इक़बाल अपनी नज़र में / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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यह लेख फ़ैज़ की पुस्तक ‘मीज़ान’ से लिया गया है। उर्दू की काव्य-परंपरा और फ़ारसी सौंदर्य-दृष्टि दोनों को ध्यान में रखकर इक़बाल की रचनाशीलता के मूल्यांकन के सिलसिले में यह आलेख बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है।

इक़बाल की नज़र से दुनिया को बहुत लोगों ने देखा है। इक़बाल की नज़र से इक़बाल का अध्ययन किसी ने नहीं किया। यह लेख इसी बहस का प्राक्कथन है। यह बहस दो वजह से अहम है। पहली वजह यह है कि अहं की स्थिरता, अक़्लो-इश़्क, ख़ुदा और इनसान और ऐसे ही दूसरे दार्शनिक विषयों की तरह इक़बाल का व्यक्तित्व भी एक मुश्किल विषय है। और उनके कलाम का कोई दौर ऐसा नहीं जो इस विषय से ख़ाली हो। दूसरी वजह ये है कि मेरी राय में इक़बाल की शायरी का सबसे खरा, सबसे मार्मिक, सबसे रसीला हिस्सा वही है जो उनके अपने व्यक्तित्व से संबंधित है। यह हिस्सा फ़लसफ़े से ख़ाली लेकिन जज़्बे से भरपूर है। इसमें तकरीर का जोश नहीं लेकिन एहसास की शिद्दत बहुत ज़्यादा है। यह शायरी इक़बाल की दार्शनिक श्रेष्ठता पर बहुत कम निर्भर है।

इक़बाल के दार्शनिक दृष्टिकोण का क्रमिक विकास हुआ है, इंक़लाबी ढंग से छलांग लगाकर नहीं। उनके शुरुआती और आखि़री समय के विचारों में एक आंतरिक संबंध और सिलसिला है जो टूटने नहीं पाता। विभिन्न अवसरों पर इक़बाल ने जिन विचारों की टीका और व्याख्या की है उनमें आपस में विरोधाभास तो है, पर अंतर्विरोध नहीं है। इक़बाल ने अपने व्यक्तित्व के बारे में जो कुछ लिखा है उसका आधार भी यही है। शुरू के दौर की शायरी में वे जिन-जिन मानसिक उलझनों और जज़्बाती मसअलों का ज़िक्र करते हैं, जिन परेशानियों और खु़शियों, जिस दर्द या सुरूर का इज़्हार करते हैं, बाद की शायरी में उन्हीं स्थितियों की गूंज बार-बार सुनायी देती है। अगर हम इक़बाल की नज़र से देखें तो हमें इस शख़्सियत के चंद एक पहलू बहुत साफ़ नज़र आयेंगे।

पहली बात जिस पर ध्यान जाता है, वह यह है कि इक़बाल अपने व्यक्तित्व को दुनिया और जो कुछ इसमें है, उससे अलग- थलग एक क़तई ख़ुदमुख़्तार और निरंकुश हक़ीक़त क़रार देकर अपने दिलो-दिमाग़ का विश्लेषण नहीं करते थे। वो अपने व्यक्तित्व के संबंध में जो कुछ कहते हैं, ज़्यादातर किसी बाहरी यथार्थ के हवाले से कहते हैं। यूं कह लीजिए कि अपने व्यक्तित्व के तईं उनका बयान ज़्यादातर इसके अतिरिक्त होता है। उसमें ज़्यादातर उस संतोष या असंतोष का ज़िक्र होता है जो शायर के व्यक्तित्व या किसी रिश्ते के आपसी तअल्लुक़ से पैदा होता है। ये अन्य चीजें़ कभी प्राकृतिक दृश्य हैं तो कभी मानव जाति, कभी वतन की मिट्टी है तो कभी जिं़दगी का रेगिस्तान, कभी कोई कलात्मक या जज़्बाती या नैतिक आदर्श है तो कभी ख़ुदी (अहं) का बुलंदतर मुक़ाम। इक़बाल को अपने व्यक्तित्व में अगर दिलचस्पी है तो वो अंतर्मुखी भावप्रवण शायरों की तरह महज़ अपने व्यक्तित्व की वजह से नहीं बल्कि उस नफ़्अ-नुकसान की वजह से है जो इस व्यक्तित्व से दुनिया और दुनिया से परे इस व्यक्तित्व से संबद्ध होते हैं।

अब ये देखिये कि इक़बाल ने अलग-अलग समय में अपने बारे में क्या कुछ महसूस किया है, ‘बांगे-दरा’ की दूसरी नज़्म में इक़बाल ‘गुले-रंगीं’ से मुख़ातिब होकर फ़रमाते हैं :

इस चमन में मैं सरापा सोज़ो-साजे़-आरज़ू और मेरी ज़िंदगानी बेगुदाजे़-आरजू मुतमइन है तू, परेशां मिस्ले-बू रहता हूँ मैं ज़ख़्मिए-शमशीरे-ज़ौक़े-जुस्तजू रहता हूँ मैं

ये परेशानी और बेचैनी, ये लगातार तलाश और आरज़ूमंदी इक़बाल की शायराना शख़्सियत का महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस बेचैनी के कारण और इस तलाश के उद्देश्य बदलते रहे। लेकिन इन स्थितियों का एहसास इक़बाल की तमाम शायरी पर हावी है और वो इसकी अभिव्यक्ति तरह-तरह के अंदाज़ में करते हैं।

इक़बाल जब भी प्राकृतिक दृश्यों के चैन-आराम और सुकून का अवलोकन करते हैं तो उन्हें हमेशा अपने दिल की तड़प और जज़्बात की बेचैनी का शिद्दत से एहसास होता है :

तारों का ख़मोश कारवां है ये क़ाफ़िला बेदरा रवां है ख़ामोश है कोहो-दस्तो-दरिया कुदरत है मुराकबे में गोया ऐ दिल तू भी ख़मोश हो जा आग़ोश में ले के ग़म को सो जा सूरज बुनता है तारे-ज़र से दुनिया के लिए रिदाए-नूरी आलम है ख़मोशो-मस्त गोया हर शै को नसीब है हुज़ूरी दरिया, कुहसार, चांद-तारे क्या जानें फ़िराक़ो-नासुबूरी शायां है मुझे ग़मे-जुदाई ये खाक़ है महरमे-जुदाई बह्रो-दश्तो-कोह कि ख़ामोश व कर आसमानो-मेहरो-यह ख़ामोश व कर हर यके मानिंद बेचारा ईस्त दर फ़जाये नीलगूं आवारा ईस्त ईं जहां सैद अस्त व सैयादेम मा या असीरे-रफ़्ता अज यादेम मा ज़ार नालीदम सदाए-बर नख़्वास्त हमनफ़स फर्ज़ेंद-आदम ए कुजास्त

ये बेचैन और पीड़ामय शख़्सियत जो अपनी बेचैनी और पीड़ा की वजह से चांद सूरज की दुनिया में अपने को अजनबी और तनहा महसूस करती है, इनसानों की दुनिया में भी उसी तरह अजनबी और तनहा है।

इक़बाल की नज़र में उनका हमअस्र (समकालीन) इनसान भी सजीव और निर्जीव की तरह मुर्दादिल और बेसोज़ है। इसलिए वो इनसान से भी अपने को उतना ही दूर पाते हैं जितना चांद-सितारों से :

ये कैफ़ियत है मेरी जाने नाशकेबाक़ी मेरी मिसाल है तिफ़्ले-सग़ीर तन्हा की अंधेरी रात में करता है वो सरोद आग़ाज सदा को अपनी समझता है ग़ैर की आवाज़ हुनूज़ हमनफ़से-दर-चमन नमी बीनम बहार भी रसदो मन गुल तख़ीतीनम जहां ज़वलो-मुश्ते-खाक़ मन हमा दिल चमन ख़ुश अस्त वले दरखुरे नवायम नीस्त

जलन और तनहाई का ये एहसास सीने में दबाये शायर सुकून और दोस्ती की तलाश में जगह-जगह और गली-गली भटकता फिरता है। लेकिन ये दौलत न हरमो-दैर (मंदिर-मस्जिद) में मयस्सर है न मद्रसा-ओ-ख़ानक़ाह में, मस्जिदें भी इससे ख़ाली हैं मैकदे भी : न ईं जा चश्मके-साक़ी न आं जा हर्फ़ें मुश्ताक़ी ज़ बज्में सूफ़ी-ओ-मुल्ला बसे ग़मनाक भी आयम सिवाय खाना-ओ-मंज़िल न दारम सरेराहम ग़रीबे-हर दयारम उठायें मद्रसा-ओ-ख़ानक़ाह से ग़मनाक न जिं़दगी, न मुहब्बत, मारिफ़त, न निगाह

इस लगातार और अथाह अकेलेपन की वजह से आशावाद और आत्मविश्वास की सबसे बड़ी अभिव्यक्ति को आहिस्ता-आहिस्ता वैयक्तिक पराजय या नाकामी का गहरा और पुरदर्द एहसास होने लगता है और वक़्त गुज़रने के साथ-साथ उस एहसास की शिद्दत कम होने के बजाय धीरे-धीरे बढ़ती जाती है। इस शिकस्त को इक़बाल कभी नासाज़िए-ज़माना (युग की प्रतिकूलता) पर मढ़ते हैं :

बख़ाके हिंद नवाय-हयात बेअसर अस्त कि मुर्दा ज़िंदा न गर्दद ज़ नग़मए-दाऊद कस न दानिस्त कि मन नीज़ बहाये दारम आं मताअम कि शवद दस्त ज़दे-वे अजरां

लेकिन ज़्यादातर इस शिक़स्त का एहसास इस वजह से होता है कि वो लक्ष्य की प्राप्ति में सफल नहीं हो सके। न वो अक़्ल की गुत्थियां सुलझा सके, न इश्क़ की आखि़री मंज़िल उन्हें हाथ आयी। उनकी बेक़रारी का उस हक़ीकत से मिलन नहीं हो सका जिसका मिलन अहं की पूर्णता और संतोष का प्रमाण है। कला की इंतिहा भी खु़दी की इस तृष्णा को नहीं मिटा सकी और इसी प्यास के कारण अभिव्यक्ति में कामयाबी संपूर्ण सफलता का दर्जा हासिल नहीं कर सकी :

ही मेरी कमनसीबी वही तेरी बेनियाज़ी मेरे काम कुछ न आया ये कमाले-नै नवाज़ी इसी कशमकश में गुज़री मेरी जिं़दगी की रातें कभी सोज़ो-साजे़ रूमी, कभी पेचो-ताबे-राज़ी थी वो इक दरमांदा रहरौ की सदाए दर्दनाक जिसको आवाज़े रहीले-कारवां समझा था मैं परेशां हो के मेरी ख़ाक आखि़र दिल न बन जाये जो मुश्किल अब है यारब फिर वही मुश्किल न बन जाये

इससे ये न समझना चाहिए कि इस संवेदनात्मक तीव्रता की वजह से इक़बाल अपनी जद्दोजहद को उपलब्धि से परे समझते हैं या अपने माहौल से मायूस और बेज़ार हो जाते हैं। उनके कलाम में कहीं-कहीं दुःख और उदासी तो है, मायूसी और निराशा कहीं नहीं है :

नहीं है नाउम्मीद इक़बाल अपनी किश्ते-वीरां से ज़रा नम हो तो ये मिट्टी बहुत ज़रखेज़ है साक़ी

इसलिए इक़बाल को अगर कमनसीबी का गिला है तो बांसुरीवादक होने का गर्व भी है। उनकी तबीयत में विनम्रता भी है गर्व और शालीनता भी। इस गर्व और शालीनता की दो सूरतें हैं। अव्वल उनकी फ़क़ीरी में संतुष्टि और सांसारिक विरक्ति है। ऐसा गर्व जो अपनी बेसामानी पर नाज़ करता हो और कम मेलजोल पर ख़ुश है। यह निस्पृहता भी इक़बाल के अतिप्रिय विषयों में से है :

करम-ऐ शहे-अरबो-अजम कि खड़े हैं मुंतज़िरे-करम वो गदा कि तूने अता किया है जिन्हें दमाग़े-सिकंदरी फ़कीरे शह्र न शायर न ख़र्कापोश इक़बाल गदाए-राहनशीनस्तो-दिल ग़नी दारद ख़्वाएज-मन निगाह दार आबरूए गदाए-ख़्वेश आंकि ज़ जूए-दीगरां पूर न कुनद पियाला रा

उसको दूसरी सूरत में इस चमत्कार का एहसास है जो शायर की वाक्शक्ति को बख़्शा गया है। ऐसा चमत्कार जिसके सामने बादशाहों की दौलत भी कुछ नहीं है और बादशाही दबदबा भी सर झुकाये है :

दमे मुरा सिफ़ते-बादे-फ़र्दे-दीं करदंद गियारह रासे सिरशकम जू यासमीं करदंद बुलंद बाल चुनाएम कि बर सिपह्रे बरीं हज़ार बार मुरा नूर यां कमीं करदंद मेरे गुलू में है इक नग़मए-जिब्रील आशोब संभाल कर जिसे रक्खा है लामकां के लिए फ़क़ीरे-राह को बख़्शे गये अस्रारे-सुल्तानी बहा मेरी नवा की दौलते-परवेज़ है साक़ी

जिस तरह इक़बाल की विनम्रता निराशाजनक नहीं उसी तरह उनके ग़रूर में भी उद्दंडता और कठोरता नहीं है। अपनी ग़रीब क़ौम की आम जनता और ख़ास तौर से नौजवानों को इक़बाल जब भी संबोधित करते हैं तो उनके व्यक्तित्व का एक और जज़्बाती पहलू स्पष्ट होता है। ये जज़्बा एक बहुत ही पुरख़ुलूस और स्नेहपूर्ण प्यार का जज़्बा है, जो हमारे घमंडी शायरों में ज़्यादातर नहीं मिलता है :

मेरे नालए-नीमशब का नियाज़ मेरी ख़ल्वतो-अंजुमन का गुदाज़ उमंगें मेरी आरज़ूएँ मेरी उमीदें मेरी जुस्तजूएँ मेरी मेरी फ़ितरत आईनए-रोज़गार गज़ालाने-अफ़कार का मर्ग़ज़ार यही कुछ है साक़ी मताए फ़क़ीर इसी से फ़क़ीरी में हूं मैं अमीर मेरे क़ाफ़िले में लुटा दे इसे लुटा दे ठिकाने लगा दे इसे

ग़रज़ कि इक़बाल के कलाम से शायर की जो तस्वीर उभरती है, उसमें विरही आशिक़ की पीड़ा और हसरत है। बादशाह का सा ग़रूर, फ़क़ीर जैसी विनम्रता, सूफ़ी जैसी निस्पृहता, भाई की सी मुहब्बत और दोस्त की सी घनिष्ठता है।

उर्दू से अनुवाद : गोबिंद प्रसाद मोबाइल : 09999428212