आ क्यू की सच्ची कहानी / अध्याय 1 / लू शुन

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भूमिका

कई बरस से आ क्यू की सच्ची कहानी लिखने की सोच रहा था, किन्तु उसे लिख डालने की इच्छा होते हुए भी मन में दुविधा बनी थी। इससे स्पष्ट हो जाता है कि मैं उन लोगों में नहीं, जो लेखन से गौरव अर्जित करते हैं। कारण यह है कि सदा एक अमर व्यक्ति के कारनामों का चित्रण करने के लिए सदा एक अमर लेखनी की जरूरत होती है; व्यक्ति लेखनी के कारण भावी पीढ़ी में ख्याति प्राप्त करता है और लेखनी व्यक्ति के कारण। अंत में यह पता नहीं चल पाता कि कौन किसके कारण ख्याति अर्जित करता है। आखिर आ क्यू की कहानी लिखने का विचार प्रेत की तरह मेरे मस्तिष्क पर हावी हो गया।

लेकिन जैसे ही लेखनी उठाई, अमरत्व से कोसों दूर इसके सृजन में आनेवाली कठिनाइयों का एहसास होने लगा। पहला प्रश्न यह खड़ा हुआ - आखिर इसे नाम क्या दिया जाए। कनफ्यूशियस ने कहा है, "अगर नाम सही नहीं, तो शब्द भी सही नहीं दिख पड़ेंगे।" इस कहावत पर बड़ी ईमानदारी से अमल किया जाना चाहिए। जीवन कथाएँ कई तरह की होती हैं - अधिकृत जीवन कथा, आत्मकथा, अनधिकृत जीवन कथा, दंतकथा, पूरक जीवन कथा, परिवार कथा, रेखाचित्र... । लेकिन दुर्भाग्य से इनमें एक भी नाम ऐसा नहीं, जिससे मेरा काम चल जाए। "अनधिकृत जीवन कथा"? स्पष्ट है कि इस ब्यौरे को किसी अधिकृत इतिहास में कई विख्यात व्यक्तियों के विवरण के साथ शामिल नहीं किया जाएगा। 'आत्मकथा'? लेकिन मैं आ क्यू तो हूँ नहीं, इसलिए यह भी ठीक नहीं। यदि इसे 'अनधिकृत जीवन कथा' का नाम दिया जाए, तो उसकी 'अधिकृत जीवन कथा' कहाँ है? 'दंतकथा' कहना भी सम्भव नहीं, क्योंकि आ क्यू किसी दंतकथा का चरित्र तो है नहीं। 'पूरक जीवन कथा?' लेकिन किसी भी राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय ऐतिहासिक प्रतिष्ठान को अभी तक आ क्यू की 'प्रतिमानित जीवन कथा' लिखने का आदेश नहीं दिया। यह सच है कि इंग्लैंड के अधिकृत इतिहास में 'जुआरियों के जीवन' का कोई उल्लेख नहीं है, फिर भी प्रसिद्ध लेखक आर्थर कानन डायल ने 'रोडनी स्टोन' उपन्यास की रचना की, पर जहाँ तक प्रसिध्द लेखक को यह सब करने की अनुमति है, वहाँ मुझ जैसे व्यक्ति को इसकी अनुमति कहाँ? फिर क्या उसे 'परिवार कथा' कहा जाए? लेकिन मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि मैं आ क्यू के परिवार का सदस्य हूँ भी या नहीं, फिर उसके बेटे-बेटियों या पोते-पोतियों ने मुझे यह काम सौंपा नहीं। यदि इसे 'रेखाचित्र' कहा जाए, तो शायद इस पर एतराज किया जाएगा, क्योंकि आ क्यू का पूरा विवरण तो कहीं उपलब्ध है नहीं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि यह एक जीवनी है, परन्तु मेरी लेखन शैली जरा परिष्कृत नहीं है और इसमें खोमचे व फेरीवालों की भाषा का प्रयोग है, इसलिए मैं इसे इतना ऊँचा नाम नहीं दे सकता। अतः उपन्यासकारों की, जिनकी गिनती तीन मतों और नौ संप्रदायों में नहीं होती, प्रचलित शब्दावली (विषयान्तर बहुत हो चुका, अब सच्ची कहानी पर लौट आना चाहिए) से। 'सच्ची कहानी' - इन दो शब्दों को अपने शीर्षक के लिए चुन लेता हूँ, और अगर इससे प्राचीन काल की 'लिपिकला की सच्ची कहानी' की याद ताजा हो जाए, तो इसमें कोई क्या कर सकता है ?

दूसरी कठिनाई मेरे सामने यह थी कि ऐसी जीवन कथा कुछ इस प्रकार आरंभ होनी चाहिए - "फलाँ नाम का व्यक्ति, जिसका कुलनाम फलाँ था, फलाँ जगह में रहता था।" लेकिन सच बात तो यह है कि आ क्यू का कुलनाम मुझे मालूम नहीं है। एक बार पता लगा था कि उसका कुलनाम शायद चाओ है, परन्तु अगले ही दिन इसके बारे में फिर एक बार बड़ा घपला हो गया। बात यह हुई कि चाओ साहब के बेटे ने काउंटी की सरकारी परीक्षा पास कर ली। उसकी सफलता की घोषणा ढोल-नगाड़ों के साथ सारे गाँव में की जा रही थी। आ क्यू, जो अभी दो प्याले शराब पीकर आया था, इतराता हुआ कहता फिर रहा था कि यह उसके अपने लिए भी बड़े गौरव की बात है, क्योंकि वह भी चाओ साहब के ही कुल का आदमी है और ठीक-ठाक हिसाब लगाया जाए, तो उसकी वरिष्ठता सफल प्रत्याशी से तीन पीढ़ी ज्यादा बैठती है। उस समय आस-पास खड़े कुछ लोग तो आ क्यू से आतंकित होने लगे थे। लेकिन दूसरे ही दिन बेलिफ उसे चाओ साहब के घर बुला ले गया। जब बूढ़े चाओ साहब ने उसकी ओर देखा, तो उनका चेहरा गुस्से से तमतमा उठा और वे गरजकर बोल पड़े थे, "ओ आ क्यू के बच्चे, तू कहता फिर रहा है कि तू भी हमारे ही कुल का है?"

आ क्यू ने कोई उत्तर नहीं दिया था। जैसे-जैसे चाओ साहब उसकी ओर देखते जाते, उनका पारा लगातार चढ़ता जाता था। दो-चार कदम आगे बढ़कर उसे धमकाते हुए उन्होंने कहा, "तुझे ऐसी बेकार बात कहने की हिम्मत कैसे हुई? भला मैं तेरे जैसे लोगों का संबंधी कैसे हो सकता हूँ? क्या तेरा कुलनाम चाओ है?"

आ क्यू ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह वहाँ से भागने ही वाला था कि चाओ साहब ने आगे बढ़कर उसके मुँह पर एक तमाचा जड़ दिया था।

"तेरा कुलनाम चाओ कैसे हो सकता है? क्या तू समझता है कि तेरी जैसी हैसियत का आदमी भी चाओ खानदान का हो सकता है?"

आ क्यू ने चाओ कहलाने के अपने अधिकार की वकालत करने की बिलकुल कोशिश नहीं की और अपना बायाँ गाल सहलाते हुए बेलिफ के साथ बाहर चला गया। बाहर निकलते ही बेलिफ ने उस पर गालियों की बौझार शुरू कर दी। दो सौ ताँबे के सिक्कों से उसकी हथेली गर्म करने के बाद ही आ क्यू उससे अपना पिंड छुड़ा पाया। जिस किसी ने भी यह घटना सुनी उसने यही कहा कि आ क्यू को उसकी मूर्खता की वजह से मार पड़ी। अगर उसका कुलनाम चाओ ही था (जिसकी संभावना कम थी) तो भी गाँव में चाओ साहब के रहते उसका इस तरह डींग मारते फिरना उचित नहीं था। इस घटना के बाद आ क्यू की वंश परंपरा की कहीं कोई चर्चा नहीं हुई। अतः मुझे अब भी ठीक-ठाक पता नहीं कि उसका कुलनाम सचमुच क्या था।

तीसरी कठिनाई, जिसका सामना मुझे इस रचना के बीच करना पड़ा, यह थी कि आ क्यू का व्यक्तिगत नाम कैसे लिखा जाए। जब तक वह जिन्दा रहा, सभी लोग उसे आ क्वील के नाम से पुकारते रहे, परन्तु जब वह नहीं रहा, तो किसी ने आ क्वील की चर्चा तक नहीं की। कारण स्पष्ट है, वह उन व्यक्तियों में नहीं था, जिनका नाम "बाँस की तख्तियों और रेशम के कपड़े पर सुरक्षित" रखा जाता है। अगर नाम सुऱक्षित रखने की ही बात है, तो निश्चय ही यह रचना इस दिशा में पहला प्रयास कहलाएगी। अतः मेरे सामने शुरू में ही यह कठिनाई आ खड़ी हुई। मैंने इस सवाल पर बड़ी बारीकी से विचार किया। आ क्वील, क्या यहाँ आ क्वील का अर्थ पारिजात तो नहीं लगाया जाएगा या क्वील का अर्थ कुलीन वर्ग तो नहीं समझा जाएगा? यदि उसका दूसरा नाम चंद्र मंडप होता, या उसका जन्म दिवस चंद्रोत्सववाले महीने में मनाया जाता, तो निश्चय ही क्वील का अर्थ पारिजात से लगाया जा सकता था। लेकिन उसका कोई दूसरा नाम नहीं था, अगर था भी तो कोई जानता नहीं था, और उसने अपने जन्म दिवस पर निमंत्रण पत्र भेज कर अपने सम्मान में प्रशंसात्मक कविताएँ कभी प्राप्त नहीं की थीं, इसलिए उसका नाम आ क्वील (पारिजात) लिखना मनमर्जी कहलाएगा। साथ ही अगर उसका आफू ( खुशहाली) नाम का कोई बड़ा या छोटा भाई होता, तो उसे अवश्य ही आ क्वील (कुलीन वर्ग ) का नाम दिया जा सकता था, परन्तु उसे आ क्वील (कुलीन वर्ग ) नाम देने का कोई औचित्य नहीं। शेष सारे असामान्य अक्षर, जिनकी ध्वनि क्वील से मिलती है, इससे भी कम औचित्य रखते हैं। मैंने एक बार यह सवाल चाओ साहब के लड़के से पूछा था, जो काउंटी की सरकारी परीक्षा पास कर चुका था, परन्तु उस जैसा विद्वान भी चक्कर में पड़ गया था। उसका कहना था कि इस नाम का पता इसलिए नहीं चल पा रहा था, क्योंकि छन तूश्यू ने 'नया नौजवान' नामक पत्रिका निकालना शुरू कर दिया था, जिसमें पश्चिमी वर्णमाला के प्रयोग की वकालत की गई, इससे राष्ट्रीय संस्कृति बिल्कुल तहस-नहस हो रही है। अंत में मैंने अपने इलाके के किसी व्यक्ति से अनुरोध किया कि वह खुद जाकर आ क्यू के मामले से संबंधित कानूनी दस्तावेज की जाँच करे, पर आठ महीने बाद उसने मुझे चिट्ठी लिखी कि उन दस्तावेजों में आ क्वील नाम के किसी आदमी का उल्लेख नहीं है। जबकि मैं विश्वास के साथ यह नहीं बता सकता कि मेरे दोस्त की बात सच भी थी या नहीं, या उसने इस बारे में कोई कोशिश भी की थी या नहीं, फिर भी जब मैं इस तरह उसके नाम का पता नहीं लगा पाया, तो मेरे सामने और कोई चारा नहीं रहा। मुझे डर है कि नई ध्वनि प्रणाली अभी आम लोगों में प्रचलित नहीं है, इसलिए पश्चिमी वर्णमाला का इस्तेमाल करने में अंग्रेजी उच्चारणों के अनुसार आ क्वील नाम लिखने में और उसका संक्षिप्त रूप आ क्यू लिखने में मुझे कोई दिक्कत नहीं जान पड़ती। निश्चय ही यह 'नया नौजवान' पत्रिका का लगभग अंधानुकरण कहलाएगा और इसके लिए मैं बहुत शर्मिंदा हूँ, पर चाओ साहब के लड़के जैसा धुंरधर विद्वान भी मेरी समस्या हल नहीं कर पाया, तो ऐसी हालत में भला मैं और कर भी क्या सकता हूँ ?

मेरी चौथी कठिनाई आ क्यू के जन्म स्थान के बारे में थी। अगर उसका कुलनाम चाओ होता, तो इलाके के अनुसार वर्गीकरण करने के पुराने चलन के अनुसार, जो आज प्रचलित है, 'सौ कुलनाम' की टीका देखी जा सकती थी और मालूम हो सकता था कि वह 'कानसू प्रान्त के थ्येनश्वेइ नामक स्थान का निवासी' है, पर दुर्भाग्य से उसका कुलनाम ही विवादास्पद था, इसलिए जन्म स्थान भी अनिश्चित हो गया। हालाँकि उसकी अधिकतर जिन्दगी वेइचवाङ में ही बीती, वह प्रायः दूसरे स्थानों में भी रह चुका था। इसलिए उसे वेइचवाङ का निवासी कहना भी सही मालूम नहीं होता। यह वास्तव में इतिहास को तोड़ना-मरोड़ना कहलाएगा।

सिर्फ एक बात जिससे मुझे तसल्ली हुई, यह है कि आ अक्षर बिल्कुल सही है। यह निश्चित रूप से किसी झूठी तुलना का परिणाम नहीं है और विद्वत्तापूर्ण आलोचना की कसौटी पर खरा उतरता है। जहाँ तक दूसरी समस्याओं का संबंध है, उन्हें हल करना मेरे जैसे विद्वत्ताहीन व्यक्ति के बूते का नहीं और मैं उम्मीद करता हूँ कि डॉ. हू श, जो इतिहास और पुरातत्व में गहरी रुचि रखते हैं, के शिष्य भविष्य में इस पर नई रोशनी डाल सकेंगे। मैं सोचता हूँ तब तक मेरी 'आ क्यू की सच्ची कहानी' विस्मृति के गड्ढे में खो चुकी होगी। उपर्युक्त पक्तियों को इस रचना की भूमिका माना जा सकता है।