आ रही हिमालय से पुकार / जयप्रकाश चौकसे

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आ रही हिमालय से पुकार
प्रकाशन तिथि :22 मार्च 2016


मनुष्य ने अपने विकास के प्रारंभिक हजारोंे वर्षों में धरती के भीतर की संपदा का बमुश्किल 10 प्रतिशत इस्तेमाल किया परंतु विगत सौ वर्षों में लगभग 40 फीसदी संपदा का निर्ममता के साथ दोहन किया गया है, और शोषण तथा दोहन का यह सिलसिला निरंतर जारी है। जिन आपदाओं को लोकप्रिय बहानेबाजी के तहत प्राकृतिक आपदा कहा जाता है, वह दरअसल मनुष्य के लोभ और स्वार्थ के कारण होता है और कई बार इन्हें दुर्घटना भी कहा जाता है, परंतु सच तो यह है कि जघन्य हत्या है और अंतिम नतीजों के मद्‌देनजर इन्हें सामूहिक आत्महत्या भी कहा जा सकता है। सारे ऊंचे बांध धरती की छाती पर खंजर की तरह धंसे हुए हैं और मनुष्य के दास्तानों से ढंके हाथ, खून से सने हैं। अत: अपराधी की खोज के सारे ढकोसले उंगलियों पर खून के चिह्न नहीं खोज पाते, जो दरअसल मुजरिम की आंखोें में है और पुख्ता सबूत के अभाव में मुजरिम साफ बरी हो जाता है। होली के पावन उत्सव पर गांव गली और शहरों के नुक्कड़ों पर कितनी लकड़ी जलाई जाती है, कितने वृक्ष काटे जाते हैं परंतु क्या मात्र गोबर के उपलों को जलाकर यह रस्म पूरी नहीं की जा सकती, इसलिए प्रकृति की हत्या के मुकदमे में आम आदमी भी मुजरिम के कटघरे में खड़ा है। वृक्ष तो बिना किसी बहाने के भी काटे जा रहे हैं। मनुष्य ने नदियों को सुखा दिया है, पहाड़ों से बेहिसाब वृक्ष काटकर उन्हें श्रीहीन कर दिया गया है और वह उस डाल को काटता नज़र आ रहा है, जिस पर स्वयं बैठा है। प्रकृति के दर्द को निदा फाज़ली ने यूं बयां किया है-

'चीखे घर के द्वार की लकड़ी हर बरसात, मरकर भी मरते नहीं पेड़ों के दिन-रात।' हाल ही में वाणी प्रकाशन ने जयपुर के लक्ष्मीप्रसाद पंत की किताब 'हिमालय का कब्रिस्तान' जारी की है और इस किताब में केदारनाथ, कश्मीर और काठमांडू में कुदरत के कहर का सच प्रस्तुत किया गया है। क्या यह महज इत्तफाक है कि हिंदी साहित्य में प्रकृति के गायक सुमित्रानंदन पंत है और आज के प्रकृति के दर्द को भी पत्रकार पंत ही अभिव्यक्त कर रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि उनका गद्य इतना काव्यमय बन पड़ा है। बानगी प्रस्तुत है, '…केवल बाहर घंटे चले प्रकृति के तांडव ने इलाके को कैसे मथ दिया है। पूरा भूगोल बदल चुका है….मैंने भी जिंदगी को पहाड़ी रास्तों के मिट्‌टी के साथ दरकते, उफनती नदी के साथ बहते, किनारे पर लगे पेड़ों की तरह उखड़ते और पत्थरों के तले दबी आंखिरी सांसों की तरह टूटते देखा है…कितना बौना हो गया है एवरेस्ट, बाजार के आगे…भक्तपुर से कांठमांडू लौटते समय मेरी नज़र एक मां पर पड़ी, जो मलबे में कुछ ढूंढ रही थी। उसे एक खिलौना मिलता है। इस मां का दु:ख देखिए कि खिलौना तो सुरक्षित है, लेकिन इससे खेलने वाला उसका एकलौता बेटा पांच दिनों से मलबे में दबा हुआ है।' अपनी इस किताब में पंत सिद्ध कर देते हैं कि पहाड़ की पीड़ा सियासी अनदेखी और चालाकियों से बिलख रही है। हुजूर पंत साहब, हुकूमतों की नज़र में मनुष्य भी खिलौना है और खिलौनों में चाभी भी अपनी सहूलियत से भरी जाती है कि उसे कितना ठुमकना है, कितना नाचना है, कितना हंसना-रोना है।

किताब की संरचना भी पहाड़ी राग की तरह की गई है और हर अध्याय के पहले किसी महान व्यक्ति के विचारों को उद्‌धृत किया गया है, जैसे पहले अध्याय के पहले 'आपदाएं अपने लिए दया के घंटे निर्धारित नहीं करतीं, वे तो किसी भी वक्त कहीं भी पहुंचकर अपना काम पूरा कर देती है। अापदाओं से हम सीख सकते हैं कि वे अपना काम बड़े ही ध्यान से पूरा करने के बाद ही लौटती है।' यह साहित्यकार मेहमत मुरत इलदान ने कहा है। इसी तरह उपन्यासकार कजुओ इशीगुरो की पंक्तियां हैं, 'जैसे शतरंज के खेल में जब तक हम अपनी चाल के ऊपर से अपनी उंगली नहीं उठाते, हमें अपनी गलती का एहसास नहीं होता, वैसे ही प्राकृतिक आपदाओं का एहसास भी अचानक ही होता है, जब हमारी गलतियां अति कर देती हैं।' इस किताब में सरकारों द्वारा दिए गए आंकड़ों का झूठ भी उजागर किया गया है। जैसे केदारनाथ तबाही में सरकारी आंकड़ा महज 580 मौतों का है, जबकि 15 हजार से अधिक लोग मारे गए हैं। सरकारें सारी आपदाओं को झूठे आंकड़ों से कमतर दिखाने की कोशिश करती हैं। ऐसा करके वे अपनी उदासीनता के अपराध बोध से मुक्त होने का नाटक करती हैं।कयामत के दिन वहां 31 हजार लोग थे। इस किताब में चित्रकार सुरेंद्र पाल जोशी के द्वारा बनाए गए रेखाचित्र हैं, जो एक संवेदनशील कलाकार के त्रासदी के नज़रिये को जीवंत करते हैं।

हम जब प्रायमरी स्कूल में पढ़ते थे तो हिमालय और गंगा का धार्मिक महत्व हमें पढ़ाया जाता था। इस महत्वपूर्ण किताब ने हमें हिमालय का एक और स्वरूप देखने का अवसर दिया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारी संवेदनाएं इनती भोथरी हो गई हैं कि खबरी सुर्खियों के सूखते ही हमारे अनबहे आंसू हमारी शिराओं में सिमट जाते हैं। हम जाने कैसे मुतमइन हो जाते हैं कि अब आपदा नहीं आएगी। हम अपना शोषण जारी रखते हैं। नवधनाढ्यों को अपनी शराब में हिमालय की बर्फ चाहिए, बोतल बंद पानी बेचने में भी हिमालय का प्रयोग किया जाता है। हम मुतमइन है कि वहां शिव का वास है परंतु शिव के तांडव की संभावनाअों को निरस्त करने का अर्थ यह नहीं कि वह अघटित रह जाएगा। निर्मम संवेदनहीन सरकारों और उनींदे आम लोगों को अनुमान ही नहीं कि मानवता बारूद के ढेर पर बैठी है। हम जन्मजात बौनों ने हिमालय की ऊंचाई भी कम करने का हरसंभव प्रयास किया है।