इंटरनेट, सोनाली और सुबिमल मास्टर / प्रभात रंजन
मुजफ्फरपुर वाले दिवाकर भइया का ई-मेल आया था। लिखा था पिछले कुछ समय से मुझे तरह-तरह के ई-मेल आने लगे हैं। कई मेल अलग-अलग विदेशी संस्थाओं के नाम से आए जिनमें यह सुखद सूचना होती है कि मेरे ई-मेल पते को लकी ड्रा के आधार पर अलाँ या फलाँ पुरस्कार के लिए चुना गया है। पुरस्कार की राशि लाखों डॉलर या पाउंड में होती है।
पिछले महीने एक मेल आया जिसमें लंदन के पते वाली एक संस्था ने मुझे सूचित किया कि उनकी पुरस्कार समिति ने मुझे पाँच मिलियन पौंड की पुरस्कार राशि के लिए चुना है। लिखा था कि पुरस्कार प्राप्त करने के लिए मुझे कुछ औपचारिकताएँ पूरी करनी होंगी। पहली औपचारिकता के तौर पर बायोडाटा, पत्र व्यवहार का पता, फोन नंबर आदि की माँग की गई थी। मैंने ई-मेल से वह औपचारिकता पूरी कर दी। अगला मेल आया कि इतनी बड़ी पुरस्कार राशि विदेश में आपके पास भेजने के लिए कुछ कागजात बनवाने पड़ेंगे, पुरस्कार की राशि चूँकि आपको चेकस्वरूप दी जा रही है इसलिए कागजात आदि बनवाने का खर्च आपको वहन करना पड़ेगा। यह खर्च नकद में करना होगा इसलिए भारत में आप हमारे निम्न बैंक के खाते में पचास हजार रुपए जमा करवा दें। पंद्रह दिनों के भीतर पुरस्कार राशि का चेक आपके द्वारा बताए पते पर कूरियर से प्राप्त हो जाएगा।
तुम तो जानते हो एलआईसी की नौकरी में इतना पैसा बचता कहाँ है कि नकद भिजवा सकूँ। तभी मैंने दिल्ली के टाइम्स ऑव इंडिया में समाचार पढ़ा कि इंटरनेट के माध्यम से दिल्ली से सटे गुड़गाँव में छह महीने के दौरान करीब दर्जन भर लोग ठगे जा चुके हैं। समाचार पढ़कर मुझे लगा हो न हो यह वैसा ही मामला हो। मैंने उस मेल का अब तक कोई जवाब नहीं दिया है... वैसे उनकी ओर से तकाजे आते जा रहे हैं।
अभी मैं पाँच मिलियन पौंड के पुरस्कारवाले इस ई-मेल से जूझ ही रहा था कि पिछले सप्ताह एक और ई-मेल आया जिससे मैं बड़ा परेशान हुआ। मेल करने वाले ने लिखा कि वह नाइजीरिया के एक निर्वासित राजकुमार का एटार्नी है। लिखा है मेरे बारे में अच्छी तरह पता करने के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मैं उस निर्वासित राजकुमार की करोड़ों की संपत्ति की उचित देखभाल करने के लिए योग्य व्यक्ति हूँ। इस मेल में भी लिखा है कि इससे पहले कि उनकी संपत्ति मेरे नाम हस्तांतरित हो जाए मुझे कुछ कागजी कार्रवाइयों की औपचारिकताओं से गुजरना पड़ेगा।
मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। बैंक खाते में भले धन का अभाव रहता हो मेरे ई-मेल खाते में इस तरह से आभासी रूप में करोड़ों रुपए जमा होते जा रहे हैं। मेरे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है... पत्नी सलाह देती रहती है कि ई-मेल का कनेक्शन कटवा दीजिए नहीं तो किसी दिन किसी चाल में फँस जाइएगा... तुम ही कुछ सलाह दो... क्या करना चाहिए?
मैं सलाह क्या देता मुझे तो सुबिमल मास्टर की कहानी याद आने लगी है...
जिस दिन सुबिमल भगत मास्टर साहब ने इंटरनेट साइट इंडियन टीवी डॉटकॉम पर समाचार पढ़ा समझिए उसी दिन से उनके जीवन की नई कहानी शुरू हो गई - कुसुमाकर ने किसी सधे हुए किस्सागो की तरह बताया। उस दिन सुबिमल भगत ने अपने सहकर्मी से एक और बात कही - अब मेरे सपने जल्दी ही पूरे हो जाएँगे। लैंसडाउन के माउंट कैलाश कान्वेंट स्कूल में हिंदी पढ़ाने वाले कुसुमाकर जी भी उस खबर को ध्यान से पढ़ने लगे।
इससे पहले कि कहानी आगे बढ़े मैं इस कहानी की छोटी-सी कहानी भी आपको बता देना चाहता हूँ। कुसुमाकर तिवारी मेरा सहपाठी था। मुजफ्फरपुर के एस.आर. ओरिएंटल स्कूल से हमने मैट्रिक की परीक्षा साथ ही पास की थी। बरसों बाद एक दिन ट्रेन में उनसे भेंट हो गई। मैं मुंबई जा रहा था वह भी उसी ट्रेन में था... ट्रेन में ही नहीं मेरी ही बोगी में भी।
संयोगवश ऐसा भी हो जाता है...
अरे, आर.एस. तुम कहाँ जा रहे हो? इतने दिनों से तुम्हारी कोई खबर ही नहीं। दिल्ली क्या गए हमें भूल ही गए... मिलते ही एक साँस में बोलने लगा। वैसे बड़े दिनों बाद किसी ने रविशंकर की जगह स्कूल के उस पुराने नाम आर.एस. से बुलाया था, मैं पुराने दिनों खोने लगा।
दिल्ली में रहते हो कभी लैंसडाउन आओ धूमने। अरे, मैंने तो बताया ही नहीं बी.एड. करने के बाद वहीं माउंट कैलाश स्कूल में हिंदी टीचर का विज्ञापन आया, मैंने अप्लाई कर दिया और मेरा सेलेक्शन हो गया। पाँच साल हो गए तब से वहीं हूँ। प्रकृति के इतने पास रहकर काम करने का मौका कहाँ मिलता है - मैंने ध्यान दिया कि वह पहले की ही तरह जल्दी-जल्दी बोलता है। क्या इंसान की आदतें कभी नहीं बदलतीं...
आजकल तुम क्या कर रहे हो?
एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक में कुछ साल काम करने के बाद नौकरी छोड़कर मुंबई जा रहा हूँ टेलीविजन धारावाहिक लिखने के चक्कर में...
नौकरी क्यों छोड़ दी? उसे जैसे विश्वास नहीं हो पा रहा था।
वैसे ही, संपादक कहता था रोज खाने-पीने की नई से नई जगहों के बारे में जानकारी जुटाकर लाओ... फिल्मी सितारों के जीवन के बारे में ऐसे-ऐसे गॉसिप लिखो जैसे किसी ने सुने तक न हों... फैशन के बारे में पता रखो... एक दिन मैंने संपादक से कह दिया कि मनोरंजन के बारे में लिखने से अच्छा मुझे यह लगता है कि मनोरंजन की दुनिया में ही लेखक बनने की कोशिश की जाए। टेलीविजन सीरियल लिखा जाए। संपादक ने छूटते ही कहा आप इस्तीफा दे दें और आराम से अपना यह शौक पूरा करने जा सकते हैं। मेरे लिए उसने कोई ऑप्शन ही नहीं छोड़ा। वैसे मेरे कुछ दोस्त हैं वहाँ उनसे मैंने बता दिया है। जा रहा हूँ तो काम भी उम्मीद है मिल ही जाएगा।
वह भी इसी तरह मुंबई गया था एक दिन लेखक बनने - कहकर वह रहस्यात्मक ढंग से मुस्कराने लगा।
अब इतने दिन बाद मिले हो तो अपने स्टुडेंट्स की तरह पहेलियाँ मत बुझाओ। किसकी बात कर रहे हो - मैंने लगभग खीझते हुए कहा।
सुबिमल भगत की - उसने धीरे से होंठ दबाते हुए कहा।
आगे इस कहानी में जो टुकड़े-टुकड़े दास्तान दी गई है वह उसी सुबिमल भगत की कहानी है जो कुसुमाकर जी ने मुझे सत्ताइस घंटे की उस यात्रा के दौरान सुनाई थी। इतने दिनों के बाद इस कहानी को लिखने बैठा हूँ अब कह नहीं सकता कितनी कहानी भूल गया... मुझे तो उस मशहूर लेखक की बात याद आ रही है जिसे पढ़कर मेरे मरहूम उस्ताद ने लेखक बनने का फैसला किया था - समय गढ़ा जाता है याद से और याद गढ़ी जाती है ज्यादातर भुलक्कड़पन से...
कहानी सुबिमल मास्टर की याद से शुरू हुई थी...
इंडियन टेलीविजन डॉटकॉम पर वह खबर देश के एक महत्वपूर्ण औद्योगिक घराने के मनोरंजन चैनल छवि टीवी के हवाले से दी गई थी। लिखा था छवि टीवी ने धारावाहिक लिखनेवाले नए लेखकों की खोज के लिए एक प्रतियोगिता का आयोजन करने का फैसला किया है। इसमें लेखकों से धारावाहिकों के लिए नए-नए आइडिया माँगे गए थे। लिखा था जिन लेखकों के धारावाहिक आइडिया चैनल को पसंद आएँगे उनको लेखन के लिए आमंत्रित तो किया ही जाएगा लिखने के लिए बहुत अच्छा मेहनताना भी दिया जाएगा। पढ़ने के बाद सपने पूरे होने जैसी कोई बात कम से कम कुसुमाकर को तो समझ में नहीं आई।
माउंट कैलाश स्कूल में हिंदी पढ़ाने वाले कुसुमाकर जी शायद एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जो यह जानते थे कि कंप्यूटर के शिक्षक सुबिमल भगत कहानियाँ लिखने का शौक रखते थे। वैसे मेरा यह कहना गलत होगा कि कुसुमाकर जी उनके एकमात्र पाठक थे। चार साल पहले उनकी एक कहानी अबला कि सबला अयिततकालीन पत्रिका सबकी सोच में छप चुकी थी और उसे पढ़कर उनके पास एक पाठक का पत्र भी आया था। उस पत्रिका के अगले अंक में उस कहानी पर दो पाठकों की प्रतिक्रिया भी छपी थी। वे हिंदी के बहुपठित लेखक हो गए होते अगर घर और नौकरी की जिम्मेदारियों ने उनकी प्रतिभा और श्रम का दोहन न किया होता।
जब से लैंसडाउन की सुरम्य वादियों में बने इस स्कूल में उन्होंने पढ़ाना शुरू किया था उनके अंदर का लेखक फिर जाग उठा था। उन्होंने कई कहानियाँ इस बीच लिखीं और उन कहानियों के इकलौते पाठक होते कुसुमाकर जी। एक तो शायद इसलिए क्योंकि कुसुमाकर जी हिंदी के अध्यापक थे। दूसरा कारण जो था असल में यह उनकी दोस्ती का गहरा कारण बना वह यह कि स्वयं कुसुमाकर जी हिंदी में गीत लिखते थे। कहीं छपी थी या नहीं यह बात तो उन्होंने नहीं बताई मगर उनके गीतों का कम से कम स्कूल में तो जलवा था ही। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि स्कूल में किसी भी तरह का कोई कार्यक्रम होता उनके गायन के बिना संपन्न नहीं होता था। वे अपने गीतों का सस्वर पाठ भी बहुत बढ़िया करते थे। उनके लिखे गीतों पर टिप्पणी करने का तो मैं स्वयं को अधिकारी नहीं समझता लेकिन यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि उनका स्वर बहुत अच्छा था।
बात सुबिमल भगत के कथा लेखन के संदर्भ में हो रही थी। अपनी हर कहानी लिखकर सबसे पहले वे कुसुमाकर को ही पढ़ने के लिए देते। जब वह उसकी नोक-पलक दुरुस्त कर देता तो वे उसको बाकायदा हिंदी में टाइप करवाते। शुरू में तो वे हिंदी में टाइप करना नहीं जानते थे जब उन्होंने अपना कंप्यूटर लिया तो धीरे-धीरे हिंदी में टाइप करना भी सीख लिया। टाइप करवाने या करने के बाद उस कहानी को अलग-अलग पत्रिकाओं में भेजते।
वे या तो लौट आतीं या उनके बारे में पहुँचने तक की सूचना पत्रिका के संपादक की ओर से नहीं आती। यह उनका दुर्भाग्य था या उन पत्रिकाओं का यह कहने का मैं स्वयं को इसलिए अधिकारी नहीं समझता क्योंकि मैंने उनकी कहानियाँ पढ़ी नहीं थीं और केवल कुसुमाकर जी की उस दास्तान के आधार पर मैं कोई टिप्पणी करना नहीं चाहता... उनकी कहानी किसी पत्रिका में दोबारा नहीं छपी।
लेकिन इससे उनका उत्साह भंग नहीं हुआ। हाँ बातों में थोड़ी तल्खी जरूर आ गई थी - कुसुमाकर ने बताया, और लेखन में भी। बाद में जब उन्होंने जब कंप्यूटर पर हिंदी में टाइप करना सीख लिया तो सीधा कंप्यूटर पर ही वे अपनी कहानी लिखने लगे। कहानी लिखकर उसका प्रिंट आउट निकालकर कुसुमाकर को दे देते। जब वह उसे पढ़कर वापस लौटाता तो उसके सुझावों के अनुसार कहानी को ठीक करते और सहेज कर रख देते।
...कहते काफ्का की ज्यादातर रचनाएँ उसके मरने के बाद ही छपीं... आज उसकी गिनती दुनिया के महानतम लेखकों में की जाती है। अभी मैंने उसी दिन एक वेबसाइट पर पढ़ा कि शेक्सपियर के बाद संसार में सबसे अधिक शोध काफ्का की रचनाओं को लेकर ही हो रहे हैं। फिर वे मुस्कराते हुए कुसुमाकर जी से कहते एक दोस्त के कारण ही काफ्का की रचनाएँ पाठकों के समक्ष प्रकाशित होकर आ सकीं। मैंने पढ़ा है कि काफ्का ने अपने उस दोस्त को अपनी सारी रचनाएँ देते हुए कहा था कि इन्हें मेरे मरने के बाद नष्ट कर देना। उसने काफ्का की रचनाएँ छपवा दीं। आज उनके उस दोस्त का नाम भी सब जानते हैं। फिर जोर से ठहाका लगाते हुए वह कहता - क्या पता मेरी इन रचनाओं से ही आपकी प्रसिद्धि लिखी हो। एक दिन लोग आपको हो सकता है प्रसिद्ध लेखक सुबिमल भगत के दोस्त के रूप में याद करें... वैसे हो सकता है वह दिन देखने के लिए शायद मैं जीवित न रहूँ... कहते-कहते वे कुछ दार्शनिक हो जाते...
एक बात है वह जो भी लिखता मुझे जरूर दिखाता - कुसुमाकर ने मेरे कंधे पर धप्पा मारते हुए कहा।
इसीलिए जब उन्होंने मुझे वह समाचार पढ़ने के लिए कहा तो उसे पढ़ने के बाद मुझे यह तो समझ में आया कि इस समाचार के माध्यम से मुझे यह बता रहे हैं कि वे उस चैनल के की उस तथाकथित प्रतियोगिता के लिए धारावाहिक के आइडिया डेवलप करने के काम के माध्यम से अपने कथा-लेखन को एक नया आयाम देना चाहते हैं - एक नई दिशा देना चाहते हैं - कुसुमाकर किसी किस्सागो की तरह धाराप्रवाह बोल रहा था। शायद बच्चों को पढ़ाने के कारण उसे इस तरह धाराप्रवाह बोलने की आदत पड़ गई हो - मैंने लक्ष्य किया वह पहले से काफी रोचक अंदाज में बोलने लगा था।
लेकिन इससे उनके सपने पूरे होने वाली बात मुझे समझ में नहीं आई - फिर उसने आँखें दबाते हुए कहा - अब कहानीकार बनना भी तो उनका एक बड़ा सपना था। इतनी कहानियाँ लिखने के बाद भी वह सपना सचाई के कितने करीब आया यह मुझसे अधिक कौन जानता था। उनकी ज्यादातर कहानियाँ मेरे अलावा शायद ही कोई और पढ़ पाया हो। आखिर मैंने उनसे पूछ ही लिया - एक बात तो समझ में आ गई भगत जी आप धारावाहिक लेखन की इस प्रतियोगिता का हिस्सा बनकर व्यावसायिक लेखक के रूप में ख्याति और धन दोनों अर्जित करने का विचार बना रहे हैं। अच्छा विचार है। लेकिन दूसरी बात जो मेरी समझ में नहीं आई वह यह कि इस प्रतियोगिता में तो हजारों लोग भाग लेंगे, फिर आपको यह कैसे लगता है कि सफलता आपको ही मिलेगी?
देखिए दुर्भाग्य से हमारे यहाँ लेखन के क्षेत्र में सफलता-असफलता का अधिक संबंध इससे नहीं होता कि लेखक कितना प्रतिभाशाली है वह अच्छा लिख सकता है या नहीं। इस बात का अधिक संबंध इससे होता है कि उस लेखक का संबंध किस विचारधारा से है, उसकी चर्चा कौन कर रहा है, आदि-आदि। आपको शायद नहीं पता हो लेकिन व्यावसायिक लेखन में भी इसी तरह का भाई-भतीजावाद चलता है या या इससे भी ज्यादा शायद? - वे इतनी गंभीरता से अपने विचार व्यक्त कर रहे थे मानो किसी व्याख्यानाला मे भाषण दे रहे हों।
जब आप लेखन की दुनिया की इस कड़वी सचाई से इतनी अच्छी तरह वाकिफ हैं तो भी आप इतने दिनों से साहित्य-लेखनरत हैं इसके लिए मैं आपके लगन की दाद देता हूँ। लेकिन अब टीवी फिल्म की दुनिया की चकाचौंध के पीछे आप कहाँ भाग रह हैं - कुसुमाकर ने उनको कुछ समझाने के अंदाज में कहा। वैसे भी इस तरह का लेखन तो आपने कहीं से सीखा नहीं कैसे करेंगे? - थोड़ा हिचकते हुए ही सही कुसुमाकर ने उनसे यह सवाल कर डाला।
आप तो कवि हैं। आपने वह शेर तो सुना होगा - जो इश्क करने का ढब जानते हैं/वो तरकीब-वरकीब सब जानते हैं। वैसे आप मुझसे यह सवाल इसीलिए पूछ रहे हैं क्योंकि मैं आपके साथ इस स्कूल में पढ़ाता हूँ। क्या किसी ने कभी कमलेश्वर या वैसे सभी बड़े कहे जाने वाले लेखक से पूछा कि उन्होंने इतनी फिल्में किस से सीखकर लिखी। मैं आपकी बात समझता हूँ कि जब मैं इस बात को जानता हूँ कि टीवी-सिनेमा में सफलता उसी को मिलती है जिसकी वहाँ अच्छी तरह जान-पहचान होती है फिर मैं क्यों प्रयास कर रहा हूँ। आपको बता दूँ कि इसका जवाब उसी समाचार में छिपा है।
उसमें ऐसा तो कुछ भी नहीं है - कुसुमाकर ने कुछ चिढ़ते हुए कहा।
लगता है आपने ठीक से विज्ञापन पहीं पढ़ा। उस समाचार के साथ चैनल के एक कार्यकारी निर्माता का नाम भी छपा है - इस बार सुबिमल जी ने कुछ रहस्यात्मक अंदाज में कहा।
छपा तो है... लेकिन वह तो किसी महिला का नाम है... सोनाली गौतम... अब आप यह मत कहने लगिएगा कि आप उस महिला को जानते हैं। अगर जानते होते तो आप यहाँ इस स्कूल में न पढ़ा रहे होते - कुसुमाकर का धीरज जवाब देने लगा।
जवाब में कुसुमाकर के कंधे पर हाथ रखकर सुबिमल भगत जी ने कहा - यह एक लंबी कहानी है...
लैंसडाउन के पहाड़ी कस्बे के एकांत में जिस लंबी कहानी की चर्चा हो रही है उसकी शुरुआत करीब सात-आठ साल पहले सुबिमल जी की जन्मस्थली मुजफ्फरपुर में हुई थी। तब बीए पास करके शहर में नए-नए खुले जेनिथ कंप्यूटर इंस्टीट्यूट में वे कंप्यूटर का कोर्स कर रहे थे।
नहीं यह समझने की गलती मत कीजिएगा कि छवि टीवी की जिस कार्यकारी निर्माता सोनाली गौतम का नाम ऊपर समाचार के संदर्भ में आया था उसने भी वहीं उसी इंस्टीट्यूट में कंप्यूटर कोर्स में दाखिला लिया वहाँ उसकी जान-पहचान अपने कथानायक सुबिमल जी से हुई होगी।
नहीं-नहीं यह कहानी इतनी सहज इतनी सरल होती तो न कुसुमाकर ने मुझे सुनाई होती न ही मैं इसे आपको सुना रहा होता। क्या क्या करूँ वक्त ही ऐसा आन पड़ा है कि कुछ भी सहज सरल नहीं रह गया है...
उस समय मुजफ्फरपुर में एसडीओ बनकर आए हुए थे हरिनारायण गौतम - एसडीओ का मतलब नहीं समझे हिंदी में कहूँ तो अनुमंडल अधिकारी। थे तो प्रोमोटी लेकिन नए-नए विचारों के हामी समझे जाते थे। उनको यह शौक चढ़ा कि कंप्यूटर सीखा जाए। चर्चा थी कि कल्याणी चौक के मशहूर व्यापारी रामा सहनी जब नेपाल की राजधानी काठमांडू छुट्टी मनाने गए तो वहाँ से सोनी कंपनी का एक लैपटॉप लेकर आए और उसे उन्होंने एसडीओ साहब को भेंट कर दिया। शहर के अधिकारियों को वे इसी तरह उपहार दिया करते थे। अब इतना सुंदर इतना महँगा लैपटॉप आ गया तो यह बहुत आवश्यक था कि उसे सीखा जाए। शहर में जेनिथ कंप्यूटर इंस्टीट्यूट कंप्यूटर सिखाने का तब अकेला इंस्टीट्यूट था इसलिए उसके मालिक को उन्होंने खबर भिजवाई कि कंप्यूटर सिखाने के लिए कोई अच्छा आदमी भेज दो। इस तरह सुबिमल भगत जी की एंट्री एसडीओ साहब के घर में हुई।
आप कहेंगे कि कंप्यूटर सीखा भगत जी से एसडीओ चौधरी ने उनकी बेटी सोनाली गौतम सीन में कहाँ से आ गई। उस दिन संपर्क क्रांति एक्सप्रेस के डिब्बे में कुसुमाकर ने भी यही बात कही कि उसने भी टोका था सुबिमल को कहानी में इस मोड़ पर। जवाब में सुबिमल जी अपने स्थान से उठे बगल के कमरे में गए, आल्मारी खोली वहाँ से लकड़ी का एक बक्सा निकाला और उसे लेकर फिर से कुसुमाकर के पास आए।
बक्से में क्या था - मेरा कौतूहल बढ़ता जा रहा था।
लकड़ी के उस बक्से में बहुत सारे प्रिंट आउट थे। उन्होंने मुझे बताया वे सोनाली के ई-मेल थे। मैंने वे सारे मेल बाद में पढ़े भी थे। उसमें कुछ ऐसा तो नहीं था जिसे कुछ-कुछ और समझा जा सके। वैसे मुझे तो आज भी शक है कि वे ई-मेल उस सोनाली गौतम के भेजे हुए थे। नाम की जगह पर उसमें केवल सोनी लिखा रहता था। अगर उसके भेजे मेल रहे भी हों तो भी उन पत्रों में कुछ ऐसा वैसा तो था नहीं कि उन्हें इतने दिनों तक इतना सहेज कर रखा जाए। उन पत्रों को मैंने बहुत ध्यान से पढ़ा था उनमें सामान्य सी सूचनाएँ होती थीं। ज्यादातर पढ़ाई लिखाई की... उसके अलावा कुछ मेल हैप्पी दीवाली - हैप्पी न्यू ईयर टाइप थे। उसमें एक मेल मुझे हैप्पी बर्थ डे का भी दिखा था। लेकिन इस तरह के मेल में कोई ऐसी बात नहीं। वैसे भी सोनाली दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ती थी। वहाँ के माहौल में लड़के-लड़कियों की दोस्ती को खराब नहीं समझा जाता - कुसुमाकर उनकी कहानी में अपना एंगल डाल रहा था।
एसडीओ गौतम ने कंप्यूटर सीखा या नहीं इसका इस कहानी से क्या वास्ता? कंप्यूटर सिखाने की इस कथा में रोचक मोड़ तब आया जब गर्मी की छुट्टियों में उनकी लड़की का दिल्ली से मुजफ्फरपुर आगमन हुआ। साहनी सेठ ने अपना लैपटॉप एसडीओ साहब को देने का निर्णय इसलिए किया था क्योंकि खरीद तो लिया था कि सीखेंगे, लेकिन वे जल्दी ही समझ गए कि उनके लिए उसका कोई खास उपयोग नहीं था, उसी तरह बेटी के आने के बाद अचानक उस लैपटॉप में एसडीओ साहब को अपनी बेटी का भविष्य दिखाई देने लगा। उन्होंने बेटी को सलाह दी कि छुट्टी में यहाँ आई है तो लगे हाथ कंप्यूटर सीख ले और छुट्टियों के बाद अपने साथ यह लैपटॉप भी ले जाए। पहले तो उनकी बेटी अपने पापा की इस सलाह पर बहुत हँसी कि मुजफ्फरपुर जैसे शहर में कंप्यूटर सीखने की भी आपको खूब सूझी। लेकिन जब पापा ने छुट्टियों के सदुपयोग की बात उसे समझाई तो शायद इतने खूबसूरत लैपटॉप के चक्कर में वह कंप्यूटर सीखने को तैयार हो गई। एसडीओ साहब ने इस बार खबर जेनिथ कंप्यूटर सेंटर नहीं भिजवाई। उनका अर्दली इस बार सुबिमल भगत को सीधा बुलाने गया।
दो महीने की छुट्टी में जब तक सोनाली वहाँ रही रोज सुबिमल जी उसे कंप्यूटर सिखाने जाते रहे। कंप्यूटर पर टाइप करना, इंटरनेट का उपयोग करना, सबसे पहले सुबिमल जी ने ही सिखाया उसको। इतने सालों के बाद भी जब सुबिमल जी सोनाली गौतम के बारे में बताते तो इस तरह बताते जैसे कल की ही बात हो - कुसुमाकर ने बताया। इस बात को वे अक्सर बताते कि किस कदर वह उनके कंप्यूटर ज्ञान से प्रभावित थी। कहती आपको तो दिल्ली में होना चाहिए। वहाँ इतने कंप्यूटर इंस्टीट्यूट हैं कि मत पूछिए। उससे भी कमाल की बात यह है कि हर इंस्टीट्यूट में भीड़ उतनी ही रहती है। आप अगर एक बार दिल्ली आ जाएँ तो जेनिथ इंस्टीट्यूट से बड़ा तो आपका अपना इंस्टीट्यूट हो जाएगा।
अपने निजी जीवन के बारे में वे किसी से बात नहीं करते थे लेकिन कुसुमाकर को उन्होंने एक बार बताया था कि वे अपनी छोटी बहन की शादी के लिए दहेज के पैसे जमा कर रहे हैं। लाखों रुपए खर्च करने पर किसी अच्छे लड़के से बहन की शादी हो पाएगी। वे जब पढ़ाई कर रहे थे तब उनके पिताजी का देहांत हो गया था। उन्होंने बताया तो नहीं था लेकिन उनके बायोडाटा में उसने उनके पिता का नाम कई बार पढ़ा था स्वर्गीय विनोद बिहारी भगत। एक बार उन्होंने कुसुमाकर को बताया था कि घर की जिम्मेदारियों की वजह से वे ग्रेजुएशन के बाद दिल्ली पढ़ने नहीं जा सके जबकि उनके सारे दोस्तों ने आगे पढ़ने या नौकरी करने के लिए दिल्ली का रुख किया। उन्होंने वहीं कंप्यूटर कोर्स में दाखिला ले लिया। भाग्य में सोनाली से मिलना जो लिखा था...
कहने को तो दो महीने के लिए ही सोनाली को उन्होंने कंप्यूटर सिखाया लेकिन उन दो महीनों में ही उनके जीवन की जैसे धुरी ही बदल गई। ट्यूशन में तो घंटे से ज्यादा शायद ही किसी को पढ़ाते रहे हों सुबिमल मास्टर पर जब सोनाली को वे कंप्यूटर सिखाने जाते तो समय उनके लिए जैसे थम जाता था। इतने करीब बैठती थी सोनाली उनके... न जाने कौन सा सेंट लगाती थी आज भी उसकी आज भी याद आती है तो नथुनों में वही गंध भर जाती है - एक बार उन्होंने कुसुमाकर को बताया था। इतनी यादें जुड़ी हुई थी उनकी उस सोनाली नाम की युवती के साथ। उन सब यादों को उन्होंने इस तरह सँजो रखा था जैसे वह उनके जीवन की कोई अमूल्य निधि हो। अपने जीवन से जुड़े उस प्रसंग की एक एक बात कुसुमाकर को ऐसे बताते जैसे अपने खजाने से कोई अमूल्य खजाना दे रहे हों।
छवि टीवी का विज्ञापन क्या आया वे एक दूसरी दुनिया में ही जीने लगे। उस दुनिया में जिसमें सोनाली नाम की उस लड़की की यादें थी, टीवी धारावाहिक लेखन था। कुसुमाकर ने बताया उसके बाद वे जब मिलते या तो उस धारावाहिक की बात करते जिसकी कहानी पर वे काम कर रहे थे। वे बताते कि उस धारावाहिक में आजादी के बाद भारत आए एक ऐसे हिंदू परिवार की कहानी है जिसने यहाँ आने के बाद एक मुस्लिम परिवार के साथ साझेदारी में व्यापार आरंभ किया। धारावाहिक में उनके व्यापार के उत्थान-पतन के साथ ही देश में आजादी के बाद हिंदू-मुस्लिम संबंधों में आए बदलावों की कहानी भी साथ-साथ चलेगी। वैसे यह बात तुमको भी सुनकर विचित्र लगेगा कि अपने इस लिखे जा रहे धारावाहिक का कोई अंश भी मुझे पढ़ने के लिए कभी नहीं दिया जबकि उन्होंने जो भी कहानी या उनके शब्दों में साहित्य लिखा उसे मुझे पढ़वाए बिना उन्होंने पूरा नहीं समझा - कुसुमाकर ने बड़े आश्चर्य के साथ बताया।
क्या पता लिखा ही नहीं हो - मेरी यह बात सुनकर वह भी मेरे साथ हँसने लगा।
कुसुमाकर को वे जितना ही सोनाली कथा सुनाते रहे होंगे उतना ही वह जल-भुन जाता होगा - उसका यह स्वभाव छात्र जीवन से ही रहा है और मैंने उस दिन उसके साथ की गई रेलयात्रा के दौरान कई बार यह महसूस भी किया कि उसके इस स्वभाव में कुछ खास परिवर्तन नहीं आया था। शायद इसी जलन के कारण उसने एक दिन सुबिमल जी को छेड़ते हुए कहा कि आपने तो बस नाम देखा और पता नहीं क्या क्या कहानी बना ली - सीरियल लिखने बैठ गए। आपको कैसे पता कि यह वही सोनाली गौतम है जिसको आपने दो महीने कंप्यूटर सिखाया था। कुसुमाकर की यह बात सुनकर उस दिन वे वहाँ से उठकर चले गए। साफ था कि उनको बात बुरी लग गई थी।
कई दिनों तक उन्होंने कुसुमाकर को दर्शन नहीं दिया। स्कूल में भी उसे देखते तो कटकर निकल जाते। तीन-चार दिनों तक ऐसा ही चलता रहा। एक दिन जब पाँचवीं क्लास के बाद मैं स्टाफ रूम में साँस लेने के लिए बैठा ही था कि वे तेज-तेज कदमों से चलते हुए मेरे पास आए कहने लगे चलिए आपसे कुछ जरूरी बात करनी है। मैंने उनको बहुत कहा कि लगातार पाँच-पाँच क्लास लेने के कारण मैं थका हुआ हूँ। यही एक क्लास खाली है इसके बाद फिर लगातार दो क्लास है। लेकिन वे नहीं माने कहने लगे कि खाली बैठे हैं इसीलिए तो कह रहा हूँ। मुझे लेकर सीधा कंप्यूटर रूम गए। एक कंप्यूटर में कोई फाइल खोली और मुझे कुर्सी पर बिठाते हुए बोले ध्यान से पढ़िए, उसी का इंटरव्यू छपा हुआ है। इंटरव्यू तो पुराना है लेकिन आपकी शंका का समाधान हो जाएगा।
इंटरव्यू किसी सोनाली गौतम का था...
इंटरव्यू में ऐसा कुछ नहीं था। टेलीविजन की गतिविधियों से संबंधित किसी वेबसाइट पर छपे उस इंटरव्यू में कई टेलीविजन चैनलों में निर्माता के रूप में काम कर चुकी सोनाली गौतम को इतनी कम उम्र में इतनी ऊँचाई पर पहुँचने के लिए बधाई दी गई थी। इसके लिए उसने अपने माता-पिता और उन छोटे-छोटे शहरों के अनुभवों को धन्यवाद दिया था जहाँ उसके पिता प्रशासनिक अधिकारी के रूप में काम कर चुके थे। उस इंटरव्यू में उसने मुजफ्फरपुर कस्बे का विशेष रूप से उल्लेख किया था जहाँ उसके पिता ने अलग-अलग पदों पर अनेक वर्षों तक काम किया था। भेंटवार्ताकार किसी रमा सिंह को उसने बताया था कि उस कस्बे के अनेक अनुभव टीवी की दुनिया में बहुत काम आए। इन पंक्तियों को उन्होंने विशेष रूप से हाइलाइट कर रखा था।
वेबसाइट पर सोनाली का इंटरव्यू एक दिलचस्प स्टोरी का हिस्सा थी जिसमें यह बताया गया था कि मुंबई की टेलीविजन इंडस्ट्री में पिछले दस वर्षों में कस्बाई लोगों ने महत्वपूर्ण पहचान बनाई थी। उसमें लिखा था सोनाली की तरह अनेक लड़कियों ने इस दौरान दिल्ली-मुंबई में मास कम्युनिकेशन संस्थानों में पढ़ाई की और वे मुंबई की टेलीविजन इंडस्ट्री का हिस्सा बन रही हैं।
पढ़ा - पढ़ने के बाद जैसे ही मैंने नजरें हटाईं पाया वे बेसब्री से कंप्यूटर स्क्रीन से मेरी नजरें उठने का इंतजार कर रहे थे।
पढ़ तो लिया। ऐसा क्या है इसमें, टेलीविजन की दुनिया ऐसे लोगों से भरी हुई है जिन्होंने कम उम्र में सफलता अर्जित की। एकता कपूर का नाम सुना है आपने 24 साल की उम्र में ही धारावाहिक बनाने वाली सबसे बड़ी कंपनी की मालकिन बन गई... ऐसे न जाने कितने नाम हैं जिनके बारे में पत्र-पत्रिकाओं में छपता रहता है... अब मान लीजिए कि इसको आपने कभी पढ़ाया था... इसके इतने सारे ई-मेल का बंडल बनाए आप सँभाले फिरते हैं... आपने सोचा है इतने सालों बाद वह आपको पहचान भी पाएगी... रोज-रोज इतने लोगों से मिलना होता होगा...
लगता है आपने इंटरव्यू को ठीक से नहीं पढ़ा। एक बार उसने मुझे ई-मेल में लिखा था कि बचपन से लेकर अब तक वह इतने शहरों में रह चुकी है कि उसे सबके नाम भी ठीक से याद नहीं आते... फिर भी इतने शहरों में उसने मुजफ्फरपुर शहर के अनुभवों का ही जिक्र किया है... उसी शहर का जहाँ उससे मेरी मुलाकात हुई थी... पढ़कर आपको नहीं लगा वह मुजफ्फरपुर को नहीं मुझे याद कर रही थी...
आप जिसके बारे में पता नहीं क्या-क्या सोच रहे हैं आपने यह जानने की कोशिश की है कि वह आपको पहचानती भी है या नहीं। दो महीने कंप्यूटर क्या सिखाया समझते हैं कि जीवन भर आपको इसके लिए वह याद करेगी... आप समझते क्यों नहीं है वह समाज के जिस तबके से आती है उसमें किसी से खुलकर बातें करना, किसी को ई-मेल करना कोई ऐसी बात नहीं होती जैसा आप समझते हैं या कम से कम मुझे समझाने का प्रयास कर रहे हैं... कुसुमाकर ने जैसे उनको जमीन पर लाने का प्रयास करते हुए कहा।
मैं जानता था आप जैसे लोग क्या सोच सकते हैं। आपको मैं एक और बात बताना चाहता हूँ। आपने तो उस समाचार को ध्यान से पढ़ा था, छवि टीवी वाले उस समाचार के साथ एक ई-मेल पता भी दिया हुआ था - याद है आपको। उस पर मैंने मेल किया था। लिखा था मैं धारावाहिक लेखन की इस प्रतियोगिता में हिस्सा लेना चाहता हूँ। मैं यानी सुबिमल भगत जिसका स्थायी पता पंखा टोली, मुजफ्फरपुर है। तुरंत जवाब आ गया कि हमें आप जैसे लेखकों की ही तो तलाश है। यह देखिए... कहते हुए उन्होंने मेरे सामने कागज का एक टुकड़ा रख दिया, कुसुमाकर ने बताया।
अब इससे यह तो नहीं साबित होता कि उसने आपका मेल पढ़ा भी हो। अरे इस तरह के जवाब तो उसकी किसी सहायक या सहायिका ने दे दिया होगा जिसे इसी काम के लिए नियुक्त किया गया हो कि इस विज्ञापन के बदले आने वाले मेल के जवाब दिया करे। चलिए आपकी बात मान लेते हैं कि उसने मेल खुद पढ़कर जवाब दिया था लेकिन उसको कैसे पता चला कि आप वही सुबिमल भगत हैं जिसने उसे बरसों पहले मुजफ्फरपुर में कंप्यूटर चलाना सिखाया था - कुसुमाकर उस दिन उनकी किसी बात को मानने को तैयार नहीं था।
आप चाहे मुझे कितना भी हतोत्साहित करने की कोशिश कर लीजिए मैं धारावाहिक लेखन के इस अवसर को हाथ से जाने नहीं दूँगा... आप जब तक छोटे परदे पर मेरा नाम चमकता हुआ नहीं देख लेंगे लगता है आप तब तक नहीं मानने वाले - जवाब में सुबिमल जी ने कहा। उस दिन से उन्होंने इस प्रसंग में बात करना बंद कर दिया... उस दिन से उन्होंने किसी से भी फालतू बात करना बंद कर दिया। स्कूल में चुपचाप अपनी कक्षाएँ लेते और स्कूल खत्म होते ही अपने कमरे में जाकर बंद हो जाते। उनका एक ही लक्ष्य रह गया था छवि टीवी की प्रतियोगिता के लिए धारावाहिक लिखना। शायद कमरा बंद करके वे उसी में लगे रहते। धारावाहिक उन्होंने लिखकर शायद पूरा भी कर लिया इसका पता कुसुमाकर को बाद में तब चला जब एक दिन सुबिमल जी कुसुमाकर से अपनी निजी समस्या की चर्चा करने आ गए।
सचमुच उन्होंने उस बीच धारावाहिक लिखने का काम पूरा कर लिया था। जब उनकी ओर से काम पूरा हो गया तो उन्होंने उसकी एक प्रति उसी ई-मेल पते पर चैनल के माध्यम से सोनाली को भेज दी। लेकिन इस बार जवाब तुरंत उस तरह नहीं आया जिस तरह से उनके पहले भेजे गए मेल का आया था इस बार कोई जवाब ही नहीं आया। उन्होंने कई बार मेल किया, एक बार तो उन्होंने सोनाली को याद भी दिलाया कि वह वही सुबिमल भगत है जिसे वह कंप्यूटर का जादूगर कहा करती थी। आगे यह भी लिखा कि इस बीच अनेक साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में उसकी कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। उसने पहली बार धारावाहिक लिखने का प्रयास किया हैं। उन्होंने एक बार मेल में लिखा - मैं जानता हूँ कि आपको संकोच हो रहा है यह बताने में कि मेरी लिखी पटकथा कुछ कमजोर है। आप बताएँगी तो मैं बिल्कुल बुरा नहीं मानूँगा। आपको मैं विश्वास दिलाता हूँ कि आपके द्वारा बताई गई कमियों को मैं पूरी तत्परता से दूर करूँगा।
कोई जवाब इस बार भी नहीं आया है।
उन्होंने चैनल का फोन नंबर इंटरनेट के माध्यम से प्राप्त किया और उस पर फोन करके वे सोनाली का नंबर प्राप्त करने का प्रयास करते रहे। कम से कम पंद्रह बार फोन करने के बाद तो उसकी पी.ए. का नंबर जाकर मिला। अब उसके पीछे लगा हूँ। जब फोन करता हूँ तो कभी कहती है कि मैडम मीटिंग में हैं - कभी कहती है कि मैडम केवल मुंबई में काम करने वाले प्रोफेशनल्स से ही बात करती हैं...। खैर असल बात यह है कि या तो वह खुद मुझसे मिलना नहीं चाहती है या कोई और है जो नहीं चाहता है कि उसकी लिखी इस कहानी पर धारावाहिक का निर्माण हो। उस दिन बहुत विस्तार से सारा घटनाक्रम भगत जी ने कुसुमाकर को समझाया।
कुसुमाकर चुपचाप उनकी बातों को समझने का प्रयास करता रहा।
मैंने आपको यह बताने के लिए बुलाया है कि मैंने फैसला कर लिया है कि अब मुंबई पहुँचकर ही उसकी नाराजगी दूर करने का प्रयास करना चाहिए।
नाराजगी? अब यह कौन सी कहानी है?
बात उन दिनों की है जब उनका ई-मेल के माध्यम से सुबिमल जी से लगातार पत्र व्यवहार चल रहा था। ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में पढ़ाते-पढ़ाते उन दिनों उसके अंदर हीन भावना भर गई थी जिसकी वजह से उसने धीरे-धीरे उससे दूरी बरतनी आरंभ कर दी। मन पर पत्थर रखकर उसकी उपेक्षा करने लगा। उसके ई-मेल के जवाब देने बंद कर दिए। हो सकता है उस बात से वह इतनी नाराज हो गई हो कि उसने उसके...
भगत जी का निर्णय अटल था। स्कूल में बहाने से छुट्टी की अर्जी डाली और मुंबई जाने वाली सुपर फास्ट ट्रेन का टिकट कटा लिया। उनके गए एक महीने बीत गए। कोई खबर नहीं आई। उनके साहित्यिक मित्र करुणाकर के पास भी नहीं।
जिस दिन खबर आई तो जैसे स्कूल में धमाका हो गया। मुंबई पुलिस की चिट्ठी आई जिसमें उनकी पहचान करने के लिए कहा गया था।
कायदे से तो कहानी उसके स्कूल वालों के लिए यहाँ समाप्त हो जानी चाहिए। मैं क्या कोई भी इस बात का अंदाजा सहज ही लगा सकता है कि उनको लेकर स्कूल में, स्कूल के बाहर किस तरह की खबरें उड़ी होंगी। मैं समझ सकता हूँ कि मेरी तरह आपको भी बड़ी कुलबुलाहट हो रही होगी कि आखिर मुंबई में ऐसा क्या हो गया सुबिमल जी को कि उनको जेल पहुँच जाना पड़ गया।
सच बताऊँ तो जिस तरह आपके पास इस विषय में जानकारी प्राप्त करने का मेरे अलावा और कोई स्रोत नहीं है उसी तरह मेरे पास सुबिमल जी की इस कहानी का कुसुमाकर के अलावा कोई और स्रोत नहीं है। वैसे तो मैं पहले भी आपको बता चुका हूँ कि उसकी बातों का मैंने कभी अधिक भरोसा इसलिए नहीं किया क्योंकि उनका स्वभाव कुछ जलनशील रहा है।
कुसुमाकर ने बताया कि टीवी पर अपराध केंद्रित धारावाहिक सनसनी का मुंबई संवाददाता मयंक शेखर संयोग से नैनीताल घूमने आ रहा था और कुसुमाकर किसी सरकारी काम से दिल्ली गया था और वह लौट रहा था। दोनों की रानीखेत एक्सप्रेस में मुलाकात हुई। जब उसको यह पता चला कि मैं माउंट कैलाश स्कूल में पढ़ाता हूँ तो उसने कुछ और ही कहानी बताई।
वे गए तो थे फिल्मी कहानीकार बनने का सपना संजोए पर संयोग ऐसा बना कि उनकी अपनी कहानी बनती चली गई... वह भी फिल्मी। ट्रेन पकड़कर जब वे मुंबई के लिए रवाना हुए तो उनके सामने एक ही लक्ष्य था - छवि टीवी के ऑफिस जाकर सोनाली से मिलने का प्रयास करना। वह निश्चित था एक बार सामने पड़ जाएगा तो सारी गलतफहमियाँ दूर कर देगा।
मेरा अपना अनुमान है कि मुंबई में ट्रेन से उतरकर सबसे पहले वह टीवी के ऑफिस नहीं गए होंगे। आखिर इतने दिनों के बाद सोनाली से मिलने वाले जो थे। उसके लिए अच्छी तरह तैयार होकर ही जाना उन्होंने उचित समझा होगा। इसलिए सबसे पहले ठहरने का कोई इंतजाम किया होगा। वहाँ सामान रखकर तैयार होकर गए होंगे छवि टीवी के ऑफिस। वहाँ जाने पर उनको समझ में आया होगा कि क्यों सिनेमा-टीवी की दुनिया को सपनों की दुनिया कहते हैं। लगातार मिलने की कोशिश करते रहे होंगे। कई दिनों में जाकर उनको उसकी सेक्रेट्री का नंबर मिला होगा। यही उनके लिए किसी जीत से कम नहीं रहा होगा। वे जब उसको फोन करते जवाब मिलता मैडम मीटिंग में हैं, मैडम व्यस्त हैं। फिर फोन का सिलसिला शुरू हुआ होगा। बार-बार फोन किया होगा... बात नहीं हो पाई होगी...
यह सब पता नहीं कितने दिनों तक चलता रहा... सोनाली ने ओशीवाड़ा पुलिस थाने में जो केस दर्ज करवाया था उसमें लिखवाया था एक आदमी पिछले करीब एक महीने से उसका पीछा कर रहा था। हो सकता है कि केस मजबूत बनाने के लिए उसने यह अवधि बढ़ा-चढ़ाकर लिखवाई हो। लेकिन इससे एक बात का पता तो चलता ही है कि उन्होंने इतने चक्कर वहाँ के जरूर लगाए होंगे कि उनकी गतिविधियों पर लोगों को शक होने लगा होगा।
मयंक ने बताया छवि टीवी की उस कार्यकारी निर्माता सोनाली गौतम ने अपनी रिपोर्ट में यह भी लिखवाया था एक दिन जब रात के डेढ़ बजे ऑफिस में अपना काम खत्म करने के बाद घर जाने के लिए ऑफिस से बाहर निकली... कार पार्किंग की तरफ बढ़ रही थी कि अँधेरे से निकलकर किसी व्यक्ति ने उसके ऊपर हमला किया था... उसे शक है कि वह वही व्यक्ति था जिसने पहले तरह-तरह के ई-मेल भेज कर उसे परेशान करने की कोशिश की, उसे बार-बार फोन करने का प्रयास किया, असंख्य एसएमएस भेजे और फिर हमला करने का प्रयास किया।
उसने रिपोर्ट के साथ एक फोन नंबर भी लिखवाया था। मुंबई मिरर समेत अनेक मुंबइया समाचारपत्रों में इस आशय के समाचार भी प्रकाशित हुए एक प्रसिद्ध टेलीविजन चैनल की वरिष्ठ कर्मी पर हमले का प्रयास। कई समाचारपत्रों ने बॉक्स के साथ छापा कि मुंबई में कैसे देर रात तक काम करने वाले लोगों की यात्रा असुरक्षित होती जा रही है। अनेक टेलीविजन चैनलों के अपराध आधारित कार्यक्रमों में इस समाचार को दिखाया गया। जल्दी ही उनके नंबर के आधार पर पुलिस ने उनको गिरफ्तार कर लिया। एक टेलीविजन चैनल ने उसे पकड़ने वाली पुलिस टीम के एक सदस्य अधिकारी के हवाले से यह बताया कि वह मुंबई के चर्च गेट इलाके के एक संदिग्ध लॉज में ठहरा हुआ था।
जबसे उसके बारे में इस तरह के समाचार प्रकाशित हो रहे थे वह शहर छोड़ कर भागने के चक्कर में था। ट्रेन का टिकट कटाने निकला ही था कि इंतजार में घात लगाकर बैठी पुलिस ने उसे धर दबोचा। उसके पास से पुलिस को विदेशी घड़ियाँ, कैमरे, हीरे की कई अँगूठियाँ मिली हैं। पुलिस के सामने उसने कुबूल किया है कि देर रात काम से लौटने वाले लोगों को लूटने वाले एक बहुत बड़े गिरोह का वह सक्रिय सदस्य है। हाल के दिनों में मुंबई की सड़कों पर देर रात घटने वाली अपराध की घटनाएँ बहुत बढ़ गई थीं। इस गिरफ्तारी के माध्यम से पुलिस ने एक बहुत बड़े गिरोह का सफाया कर दिया है। एक समाचारपत्र में तो यह भी छपा था कि इस तरह के गिरोह अनेक राज्यों में सक्रिय हैं और इस गिरफ्तारी से यह उम्मीद बढ़ी है कि दूसरे राज्यों में घटी घटनाओं का भी इससे कुछ सुराग मिल जाए...
एक समाचार चैनल ने तो अपने यहाँ प्रसारित होने वाले टॉक शो में इस विषय पर परिचर्चा आयोजित करवाई कि किस तरह महानगरों के सुनसान में महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की घटनाएँ बढ़ी हैं। परिचर्चा में यह बात उभर कर आई कि ग्लोबलाइजेशन के कारण देश के अनेक शहरों में महिलाओं के लिए रात की पाली में काम के अवसर बढ़े हैं तो दूसरी ओर उनके ऊपर हिंसा भी बढ़ी है। लैंसडाउन के सुबिमल मास्टर समाचार बन गए थे। कुछ दिन तक यह समाचार चलता रहा। समाचारों में उनका नाम भी आता रहा। पैाड़ी-गढ़वाल के स्थानीय जीवन में भी इस खबर से सरगर्मी बढ़ गई। एक क्षेत्रीय समाचार पत्र ने लिखा था ये स्कूल पहाड़ की संस्कृति को नष्ट करने का काम कर रहे हैं। सुबिमल भगत जैसे शिक्षक वहाँ पढ़ाते हैं। स्कूल की ओर से बाकायदा एक विज्ञापन समाचार पत्रों में निकाला गया कि सुबिमल भगत को स्कूल में आए अधिक दिन नहीं हुए थे और वैसे भी वे माउंट कैलाश स्कूल में अध्यापक नहीं थे। वे तो केवल कंप्यूटर सेंटर में कंप्यूटर आदि की देखरेख का काम करते थे।
कभी-कभी जब मैं अकेले बैठता तो न जाने क्यों उनकी विधवा माँ और उनकी उस बहन का बार-बार खयाल आ जाता जिसके दहेज के इंतजाम में उन्होंने अभी तक विवाह तक नहीं किया था। सुबिमल जी का क्या हुआ। कुछ पता नहीं चल पाया। न वे अब तक स्कूल आए न ही अब उनका कोई समाचार आता है - चाय की चुस्की लेते हुए कुसुमाकर ने बताया।
मैंने तुमको बताया नहीं था उसी साल मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय में पीएचडी करने के लिए तीन साल की छुट्टी मिल गई और मैं माउंट कैलाश स्कूल के संसार से निकल आया। उनके बारे में कभी फिर समाचारों में भी नहीं पढ़ा। हाँ, यह जरूर है कि इधर मैंने एक धारावाहिक देखा है जिसमें कहानी कुछ उसी तरह की है जैसी एक बार मुझे सुबिमल जी ने सुनाई थी। प्रसारित करने वाले चैनल का नाम तो कोई और है लेकिन जिस बात पर मेरा ध्यान अटका वह था एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर का नाम।
उसका नाम सोनाली गौतम है...