इंतज़ार / दीपक मशाल
Gadya Kosh से
घंटाघर की घड़ी ने रात के दस घंटे टन्कारना शुरू किया। टन-टन-टन की आवाज़ से 'उसने' अपने क़दमों की रफ़्तार तेज़ करने की कोशिश की। भागा भी लेकिन सामने के स्टॉप से उसके मोहल्ले की ओर जाने वाली आखिरी बस की रफ़्तार ज्यादा निकली। बस उसकी नज़रों के सामने देखते-२ ओझल हो गई। दिन भर की थकान हावी हो रही थी उसपर और घर अभी भी दो किलोमीटर बाकी था जो अब उसे मजबूरन पैदल ही तय करना था। सड़क के बीच में पड़े ईंटे के टुकड़े को जोर से ठोकर लगाकर सन्नाटे को सुनाते हुआ चीखा वो, “साला कमीना, एक मिनट को नहीं रोक सकता था।”
अगले दिन वो समय से पहले बस में था। अज़ब सी बेचैनी से घिरा हुआ। बार-२ घड़ी देखता, दस बजे का इंतज़ार था। अभी तक घंटाघर की घड़ी चीखी नहीं थी। वह गुस्से में भुनभुना रहा था,”साला बेवकूफ। अब कौन सवारी आयेगी इतनी रात को। पता नहीं कब चलेगा।”