इंग्लैंड की हालत / हिंद स्वराज / महात्मा गांधी

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पाठक : आप जो कहते हैं उस पर से तो मैं यही अंदाज लगाता हूँ कि इंग्‍लैंड में जो राज्‍य चलता है वह ठीक नहीं है और हमारे लायक नहीं है।

संपादक : आपका यह ख्याल सही है। इंग्‍लैंड में आज जो हालत है वह सचमुच दयनीय - तरस खाने लायक है। मैं तो भगवान से यही माँगता हूँ कि हिंदुस्‍तान की ऐसी हालत कभी न हो। जिसे आप पार्लियामेंटों की माता कहते हैं, वह पार्लियामेंट तो बाँझ और बेसवा है। ये दोनों शब्‍द बहुत कड़े हैं, तो भी उसे अच्‍छी तरह लागू होते हैं। मैंने उसे बाँझ कहा, क्‍योंकि अब तक उस पार्लियामेंट ने अपने आप एक भी अच्‍छा काम नहीं किया। अगर उस पर जोर-दबाव डालने वाला कोई न हो तो वह कुछ भी न करे, ऐसी उसकी कुदरती हालत है। और वह बेसवा है क्‍योंकि जो मंत्रि-मंडल उसे रखे उसके पास वह रहती है। आज उसका मालिक एस्क्विथ है, तो कल बालफर होगा और परसों कोई तीसरा।

पाठक : आपके बोलने में कुछ व्‍यंग्‍य है। बाँझ शब्‍द को अब तक आपने लागू नहीं किया। पार्लियामेंट लोगों की बनी है, इसलिए बेशक लोगों के दबाव से ही वह काम करेगी। वही उसका गुण है, उसके ऊपर का अंकुश है।

संपादक : यह बड़ी गलत बात है। अगर पार्लियामेंट बाँझ न हो तो इस तरह होना चाहिए - लोग उसमें अच्‍छे से अच्‍छे मेंबर चुनकर भेजते हैं। मेंबर तनख्‍वाह नहीं लेते, इसलिए उन्हें लोगों की भलाई के लिए (पार्लियामेंट में) जाना चाहिए। लोग खुद सुशिक्षित-संस्‍कारी माने जाते हैं, इसलिए उनसे भूल नहीं होती ऐसा हमें मानना चाहिए। ऐसी पार्लियामेंट को अर्जी की जरूरत नहीं होनी चाहिए, न दबाव की। उस पार्लियामेंट का काम इतना सरल होना चाहिए कि दिन-ब-दिन उसका तेज बढ़ता जाए और लोगों पर उसका असर होता जाए। लेकिन इससे उलटे इतना तो सब कबूल करते हैं कि पार्लियामेंट के मेंबर दिखावटी और स्‍वार्थी पाए जाते हैं। सब अपना मतलब साधने को सोचते हैं। सिर्फ डर के कारण ही पार्लियामेंट कुछ काम करती है। जो काम आज किया वह कल उसे रद करना पड़ता है। आज तक एक भी चीजों को पार्लियामेंट में ठिकाने लगाया गया हो ऐसी कोई मिसाल देखने में नहीं आती। बड़े सवालों की चर्चा जब पार्लियामेंट में चलती है, उस पार्लियामेंट में मेंबर इतने जोरों से चिल्‍लाते हैं कि सुनने वाले हैरान परेशान हो जाते हैं। उसके एक महान लेखक ने उसे 'दुनिया की बातूनी' जैसा नाम दिया है। मेंबर जिस पक्ष अगर कोई मेंबर इसमें अपवादरूप निकल आए, तो उसकी कमबख्‍ती ही समझिए। जितना समय और पैसा पार्लियामेंट खर्च करती है उतना समय और पैसा अगर अच्‍छे लोगों को मिले तो प्रजा का उद्घार हो जाए। ब्रिटिश पार्लियामेंट महज प्रजा का खिलौना है और वह खिलौना प्रजा को भारी खर्च में डालता है। ये विचार मेरे खुद के हैं ऐसा आप न मानें। बड़े और विचारशील अंग्रेज ऐसा विचार रखते हैं। एक मेंबर ने तो यहाँ तक कहा है कि पार्लियामेंट धर्मिष्‍ठ आदमी के लायक नहीं रही। दूसरे मेंबर ने कहा है कि पार्लियामेंट एक 'बच्‍चा' (बेबी) है। बच्‍चों को कभी आपने हमेशा बच्‍चे ही रहते देखा है? आज सात सौ बरस के बाद भी अगर पार्लियामेंट बच्‍चा ही हो, तो वह बड़ी कब होगी?

पाठक : आपने मुझे सोच में डाल दिया। यह सब मुझे तुरंत मान लेना चाहिए, ऐसा तो आप नहीं कहेंगे। आप विलकुल निराले विचार मेरे मन में पैदाकर रहे हैं। मुझे उन्हें हजम करना होगा। अच्‍छा, अब 'बेसवा' शब्‍द का विवेचन कीजिए।

संपादक : मेरे विचारों को आप तुरंत मान नहीं सकते, यह बात ठीक है। उसके बारे में आपको जो साहित्‍य पढ़ना चाहिए वह आप पढ़ेंगे, तो आपको कुछ ख्‍याल आएगा। पार्लियामेंट को मैंने बेसवा कहा, वह भी ठीक है। उसका कोई मालिक नहीं है। उसका कोई एक मालिक नहीं हो सकता। लेकिन मेरे कहने का मतलब इतना ही नहीं है। जब कोई उसका मालिक बनता है - जैसे प्रधानमंत्री - तब भी उसकी चाल एक सरीखी नहीं रहती। जैसे बुरे हाल बेसवा के होते हैं, वैसे ही सदा पार्लियामेंट के होते हैं। प्रधानमंत्री को पार्लियामेंट की थोड़ी ही परवाह रहती है। वह तो अपनी सत्‍ता के मद में मस्‍त रहता है। अपना दल कैसे जीते इसी की लगन उसे रहती है। पार्लियामेंट सही काम कैसे करे, इसका वह बहुत कम विचार करता है। अपने दल को बलवान बनाने के लिए प्रधानमंत्री पार्लियामेंट से कैसे-कैसे काम करवाता है, इसकी मिसालें जितनी चाहिए उतनी मिल सकती हैं। यह सब सोचने लायक है।

पाठक : तब तो आज तक जिन्‍हें हम देशाभिमानी और ईमानदार समझते आए हैं, उन पर भी आप टूट पड़ते हैं।

संपादक : हाँ, यह सच है। मुझे प्रधानमंत्रियों से द्वेष नहीं है। लेकिन तजरबे से मैंने देखा है कि वे सच्‍चे देशाभिमानी नहीं कहे जा सकते। जिसे हम घूस कहते हैं वह घूस वे खुल्‍लमखुल्‍ला नहीं लेते-देते, इसलिए भले ही वे ईमानदार कहे जाए। लेकिन उनके पास बसीला काम कर सकता है। वे दूसरों से काम निकालने के लिए उपाधि वगैरा की घूस बहुत देते हैं। मैं हिम्‍मत के साथ कह सकता हूँ कि उनमें शुद्ध भावना और सच्‍ची ईमानदारी नहीं होती।

पाठक : जब आपके ऐसे ख्याल हैं तो जिन अंग्रेजों के नाम से पार्लियामेंट राज करती है उनके बारे में अब कुछ कहिए, ताकि उनके स्वराज का पूरा ख्याल मुझे आ जाए।

संपादक : जो अंग्रेज 'वोटर' है (चुनाव करते हैं), उनकी धर्म-पुस्‍तक (बाइबल) तो है अखबार। वे अखबारों से अपने विचार बनाते हैं। अखबार अप्रमाणिक होते हैं, एक ही बात को दो शकलें देते हैं। एक दलवाले उसी बात को बड़ी बनाकर दिखलाते हैं, तो दूसरे दलवाले उसी को छोटी कर डालते हैं। एक अखबार वाला किसी अंग्रेज नेता को प्रामाणिक मानेगा, तो दूसरा अखबार वाला उसको अप्रामाणिक मानेगा। जिस देश में ऐसे अखबार हैं उस देश के आदमियों की कैसी दुर्दशा होगी?

पाठक : यह तो आप ही बताइए।

संपादक : उन लोगों के विचार घड़ी-घड़ी में बदलते हैं। उन लोगों में यह कहावत है कि सात सात बरस में रंग बदलता है। घड़ी के लोलक की तरह वे इधर-उधर घूमा करते हैं। जमकर वे बैठे ही नहीं सकते। कोई दौर-दमाम वाला आदमी हो और उसने अगर बड़ी-बड़ी बातें कर दीं या दावतें दे दीं, तो वे नक्‍कारची की तरह उसी के ढोल पीटने लग जाते हैं। ऐसे लोगों की पार्लियामेंट भी ऐसी ही होती है। उनमें एक बात जरूर है। वह यह कि वे अपने देश को खोएँगे नहीं। अगर किसी ने उस पर बुरी नजर डाली, तो वे उसकी मिट्टी पलीद कर देंगे। लेकिन इससे उस प्रजा में सब गुण आ गए, या उस प्रजा की नकल की जाए, ऐसा नहीं कह सकते। अगर हिंदुस्‍तान अंग्रेज प्रजा की नकल करे तो हिंदुस्‍तान पामाल हो जाए, ऐसा मेरा पक्‍का ख्याल है।

पाठक : अंग्रेज प्रजा ऐसी हो गई है, इसके आप क्‍या कारण मानते हैं?

संपादक : इसमें अंग्रेजों का कोई खास कसूर नहीं है, पर उनकी - बल्कि यूरोप की - आजकल की सभ्‍यता का कसूर है। वह सभ्‍यता नुकसानदेह है और उससे यूरोप की प्रजा पामाल होती जा रही है।