभ्र उज्त्वल।
मंगल-दीप जलाकर गृहलक्ष्मी का अभिनंदन करने के उपरांत तीसरी गीति में इस दीप का भी भावपूर्ण विश्लेषण किया जाता है -
कत्थी कइ दियना कत्थी कइ बाती कत्थी कइ तेलवा जरेला सारी राती।
सोने कइ दियना रूपै कइ बाती सरसों के तेलवा जरेला सारी राती।
जरिउ दीप जरिउ दीप सारिउ राती जबले दुलहादुलहिन खेललैं चौपर।
जरि गइले तेलवा सम्पूरन भइली बाती जँघिया लागलि दुलहिन देइ।
गहली अलिसाई।
(किस चीज का दिया, किस चीज की बाती और कौन-सा तेल सारी रात जला करता है। सोने का दिया, रूप की बातों और सरसों का तेल सारी रात जलो करता है। जलो दीप, सारी रात जालो, जब तक की दुलहा-दुलहिन का चौपर चलता रहे। चौपर खेल खतम होते-होते तेल जल गया, बाती समाप्त हो गई और दुलहे की जाँघ पर सिर लगा दुलहिनि अलसा गई) इस गीति में से यौवन के विषय-भोग का मनोरम संकेत झाँक रहा है। सोने का दीप कर्म के शाश्वत आधार का प्रतीक है और रूपा की बाती, चंचल और भंगुर रूप का, सरसों का तेल पार्थिव स्नेह का। जब तक बाती की तरह पूरा गया रूप रहता है और जब तक उसे तर करने में समर्थ पार्थिव वासना रहती है, तब तक विलास का चौपर चलता रहना चाहिए। जब चौपर के खेल में अवसाद आने लगे, जब जीत में उल्लास की और हार में उत्साह की कमी होने लगे, तब दिया जलते रहने में कोई आनंद नहीं। जब तक खेल चलता है, तब तक खेल चलना चाहिए और दिया जलता है और तब तक जवानी की रात ढलती नहीं, तब तक खेल चलना चाहिए और दिया जलना चाहिए। बीच में ही खेल का थम्हना और दिया का बुझना अंशुभ है, जीवन के अधूरेपन और वैफल्य का चिहृ है। हाँ जब रात ढल चले, जब रूप रखिया चले, तेल चुक चले, तब खेल थम्ह जाए तभी अच्छा है और खेल थम्ह जाने पर भोरहरिया की मदमाती बयार में दुलहे की बायीं जाँघ पर दुलहिन का अलसा जाना ही अच्छा है। रूप-लालसा की यह मीठी थकान, भोग की यह परितृप्ति, खेल का यह निढाल विराम और परितृप्ति की यह सुख-निंदिया जो तकिया-बिछावन की कुछ भी सुधि न रखे, प्रिय के परिपार्श्व में अपनी सेज बना ले, जीवन की सच्ची सफलता है। भारतीय काव्य-परंपरा में विषय-भोग के प्रति यह स्वस्थ दृष्टि बहुत चिरंतन है। जीवन को ऊपर, मरूथल बनाने की विषम कल्पना भारत की धरती के लिए अनचीन्ही है। कुंठाओं, अतृप्तियों का बोझिल वातावरण भारतीय काव्य-परंपरा को कभी सहृा नहीं हुआ और इसीलिए उसने इस आवरण में छिद्र करने के लिए कभी उत्तेजना नहीं दिखलाई है। आज की बात दुसरी है, फ्रायड के मनोविश्लेषण का प्रयोग करने वाली चिंतन-परंपरा को ऐसी स्वच्छ और सरल भाव-व्यंजना ग्राम्य और अविदग्ध लगेगी, पर जिन गीतियों में इसकी अवतारणा की गई है, उनमें युग-संस्पर्शी गहराई होने के कारण जो अमिट रंगीनी है, वह नई अतृप्ति गीतियों के लिए भी स्पृहणीय है।
संझा की इस रंगीन रागिनी के बाद मंगल कामना की दो गीतियाँ उठाई जाती है, पहले
'बाढ़ो न गइया में के बछवा भइसिया में के ओसरि।
बाढ़ो न दही के दहेड़िया धीवहि के गागर।
बाढ़ों त बेटी कवन देई के नइहर दुलहिन कवन देई के सासुर। '
(गाय के बछवा बढ़ेंगे, खेतिहर देश की पशुसंपत्ति बढ़ेगी। भैंस की पाडी़ बढ़ेगी, दुग्ध की समृद्वि होगी और दही-घी के बर्तन भरपूर रहेंगे, स्वास्थ्य-सौंदर्य की बढ़ती होगी।) खेतिहार देश के गृहस्थ परिवार के लिए इससे अधिक क्या सुख हो सकता है और संध्या देवी से यह आशीर्वाद माँगने के अनंतर पुरुखा-पुरनिया लोगों से एक-एक का नाम लेकर वर और भावी गृहस्थ के लिए आसीस माँगी जाती है।
आरे आरे बाबा कवन राम रउरें आवेलें कवन राम (वर) असीसओ न दीहल। अमवा के नइया बाबू मउरें महुअवा कुचलागें पुरइन पात अस पसरैं कँवल अस विहसैं। (अमुक अमुक नाम के बाबा आपके नगर में अमुक नाम कसले वर आए हैं, आप आसीस भी नहीं देते? आम की भाँति वर मंजरित हों, महुए की तरह कुसुमित, पुरइन पात की तरह प्रसृत और कमल की तरह विहसित) इस आशीर्वचन में केवल उपमाओं का सौंदर्य हो, सो बात नहीं, इन उपमाओं में जीवन के विविध मंगलों का सौंदर्य अलग-अलग देखा जा सकता है और इन उपमाओं में गहरी सूझ की पहचान की जा सकती है। आम की मंजरी में जा समष्टि-मोहकता और दूरगामिनी सुरभि होती है, मधुक में जो टपकनेवाली पधुमयता होती है, पुरइन में जल से असम्पृक्त रहकर जो प्रसरशीलता रहती है और कमल में पंक के बीच धँसते तथा गंभीर नीर में डूबते-उतराते भी विकास की अदम्य शक्ति होती है, होती है, वही गृहस्थी का जुआ वाहन करनेवाला नए दारपरिग्रही के लिए काम्य हो सकती है। आम्र की मंजरी जिस प्रकार सामूहिक रूप से सुगंधि प्रदान करती है, उसी प्रकार समन्वित समाज की इकाई बनकर व्यक्ति कीर्तिमान होता है। महुए के कूचे में जैसी सरस द्रवशीलता होती है, यौवन में श्रृंगार की वैसी ही अपेक्षित है। रही बात पुरइन और कमल की, जिसमें भारतीय सौंदर्य अपनी मंगलमई अभिव्यक्ति चिरंतन काल से ढूँढ़ता और पाता आया है, सो पुरइन कर्मयोग की मूर्तिमती साधना है और कमल भारतीय संस्कृति के सर्वप्रधान गुण समन्वय का प्रतिमान। हाँ संध्या की गीत में पुरइन और कमल की बात शायद उन लोगों को बेतुकी लगे, जो रात से उबरने की आस नहीं सँभाल सकते, जो अगले प्रभात तक धीरज नहीं बँधा सकते और जो संघर्ष और मोह के अवसान में सत्व का उदय नहीं देख सकते। परंतु दुस्सह शीत में बसंत की जीती-जागती कल्पना रखनेवाली, घनान्ध्तामस मानस में परम ज्योति को आमंत्रण देने वाली और दुख के निविड़ श्यामल प्रसार में घनश्याम की दामिनी दमकानेवाली कविकल्पना के लिए साध्य यदि है तो यही है। वह कल्पना 'चार दिनों की चाँदनी के' बाद अँधेरी रात मे डूब नहीं जाना चाहती, वह कुहू के कुहूक में राका के लिए कूकती रहती है।
वही कवि-कल्पना उन असंख्य अनाम कंठों में मुखर होकर आती है, जो अपने अनुभवों की गरिमा अनायास और अनजाने उल्लास के क्षण में उड़ेल कर रख देते हैं। उनके लिए जड़-चेतन, प्रकृति-पुरुष, दुख-सुख और तम:-प्रकाश उस उल्लसित क्षण में एकीभूत हो जाते हैं और उन्हें मानव जीवन के परम लक्ष्य की सहज ही उपलब्धि हो जाती हौ और उन्हें मानव जीवन के परम लक्ष्य की सहज ही उपलब्धि हो जाती है। संझा-गीतियाँ ऐसी उपलब्धियों की ही निदर्शन है। इन गीतियों में ब्रह्म द्वार अभिधावित वाणी संध्या के पवित्र आवाहन में आश्वस्त होकर बीन के तार छेड़ने लगती है: आहो आहो संझा गोसाइँनि, 'गोसाइँनि' इसलिए की इस वेला में न केवल गउएँ वन से लौट कर पुंजित होने लगती है, बल्कि चहचहाते पक्षी-शावकों के साथ समंतन्त ऐन्द्रिय व्यापार सिमटकर अंतर्मुख होने लगते और सिमटती रविकिरणावली के साथ मृदकंपंप पर्ण-डालियों के मर्मर-स्वर में समवेत होकर गउओं में श्रेष्ठतम कामधेनु मातृ-वंदना में विनत होकर अमृत-खीर बहाने लगती है।