इंतजार / राजनारायण बोहरे
"ओफ्फो, देख तो रे ... क्या च्चीज है!"
उसने चौंक कर देखा उस तरफ, जहाँ से आवाज़ आई थी। ऐसे जुमले सुनने को कब से तरस रही है वह। आधा जुमला सुनकर आँखों में मस्ती भर गई उसके और चेहरे पर उभर उठा एक अपरिभाषित दर्प का भाव। सचमुच उसे ही निषाना बना कर दुहराया था, उस लड़के ने ये जुमला, "क्या चीज हो गई है ये!"
सुनकर बड़ा अच्छा लगा था उसे।
उस लड़के की तरफ़ देखकर ढिठाई से हँसी वह और अपने चेहरे को पिछले दिनों सीखी एक ख़ास अदा से घुमा कर कनखियों से उस किषोर को देखती रहकर, इतराती आगे बढ़ ली। मन हो रहा था कि देर तक उसी जगह खड़ी रहे और लड़का उस पर ऐसे ही जुमले उछालता रहे। लेकिन वहाँ खड़ी रह कर वह करती भी क्या? देर होगी तो अम्माँ गुस्सा होगी। घर पर अम्माँ रसोई रच रही है और नमक ख़त्म हो गया है, वह दौड़ कर नमक लेने आई है।
लड़के के सामने से किराने की दुकान तक का सफ़र उसने हवा के परों पर किया। ...हाँ सचमुच भीतर ही भीतर लग रहा था कि आज उड़ रही है; उसके क़दम ज़मीन पर नहीं रखे जा रहे-हवा में है वह। इच्छा हुई कि दुकान पर रखे खुषबूदार साबुनों में से कोई एक खरीद ले और आज ढंग से नहाये। अंग-अंग में ढेर सारा झाग बना कर लगाए, जैसा जम्मू के टेलीविजन पर नहाती दिखती हैं शहराती लड़कियाँ। ...वैसे पिछले पांच दिनों से नहीं नहाया है उसने, उसकी उमर की लड़कियाँ ऐसा ही करती हैं उनकी बांछड़ा जनजाति में। अम्माँ कहती है, पैसा और पानी कुदरत की देन है, जब तक बहुत ज़रूरी न हो ख़र्च नहीं करना चाहिए।
दुकान से झटपट नमक लिया और तेजी से लौटी।
हठात् चेहरा उतर गया उसका। अब वह लड़का वहाँ नहीं बैठा था।
अम्माँ पर ख़ूब गुस्सा आया और वह ज़मीन पर पाँव फटकारते घर चली आई।
घर क्या कहें उसे, घर तो किसानों के होते है, या फिर व्यापारियों के। राजस्थान की सीमा से आरंभ होकर मालवा के तमाम गाँवों में बसे उसकी जनजाति के बाँछड़ों के तो बस टापरे होते है। उनका भी टापरा ही तो था। अपने बाप, मताई और छोटे भाई के साथ अपने टापरे में रहती है वह। रहती क्या है, घुटती रहती है। बस कुछ दिन की देर है, ज्यांें ही बिरादरी के सरपंच ने अनुमति दी उसने अपना धंधा चल्लू किया और इस घर से बाहर निकल जायगी वो-अपना अलग टापरा बनाकर रहने।
टापरे तो ग्राहक लोग कहते है, वे तो उसे अपना घर ही कहते हैं। जो टापरे कहते हैं वे अलग अर्थ में लेते हैं न, इसलिये। उनकी नज़र में घर का अर्थ है घरवाली वाला घर, न कि बाँछड़ा जाति की औरत का घर। पूरे इलाके में यही चलन है।
जम्मू उसकी बड़ी बहन है, उसने ज्यों ही पन्द्रह साल की उमर पूरी की, पंचायत ने उसे इजाज़त दे दी सो उसने अपना धंधा चल्लू कर दिया है। अलग रह रही है वह घर से, अभी टापरे नहीं बना सो एक झोंपड़ी डाल ली है उसने। जब इच्छा होती है घण्टे-आध घण्टे के लिए बाप-मताई के पास चली आती है नहीं तो ठाठ से बनी रहती है अपनी झोंपड़ी में। उसकी झोंपड़ी बाप के घर की तरह नंगी-बूची नहीं है, सब कुछ इकट्ठा कर लिया है उसने दो साल के भीतर-टेलीभिजन, उम्दा पलंग, ष्खषबूदार बिस्तरा, सिंगार-पटार का बक्सा, बड़ा आइना और स्टील-पीतल के बर्तन भी। पड़ौसिनें कहती हैं कि जम्मू के ग्राहक भी ख़ूब रसूख दार हैं, ये नहीं कि ड्रायवर और खल्लासी अपना ट्रक खड़ा करके चले आ रहे है-मैले कपड़ों के भीतर हाथ डालकर जांध खुजाते और मुंह से बदबू छोड़ते। खुषबूदार साबुन से रोज़ नहाती है वह और पसीने की बदबू छिपाने के लिए भी एक छोटी-सी षीषी में से कुछ बूंदे अपने कपड़ोें पर छिड़कती है, दिन में कई बार।
लेकिन कम्मो तो तरसती है अपना तन ढकने के लिए भी। जम्मू की उतरन या पिताजी जो हाट के दिन पुराने कपड़े खरीद लाते हैं उसके नाप के, उनसे काम चलाती है वह अपना। पांच लोगों का परिवार और आमदनी के लिए सिर्फ़ सालाना खेती की उपज जो पांच बीघा में
कितने दिनों से उसकी इच्छा है कि वह भी वह सब करे जो जम्मू करती है।
पहली बार ऐसा सोचा था, कम्मू सिर्फ़ दस साल आठ महीने की हुई थी तब और उसे पता नहीं था कि धंधे में उतर जाने पर काम क्या करना पड़ता है, बस्स इतना भर पता था कि सज-धज कर बैठना पड़ता है अपने घर। ग्राहक का कोई भरोसा नहीं कि कब आ जाये, जब आ जाये उसे लेकर झोंपड़ी के भीतर आना पड़ता है और मुस्कराते हुऐ किवाड़ बंद करना पड़ता है। बन्द किबाड़ के भीतर उसने कभी झाँका नहीं कि जम्मू और वह ग्राहक करता क्या है और जम्मू ऐसा क्या बतियाती है जो खुले में नहीं कह पाती। एकाध बार ऐसा भी हुआ कि वह जम्मू के यहाँ आई थी कि ग्राहक आ गया तो जम्मू उससे बोली थी, "कम्मो तू जा अभी फिर अइयो"
वह खिसिया गई, कैसी बहन है? ग्राहक इसका भगवान हो गया। वह आ गया तो सगी बहन को भी टिटकार के भगा दिया। नहीं तो इतना लाढ़ लढ़ायगी कि कोई मर्जाद नहीं रहेगी, अपने खषबूदार बिस्तरे पर बैठने देगी, चमकदार बर्तनों में खाने को देगी और खषबूदार तेल से बाल चुपड़ने को कहेगी। कम्मो उसके कई काम करती है, बर्तन मांज देती है, रोटी बना देती है और बालांें से जूं भी बीन लेती है, जिनमे से एक भी काम करने में कम्मो को बुरा नहीं लगता था।
लेकिन जम्मू जब भगाती है तो उसे बुरा लगता है।
ऐसे ही क्षोभ के क्षणेां में उसने अपनी एक और हमउम्र सहेली चन्नी से पूछा, 'काहे गुंइया, ये तो बताओ, ग्राहक आने पर दीदी भगा काहे देती हैं हमे? ...ये ढेर सारे ग्राहक दीदी के पास काहे आते हैं, और...और बहुत से तो ये भी कहते हैं कि जम्मू तुम जैसी कोई नहीं।'
तो चन्नी ने बताया था कुछ कच्चा-पक्का-'तेरी दीदी सच्ची में पूरी बस्ती में सबसे ज़्यादा खुबसूरत हैं। उनकी बड़ी-बड़ी आँखें, गोरे-गुलाबी गाल, नर्म-काले-बड़े बाल और सबसे बड़ी चीज देह से एकदम गदगदी। मक्खन जैसी हो गई हैं न वे। तूने देखी उनकी गोरी चिकनी देह, चमकदार चक्क गुलाबी चेहरा और ग्राहकों का सबसे ज़्यादा ध्यान खींचने वाले कसमसाते काली चोंच वाले दो कबूतर।'
इतना कह कर चन्नी हँस पड़ी थी और बोली थी 'इन्हीं के वास्ते तो आते हैं ग्राहक उसके पास।'
कम्मो आधा समझी, आधा नहीं समझी।
हाँ, ं तबसे वह अपने जवान होने का इन्तजार करनी लगी।
झंुझलाहट होती कि वह इतने धीरे जवान क्यों हो रही है, जल्दी से जवान काहे नहीं हो जाती! रोज़ नहाते वक़्त अपना बदन देखती और नापती-कितना फूल चुकी है एक दिन में। सहलाती अपने दोनों नन्हे स्तनों का, े जो नीबू बराबर नर्म रबर गेंद के आकार के हैं, ...और धीरे-धीरे ऊपर की ओर तन रहे हैं...और उनमें आ रहा है एक मखमली गुदगुदा पन। जब भी छूती है पूरे बदन में एक फुरहरी छूट जाती है उसे। लेकिन उसे महसूस होता है कि बहुत धीमी गति से जवान हेा रही है वह। पूछना चाहती है कि किसी बूढ़ी औरत से कि जल्दी जवान होने के लिये क्या जतन किया जाय। क्या जड़ी-बूटी खाये, किस बैद के पास जाये, जो उसे जल्दी जवान बना दे। बस एक बार किसी तरह जवान हो जाय, वह जम्मू को दिखा देगी कि उससे भी ज़्यादा ठसक से कोई रह सकता है। जम्मू से ज़्यादा भी कोई ग्राहक जुटा सकती है।
सहसा उसे याद आता है...सिर्फ, जवान होकर क्या होगा! ग्राहक से बर्ताव भी तो सीखना है उसे। अंदाजा है कि जम्मू नहीं सिखाने वाली। ...न सिखाये, ठेंगे से। किसी और से सीखेगी वो। वैसे भी जम्मू के आस-पास रहते उसे ऐसी छोटी-मोटी बातें पता लगीं है, जिन्होने उसे समझने के बजाय उलझा दिया है।
एक बार ऐसा भी हुआ कि वह जम्मू की झोंपड़ी के पीछे थी और अचानक जम्मू का ग्राहक आ गया सो जम्मू तुरंत ही अपनी झोंपड़ी में घुस आई और ज़ोर से किबाड़ लगा लिये। किबाड़ की किरकिराहट करती आवाज़ सुन कर कम्मो को लगा था कि ज़रूर ग्राहक आया है। अचानक उसमें उत्सुकता उत्पन्न हुई, वह खेलते-खेलते ही जम्मू की झोंपड़ी की दीवार तरफ़ खिसक आई और भीतर की बात सुनने के लिए अपने कान चिपका दिये।
'अरी दइया, हुक टूट जायेंगे! क्या करते हो? बहुत जल्दी रहती है तुम्हे!' जम्मू ग्राहक पर लढ़ियाते हुए झल्ला रही थी। कम्मो को ये वाक्य पहेली-सा लगा-हुक क्यों तोड़ रहा है ग्राहक! कहे के हुक तोड़ रहा है और क्या जल्दी पड़ी है उसे।
वह चुपचाप घर लौट आई। सोचती रही कि किससे पूछे। याद आया कि चिकोटी से पूछेगी, तो वह ज़रूर बता देगी। वह तो जानती होगी सब बातें। आख़िर सिरकारी स्कूल में पढ़ती है वह और दुनिया जहान की बातें जानती है।
चिकोटी रोज़ सुबह धुले कपड़े पहन कर पीठ पर बस्ता लटका कर स्कूल जाती है, उसने नाम भी बदल लिया है अपना, अब वह चिकोटी नहीं कहती ख़ुद को चन्द्रिका कहती है। उसके कपड़े भी उसे स्कूल से मिले है, किताबें भी, बस्ता भी और इस बरस तो साइकल भी। कम्मो समझ नहीं पाती कि सरकार को क्या अटकी पड़ी है कि वह चिकोटी-नहीं चन्द्रिका के वास्ते इतना खरच कर रही है। ...उसने सोचा कि अगर वह पढ़ने का सोचे तो क्या सरकार उसका भी खरच उठायेगी? उसे आषा नहीं थी कि ऐसा होगा, क्योंकि उसके पिता को जानता ही कौन है। चन्द्रिका के पिता डाकबंगले में चौकीदार हैं सो सबसे रामा जुहारी है, हर आदमी ध्यान रखता है उनका, उनका यानी उनके बच्चों का भी। हालांकि चन्द्रिका कहती है कि स्कूल की सब लड़कियोंें को ऐसी ही चीजें मिलती हैं। वह सिरकारी भेन्जी (बहन जी-आंगनवाड़ी कार्यकर्ता) भी तो जब आती हैं तो सब लड़कियों को पढ़ाने और सिरकार से इत्ती सारी चीजें लेने की बात कहती हैं, लेकिन कोई नहीं मानता उनकी बात। उसे भी विष्वास नहीं। विष्वास हो भी जाये तो मइयो-बाप क्या भेज देंगे उसे पढ़ने के वास्ते? पहले दर्जा के बाद ही हटा लिया उन्होने कम्मो को स्कूल से।
मोहल्ले के रिवाज़ मुताबिक, चन्द्रिका से जब पूछती है कम्मो, 'धंधा कब शुरू करेगी' तो वह बिफर उठती है-'धंधा कर हरामिन तू, तेरी बहन और तेरी मताई। मैं क्यों करूं? क्या इसी के लिए पढ़ रही हूँ इतना मन लगाके। मैं तो ठाठ से नौकरी करूंगी। सरकारी नौकरी।'
होंठ टेड़़े कर हँसती है कम्मो, 'तेरे लाने ही तो नौकरियाँ खोल रक्खी हैं सरकार ने। ग़र मिल भी जाये तो भी रहेगी तो नौकर की नैाकर न। धंधे में किसी की नौकरी नहीं करना पड़ती, धंधे वाली रानी होती है अपने घर की। जब चाहे सोये जब चाहे जागे। जो पहनना हो पहने। जहाँ जाना हो जाये। जो खाना हो खाये। जितनी बार नहाना हो नहाये। इच्छा न हो तो ग्राहको को भी भगा दे।'
हालांकि उसे लगा था कि अब चन्द्रिका से कुट्टी पक्की है, लेकिन इतनी बहस के बाद भी चन्द्रिका ने उससे बात करना बंद नहीं किया था और उनके मोहल्ला में ऐसा ही होता है। औरतें रात को आपस में लड़ लेंगी ख़ूब हाथ चमकाती हुई, तीन-तीन पीढ़ियों का बखान करती और वंषनाष के लिए सरापती हुई। सुबह होते ही सब एक की एक। लोटा लेकर निकलेंगी तो एक दूसरी को आवाज़ देकर बुला लेंगी। फिर रात की घटना विस्मृत और जीवन नये सिरे से आरंभ। सो उस दिन चन्द्रिका से पूछा उसने कम्मो ने ख़ूब ज़ोर से कि दीदी ऐसा काहे बोली कि हुक तोड़ दोगे क्या? ...और ...और... 'तुम्हे बड़ी जल्दी पड़ती है।'
चन्द्रिका उसे देखती रह गई। फिर धीमे से बोली, 'बाहर चल, वहाँ बताऊंगी।'
अचरज से भरी कम्मो बाहर आ गई।
'तू अगर स्कूल गई होती तो पता होता कि क्यों आता है कोई आदमी किसी दूसरी औरत के पास! अब कैसे समझाऊँ तुझे, देखने में तो लगते हैं कि हम अलग हैं और आदमी अलग लेकिन कुदरत ने दो बदन एक-दूसरे के लिए ही बनाये है। । हम लड़कियाँ जब जवान होती हैं तो बाहर और भीतर से एकदम बदल जाती है, तुमने देखा है अपनी दीदी का बदन। तुमसे कितनी अलग हैं वे। उनके हाथ-पाँव, छातियें और जांघे, सब कितनी फूली और नर्म गुदगुदी हैं-एक दम चिकनी और झक्कास। जब कि मर्द जवान होता है तो खुरदुरा हो जाता है, मज़बूत भी। हमारे स्कूल में दीदी लोग इस बारे मंे भी पढ़ाती हैं।'
'तो क्या स्कूल मंे ऐसी-ऐसी बातें भी पढ़ायी जाती है?' कम्मो की विस्फारित आँखांे में अविष्वास भरा अचरज था।
बहुत पूछा पर चन्द्रिका ने बताया नहीं कि ग्राहक क्येां आते है दीदी के पास।
लौट कर अम्माँ से पूछा तो अम्माँ हँस कर बोली, 'तू जवान हो जागी तो ख़ुद समझ जागी।'
अम्माँ की बात में भी पहेली थी। कम्मो उलझ कर रह गई।
दो बरस होने को आये हैं लकिन दिन तिल-तिल कर बीत रहे है, चींटी की चाल से चलते हुए, ये न हुआ कि हरिण की तरह छलांग लगाते हुऐ बीत जायें।
इस तिल-तिल बदलते समय में इतना भर हुआ कि बदन यकायक ही भरने लगा उसका और खुरदुरापन गायब हो कर चिकनाहट बढ़ गई सारे षरीर में। कुछ जगहों पर नर्म पैाधों की तरह मखमली काली स्याह जुल्फें निकली हैं उसकी देह में। फिर जम्मू के टेलीविजन ने बहुत कुछ सिखा दिया उसे। देखा कि नाचते-गाते चिकने-चुपड़े लकड़े लड़कियाँ ख़ूब चिपटते हैं एक दूसरे से और बदन रगड़ते हैं एक दूसरे के साथ। अचानक यह सब उसे अच्छा लगने लगा। अहसास करती है कि उसके भीतर भी एक अजीब आग सुलगती रहती है और मौका मिला तो वह भी टेलीविजन की तरह किसी के साथ नाचेगी रगड़ते हुए।
सहसा लगा कि दुनिया का परम ज्ञान प्राप्त हो गया है उसे, ये होता है एक मर्द और स्त्री के बीच। अब हर लड़का मोहक लगता उसे, खासकर सजा-धजा और गबरू जवान। गठीले बदन का लड़का।
चन्नी बता रही थी कि उसे भी ऐसा ही लगता है, बल्कि कुछ ज़्यादा ही। महीना भर पहले दोनों हैण्ड पम्प पर पानी भर रहीं थी कि एक ल्रड़का उन्हे देख सीटी बजाता निकला। चन्नी मुग्ध हो गई उस लड़के की इस हरकत पर। बताया, 'तुझे पता है, इन जवान लड़कों के बदन से एक प्यारी-सी सुगंध निकलती रहती है हरदम। इनका तो पसीना भी नषा कर देता है। कभी सट के निकलना इन लोगों के बीच से, ...म्मज्जा आ जायगा।'
उसे याद आया, सचमुच षिवरात्री के मेले में वह मर्दो के बीच फंस गई थी यों ही अकेली, तो चारों ओर से चिपटते-घिसटते मर्दों के स्पर्ष से एक अनोखा सुख मिला उसे। सारी देह में सनसनाहट भर गई थी और देर तक सामान्य नहीं हो पाई थी।
चन्नी दरअसल ग्राहक को खुष करने के गुर सीख रही है और कभी-कभी अपनी देह के बारे में यूं ही कुछ बता देती है कम्मो को, जिसे सुन कर उसे मज़ा आता है।
तब से वह महसूस कर रही है कि बस अब ज़्यादा इंतज़ार नहीं होता। उसे ठीक-ठीक पता नहीं यह बेकरारी स्वतंत्र रहने की इच्छा को लेकर है या अपनी देह की खातिर।
सोचती है...चन्द्रिका ने कहा था कि हम औरतों का षरीर बाहर से भीतर तक बदल जाता है। ...तो क्या वह भी उसी तरह के बदलाव से गुजर रही है। कनपटी गर्म हो उठी उसकी, ।
कुछ दिन आँखों में किरकिराती रेत की तरह गुजरे।
एक दिन बाद की बात है। वह रोज़ की तरह ढाबे के इर्द गिर्द रूके खड़े ट्रकों के आस पास घूम रही थी यों ही। ठीक तभी वह एक नया-नकोर ट्रक आकर खड़ा हुआ था जिसमें से उतरा था वह पैंतीसेक साल का हट्टा-कट्टा सजीला-सा ड्रायवर। जिसके न तो कपड़े मैले थे न ही जिसके मुंह से बदबू आ रही थी। सहसा ट्रक ड्रायवर ने उसकी तरफ़ देखकर उसे आँख मारदी तो वह चौंकी। मन में कुछ-कुछ हुआ। उसने ध्यान दिया कि ड्रायवर उससे लगभग बीस साल बड़ा था फिर भी उसे ऐसे घूर रहा था मानों निगल जाना चाहता हो।
वह गाड़ी में टांगने के लिए कपड़े की बनी गुड़िया लिये थी, उसने ड्रायवर से कहा कि गुड़िया खरीद ले तो वह बेहूदगी से बोला ड्रायवर कि गुड़िया क्या दे रही है? कुछ और चीज दे तो ले सकता हूँ। ड्रायवर उसके घिसे और यहां-वहाँ से फटते जा रहे कपड़ों के भीतर झांकने लगा था, ख़ास कर सीने पर, हाँ सीने पर जिन्हे जम्मू के ब्लाउस के कबूतर कहा था। अचानक कम्मो ने पाया कि उसकी देह क्षण भर में पहले की अपेक्षा कुछ ज़्यादा गुदगुदी हो गई है। ड्रायवर की बात सुनकर कम्मो के कान की लौरें तपने लगीं थी, बदन में बुब्बुओं से लेकर नीचे तक एक अजीब-सी सुरसुरी फैलने लगी, वहाँ खड़ी नहीं रह सकी वह और लौट कर घर आ गई।
लौटकर देखा तो घर सूना पड़ा था पूरा। सूनेपन से उसमें अनायास उत्तेजना हो आई। तेज गति से लगभग झपटते हुए झोंपड़ी के दरवाजे पर आकर गली में झाँका और दोनों ओर के किवाड़ खींच कर बंद कर दिये। बंद किवाड़ों से ही पीठ सटाये खड़े हो दोनों हाथ अपने कमीज नुमा कुर्ते के बटनों से उलझा लिये।
एक क्षण बाद पूरी तरह निर्वस्त्र बदन था उसका और अपने ही बदन पर उसके हाथ तेजी से फिसल रहे थे। जाने किस चीज की तलाष थी उसे जिसके लिए एक अजीब-सी बैचेनी दिख रही थी उसमंे। दीवार पर टंगा आइना उतारा और अपना ऊपरी बदन झाँका उसने आइने में। फिर एक मदहोषी भरी नज़र अपने वक्ष पर डाली और उत्तेजना उसके बदन में भर उठी-आज दो अंगुल ऊपर उठ आये थे उसके गोल-मटोल से अल्हड़ स्तन। मौसम्बी के नन्हे फल की तरह कुछ-कुछ सख्त, कुछ-कुछ पिलपिले और एकदम गोल भी। कांपते हाथ से छुआ उसने पहले दांये को फिर बांये को और फुरफुरी-सी दौड़ गई पूरे बदन में उसके। आष्वस्त होने के लिए फिर अपने कंधों, गर्दन के पिछले हिस्से और नाभि के भंवरे ले रहे हिस्से पर हाथ रखा तो गदराहट आती महसूस हुई। एक अलौकिक सुख-सा मिला उसे। ...अब क्या है, महीना भर के भीतर छा जायगा उसका भी जलवा। वह भी जम्मू की तरह इतरा के चलेगी और मंुह में भरे रहेगी बीड़ा, अंटी में खोंसे रहेगी ढेर से गुड़ी-मूुड़ी रूपये और मां-बाप से डांट नहीं खाना पड़ेगी उल्टे उनको उपेक्षा से डांटने का हक़ मिल जायगा उसे। हर पन्द्रह दिनोें की तरह आज भी उंगलियों पर उमर गिनी तो सिर्फ़ चौहद साल आठ महीने की पाई ख़ुद को उसने। लेकिन उसकी जवान होने की इच्छा और मोहल्ले व घर का माहौल ही ऐसा कि उम्र से पहले जवानी आने लगी है उस पर, ...और ये ग़लत कहाँ है, बाँछड़ा जनजाति की हर लड़की यही तो चाहती है कि वह जल्दी से जवान हो और अपने पाँव पर खड़ी हो, अपनी स्वतंत्र अस्मिता, अपने निर्णय लेने की स्वतंत्रता और अपनी निजी कमाई आरंभ करें।
फिर एक मजेदार इच्छा हुई उसकी-घांघरा फेंक देने की। कांपते हाथों से घांघरा कि रबर ढीली करते हुए नीचे सरकाना आरंभ किया उसने।
तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। कंप गई वह। झटपट अपनी कुर्ती पहनी और तेजी से उसके बटन लगाने लगी। कौन आया हागा इस वक़्त? उसका मन संषयग्रस्त था। ...अम्माँ भी हो सकती है, जो खेत से लौट आई हो। या फिर बप्पा भी, जो नषा टूट जाने के बाद घर लौट आये हों।
कुर्ता खींच कर नीचे किया, छाती पर ठीक से बैठाया। किबाड़ खोलने से पहले एक बार बाहर देख लेना ठीक समझा उसने। झिरी से आँख लगाई तो जी उछल कर हलक में आ फंसा। बाहर वही ड्रायवर खड़ा था जिसने उसे देख कर आँख मारी थी। पसीने-पसीने हो उठी कम्मो। समझ ही नहीं आया कि अब क्या करे?
ड्रायवर दरवाज़ा पीट रहा था और कम्मो अकुला रही थी भीतर ही भीतर, ...मिट्टी की दीवारों से बनी कच्ची झोंपड़ी में लगा पतले टीन का दरवाज़ा भला कहाँ तक ज़ोर सह पायेगा? थोड़ी ही देर में टूट कर नीचे आ गिरेगा। फिर... फिर क्या करेगी वह। जिस क्षण की प्रतीक्षा में पिछले दो साल से है, अनायास वह क्षण आया है तो घबरा रही है वह।
अचानक बाहर ड्रायवर ने दरवाज़ा बजाना बंद कर दिया तो कौतूहल से कम्मो ने फिर झिरी से झाँका। बाहर मल्तूराम खड़े थे-बिरादरी के सरपंच। वे ड्रायवर को टोक रहे थे, 'इधर कोई नहीं रहती धंधे वाली। वह उधर वाली झोंपड़ियों में जाओ, जो नीलीपीली पुती हैं वह उधर खेतों से लगी हुई। इस घर में तो ग्रहस्थी बसती है, धंधा नहीं होता यहाँ।'
और कम्मो को श्रद्धा हो आई मल्तूदादा पर। टाईम पर आ गये सो बचा लिया नहीं तो जाने क्या करता वह लुच्चा ड्रायवर। ड्रायवर की शकल याद करते ही उसके बदन में फिर उत्तेजना भरने लगी। मन के किसी कोने में मल्तू दादा के लिए गुस्सा भी उभरा, ' इन्हे क्या मतलब कि इस घर में धंधा होता है या नहीं किसी को बतायें। खामोखां भगा दिया उस गबरू जवान को, जो आज अनायास ही उसे एक झटके में जवान बना देने के लिए आ गया था। ...अब चार महीने इन्तजार करना होगा, तब जाकर ख़ुद यही मल्तूराम इजाज़त देंगे उसे धंधे की और तब किसी के द्वारा उसका दरवाज़ा खटखटाये जाने पर कोई नहीं टोकेगा।
गर्म होती देह को जैसे-तैसे संभाल कर घर के काम में उलझ गई कम्मो-अभी धंधा नहीं करना उसे, बहुत देर है इस काम के लिए। जाति के रिवाज़ से कम से कम चार महीने और इन्तजार करना है, अपनी देह को दुकान बना देने के लिए, देह के मनचाहे इस्तेमाल की आजादी के लिए, आदमियों से खुलेआम बतियाने और लिपटने-चिपटने का सुख लेने के लिए। बाँछड़ा जाति की उस जैसी निरक्षर लड़की के लिए इससे ज़्यादा क्या है अपनी जून का महत्त्व, देह का सुख और समाज की मान्यता के साथ नये-नये ग्राहकों का इन्तजार करने के लिए। ...और सिरकारी भैन्जी के हिसाब से तीन साल चार महीने-वह भी धंधे के लिए नहीं, अपना तन किसी को छूने देने के लिए।
उसे क्या पता था कि आज उसी के देष की, उसी की जून की औरत देह को लेकर क्या सोच रही है, क्या कर रही है और कहाँ खड़ी है। उसे तो इन्तजार था अपने जवान होने का।