इंजन / लिअनीद अन्द्रयेइफ़ / अल्पना दाश

Gadya Kosh से
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एक

पादरी साहब रेलगाड़ी छूटने के दो घंटे पहले ही स्टेशन पहुँच गए थे। आज सवेरे सूरज उगते ही वे घर से निकल पड़े थे। उनके घर से स्टेशन क़रीब बीस मील की दूरी पर है। वहाँ पहुँचने के लिए उन्हें भांग के खेतों, जंगलों और घास के मैदानों से गुज़रना पड़ा, इसीलिए उनके कपड़ों पर रास्ते की धूल चमक रही है और उनसे भांग, जंगली फूलों और जंगली घास की महक आ रही है। स्टेशन में चारों तरफ़ कोयले, तेल और धूप में तपे लोहे की गंध फैली हुई है। पादरी साहब के गाड़ीवान के कपड़ों से भी घोड़े की लीद, पसीने और डामर की बदबू आ रही थी। उसने पादरी साहब को स्टेशन पर उतारा, कुछ देर अपनी घोड़ा-गाड़ी की सीट वग़ैरह ठीक करता रहा, फिर उसने अपनी गाड़ी मोड़ी और वापस चला गया। पादरी साहब अपने थैले, छाते और मीठी पूरियों के साथ वहाँ अकेले रह गए। अपने अकेलेपन से कुछ पल के लिए तो वे उदास हो गए और उन्होंने धीरे से अपने गाड़ीवान को आवाज़ लगाई :

— इवान, ओ इवान !

गाड़ी अब तक काफ़ी दूर निकल चुकी थी, इसलिए उनकी आवाज़ गाड़ीवान तक नहीं पहुँची। लेकिन तभी, पादरी साहब को बड़ी ख़ुशी-सी महसूस हुई। जैसे ही उन्हें इस बात का एहसास हुआ कि स्टेशन की इमारत जैसी ख़ूबसूरत जगह में वे बिलकुल अकेले हैं। और वे इस बात पर भी ख़ुश थे कि आख़िरकार उनको अपने घर से निकलकर शहर जाने का मौक़ा मिल ही गया। उस दिन मौसम बहुत अच्छा था। आसमान नीला और बहुत साफ़ था, इस बात से भी उन्हें बहुत राहत मिल रही थी। पहले कुछ देर तक वे एक बैंच पर बैठे रहे। धीरे-धीरे उन्होंने यह महसूस किया कि वे अपनी उस उबाऊ दुनिया से निकलकर रेलगाड़ी और स्टेशन की दिलचस्प दुनिया में पहुँच गए हैं। इस बात पर भी उन्हें बेइन्तहा खुशी हो रही थी। वे पहली बार शहर जा रहे थे और इतनी उम्र हो जाने के बावजूद पहली बार रेलगाड़ी में बैठनेवाले थे। उन्हें रेल और रेल व्यवस्था के कायदे कानूनों की कोई जानकारी नहीं थी। डरते-डरते उन्होंने स्टेशन की शानदार इमारत में ताक-झाँक करनी शुरू कर दी। सामने ही रेलवे की कैण्टीन दिखाई दे रही थी। अपनी उत्सुकता शांत करने के लिए वे कैण्टीन में घुस गए । वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि वहाँ एक लम्बी-सी मेज़ लगी हुई है, जिस पर संगमरमर के डिज़ाइन वाला मोमजामे का मेज़पोश बिछा हुआ है और मेज़ पर चारों ओर मक्खियाँ भिन-भिना रही थीं। यह देखकर उनके मन में थोड़ी-सी घिन पैदा हुई और वे जल्दी से कैण्टीन से बाहर आ गए। बराबरवाले एक कमरे में झाँका, तो उन्हें रेलवे का टेलीग्राफ-ऑफिस दिखाई दिया। वहाँ एक अजीब-सी मशीन राखी हुई थी जिससे लगातार तक-तक की आवाज़ आ रही थी। मशीन में से एक लम्बा-सा कागज़ बाहर निकलता जा रहा था। पादरी साहब ने सिर हिलाकर कहा :

— वाह, कितनी ज़ोरदार मशीन है !

उसके बाद उन्हें टिकट की खिड़की दिखाई दी। उन्हें टिकट ख़रीदना था लेकिन फ़िलहाल खिड़की बन्द थी। टिकट-बाबू भी वहाँ नहीं बैठा था। निराश होकर वे वापस प्लेटफ़ॉर्म पर लौट आए ।

रेल का स्टेशन उन्होंने पहली बार देखा था। साफ़-सुथरा और लम्बा-सा स्टेशन का प्लेटफ़ॉर्म उन्हें पसंद आया। प्लेटफ़ॉर्म के ज़्यादातर हिस्सों पर डामर बिछा हुआ था, लेकिन कहीं-कहीं टाइलें भी लगी हुई थीं। प्लेटफ़ॉर्म बहुत खुला-खुला और सुविधाजनक लग रहा था। प्लेटफ़ॉर्म के दोनों ओर रेलगाड़ी की पटरियाँ चमक रही थीं। इन पटरियों को देखकर पादरी साहब के मन में आया कि इनपर चलनेवाली रेलगाड़ियाँ आपको कुछ ही देर में मीलों दूर पहुँचा देती हैं। और आप एकदम नई, अपरिचित और अनजान दुनिया में पहुँच जाते हैं। यह ख़याल आते ही आते ही बूढ़े मियाँ को जोश आ गया और उन्हें याद आया कि उन्होंने अभी तक टिकट नहीं लिया है। वे बड़ी फुर्ती से टिकट-खिड़की की ओर बढ़े, लेकिन वह अभी भी बन्द थी। उसके खुलने में अभी भी कुछ देर थी।

— हैरानी की बात है, बड़ी हैरानी की बात है — पादरी साहब थोड़ी नाराज़गी से पादरी साहब के मुँह से निकला। अचरज से उनका सरहिलने लगा था।सर हिलने की वजह से उनके बदन में थरथराहट पैदा हो गई और उनके कपड़ों और बालों से रास्ते की बारीक़ धूल के ज़र्रे झड़कर नीचे गिरने लगे। टिकट-खिड़की के खुलने का इंतज़ार करते हुए वे प्लेटफ़ॉर्म पर ही यहाँ से वहाँ टहलने लगे। भारी तल्लेवाले उनके जूतों से बेहूदी-सी आवाज़ निकलने लगी जो ख़ुद उन्हें भी परेशान करने लगी। इस आवाज़ से बचने के लिए उन्होंने सोचा, क्यों न रेल- पटरियों के बीचों-बीच घूमा जाय ? वहाँ नरम और रेशमी बालू पड़ी है और बालू पर जूते आवाज़ नहीं करेंगे। वे धीरे-से प्लेटफ़ॉर्म से पटरियों पर उतर गए। और पटरियों के बीचों-बीच टहलने लगे। अभी वे कुछ ही दूर चले होंगे कि उन्हें वहाँ खड़ा एक रेल-इंजन नज़र आ गया। जो बहुत बड़ा, काला और गन्दा-सा था। यह भाप से चलने वाला इंजन था। उन दिनों इसी तरह के इंजन रेलगाड़ी को खींचा करते थे। मुख्य पटरी से अलग वह इंजन एक बगलवाली पटरी पर खड़ा था। पादरी साहब को लगा कि जैसे इंजन सो रहा है या सोने का नाटक कर रहा है। इंजन एक ही जगह पर स्थिर और शान्त खड़ा था, पादरी साहब उस प्रबल और शक्तिशाली लौह-दानव को देखकर बड़े प्रभावित हुए। उन्हें लगा कि यही वह उड़नेवाला घोड़ा है जो आपको पलों में दुनिया के एक छोर से दूसरे छोर तक ले जाता है। जब वह दौड़ता है तो ऐसे हिनहिनाता और चिंघाड़ता है कि पहली बार तो लोगों का दम ही निकल जाता है। उसकी चिंघाड़ सुनकर लोग भागने लगते हैं और तितर-बितर हो जाते हैं। जो कोई उसके रास्ते में आता है, यह लौह-दानव उसे निर्ममता से कुचलकर आगे बढ़ जाता है। हालाँकि इस दानव पर क़ाबू पाने का तरीक़ा भी सोच लिया गया है — लाल बत्ती देखते ही दानव की सारी हवा निकल जाती है और वह किसी चूहे की तरह चुपचाप रुक जाता है। फिर जब तक उसे हरी बत्ती दिखाई नहीं देती, वह अपनी जगह पर खड़ा रहता है। लोहे के अनगिनत पहियों, पाइपों और लीवरों से मिलकर बना यह काला लौह-दानव सिर्फ़ भाप जैसे बारीक़ और रंगहीन कोहरे के क़ाबू में आता है। — शानदार, उन्होंने ज़ोर देते हुए कहा, कितनी शानदार है यह मशीन !”

उन्होंने ऊपर देखा — उन्हें लगा जैसे यह नीला-नीला बे-इन्तिहा फैला हुआ आसमान उनको बुला रहा था।

दो

वे इंजन के एकदम क़रीब पहुँच गए। बहुत ध्यान से देखने पर उन्हें लगा कि रेल-इंजन सचमुच सो रहा है। न कोई धुआँ न कोई घरघराहट, मानो वास्तव में मरा पड़ा हो। उसकी ईंधन-भट्टी के आस-पास भी उस वक़्त कोई नहीं दिख रहा था। पादरी साहब ने सोचा यह मौक़ा बड़ा अच्छा है, चलो, उसे छूकर देखता हूँ। कम-से-कम उसके वज़नी पहिये को तो आराम से छूकर देख ही सकता हूँ।उन्हें लग रहा था कि कहीं पहिए गरम न हों। आस-पास कुछ और न पाकर उन्होंने अपनी उँगलियों को थूक लगाकर गीला कर लिया। फिर उन्होंने जल्दी से पहिए की तरफ़ अपना हाथ बढ़ाया और हौले-से उसको छू लिया। उसके बाद उन्होंने अपनी उँगलियों को फिर से थूक लगाकर गीला कर लिया…।

फिर उन्होंने अपना सर घुमाकर डरते-डरते इधर-उधर देखा। कुछ दूरी पर उनको पटरियाँ पार करके अपनी ओर आती हुई एक औरत नज़र आई। वह उन्हीं की तरफ़ देख रही थी। पादरी साहब ने संशय से अपना माथा सिकोड़ा और अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरने लगे, जैसे उसे सहला कर रहे हों । वह औरत उनकी तरफ़ बढ़ी चली आ रही थी। पादरी साहब ने अपनी जेब से एक नीला चारख़ानेदार रूमाल निकाला और उससे अपना चेहरा पोंछने लगे ताकि वह औरत यह समझे कि उनको पसीना आ रहा है। पसीना उन्हें वाक़ई आ रहा था। रूमाल गन्दा हो गया। रूमाल में धूल-मिले पसीने से कुछ धारियाँ-सी बन गईं। जब वह औरत उनके पास से गुज़रकर आगे चली गई तो पादरी साहब ठठाकर हँसे। उनकी यह इच्छा हुई कि किसी की और आँख मारकर वे यह बताएँ कि लोगों को कैसे बुद्धू बनाया जा सकता है। वहाँ कोई और तो था नहीं, इसलिए वे इंजन की ओर आँख मारकर ख़ुद हँसने लगे।

वे सोच रहे थे, कि अगर उनके चर्च में आनेवाले ईश्वर के भक्त इस समय उन्हें देख लेते तो सोचते कि यह पादरी भी कितना गुरु है, देखो तो, क्या-क्या हरकतें कर रहा है ! लेकिन वे फिर से इंजन का मुआयना करने लगे। तभी उन्हें याद आया कि उन्हें अभी टिकट भी ख़रीदना है। पहले तो उन्होंने सोचा कि स्टेशन पर टिकट-खिड़की खुल चुकी होगी। लेकिन उन्हें लगा की अभी गाड़ी के आने में देर है और इतने पास से इंजन का मुआयना करने का ऐसा मौक़ा फिर कभी उनके हाथ नहीं लगेगा। वे इंजन के चारों तरफ़ घूम-घूमकर इंजन को देखते रहे और इंजन बनानेवालों की कारीगरी पर हैरान होते रहे। थोड़ी देर बाद वे टिकट लेने के लिए स्टेशन पर आ गए। लेकिन उन्होंने पाया कि टिकट-खिड़की अभी भी बन्द थी। और गाड़ी सिर्फ़ सवा घण्टे बाद ही जानेवाली थी। तभी रेलवे का एक ख़लासी वहाँ से गुज़रा। उसने ग़ौर से पादरी साहब के पहनावे की तरफ़ देखा। पादरी साहब ने उसे देखकर अपना सिर हिलाया और उसने झुककर उनका अभिवादन किया।

— कितने तमीज़दार लोग हैं ! पढ़े-लिखे हैं न, इसलिए। हम गाँववालों की तरह नहीं कि किसी अनजान आदमी को देखकर अपना रास्ता बदल लेते हैं। पादरी साहब मन-ही-मन उस ख़लासी की तारीफ़ कर रहे थे। गाड़ी आने में अभी देर थी। इंजन को देखकर पादरी साहब का मन नहीं भरा था। उन्होंने सोचा कि चलो एकबार फिर उसी तरफ़ चलता हूँ। और वे इंजन की तरफ़ बढ़ चले। इस बार पादरी साहब को इंजन भला और सीधा लगा। वे उसके पास पहुँचकर बड़े अपनेपन से उससे बातें करने लगे, जैसे किसी घोड़ा-गाड़ी का कोचवान अपने घोड़े के रवाना होने से पहले उससे बातचीत करता है। उन्होंने बड़े स्नेह से उससे कहा — हाँ, काम तो तू हमेशा करता है, आराम करने का समय कम ही मिलता है। चल, ठीक है, आराम कर ले ज़रा ! फिर तो तुझे गाड़ी में जुतना ही है।

इंजन उनकी यह प्रेमभरी बातें सुनकर चुपचाप अपनी जगह पर आराम से खड़ा रहा।अचानक पादरी साहब को न जाने क्या सूझी कि उन्होंने उसका हत्था पकड़ा और उसके ऊपर चढ़ने लगे। लेकिन तभी थोड़ा रुक गए। उन्हें थोड़ी झिझक हुई। फिर वे देर तक सर हिलाते रहे और बालों से धूल झाड़ते हुए मुस्कराते रहे। इसके बाद उन्होंने अपना छाता और थैला नीचे ज़मीन पर रख दिया। फिर कुछ सोचकर उन्होंने वह सब फिर से अपने हाथों में उठा लिया। वे ज़रा-सी देर को इधर-उधर ताकते रहे। शायद यह देख रहे थे कि कोई उन्हें इंजन पर चढ़ते हुए तो नहीं देख रहा है। उन्होंने दोबारा अपना सामान नीचे रख दिया और उसके बाद उसके बाद अपना चोगा सँभालते हुए सावधानी से इंजन पर चढ़ गए। उसमें सिर्फ़ तीन सीढ़ियाँ थीं लेकिन पादरी साहब को वे गिरजे के घण्टाघर की सीढ़ियों की तरह ऊँची लग रही थीं।

— शानदार, बेहद शानदार है यह मशीन ! — उन्होंने बेहद संजीदगी से कहा। ऐसे संजीदा लहज़े में वे आमतौर पर विज्ञान के रहस्यों और चमत्कारों के बारे में ही बातें किया करते थे। अब इंजन के पास खड़े होकर उन्हें लगा, वे भी किसी वैज्ञानिक से कम नहीं हैं। यह ख़याल आते ही उन्होंने इंजन के किसी एक पुरजे पर अपना हाथ रख दिया। उसके बाद वे इस मशीन को बड़े ध्यान से देखने और जाँचने लगे। वे दंग की इस मशीन में कितने सारे पुरजे हैं। और ये सारे पुरजे मिलकर काम करते हैं। और इतने सारे मुसाफ़िरों से भरी रेलगाड़ी को आराम से खींचकर मीलों दूर पहुँचा देते हैं। इंजन में से कुछ हत्थे जैसे बाहर निकले हुए थे और उन लीवरों के आस-पास बहुत सारे कई संकेत-चिह्न बने हुए थे। कहीं-कहीं पर कुछ अंक और संख्याएँ लिखी हुई थीं। वैसे, कुल मिलाकर, बड़े मियाँ को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। बस, उनको यह विश्वास हो चला था कि यह लौह-दानव एक बहुत ही ख़ास, मुश्किल, ज़रूरी और फ़ायदेमन्द मशीन है। सबसे ज़्यादा खुशी उन्हें इस बात की थी कि वे ख़ुद, एक देहाती-गँवार पादरी होते हुए भी, अब इंजन पर चढ़ चुके हैं। यह मौक़ा आम लोगों को कहाँ मिलता है। उन्हें तो अपने कुतूहल की वजह से और ज्ञान-विज्ञान के लिए मन में इज़्ज़त होने की वजह से ही यह मौक़ा मिल गया है। उन्हें अपने ऊपर नाज़ हो रहा था कि देहाती होने के बावजूद भी वे साइन्स की ज़रूरत समझते हैं और उसमें दिलचस्पी रखते हैं ।

— क्या खोज की है ! क्या आलीशान चीज़ बनाई है ! शानदार ! —  वे बुदबुदा रहे थे। फिर उन्होंने ज़मीन पर पड़े अपने छाते और थैले पर एक उदासीन-सी लापरवाह नज़र डाली। अब तो उन्हें अपना यह छाता भी बेकार लग रहा था। उन्हें वह दिन याद आया जब उन्होंने नया-नया छाता ख़रीदा था। तब वे उस छाते के बारे में सब गाँवालों को ऐसे जानकारी दिया करते थे जैसे उन्होंने कोई शानदार चीज़ ख़रीद ली हो। आज इंजन को देखकर भी उन्हें ऐसा ही लग रहा था। हालाँकि इसके ताम-झाम उन्हें समझ में नहीं आ रहे थे। वे इंजन से बाहर की ओर निकले हत्थों को बड़े कुतूहल से इस तरह छूने और दबाने लगे मानो किसी बच्चे को कोई नया खिलौना लाकर दे दिया गया हो। उन्होंने पहले एक हत्थे को छुआ फिर दूसरा हत्था छुआ, फिर एक-साथ तीन-चार हत्थे छुए। लेकिन इंजन के ऊपर कोई असर नहीं हुआ।तभी उन्होंने बाएँ हाथ की तरफ़ लगे हुए एक हत्थे को नीचे की तरफ़ दबा दिया। इंजन जैसे अचानक ज़िन्दा हो गया। पहले उसने हलकी सी सीटी बजाई और फिर गुर्राने लगा। पादरी साहब की समझ में कुछ नहीं आया। उन्होंने सर घुमाकर इधर-उधर देखा, फिर उस हत्थे को ऊपर करने की कोशिश की। लेकिन इंजन की गुर्राहट में कोई फ़र्क नहीं पड़ा। पादरी साहब ने झुककर नीचे की तरफ़ देखा, इंजन पहले की तरह गुर्रा रहा था। पादरी साहब का चेहरा फक पड़ गया और उनका दिल ज़ोरों से धड़कने लगा । अब अगर कोई आ गया तो मैं क्या जवाब दूँगा ? 

उन्होंने डरते-डरते एक बटन दबा दिया और सीटी की आवाज़ एकदम थम गई। लेकिन यह क्या — इंजन अब ज़ोर से हिनहिनाया। पादरी साहब पूरी तरह से घबरा गए थे। उन्होंने मदद के लिए अपने चारों तरफ़ निगाह घुमाई। लेकिन उन्हें ज़मीन पर पड़े अपने छाते के अलावा और कुछ नहीं दिखाई दिया। इंजन को हिनहिनाने से रोकने के लिए उन्होंने अपने क़रीब दिखाई दे रहा एक हत्था खींच दिया। अचानक उनको बड़ी ज़ोर का झटका लगा और जैसे किसी चीज़ ने उन्हें पहले पीछे की ओर, फिर आगे की तरफ़ धकेला। वे इंजन की एक खिड़की पकड़कर सीधे खड़े हो गए। पादरी साहब खुश थे कि उन्हें चोट नहीं लगी है। अपने बच जाने की खुशी अभी वे मना भी नहीं पाए थे कि उन्होंने देखा कि इंजन बड़ी तेज़ी से आगे की और भाग रहा है। अब न तो स्टेशन दिखाई दे रहा था और न उसके आस-पास का वह माहौल ही था जिसे देखकर वे बेहद खुश हुए थे। चारों तरफ़ के नज़ारे पीछे छूटते जा रहे थे। तभी उन्हें अपने छाते और थैले की याद आई। वे तो कब के पीछे छूट चुके थे।

तीन

पादरी साहब डरे नहीं थे, वे घबराए भी नहीं थे। वे तो, बस, उसकी ताक़त देखकर चकित हो रहे थे। अचानक उनके मन में ख़याल आया — अरे यह तो एकदम गैण्डा है। गैण्डे की तरह भागता और दहाड़ता है। गेंडे की तरह ही झटके खाते-खाते हिल-डुल रहा है। किसी ने सच ही बताया था, एकदम जंगली जानवर की तरह लगता है। देखो न कैसी मुसीबत है। यह गेंडा मुझे लेकर भाग रहा है और मैं कुछ भी नहीं कर सकता। किसी चीज़ को हाथ भी नहीं लगा सकता। सब कुछ गड़बड़ हो चुका है। — पादरी साहब के हाथों ने तभी एक हरक़त की और वहाँ लगे एक छोटे से पहिये को घुमा दिया। पहिये का घूमना था कि इंजन ने एक बिल्ली की तरह झटका लिया और इतनी तेज़ी से दौड़ने लगा कि हवा पादरी साहब के कानों में साँय-साँय गूँजने लगी। उन्होंने इंजन की गति कम करने का फ़ैसला किया और अपनी तरफ़ से फिर उसी पहिये को वापस घुमा दिया। लेकिन यह दूसरा पहिया था और अचानक उनके सर के ऊपर एक तीख़ी, बहरा कर देनेवाली भयंकर सीटी-सी गूँजने लगी। अब तो हद हो गई थी। पादरी साहब परेशान हो गए। सोचने लगे — अरे, इससे पहले तो तू कम-से-कम बिना किसी हो-हल्ले के दौड़ रहा था, लेकिन अब तो तूने हंगामा ही मचा दिया है । पादरी साहब ने सोचा — अब तो भगवान ही मालिक है।

— हे ईश्वर, तू मुझे बचा !— पादरी साहब प्रार्थना याद करने लगे। लेकिन ईसाई धर्म में इस तरह की विपदा के लिए तो कोई प्रार्थना है ही नहीं। — हे ईश्वर, हे ईश्वर…मुझे बचा… ! इसके आगे क्या बोलूँ?

उन्होंने मदद पाने के लिए खिड़की से सर बाहर निकालकर झाँका। हवा इतनी तेज़ थी कि उनकी टोपी ही उड़ गई और बाल बिखर गए। उन्होंने झटके से अपना सर इंजन के अंदर कर लिया। अचानक इंजन एक पल पर से गुज़रने लगा और धड़धड़ाहट होने लगी।

— हे ईश्वर… ! — पादरी साहब के मुँह से निकला — पुल को देखकर वे सोचने लगे — यह कौनसी नदी है ? एक मिनट में ही पुल भी गायब हो गया। इंजन घने जंगल में पहुँच गया था। ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की वजह से बाहर नीम-अँधेरा छा गया था। अचानक अँधेरे को देखकर पादरी साहब घबरा गए। उन्हें लगा कि ज़मीन घँस रही है। अँधेरा हो रहा है। कहीं इंजन भी ज़मीन में न धँस जाए।

तभी उन्हें लाइनमैन का केबिन दिखाई पड़ा, जिसमें खड़ा आदमी ज़ोर-ज़ोर से लाल झंडी हिला रहा था। इसका मतलब था — रुको, रुको ! लेकिन पादरी साहब आख़िर रुकते तो कैसे ? उनको लग रहा था कि कोई शैतान ही इस इंजन को धकिया रहा है। उनका चेहरा डर के मारे फक पड़ चुका था । उन्हें लग रहा था कि अब बचने की कोई उम्मीद नहीं है। वे आख़िरी सफ़र में हैं।

लेकिन वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि आख़िर यह सब हुआ कैसे ? वह कौनसी ताक़त है जिसने उनसे यह हरक़तें करवाईं ? यह सब अपने आप होना तो नामुमकिन है। लगता है कोई शैतान उनपर सवार हो गया है और वही उनसे यह अजीब-अजीब हरक़तें करवा रहा था। अब इस शैतान से छुटकारा कैसे पाया जाए ? उन्हें भूख भी लग आई थी। घर की वे मीठी पूरियाँ याद आ रही थीं, जो उनके छाते के साथ स्टेशन पर ही छूट गई थीं। अब वे सोच रहे थे — दाने-दाने पे लिखा है खानेवाले का नाम। पता नहीं किसकी क़िस्मत में थीं वे पूरियाँ !

इंजन वैसी ही गड़गड़ाहट के साथ भागता जा रहा था। पादरी साहब की आँखों के आगे अँधेरा छा गया था। ज़िन्दा बचने की अब कोई उम्मीद नहीं रह गई थी। उन्हें टुकड़ों-टुकड़ों में अपनी ज़िन्दगी के आख़िरी दिन याद आने लगे। तभी एक बार फिर उन्हें आग की लपलपाती जीभ की तरह लहराती लाल झंडी नज़र आई। इसका मतलब उन्होंने निकाला — ख़तरा। यानी आगे ख़तरा है। कितना भयानक है यह सब ! लगता है, सब कुछ ख़तम हो गया।

अब पादरी साहब के दिमाग़ ने काम करना बन्द कर दिया था। उन्हें ऊल-जलूल चीज़ें दिखाई दे रही थीं और ऊल-जलूल बातें सुनाई दे रही थीं। उन्हें बेहद कमज़ोरी महसूस हो रही थी। अपने पैरों पर खड़े होने की ताक़त भी बाक़ी न रही थी। अचानक वे इंजन में ही गिर पड़े। इंजन के पहियों की खट-खट और धड़-धड़ का शोर बढ़ता चला गया। वे बेबस-से पड़े हुए थे। कभी उन्हें लगता कि वे हवा में उड़ रहे हैं, तो कभी उन्हें लगता कि वे ज़मीन पर खड़े हैं। उन्हें बचा लिया गया है, उनके आस-पास कुछ लोगों की भीड़ है, जिनमें उनकी बीवी भी शामिल है। फिर अचानक उन्होंने देखा कि वे गिरजे में प्रार्थना करा रहे हैं। ईश्वर-भक्त आ-आकर उनका अभिवादन कर रहे हैं और वे सबको असीसें दे रहे हैं।

अचानक पादरी साहब की चेतना वापस आ जाती है। होश में आने के बाद उन्हें यह महसूस होता है कि वे इंजन के फ़र्श पर लेटे हैं और रेल का इंजन पहले की तरह ही धड़धड़ाकर आगे की ओर भाग रहा है। वे बहुत ही अजीब ढंग से चिल्लाकर इंजन से कहते हैं — अबे, रुक ! रुक जा, शैतान ! मेरी बात मान ! अबे रुक, गधे, सुअर, हरामज़ादे !

वे कुछ देर तक इंजन पर इसी तरह नाराज़ होते रहे।

अपने इस ख़तरनाक और भयानक सफ़र के असर से वे फिर से होश खोने लगे। इंजन के झटकों से उनका बदन हिल-डुल रहा है। उनके सफ़ेद पड़ चुके चेहरे पर झुर्रियाँ गहरा गईं थीं और चेहरा कोयले की धूल से काला पड़ गया था।

पादरी साहब के चारों तरफ़ सुन्न और मुर्दा ख़ामोशी छाई हुई थी, जैसी बाढ़ की उस तेज़ धारा में होती है, जो अपने साथ सब कुछ बहाकर ले जाती है। यह चुप्पी वैसी ही थी जैसी समुद्र के किनारे खड़े प्रकाशस्तम्भ की हलकी रोशनी से छलकती है। पूरी तरह से नाउम्मीद हो चुके पादरी साहब के अवचेतन में उस समय भी बहुत पीछे छूट चुकी मीठी पूरियों का स्वाद था।

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अल्पना दाश

भाषा एवं पाठ सम्पादन : अनिल जनविजय

मूल रूसी भाषा में इस कहानी का नाम है —’निअस्तअरोझनस्त’ (Леонид Андреев — неосторожность)