इच्यो की पीली पत्तियाँ, तामाबोचि और कौसानी / अशोक अग्रवाल

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लक्ष्मीधर मालवीय : एक स्मृति-लेखा

मेरे आकाश में उड़ते पाखी

रोगन के गीले, लाल-पीले।

डूबता सूरज

एक अपरिचित के चेहरे का

प्रतिबिम्ब जैसा

खिड़की के काँच पर!

(मालवीयजी के एक छायांकन पर लिखी पंक्तियाँ)

कौसानी की उस पहली यात्रा में हल्द्वानी पहुँचने तक रात्रि के लगभग दस बज गये थे। कौसानी के लिए पहली बस सुबह पाँच बजे खुलती थी। अँधेरी गली में स्थित मामूली होटल में एक कमरा मुश्किल से हाथ लगा। तीसरी मंजिल के कमरे की बालकनी से दिखा लकड़ी का गोदाम और बडे़-बड़े लट्ठों के पास अलाव जलाते किसी कुमाऊँनी लोकगीत पर थिरकता मजदूरों का समूह ऊँची उठती लपटों की आभा में दिपदिपाते

उन चेहरों ने हमारी सारी थकान अपने साथ समेट ली। सुबह होटल छोड़ने से पहले मालवीय जी ने अपनी पाकेट डायरी निकाली और उसमें कुछ लिखते हुए बोले—‘‘अशोक जी, लेखक की जेब में सदैव डायरी और कलम रहनी चाहिये। कोई दृश्य, पात्रा या स्थल जो उसे प्रेरित कर रहा हो, संकेतों में अपनी जगह पाता रहे. पता नहीं कब वह भविष्य में लिखी जाने वाली किसी रचना के लिए खाद-पानी का काम कर जाये। उनकी इस अमूल्य सीख का पालन मैं ताजिन्दगी न कर सका। कौसानी की तीसरी यात्रा हुई सितम्बर 1984 में। इस बार गौरा (मालवीयजी की छोटी बेटी) भी हमारे साथ थी। कौसानी से अल्मोड़ा से रानीखेत, और फिर कौसानी। मैं तनिक विस्मित था कि सुदूर जापान से एक व्यक्ति बार-बार इसी एक छोटे पहाड़ी कस्बे की यात्रा के लिए आता है और इसी के साथ उसकी समूची यात्रा अपना गंतव्य पा लेती है। इसका सम्बन्ध उनके अतीत की स्मृतियों से है, इतना आभास तो मुझे लग ही गया था। कौसानी के पीछे से पहाड़ी पगडण्डियों से उतरते गरुड़-बैजनाथ के समीप बहती कोसी नदी के किनारे बिखरे चिकने गोल पत्थरों पर घण्टों बैठे—बहते पानी के निनाद में खोये मालवीयजी बीच-बीच में उन पुराने आत्मीय मित्रों की चर्चा करते, जिनके साथ वह कौसानी आए थे—‘‘अशोक जी, जरा इस खण्डहरनुमा होटल को देखिये...’’—मालवीय जी ने इशारा करते हुए कहा—‘‘हाँ, वह झुलसी दीवार वाली बिल्डिंग यह ‘हिमालय होटल’ हुआ करता था।’’ ‘‘कौसानी आना आखिरी बार हुआ,’’— वापिस लौटते हुए मालवीय जी ने कहा—‘‘एक लेखक के बतौर मुझे जो पाना था, इस बार वह पा लिया।’’ संभवतः मालवीयजी की वह कहानी ‘हनीमून’ थी जिनकी कोई गाँठ या गुत्थी सुलझाने के लिए वह बार-बार कौसानी के लिए खिंचे चले आते थे।

‘इच्यो’ का गाछ मैंने सबसे पहले देखा ओसाका स्थित मालवीयजी के उस खूबसूरत काष्ठ निर्मित दुमंजिला घर के कच्चे लॉन में जो उन्हें विश्वविद्यालय की ओर से रहने के लिए मिला हुआ था। अक्टूबर 1984 में मालवीय जी का अतिथि बनकर जापान पहुँचा था। ‘इच्यो’ की पत्तियों का अधिकांश पीला होने लगा था। ‘‘इसे देख मुझे इलाहाबाद के स्मिथ रोड पर जड़ें जमाये उस गर्वीले अमलतास का स्मरण हो आता है जो गरम लू के थपेड़ों के बीच निःशब्द मुस्कराता रहता।’’—गाछ का ब्यौरा देते मालवीयजी ने कहा। छः फुट ऊँची चारदीवारी से घिरा काठ का बंगला। विशालकाय गेट की साँकल पर भारी भरकम ताला और इसी के एक सिरे पर बना छोटा सा दरवाजा, भीतर प्रवेश के लिए। एक गैराज जिसमें मालवीय परिवार की साइकिलें, अलाव जलाने के लिए लकड़ियों के गट्ठर, बढ़ई के विभिन्न औजार और इनके साथ ‘शोचू’ (शकरकंद से बनी देसी जापानी शराब) की खाली और भरी हुई बोतलों से सजी एक दर्जन से अधिक क्रेटें। घर में प्रवेश करते ही बाईं तरफ छोटी-सी बैठक। टी.वी., तातामि (जापानी चौकी) और बैठने के लिए छोटे-छोटे आसन। बैठक से सटा मालवीय जी का फोटोग्राफी का स्टूडियो और फिर रसोईघर। दाहिनी ओर दो बड़े-बड़े कमरे। रसोईघर से सटा जीना—आठ-दस काष्ठ की पैढ़ियाँ चढ़ने पर एक चबूतरा जहाँ घूमती हुए सीढ़ियाँ दूसरी मंजिल पर खुलतीं। मालवीय जी का अध्ययन कक्ष इसी चबूतरे और ऊपर जाती सीढ़ियों के मध्य बना था। ऊपरी मंजिल के कमरे की खिड़कियाँ खोलते मालवीयजी ने कहा—‘‘यह रहा आपका कमरा।’’ खिड़की से झाँकने पर दिखायी दिया वही इच्यो का गाछ जिसकी शाखाएँ खिड़की की ऊँचाई तक आ रही थीं। सुबह आँखें खुलने पर पारदर्शी काँच के पल्लों वाली खिड़कियाँ खोलते ही सबसे पहले नजर जाती इच्यो के गाछ पर फिर चारदीवारी के पास खड़े क्रीम रंग के उस ट्रक पर जिस पर नीली ड्रेस और काले जूते पहने जापानी लड़कियाँ फुरती से बड़े-बड़े पैकेटों का लदान कर रही होतीं। संभवतः वह किसी कम्पनी का गोदाम रहा होगा।

ओसाका पहुँचा ही था कि वायरल फ्लू ने जकड़ लिया। घरेलू उपचार से ज्वर जब नहीं उतरा तो मालवीय जी चिंतित हो आये। इस बात से अधिक कि स्थानीय प्रशासन सूचना पाते ही मुझे वापिसी की उड़ान से भारत के लिए लाद देगा। समाधान अकिको सान् ने निकाला। साइकिल के कैरियर पर मुझे बैठा वह अपने पारिवारिक डॉक्टर के क्लिनिक के लिए निकल ली। डॉक्टर से मेरा चैकअप करा और दवाइयाँ लेने के बाद संकरी गलियों से होती हुई अकिको सान् की साइकिल एक घर के बाहर रखे फूल के गमले से टकरायी और गमला लुढ़क गया। अकिको ने साइकिल को ब्रेक लगाया और वापिस लौटी। गमले को उसकी पूर्व जगह पर खड़ा कर निश्चिंतता की साँस ली। ‘‘गमला टूट गया होता तो आप क्या करतीं?’’

अकिको सान् हँस दीं—‘‘कुछ नहीं घर की कॉलबेल बजाती और क्षमायाचना के साथ नुकसान की भरपायी करती।’’ अकिको मालवीय जी को ‘दायचान’ (जापानी में पिता के लिए) कहकर सम्बोधित करतीं। अकिको के लिए मालवीय जी प्रेमी, पति और शिक्षक सभी एक साथ थे। ओसाका विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में जहाँ मालवीय जी ब्लैकबोर्ड पर चाक से लिखते हुए छात्रों को हिन्दी पाठ-समझा रहे होते अकिको सान् नीचे पंक्ति में बैठी पूरे मनोयोग से अपने नोट्स ले रही होतीं। डायनिंग टेबिल रसोईघर में लगी थी। एक दीवार पर अकिको सान् ने ब्लैक बौर्ड लटका रखा था। वार्तालाप के दौरान कोई शब्द उनकी पकड़ाई में न आता तो मैं पर्यायवाची शब्दों के साथ इशारे से उन्हें बताने का प्रयास करता। अकिको उस शब्द या वाक्य को चाक से हिन्दी और जापानी भाषाओं में लिख उसे समझने का प्रयास करती। उलझन बनी रहने पर मालवीय जी हस्तक्षेप करते। ‘‘वह हिन्दी क्यों समझना चाहती हैं?’’ मेरे सवाल के उत्तर में अकिको सान् सहजता से हँस दीं—‘‘पति की लिखी किताबें पढ़ सकूँ और जान पाऊँ कि वे मेरे बारे में क्या सोचते हैं!’’ ‘सुमा’ स्टेशन पर समुद्र की ओर जाने वाली सीमेंट की सीढ़ियाँ उतर हम बीच पर पहुँचे। ‘‘अकिको से पहली मुलाकात यहीं हुई थी। वह बिकनी पहने अपने प्रेमी के साथ समुद्र की लहरों से खिलवाड़ कर रही थी उसके अमेरिकन लड़की जैसे ऊँचे कद और उन्मुक्त खिल-खिल ने मुझे आकर्षित कर लिया...’’—अकिको की तरह देखते मालवीय जी मुस्कराये। ‘‘वह भारतीय फोटोग्राफर मेरे पास आया और विनय से मेरे फोटो उतारने की अनुमति माँगी। उसने मेरे ढेरों फोटोग्राफ उतारे और उनके प्रिन्टस् भेजने के लिए घर का पता और फोन नम्बर भी लिया। हम तीन माह तक मिलते रहे और फिर उसने प्रस्ताव रखा। मैं उलझन में थी और अपने बचपन के मित्रा को धोखा नहीं देना चाहती थी। चायघर में हमने देर तक बातें कीं और उसे बताया कि उसके साथ मेरा भविष्य सुरक्षित और निश्चित है—अच्छी तनख्वाह, घर और बच्चे। उस भारतीय के साथ जिसका कल भी तय नहीं है, मैं किसी भी सीमा तक जा सकती हूँ...फिर हमने अच्छे मित्रों की तरह एक दूसरे से विदा ली...’’—अकिको की हँसी में ऊपरी दंतपक्ति के स्वर्ण मण्डित दाँत की आभा भी छिटकी थी—‘‘दायचान् के साथ मैं आज भी उसी अनिश्चित और गोपनीय भविष्य के साथ जीती हूँ। हर पल अज्ञात और सम्मोहक। नहीं जानती, कब दायचान् अपना रुक-सैक और कैमरे को उठा कुछ बताये बिना निकल जायें।’’

विश्वविद्यालय में मालवीय जी का केबिन। अल्मारियों में करीने से सजी किताबें, मेज पर टाइप राइटर और कागज। ‘‘उस समय तारा दो साल की रही होगी, इसी केबिन में अर्जेन्टीना से आया प्रेमलता वर्मा का छोटा सा पत्रा मिला—मैं बालकनी में खड़ी सूर्यास्त देख रही हूँ। काश! इस वक्त तुम मेरे साथ होते। मैंने तीन दिन के भीतर विश्वविद्यालय को अपना इस्तीफा सौंपा और सारी जमा-पूँजी और मित्रों से उधार ले अर्जेन्टीना का टिकट कटाया। अकिको ने एक बार भी मुझसे कोई सवाल नहीं किया। टोक्यो एयरपोर्ट पर उड़ान के लिए मैं गलियारे में प्रवेश करने वाला था, सिर्फ इतना कहा—निश्चिंत होकर जाना। लौटने का मन न करे तो नहीं आना। मैं जानती हूँ लौटने का रास्ता खोजते हुए तुम घर वापिस लौट आओगे, भागे हुए घोड़े के अस्तबल में वापिस लौटने की तरह...’’

‘‘किसी और सुबह!’’—मेरे मुँह से निकला।

‘‘हाँ, जापान से अमरीका-लातिन अमेरिका-अर्जेन्टीना के दक्षिणी और पेसादोना तक की अस्सी हजार किलोमीटर की यात्रा पेसदोना में बर्फ की नदी अन्देस पर्वत से निकलकर समुद्र की ओर बढ़ती है, रोज केवल दो मीटर की रफ्तार से तीस-तीस, चालीस मीटर ऊँचे बर्फ के घरहरे, सफेद नीली बारीक चोटियों के साथ गिरते हैं तो केवल दिखायी भर देता है, आवाज सुनायी नहीं देती। स्वनिर्मित हो या नियति द्वारा, कोई भी घटना-दुर्घटना बड़ा मूल्य चुकाकर भी यदि लेखक को रचना दे जाये तो फिर सब-कुछ सार्थक हो जाता है।’’

इस जापान के भीतर एक दूसरा जापान भी बसता है। इस दूसरे जापान को दिखाने मालवीय जी मुझे ‘तन्नौजी पार्क’ लाये। घास के ऊपर अखबार बिछाये दिहाड़ी मजदूर, नीली पेंट और बनियान पहने। किसी-किसी ने कोट भी पहना था। बगल में टिकी हथठैली में उनकी गृहस्थी। दूसरी दिशा में विभिन्न देशों के फूल-बीज बिक रहे हैं। सभी के चेहरों पर अजीब सी कठोरता। दया-भाव कतई बर्दाश्त नहीं। रात इसी पार्क में या किसी पुल के नीचे। मालवीय जी रुकते हुए एक मजदूर के समक्ष अपनी सिगरेट पेश करते हैं। ‘‘सिगरेट! मुझे भिखमंगा समझा है? जो तुम पीते हो वही मैं भी पीता हूँ,’’—सख्ती से तत्काल उत्तर मिला। उसके आस-पास कुछ काँच के ग्लासों में ‘शोचू’ पी रहे हैं। समीप के दूसरे पार्क में एक बूढ़ा विभिन्न भाव-भंगिमाओं के साथ भाव-विभोर नाच रहा है, उसके करीब खड़ा दूसरा बूढ़ा माइक पर गा रहा है, संभवतः कोई फिल्मी गाना मुँडेर पर बैठे दूसरे मजदूर और उनके साथ चार-पाँच सम्भ्रांत से प्रतीत होते वृद्ध-वृद्धायें तालियाँ बजा रहे हैं। मोटा जापानी जैसे ही माइक पर कोई उद्घोषणा करता है उसके समीप खड़ी युवा लड़की के पैर थिरकने लगते हैं। बूढ़ा दूसरी बार, तीसरी बार फिर-फिर नाच रहा है, जैसे वह कभी थकेगा नहीं। छाता खोले एक दूसरे बूढ़े के पैर भी अब थिरकने लगे हैं। ‘‘आपका फोटो उतार सकता हूँ,’’—मालवीय जी विनय से पूछते हैं। ‘‘मार खाओगे? मेरे चेहरे का मजाक उड़ाना चाहते हो!’’ हम पार्क के पीछे के ‘असुरक्षित’ समझे जाने वाले बाजार में चले आये हैं। दो जापानी फुटपॉथी वैश्याएँ देरी से हमारे पीछे लगी हैं। हाथ के रूल को जोर-जोर से पटकता माइक पर नीलामी लगा रहा है—हँसने वाला बूढा़—सिर्फ आठ सौ येन...आठ सौ येन। हम ‘ताचिनोमिया’ (खड़े होकर पीने की जगह) के काउण्टर पर खड़े हैं। स्वच्छता और अनुशासन के जापानी चरित्रा के विलोम यहाँ एक स्वच्छंदता छायी है। नीचे फर्श पर मूँगफली के छिलके और सिगरेट के टोटे बिखरे पड़े हैं। चार-पाँच जापानी उन्मुक्त वार्तालाप कर रहे हैं। एक जापानी सभी को बता रहा है कि वह कोकुसाई न्यूज सर्विस में काम करता है। नंगी चाँद वाला बेहद हँसमुख जापानी निःसंकोच बता रहा है—‘‘वह शराब पीने में कमजोर है और औरतों के मामले में भी।’’ एक जापानी मेरे पास आ टूटी-फूटी अँग्रेजी में बताता है कि इंडिया का तारों से भरा आकाश बेहद खूबसूरत होता है—जगमगाती निमोन लाइट्स से सुसज्जित होटलों का अनवरत सिलसिला। रात्रि का किराया 2000 येन और आराम करने का 800 येन। होटल के बाहर खड़ा कर्मचारी इशारा करते पूछता है—इकागादिरुता (आराम करोगे)? मालवीय जी हँसते हुए बताते हैं कि इसने हमें समलिंगी समझ लिया है। इन्हीं सबसे बीच स्थित भव्य बौद्ध मन्दिर। छोटी-छीटी गलियों में प्रवेश करते ही दिखायी दीं—भुनी हुई शकरकंदी खाती प्रौढ़ और बूढी़ वैश्याएँ। नशे में धुत्त एक बूढ़ा करीब आ फुसफुसाता है—‘‘सावधानी से निकल लो। अब जापानी बहुत खराब हो गया है। उनकी नजरें तुम्हारे पर्स पर हैं।’’ मालवीय जी उसकी बुझी सिगरेट सुलगाने के लिए अपना लाइटर बाहर निकालते हैं। नहीं, मैं अजनबी से अपनी सिगरेट नहीं सुलगवाता, कहता लड़खड़ाता हुआ आगे बढ़ जाता है। फुटपाथों पर सोये हुए मजदूर गत्तों के डिब्बों में भरे उनके कपड़े, स्लीपिंग बैग, स्टोव और खाने की वस्तुएँ।

‘‘कई-कई हफ्तों की रातें इस स्लम एरिया में दिहाड़ी मजदूरों के बीच सस्ती होलियों में ‘शोचू’ पीते गुजारी हैं। इनकी दुनिया मेरी कच्ची सामग्री है। ‘सुबह की सीढ़ियाँ’ कहानी में इसकी छाया आपको दिखायी दे जायेगी।’’—मालवीय जी कहते हैं। आकार दस गुणा दस, ऊँचाई इतनी कि छत से सिर टकराने में छः इंच का स्पेस रह जाये। करीने से सजी पुस्तकें—उर्दू, जापानी, संस्कृत, हिन्दी और अँग्रेजी की आधुनिकता और प्राचीन पुस्तकें। ‘‘जगह कम पड़ने लगती है तो विश्वविद्यालय की लायब्रेरी को भेंट कर आता हूँ।’’ एक दीवार के सहारे मेज और कुर्सी। मेज पर रेमिंग्टन का टाइप राइटर, टेप रिकॉर्डर और माइक्रोफोन। फर्श पर ‘ताताकि’ (चौकोर चौकी) और उसके चारों ओर बिछे आसन। यह मालवीय जी का अध्ययन कक्ष है। रात्रि भोजन से पहले और बाद में हम यहीं आकर बैठते। कभी-कभी अकिको सान् और मालवीय जी के छात्र रहे अकिरा ताकाहाशि जिन्होंने एक साल हैदराबाद रहकर ‘दक्खिनी हिन्दी का भाषा विश्लेषण’ पर शोधपरक कार्य किया था।

‘‘जापानी साहित्य का दूसरी भाषा में अनुवाद अत्यंत दुःसाध्य कर्म है। जापानी काव्य के छंद, बिम्ब और ध्वनियों से उत्पन्न अर्थ इतने संश्लिष्ट, बहुआयामी और सूक्ष्म हैं कि अनुवाद की भाषा बेबस सी प्रतीत होती है। एक पाठक भी रचना का मर्म पकड़ पाने में असमर्थ ही होगा, यदि उसे जापानी संस्कृति, परम्परा और विशेषकर जापानी-मन का ज्ञान न हो,’’—मालवीयजी अपनी बात स्पष्ट करने के लिए कुछ मोटी-मोटी बातों का उल्लेख करते हैं। मसलन, ‘‘जापानी शब्दकोश मेंं ‘ना’ नहीं कहेंगे—आपको उसकी क्रियाओं से अनुमान लगाना होगा, भूकम्प आने पर एक जापानी सबसे पहले बच्चों के स्कूल और फिर अपनी कम्पनी को फोन करेगा, गहनतम दुःख को मन में छिपाये एक जापानी बाहर से हँसता-मुस्कराता दिखायी देगा। एक जापानी के लिए जीवन का सबसे बड़ा दुःख अपने प्रियजन के पाँच जोड़ों की हड्डियाँ हासिल न कर पाना है।’’

इसका आभास मुझे अकिरा ताकाहाशि के साथ ‘हिरोशिमा’ यात्रा के दौरान हुआ। अकिरा ताकाहाशि हिरोशिमा के एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने हेतु सप्ताह में तीन दिन हिरोशिमा जाया करते थे। 6 अगस्त 1945 मानव इतिहास का सबसे काला दिन। हिरोशिमा की सातों नदियाँ अपनी गति से बह रही थीं और ट्रॉमें रोज की तरह चल रही थीं। सुबह 8.15 बजे के आसपास, उस समय पड़ोस के गाँवों और कस्बों से हिरोशिमा आने वालों की संख्या सर्वाधिक हुआ करती थी, 600 फुट ऊपर आकाश में विस्फोट हुआ और अपने साथ दो लाख से अधिक जापानियों का जीवन लील गया। ताकाहाशिजी का कस्बा ‘ताकामात्स’, हिरोशिमा के नजदीक, नरक का घर बन गया। घर में मौजूद ताकाहाशिजी की बहन की आँखों से खून बहने लगा और पीठ की चमड़ी एक क्षण में पिघल गयी। ‘‘हम काले थे, एशियाई थे इसीलिए अमेरिका ने परमाणु विस्फोट के लिए जापान को चुना, जर्मनी को नहीं।’’—ताकाहशिजी की आहत और गुस्से से भरी आवाज एक सामान्य जापानी की अभिव्यक्ति थी, जिसका मन इतने बरसों बाद भी उस दुःख से भरा था। विध्वंस के विरुद्ध खड़ा हिरोशिमा अब पूर्णतया नया और जगमगाता शहर है, सिर्फ उस दीवार को छोड़कर, जिसे जापान ने स्मृति चिन्ह के रूप में बनाये रखा है, जिसके करीब कोई जापानी खड़ा रहा होगा, परमाणु बम से उत्पन्न उर्जा से क्षणांश में पिघल गया और उसकी परछाईं दीवार पर अंकित हो गयी। ‘वार मेमोरियल’ के विशाल प्रांगण में हजारो-हजार कबूतर—दाना चुगते हुए और एक ऊँची मीनार के शिलालेख के पास रंगबिरंगे कागजों की बनी असंख्य नन्हीं-नन्हीं चिड़ियाएँ। मोतोयासुगवा की अंतिम अधूरी इच्छा की पूर्ति के लिए देश-विदेश के बच्चों द्वारा की गयी प्रार्थना परमाणु-विकिरण की शिकार मोतोयासुगवा ने संकल्प लिया था कि मृत्यु से पूर्व वह एक हजार चिड़ियाँ बनायेगी। लेकिन 966 तक पहुँचने पर वह अधूरी इच्छा लिये विदा हो गयी। फुफुई के चित्रों को देखना मानव-जाति के इतिहास के सर्वाधिक काले अध्याय के पन्ने पलटना है। ताकाहाशिजी इस बीच दो-तीन बार बाथरूम की ओर जाकर लौटते हैं। उनकी आँखें पानी से भीगी हैं। मुझे देख जबरन बार-बार हँसते हैं। एक श्वेत-श्याम चित्र की ओर इशारा करते हैं। पनडुब्बी की डेक पर खड़ा पनडुब्बी का कैप्टेन। ‘‘यह मेरे मामा हैं। परम्परानुसार ध्वस्त पनडुब्बी के साथ जल समाधि ले ली...नाना का अन्तिम समय तक सबसे बड़ा दुःख यही बना रहा कि वे अपने बेटे की हड्डियाँ न पा सके।’’ वापिस लौटते हुए मेरे सवाल कि विश्वयुद्ध की सर्वाधिक त्रासदी का शिकार जापान हुआ, लेकिन अमेरिका-यूरोप की तुलना में जापानी साहित्य में इसका उल्लेख कम मिलता है। ताकाहाशिजी किंचित आवेश में बोले—‘‘कौन पिता अपनी संतति को नरक दिखाना चाहता है।’’

जापान के सुदूर दक्षिण प्रशान्त महासागर में स्थित ‘हेकुरा टापू’ यह टापू जापान के पर्यटन मानचित्र पर नहीं है, इसी से इसकी नैसर्गिकता बची हुई है। ओसाका से रात दस बजे ट्रेन पकड़कर और पाँच-पाँच मिनट के अंतराल पर दो ट्रेनें पकड़ हम ‘वाजिमा’ पहुँचे। ‘वाजिमा’ से ‘हेकुरा’ समुद्री जहाज से पत्थरों के टीले पर, एक शिन्तो मन्दिर के नीचे, मालवीयजी ने भारी-भरकम रुकसैक उतारा और समुद्री तेज हवाओं से जूझते हुए तम्बू लगाने में जुट गये। सामने प्रशान्त महासागर की कानफोडू़ गर्जना करती तट से टकराती लहरें। कुछ देर विश्राम के बाद हम टापू की परिक्रमा पर निकले। टापू के जिस खण्ड में हम आये वहाँ अधिकांश घरों के बाहर ताला झूल रहा था। इनके निवासी काम की तलाश में मुख्य भूमि की ओर निकल गये हैं। बड़े-बड़े पौधों और लतरों से ढकी खिड़कियाँ और रौशनदान। वर्षा की बूँदों से दीवारों पर बनी विभिन्न आकृतियाँ एक घर के बाहर हरे पत्तों से गदराई लतर ने झुकते हुए हमारा स्वागत किया। मालवीयजी एक घर के बाहर रुके और पहचानने की कोशिश करते बोले—‘‘कुछ साल पहले मैं जनवरी में यहाँ चला आया था। पूरा ‘हेकुरा’ बर्फ से ढँका था, कहीं भी तम्बू गाड़ने की जगह नहीं मिली और रात में भी भारी बर्फ गिरने की संभावना थी। मैंने इस घर की साँकल खड़खड़ायी और बाहर निकली प्रौढ़ महिला से उसके बाहरी आँगन में तम्बू लगाने की अनुमति माँगी। कुछ देर वह मुझे गुस्से से घूरती रही फिर बोली—सुबह बर्फ से अकड़े मिलोगे...चुपचाप भीतर चले आओ।’’ थोड़ी देर बाद वह मेरे सामने ‘शोचू’ की भरी बोतल और मशरूम के शोरबे का कटोरा रख गयी।’’

साँकल में ताला देख मालवीयजी निराश हुए। छोटे-छोटे पत्थरों से बनी सड़क पर चल हम शिन्तो मन्दिर के पास पहुँचे। गेट के दोनों तरफ शेर की प्रस्तर-प्रतिमाएँ। मन्दिर अभी बंद हैं। खिड़की के काँच से भीतर झाँकने पर दिखायी दिये—पीतल के दो बड़े-बड़े दीपाधार। मन्दिर के पिछवाड़े पथरीली पहाड़ी के बीच बनी गुफा को पार करते ही दिखीं—समुद्र की पछाड़ खाती लहरें। अनन्त विस्तार में एक दूसरे में विलीन होते गहरा नीला आकाश और हल्की हरीतिमा लिये प्रशान्त महासागर। तट पर बिखरे शंखों में एकष्शंख को अपने कान के करीब लाने पर समुद्र फुसफुसाया—‘‘अपनी आवाज तुम्हें सौंपता हूँ।’’ घुमावदार रास्ता ऊबड़-खाबड़ पथरीली चट्टानों का ऊँचा टीला टीले के ऊपर वही तीन जापानी (एक बूढ़ा और दो युवा), जिनसे हमारा आमना-सामना तीसरी बार हो रहा है अनेक प्रकार के उपकरणों से लैस जो किसी विशेष पहाड़ी-समुद्री चिड़िया की खोज में निकले हैं, जिसकी इस ‘हेकुरा’ टापू पर मिलने की संभावना है सूर्यास्त के वक्त हम तम्बू की ओर लौटे। भूख लगने लगी थी। रुकसैक के भीतर बन्द वस्तुएँ बाहर निकलीं—मिट्टी के तेल भरा स्टोव, खाने-पीने की वस्तुओं के पैकेट और प्लास्टिक की बोतलों में बंद पेय, कागज की प्लेटें, सिंथेटिक डोरी का बण्डल, कॉफी मग, टार्च, चाकू, हथौड़ी से लेकर सूई-धागा तक। एल्म्यूनियम के एक बड़े पतर के सहारे वेग से बह रही समुद्री हवाओं से बचाव करते मालवीयजी स्टोव जलाने में जुट गये। आलू, मशरूम, सासेज, मिर्चें, अदरक और प्याज के साथ गरमा-गरम भात। मालवीयजी के कुशल रसोइये का स्वरूप मैं ओसाका में ही देख चुका था। एक चम्मच में भात के दानों को चखते हुए मालवीयजी हँसे—‘‘अपने हाथ का अधपका भोजन भी कितना स्वादिष्ट लगता है! विशेषकर हेकुरा में।’’

5 नव. 1984। इस समय पूरा भारत दीपमालाओं से झिलमिल करता दीपोत्सव मनाने में लीन होगा। समुद्र रंग बदल रहा है। कहीं-कहीं लहरें चाँदी सी-दूधिया झागों से भरी-चमक रही हैं। मछुआरों की बोटें मछलियाँ पकड़ने निकलने लगी हैं। दीयों की मानिंद टिमटिमाती लहरों के ऊपर हिचकोले खाती हुईं—दूरी पर अब सिर्फ धुंधली प्रकाश की रेखा दिख रही है। मछुआरों की मोटरबोटें गहरे समुद्र में उतर गयी हैं। एक बड़ी मोटरबोट की लाल रोशनी अनवरत जलती-बुझती समुद्र में इधर से उधर चक्कर लगा रही है। यह नौ-सेना की बोट है जो आपातकाल की स्थिति में मछुआरों की सहायता के लिए मुस्तैद है। समुद्र में स्थित लाइट हाउस की सर्च लाइट अनवरत चारों दिशाओं में घूम रही है, जब उसका रुख हमारे तम्बू की दिशा में होता है तो आस-पास हल्का प्रकाश फैल जाता है। समुद्री ठण्डी हवाओं से तम्बू निरंतर खड़खड़ा रहा है। रात में बारिश की सम्भावना बनी हुई है। मुझे कँपकँपाता देख मालवीय जी विहँसते हैं—‘‘कड़ी सर्दी में भी एक मोमबत्ती से तम्बू गरम करने की कला मुझे आती है। आप लम्बायमान होइये, मैं अभी आता हूँ...’’—कहने के साथ मालवीयजी बाहर चले गये हैं। खट्-खट् की आवाजें मेरे कानों में आ रही हैं। एक छोटी हथौड़ी के सहारे मालवीयजी तम्बू के खूँटों से लड़ाई लड़ रहे हैं। तकरीबन आधा घण्टा जूझने के बाद मालवीयजी वापिस लौटते हैं। ‘‘अब आपका और मेरा भाग्य तेज हवाएँ इस तम्बू को उखाड़ सोये हुए हमारे शरीरों को कब प्रशान्त महासागर के हवाले कर दें, हमें पता भी नहीं चलेगा,’’—स्लीपिंग बैग में घुसते मालवीयजी की वह उन्मुक्त हँसी आज भी स्मृति में दर्ज है।

‘‘उठिये अशोक जी...उठिये...’’—गहरी नींद में मालवीयजी की आवाज सुनाई दी—‘‘मैं कॉफी तैयार करता हूँ तब तक आप बाहर चलने के लिए मुस्तैद हो जाइये।’’ तम्बू के बाहर गीलापन है। सुबह के चार बजने में अभी पाँच मिनट शेष हैं। रात में अच्छी-खासी बूँदा-बाँदी हुई थी। खूब तेज और ठण्डी हवाएँ। समुद्र अंधकार में डूबा है। धुंधले आकाश में एक भी तारा नहीं दिखायी दे रहा है। ‘‘यहाँ आकर मैं तारों के नाम भूल गया हूँ...’’—मालवीय जी के स्वर में हल्की उदासी है। दूर समुद्र में टिमटिमाती मोटरबोटों की कतार उभरने लगी है। रात भर समुद्र में मछलियाँ पकड़ने के बाद अब मोटरबोटें वापिस लौट रही हैं। समुद्र की पूर्वी दिशा आभासित होने लगी है। इसी स्थल से सूरज समुद्र के गर्भ से बाहर निकलेगा। मालवीयजी का कैमरा इस दृश्य को पकड़ने के लिए उत्कंठित और मुस्तैद है। मोटरबोटें किनारों पर आने लगी हैं। यंत्र चालित और वर्षा-तूफान से समुचित व्यवस्था, काले रबड़ की चुस्त ड्रेस पहने महिला गोताखोर भी इन बोटों पर हैं। सहसा मैं पुरी के समुद्र तट पर चला आया जहाँ सूर्योदय से बहुत पहले समुद्र की दिशा में टकटकी लगाए मछुआरिनें अपने-अपने आदमियों की नौकाओं की प्रतीक्षा कर रही थीं। छोटी-छोटी देसी नौकाओं में हाथ की पतवार से समुद्र की लहरों को चीरते मछलियाँ भरे जाल के साथ मछुआरे लौट रहे थे। कुछ चिन्तित मछुआरिनें अभी भी अनवरत समुद्र की ओर दृष्टि गड़ाए थीं जिनके आदमी अभी तक नहीं लौटे थे। पूर्णतया अनिश्चित जीवन न जाने हर साल कितने मछुआरों का जीवन समुद्र लील जाता होगा ! मन संतप्त हो आया । तम्बू समेटने से पहले मालवीयजी मेरे हाथ में नीली स्याही का मार्कर पकड़ाते हैं—‘‘आपको इसके पटल पर कुछ शब्द लिखने होंगे । अगली यात्रा में इस तम्बू के साथ आपकी उपस्थिति बनी रहेगी ।’’

‘हेकुरा बहुत-बहुत धन्यवाद ! दीपावली

का यह दिन कितना भिन्न, कितना

शुभ—5 नवं, 1984’

‘वाजिमा’ से चली ट्रेन में हमारे सामने वाली बर्थ पर दो जापानी बैठे हैं। मुक्केबाज जैसे-बेहद मोटे और मजबूत क़द काठी के, नशे में पूरी तरह धुत्त। मालवीयजी उनके पास बैठ उनसे गपियाने लगे। कुछ देर बाद उन्होंने रुकसैक की जेब से हरे रंग की बोतल बाहर निकाली। एक-एक ढक्कन द्रव्य का आचमन दोनों को कराया। पान करते दोनों की आँखे खुशी और अचरज से भर गईं। दस-पन्द्रह मिनट बाद अपनी सीट पर वापिस लौट शरारती बच्चे की हँसी के साथ बताया—‘‘दोनों जापानी गुण्डे हैं। उनके दाएँ हाथ की दूसरी अँगुली देखिए। अँगुली का ऊपरी सिरा कटा हुआ है, जिसे उन्होंने अपने सरदार को शपथ ग्रहण करते वक्त प्रदान किया है। भविष्य में कोई भूल हुई तो दूसरी अँगुली काटकर सरदार को पकडा देंगे। मैंने उनसे पूछा कि क्या वे इण्डिया की दुर्लभ शराब का स्वाद चखना चाहेंगे ! पता है आपको, मैंने उन्हें निखालिस पानी का आचमन कराया। दोनों का कहना है कि ऐसी स्वादिष्ट शराब उन्होंने जीवन में नहीं चखी है।’’ ओसाका पहुँचने तक मालवीयजी इस प्रकरण का ज़िक्र कर बार-बार प्रफुल्लित हुए।

फ़ोटोग्राफी के उनके स्टूडियो में मेरा प्रवेश इस हिदायत से होता—‘‘जब तक मैं दरवाज़ा नहीं खोलूँगा आप मेरे ‘डार्क रूम’ में बन्दी रहेंगे।’’ छोटा सा सुव्यवस्थित स्टूडियो। एक रैक में उन स्थानों और व्यक्तियों के नामों की चिप्पियाँ चिपके प्लास्टिक के डिब्बे, जिनके निगेटिव्स, उनमें रखे थे। टबों में सादा पानी और रसायन के घोल, डोरियों पर क्लिप्स से टँगे एनलार्जमेंटस और एक ताक पर रखे कोडक के फोटो पेपर्स विभिन्न साइजों में। मालवीय जी ने जीरो वाट के एक लाल बल्ब को छोड़ सारे स्विच ऑफ किए। ‘‘आब्डोक्ट को क्लिक करने का समय एक पल भी न रहता होगा, लेकिन उसे अर्थवान, बनाने की सारी प्रक्रिया इस अन्धेरे में होती है,’’—कहने के साथ उनकी आँखें एन्लार्जर के लैंस से चिपकती हुई और अँगुलियाँ छाया और प्रकाश के अनुपात को साधते हुए फोटो पेपर पर निगेटिव की परछाईं को पुनर्जीवित और नया आकार देने में तल्लीन हो जातीं। कोडक का ब्राउनी पहला कैमरा था जो चौदह वर्ष की उम्र में उनके हाथ लगा। उनकी आँखें बचपन से बेहद कमज़ोर थीं, संभवतः यह भी कारण रहा हो दृश्यों को उसके सूक्ष्म आकार में देखने की उनकी लालसा ने कैमरे पर उनकी मानसिक निर्भरता बनाई हो। चित्रकला, छायांकन और संगीत में उनकी संलग्नता का प्रभाव उनके समूचे लेखन में दिखाई देता है। मानव-देह में गुम्फित प्रकृति का रहस्यमय राग और प्रकृति में समाहित मानवीय रूपाकारों की तलाश उनके लिए रचनात्मक अन्वेषण की प्रक्रिया रही है, जो उन्हें कभी छायांकन, कभी पेण्टिंग तो कभी लेखन की ओर खींचती रही। लेखन से विश्राम लेने को मन चाहता तो कैमरा उठाए दूर प्रदेश, टापुओं की यायावरी पर निकल लेते। आकाश का धुला नीलापन, हथेलियों में भरी रेत की तरह भूखी देह, किसी छोटे स्टेशन के बाहरी किनारों से लगे साकुरा के वृक्षों की टहनियों पर बदराई धूप में झूमते सफेद फूलों के गुच्छे, छोटे-बड़े पत्थरों के बीच ‘एल ग्रेको’ के चित्राकृति सी बैठी पीले चेहरे वाली बुढ़िया, ज़मीन पर खड़िया से स्कैच बनाते छोटे-छोटे बच्चे, पहाड़ों पर फुहारों में भीगती पक्त्तियाँ, दीवार से चिपकी बेल की नई पत्तियाँ, अँधेरे में छेद करती कीड़े की आवाज़, फर्न के पौधों के बीच छोटे से गढ़हे में जमा पानी — ऐसे अनेकानेक कैमरे की आँख से देखे दृश्य मालवीयजी के कथा-संसार में यत्र-तत्र पूरी जीवन्तता के साथ धड़क रहे हैं। ‘साकुरा की डालों पर असंख्य कलियों के गोल ठिठुरे हुए काले दाने निकल आए थे। वसन्त कहीं उसकी देह में भी है, जब उसकी देह खिलती है तभी वसन्त आता है, मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है...’—इसे पढ़ते हुए आपको कालिदास के ‘ऋतुसंहारम्’, नदी के विशाल ऊँचे-ऊँचे रेतीले टीले उस युवती के नितम्ब जैसी अनेक उपमाएँ और पंक्तियों के साथ-साथ शमशेर बहादुर सिंह की अनूठी ऐन्द्रिकता से भरी बिम्बात्मक (‘काल तुझसे होड़ है मेरी’) या अपने क़िस्म के अनूठे कवि-कथाकार जितेन्द्र कुमार की ‘ऐसे भी संभव है मृत्यु’ की कविताएँ, मालवीयजी के अनूठे न्यूड छायांकनों की कुंजी और प्रेरणा भी इनमें खोजी जा सकती है।

सन् 1984, फरवरी-मार्च। मालवीय परिवार हमारे अतिथि बने। दिल्ली की ‘श्रीराम गैलरी’ में उनके छायांकनों की प्रदर्शनी की तिथि निश्चित कर दी गयी थी। घर का सबसे बड़ा कमरा-पिता का निवास भी—उनकी कार्यशाला बना। प्रदर्शनी के छायांकनों के पैकेट्स सुरक्षित आ चुके थे। छायांकनों की फ्रेमिंग के लिए आरी से लकड़ी काटने, छोटी हथौड़ी से कीलों को कौशल से ठोंकने और छायांकनों को मढ़ने का सारा काम मालवीयजी एक हफ्ते तक करते रहे। किसी की सहायता उन्हें सुहाती न थी। देखते-देखते समूचा घर फिराक, प्रसाद, पंत, बच्चन, अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन, निर्मल वर्मा, विजय देव नारायण साही और जैनेन्द्र कुमार जैसे महान साहित्यकारों की जीवन्त भाव भंगिमाओं की उपस्थिति से खिलखिलाने लगा, इन्हीं के साथ प्रकृति में छिपे ऐन्द्रिक सौन्दर्य और ऐन्द्रिक सौन्दर्य में प्रकृति के ‘न्यूड्स’ भी रोशनी और छाँव के अलग-अलग प्रभावों में विस्मित करते मायालोक की निर्मिति कर रहे थे। छायांकनों की प्रदर्शनी को व्यापक सराहना मिली। ‘दिनमान’ के अलावा अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं ने आलेख प्रकाशित किए। प्रदर्शनी में मौजूद रहे कुछ चेहरों का स्मरण आज भी है—मकबूल फिदा हुसेन, रामकुमार, निर्मल वर्मा, नागार्जुन, कृष्ण बलदेव वैद, रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा, राजेन्द्र यादव, प्रयाग शुक्ल आदि। मालवीय जी अपने प्रिय लेखकों से मिलते हुए सुख से भरे थे।

इच्यो की दोहरी पाँतवाली कच्ची पगडण्डी पर हम धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे हैं। इच्यो की पत्तियाँ पीली होने लगी हैं। यह ‘तामाबोचि’ है—तोक्यो स्थित जापान की संस्कृति, परम्परा व जातीय स्मृतियों का सबसे बड़ा इतिहास भी है। जापान आने के आरम्भिक दिनों में मालवीयजी का घर तामाबोचि के सामने की गली में था। शाम के समय अकसर वह देर रात तक अकेले यहाँ घूमा करते। इच्यो की पीली पत्तियाँ उन सैकड़ों वर्ष पुराने प्राचीन ग्रन्थों के उन पीले पन्नों की याद दिलातीं, जिनकी खोज में वे बरसों-बरस दूर देहात के गाँवों में ही नहीं लन्दन और अमेरिका के ग्रन्थालयों की भी खाक छानते रहे। उन ग्रन्थों में जहाँ-तहाँ पाठ संशोधन के लिए इच्यो की पीली पत्तियों की तरह हरताल का प्रयोग किया गया होता, जिनका रंग समय ने परिवर्तित कर पीला कर दिया था। ऐसी पहली हस्तलिखित पोथी ‘श्रीमद्भागवत’ उन्होंने बचपन में इलाहाबाद के अपने पुराने घर के पूजाघर में देखी थी। उनके बाबा ब्रजनाथ चतुर्वेदी (पं. मदन मोहन मालवीय के पिता) कथावाचक थे। इस पोथी के साथ साल में एक बार एक-दो माह के लिए कथावाचन कि लिए निकलते। वापिस लौटने पर उनके पास जो अन्न-द्रव्य होता उसी से परिवार का साल भर पालन होता। दोपहर भर तामाबोचि की विभिन्न पगडण्डियों पर चीड़-वृक्षों के सरसराते स्वरों के साथ साकुरा, मोमीजी की लाल और चिकनी हरी पत्तियों की डगालों के पीछे छिपी रास बिहारी बोस, मिशिमा युकिओ, जनरल अनामि, रिखाई जोर्गे की समाधियों के शिलालेख पढ़ते ‘असामायामा’ पहाड़ी की फिसलन भरी चढ़ाई पार कर तामाबोचि से बाहर निकले तो सूर्यास्त हो चुका था। ‘तामाबोचि’ के सामने गली में मालवीयजी उस घर को चीन्हने का प्रयास कर रहे थे जो बरसों पहले उनका आवास रहा था। ‘‘पहले यहाँ यह डिपार्टमेन्टल स्टोर नहीं था।’’ मालवीयजी एक घर के सामने ठहरे और स्टोर का काउण्टर सम्भाल रही युवा महिला से कुछ देर वार्तालाप करते रहे। स्निग्ध मुस्कराहट और सिर झुकाकर अभिवादन के साथ फिर उससे विदा ली।

मालवीयजी के अध्ययन कक्ष के कोने में छोटे स्टूल पर एक लालटेन रखी थी। चौकोर चिमनी वाली जिसकी अभ्रक धुएँ से काली हो गई थी। अध्यापक श्री तानिमुरा तातेकि विश्वविद्यालय से असमय सेवानिवृत्त हो अपने सहकर्मियों और विश्वविद्यालय के कर्मचारियों से हँसते हुए विनम्रतापूर्वक आखिरी विदा ले रहे थे। अपने उपयोग में आने वाली तमाम वस्तुएँ वह छात्रों और सहकर्मियों में वितरित कर चुके थे। श्री तानिमुरा जी ने इस लालटेन के साथ मालवीयजी को कालिदास के ‘ऋतु संहार’ का जापानी अनुवाद, अँग्रेजी में अनूदित ‘अलेबरूनी की भारत यात्रा’, एक स्लाइड प्रोजेक्टर, असाहि पेंटेक्स कैमरा और खाकी फौजी टोपी भी भेंट स्वरूप प्रदान की। ये सारी वस्तुएँ मालवीयजी ने अपने अध्ययन कक्ष की अल्मारी में संजो रखी थीं। ‘‘इस दीर्घ प्रवास में मुझे सिर्फ डेढ़ जापानी सामान्य मिले हैं। तानिमुराजी पूरे और आधी अकिको। मेरे दो बच्चों की माँ बनने के बावजूद अकिको के मन की थाह पाना आज भी आसान नहीं।’’ तानिमुराजी विश्वविद्यालय में मालवीयजी के सहकर्मी थे। ‘‘पहले दिन की क्लास पढा़कर हम तीन सहयोगी अध्यापक कितेत्स स्टेशन के नीचे वाले पॉर्लर में जाकर बैठे थे—चाय पीने के लिए। पहली ही भेंट में मुझे लगा कि वह बोल सकते हैं और अपने अलावा, गैर जापानियों की तरह, दूसरों पर हँस भी सकते हैं।’’—मालवीयजी ने तानिमुराजी का स्मरण करते हुए कहा—‘‘तानिमुराजी विश्वविद्यालय नियमित आते थे अतः कई दिनों तक उनके किसी सहकर्मी को आभास तक न हुआ कि उनकी पत्नी कैंसर से ग्रस्त अस्पताल में भर्ती है। उनके घर-परिवार में भी कोई ऐसा नहीं था जो उनकी देखभाल कर सकता हो। विश्वविद्यालय और अस्पताल की सारी जिम्मेदारी तानिमुराजी स्वयं उठा रहे थे। सितम्बर में विश्वविद्यालय खुलने के पहले दिन जब मैंने तानिमुराजी से उनकी पत्नी का हालचाल पूछा तो उन्होंने हँसते हुए सिर्फ इतना कहा कि वह विदा हो गई, आज ही सुबह चार बजे। लाश अस्पताल में है, आज शाम 4 बजे अन्तिम क्रिया होगी। उनके चेहरे पर किसी मनोविकार की छाया तक नहीं थी। तीन बजे तक उन्होंने सारी क्लासें हमेशा की तरह लीं। विश्वविद्यालय के अहाते में एक स्मारक-स्तम्भ था, उन विद्यार्थियों की स्मृति में जो इस विश्वविद्यालय के छात्रा थे और द्वितीय विश्वयुद्ध में मारे गये थे। मुझे यह देख अचरज हुआ कि अन्य दिनों की तरह आज भी तानामुराजी कमर तक झुककर उस स्तम्भ का अभिवादन करना नहीं भूले। क्योतो के उस गिरिजाघर में, जहाँ उनकी पत्नी का अंतिम संस्कार हो रहा था, मुझे देख तानिमुराजी सिर्फ इतना बोले—आपने बेकार कष्ट उठाया।’’

थोड़े विश्राम के बाद मालवीयजी पुनः बोले—‘‘तीन साल तोक्यो में रहने के बाद जब मैं पुनः ओसाका विश्वविद्यालय आया। तानिमुराजी तब भी वहाँ पढ़ा रहे थे। उनसे बातचीत करना इतना उत्प्रेरक और रोमांचक होता कि मुझे विजयदेव नारायण साही का स्मरण हो आता। अचानक एक दिन तानिमुराजी ने—‘नागाइ आहदा ताइहेन ओसाका नि नारामिशिता’ (लम्बे समय तक आपने मुझ पर कृपा बनाये रखी) यह कहने के साथ अपने सभी सहकर्मियों से विदा ली। उनके पास कोई जमा पूँजी नहीं थी। अपना सारा सामान उन्हांने परिचितों, छात्रों और सहकर्मियों को वितरित कर दिया। उनका सिर्फ यही कहना था कि वे ओकायामा जिले के किसी पर्वतीय गाँव में जाकर रहेंगे। मुझे कैमरा पकड़ाने से पहले उन्होंने अपनी पत्नी के संस्कार की आखिरी फिल्म बाहर निकाली और हँसते हुए कहा—मैंने इस फिल्म को रोशनी दिखा दी।’’—यह कहते मालवीयजी का स्वर गीला हो आया। ‘‘तानिमुराजी का जिक्र आने पर अकिको सिर्फ इतना कहती—‘‘एक हरी डाल टूट जाए, जैसे कि...’’

कई वर्ष गुजरने के बाद मालवीयजी ने एक दिन तानिमुराजी की बड़ी बहन को फोन किया तो उसने सिर्फ इतना बताया कि आखिरी बार फोन पर उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि वे ‘हाकुबा पर्वत’ की ओर प्रस्थान कर रहे हैं। हाकुबा पर्वत! जिसकी घाटियों और दर्रों से हर साल अनेक नई-पुरानी लाशें उठाई जाती हैं। अदृश्य होने के लिए उन्होंने ‘हाकुबा पर्वत’ का ही चयन किया। तानिमुराजी का विस्तार से जिक्र इसलिए कि मालवीयजी के चरित्र को गढ़ने में उनका भी हाथ रहा था, जिन्हें वह अपने जापान-प्रवास में इकलौता ‘सामान्य प्राणी’ मानते थे।

प्रवास की कुछ छुट-पुट स्मृतियाँ रात में मेरी नींद टूटती और बाथरूम जाते निगाहें उतरती सीढ़ियों की ओर चली जातीं। गाउन पहने मालवीयजी अध्ययन कक्ष के बाहर, एक हाथ में ‘शोचू’ से भरा ग्लास और दूसरे हाथ की अँगुलियों में सिगरेट लिए दिखाई देते। मुझे देख उनका ठहाका गूँजता—‘‘मेरा दिन शुरू हुआ है। आप लम्बायमान होइए। मैं प्रेत हूँ, मेरी चिन्ता छोड़िए।’’ सुबह निश्चित समय पर विश्वविद्यालय की बस पकड़ने के लिए पूर्णतया मुस्तैद और सचेत।

‘‘मेरा सारा भविष्य मेरे अतीत में छिपा है,’’—मालवीयजी का कहना था। बचपन से अभी तक देखे-जिये एक-एक स्थल, चरित्र, दृश्य चाहे वह गिरीश पार्क (कलकत्ता) स्थित घर की छत पर उतरने वाले कबूतरों का झुण्ड हो या कनखल में गंगा के घाट की सीढ़ियों पर खड़े रात्रि-काल में पिता का सस्वर पाठ--‘प्रकृतीस्त्व च सर्वस्य गणत्रय विभावनी। कालरात्रिर्महा’ स्मृतियों का विस्मित करने वाला अक्षय-कोश, जिसे वह अपनी सम्पूर्ण और एकमात्र सम्पत्ति माना करते। एक रचना की काया इन्हीं स्मृतियों की तो निर्मिति है। कुछ रचने की प्यास जो बार-बार उसे अतीत हुए समय में ले जाती है—‘स्व’ की तलाश और उन खोए हुए क्षणों में कुछ ऐसी खोज जो उस समय धुंधलके में छिपी थी। विडम्बना यह कि हर बार रचने के बावजूद उसे कुछ ‘अधूरा’ या ‘कुछ छूट गया’ जैसा लगता है।

ओसाका की छोटी-छोटी गलियों में घूमते हुए मालवीयजी ने बहुमंज़िला बिल्डिंग की बन्द खिड़की की ओर इशारा करते कहा—‘‘एक साल तक मैंने अपना लेखन-कार्य इस कमरे में किया। सुबह घर से टिफ़िन लेकर यहाँ आता और देर रात घर वापिस लौटता। अकिको को हिदायत थी कि विषम परिस्थिति में भी वह फ़ोन पर सम्पर्क नहीं करेगी...जब तक परिवार में बड़ी दुर्घटना जैसी परिस्थिति न आ गई हो।’’ मालवीयजी के इस कड़ियलपन के बीज संभवतः बचपन की उस घटना में छिपे थे, जिसका ज़िक्र उन्होंने कौसानी-यात्रा के दौरान किया था। उनके पिता कनखल (हरिद्वार) के एक आश्रम में रहने लगे थे। उनका बम्बई का सारा कारोबार चौपट हो गया था। वह पिता के पास कुछ दिन रहने के लिए आए। उम्र दस-ग्यारह साल रही होगी। पहाड़ी पगडण्डी पर चलते हुए उनका पैर फिसला और सीधे खड्ड में लुढ़क लिए। गिरते हुए वृक्ष की एक शाखा उनकी पकड़ाई में आ गई। ‘‘मेरी बाँहें और हथेलियाँ छिल गई थीं। खून छलछला आया था। मैं ऊपर आने की चेष्टा करता पिता की ओर ताक रहा था कि पिता ने कठोर स्वर में कहा—अपने आप गिरे हो, किसी ने गिराया नहीं। स्वयं ऊपर आना होगा। घिसट-घिसट ऊपर आते मेरा बाल-मन सिर्फ़ यही सोच रहा था—कैसा कसाई बाप है!’’

जेब में घर का पता और फ़ोन नम्बर की पर्ची रख मैं प्रायः ओसाका के पार्क, रेलवे स्टेशन या डिपार्टमेण्टल स्टोर के भ्रमण पर निकल लेता। कभी-कभी ओसाका के आसपास के क़स्बों में भी लौटती बार हमेशा सिगरेट के पैकेट के लिए घर की चारदीवारी से सटी इमारत में चला जाता

जिसके बरामदे में सिगरेट निकासी की मशीन लगी थी। प्रायः सिक्कों के लिए काउन्टर पर खड़ी आकर्षक युवा लड़की हमेशा मुस्कान के साथ मेरा अभिवादन करती। उस दिन मुझे लौटने में संभवतः अधिक विलम्ब हो गया होगा और मालवीयजी ऊपर कमरे की खिड़की से मेरा उस बिल्डिंग में आना-जाना देख रहे होंगे। ‘‘अशोक जी, हद करते हैं आप भी बगल की वह बिल्डिंग एक क्लब है और उसका इस्तेमाल सिर्फ़ क्लब के सदस्य कर सकते हैं।’’—खीज़ भरी आवाज में मालवीयजी ने कहा।

‘‘लेकिन काउन्टर पर खड़ी लड़की हमेशा ‘इराश्शायीमासे’ (स्वागतम्) कहती है।’’—मैं उलझन में था।

‘‘वह आपको कभी ‘ना’ नहीं कहेगी। यह सोचने का काम उसका नहीं आपका है।’’—जापान-प्रवास के दौरान मैंने मालवीयजी से पहली बार झिड़की खाई थी।

जब भी मौक़ा मिलता, हमारा काम होता ओसाका के बहुमंज़िला ‘बुक स्टोर’ के उस तल पर जाना, जहाँ सिर्फ़ पुरानी किताबें हुआ करतीं। पसन्द की किताब पाना भूसे के ढेर में सुई तलाशना होता। मालवीय जी ऐसी सुई खोजने में पारंगत थे। मुझे खिजाने की मंशा से उस किताब को जैकेट में छिपाते हँसते—‘‘आपको नहीं दिखाऊँगा—हथियाने का प्रयास किया तो सिर फोड़ने तक से नहीं चूकूँगा।’’ ऐसी एक पुस्तक दोस्तोयेव्स्की के उपन्यास का मुझे स्मरण आता है जिसके अँग्रेज़ी अनुवाद के संस्करण में हाशिए पर उनकी संशोधित-परिमार्जित टिप्पणियाँ भी छपी हुई थीं।

मालवीय जी अपने परिवार और पुरखों के बारे में कुछ कहने से बचा करते। मेरा उनसे परिचय वर्ष 1978 में उनके जापान से आए पत्र के माध्यम से हुआ। अपने एक पत्र (ओसाका, 6-11-79) में पहली बार उन्होंने विस्तार से लिखा—‘‘अपने बारे में बताने को भला है भी क्या ! मैं लिखता जरूर हूँ पर अपने को लेखक नहीं मानता, क्योंकि अपना जीवन एक सौ दस फ़ीसदी लेखन के लिए जी सकने की कौन कहे, पचास प्रतिशत भी मुश्किल से दे पाता हूँ। मुझे लिखना भी ठीक से न आया। ‘रेतघड़ी’ के साढे़ चार-पाँच सौ पृष्ठों को डेढ़ सौ पन्नों में लाने में तीन-साढ़े तीन वर्ष से अधिक लग गए। मैं अत्यंत साधारण परिस्थितियों में पैदा-बड़ा हुआ एक अत्यंत साधारण व्यक्ति हूँ—जैसा कि वहाँ पैदा होने वाले हम सब लोग होते हैं। आज भी उन परिस्थितियों की यादें सब-की-सब एकदम ताज़ा हैं। हो सकता है यह बरसों जापान रहने के बाइस हो, बचपन की सबसे खास याद है आम के उस बीमार पेड़ की जिसके मोटे तने के ऊपर केवल एक डाल थी, जो दाहिनी ओर मुड़ गई थी—उस डाल में एक बहुत बड़ी सी गाँठ लटकी हुई थी। उस आम के पेड़ में पत्तियाँ नामभर को थीं। उसमें फल नहीं आते थे और वह सूखता भी न था। असंभव नहीं जो वह आज भी वैसा ही ज़िन्दा हो, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के मालवीय भवन के बाग में। मेरा बचपन वहीं बीता, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में, जहाँ मेरे पिता बम्बई का अपना चलता कारोबार छोड़कर स्वयं अपने पिता पंडित मदन मोहन मालवीय की सेवा-सुश्रुषा में आ गए थे। इतने प्रसिद्ध नाम का भारी बोझ हम सब बच्चों के सिर पर था। हमारा परिवार निर्धन था—आपको शायद विश्वास न हो कि मेरे पिता के देहान्त पर उनका शरीर एक रोज़ पड़ा रहा था और बम्बई के हमारे एक हितैषी परिवार से दो हज़ार रूपये आने पर उनकी मिट्टी उठी थी। बडे़ होने पर हम सभी भाइयों ने गुपचुप सलाह करके कि हम देश सेवा नहीं करेंगे, मैं राजस्थान विश्वविद्यालय में नौकरी करने जा रहा था, पिता ने कहा—‘‘या तो अपने हाथ से खाना बनाना या साथ में रोटकरा ले जाओ।’’ मैंने पिता को उनके जीवन-काल में एक ही बार पलटकर उत्तर दिया था—‘‘आप जितने बड़े पिता के बेटे हैं, मैं उतने बड़े पिता का बेटा नहीं हूँ। मैं एक मामूली नौकरी पेशा आदमी बनना चाहता हूँ।

‘‘जापानी में कहते हैं, पूर्वजों के इन्द्रधनुष से बाहर निकलना। मुझे उससे बाहर निकलने में बहुत लम्बा सफ़र करना पड़ा। शायद इसी कारण सन् 66 में जापान के शिक्षा मन्त्रालय से मेरी नौकरी की अर्जी स्वीकार होने की ख़बर मिलने के बारह घण्टे के भीतर मैं जयपुर को, नौकरी-पेण्टिंग-किताबें समेत छोड़कर निकल आया। मेरी बड़ी लड़की मधु तब आठ साल की मूर्ख थी। वह तालियाँ बजाकर नाचने लगी—‘‘पापा निकल भागे।

‘‘यहाँ मेरे सुखों से ईर्ष्या करने की छूट मैं अपने किसी मित्र को नहीं देना चाहता, जिस महानगर के पाँच स्टेशनों में से एक स्टेशन पर एक रोज़ में तीस लाख जोड़े पैर चढ़ते-उतरते हों, उन तीस लाख जोड़ों में एक जोड़ा पैर अपना होगा, यह सुख का विषय तो नहीं ही हो सकता।’’

अपने एक पत्र (क्योसोतो, 18-11-2004) में उन्होंने लिखा—‘‘देव ग्रन्थावली के तीन खण्डों ने मुझे थोड़ा थका दिया। अब कहीं पढ़ाने नहीं जाता—बाहर जाने का बहाना भी न रहा। बिहारीदास के सतसई के संपादन में हाथ लगाया है—भारी काम है। 10-15 वर्ष से कम क्या लगेंगे। तब तक जीवित रहा तो ! गद्य लेखन को पास कुछ रहा नहीं, रुचि और भी कम ! यहाँ का हाल सदा का सा है। बच्चे उड़ गए, हम दो प्राणी दूसरे-नीचे की मंजिलों पर चूहों के समान अपने-अपने में व्यस्त।’’

कथा लेखन से भी बहुत-बहुत अधिक महत्वपूर्ण काम, जिसके लिए मालवीयजी को सदैव याद रखा जाना चाहिए, वह है—श्रीपति मिश्र, देव और सुवंश जैसे लुप्तप्रायः कवियों की काया और आत्मा को पुनर्जीवित करना। देव, श्रीपति मिश्र के अनुपलब्ध ग्रन्थों की तलाश के लिए उनकी श्रमसाध्य अन्वेषण यात्राएँ सहज राहुल सांकृत्यायन का स्मरण करा देती हैं। मालवीय जी का कहना था—‘‘पचास वर्ष मैं देव काव्य का संपादन करने के लिए जिया। मेरे जन्म लेने का अर्थ इस अन्तर से उत्पन्न हुआ।’’

अपने शोध-विषय ‘देव के लक्षण ग्रन्थों का पाठ संपादन’ के लिए सामग्री जुटाने हेतु उनकी यात्राएँ प्रारम्भ हुईं। हस्तलिखित और प्रमाणित पोथियों की तलाश में वह देव-वंशज मातादीन दुबे के घर कुसमरा (जि. इटावा) पहुँचे। वर्ष 1957 की सर्दियों में। सत्तर पार कर चुके मातादीन दुबे का घर गरीबी की छाया से घिरा था। पौत्र क्लीनरी सीख रहा था और इकलौता बेटा आजीविका की तलाश में गाँव छोड़ गया था। उनकी बहू ने घर की कितनी ही पोथियाँ पानी में गलाकर और उसकी लुगदी पर टोकरी पाथकर डलियाँ बना डाली थीं। पौत्र और बहू के असहयोग के बावजूद वे दिनों तक उन ग्रन्थों की हस्तालिखित प्रतियाँ तैयार करते रहे। देव के प्रपौत्र कवि भोगी लाल के स्व हस्तलेख में ‘बचत विलास’ भी उनमें से एक थी। उन्हें जानकारी मिली कि देव रचित ग्रन्थों की हस्तलिखित पोथियों का एक बड़ा संग्रह गंधौली (जि. सीतापुर) में मिश्र बन्धुओं के घर में हैं। वह गंधौली रात्रि में पहुँचे तो पता चला कि घर के मालिक सीतापुर गए हुए हैं। सीतापुर के लिए कोई वाहन उपलब्ध न था। वह पैदल सीतापुर के लिए चल दिए। एक लेख में उस रात्रि का स्मरण करते हुए मालवीयजी ने लिखा—‘‘सीतापुर तक की पदयात्रा कर रहा था मैं। सितम्बर’ 84 में जापान से भारत जाने पर अपने प्रिय मित्र अशोक अग्रवाल तथा अपनी बेटी गौरा के साथ पहाड़ी पगडण्डियों के रास्ते पैदल गरुढ़-बैजनाथ जाने और शाम की अन्तिम बस छूट जाने से वापसी भी पैदल कौसानी लौटते समय। उस दिन भी हम तीस-पैंतीस किलोमीटर से कम तो क्या चले होंगे !’’ देव के दो अनुपलब्ध-ग्रन्थ ‘सुमिल विनोद’ को बीकानेर में तथा ‘जयसिंह विनोद’ को दिल्ली में खोज निकाला। तीन सौ साल पहले के किसी महत्वपूर्ण कवि के 555 छन्दों को नया जीवन देना कोई सरल कार्य नहीं था। मालवीयजी के प्रयास से ‘जयसिंह विनोद’ का नागरी लिपि में प्रकाशन किया ‘ओसाका विदेशी भाषा विश्वविद्यालय’ ने, इसके विपरीत हमारे देश में देव के निवास स्थल ‘कुसुमरा’ वाले स्मारक पर दिन-रात चरवाहों का कब्जा रहता है और यहाँ सभी ग्रामवासियों के गाय, बैल, भैंस, बकरियाँ, घोड़े-गधे गोबर-लीद करते हैं। देव ग्रन्थों की खोज उन्हें नील गाँव ले गई। नीलगाँव (जि. सीतापुर) स्टेशन के राजकुमार श्री भानुप्रताप सिंह की हवेली में, जहाँ पुरानी पोथियों से समृद्ध लायब्रेरी थी। लायब्रेरी का विशाल कमरा बरसों से खोला न गया था और उसकी देखरेख कर रहे कारिन्दे का विश्वास था कि उसमें किसी प्रेत का साया है। उसने स्वयं वहाँ प्रवेश करने से इनकार कर दिया। उससे ताले की कुंजी ले मालवीयजी ने दरवाज़ा खोला। सीलन से गँधाते पुस्तकालय की खिड़कियाँ खोलते ही चमगादड़ों का समूह सांय-सांय की आवा करता उड़ने लगा। कमरे की छत जगह-जगह से दरकी हुई थी और किताबें अलमारियों में धूल-गर्द से भरी थीं। वहीं एक बहुत पुराना काष्ठ का सन्दूक रखा था। उसका वर्णन मालवीयजी के शब्दों में—

‘‘दोनों हाथों से उभारकर सन्दूक का पल्ला खोला। सबसे ऊपर हरी-हरी चार अंगुल मोटी काई की रोंयेदार कालीन बिछी थी, न जाने कितने वर्षों की बारिश की। उसे एक हाथ से ऊपर उठाकर दूसरा हाथ अन्दर डालते हुए जरा भी भय न मालूम दिया कि अन्दर कहीं साँप-बिच्छू न हो ! काई के नीचे से पकड़कर पहली पोथी बाहर खीचीं, बैंगनी रंग के बेठन की बड़े आकार की हस्तलिखित पोथी। खोला तो नजर इन अक्षरों पर पड़ी ”अथ उमराउ कोश लिख्यते।’’ काठ के उस बक्स में काई की रजाई के नीचे हस्तलिखित ग्रन्थ ही ‘सुरक्षित’ थे! केशव की ‘रस प्रिया,’ देव के ‘जाति विलास’, ‘शब्द रसायन,’ ‘अष्ठयाम’, ‘भावविलास’, श्रीपति मिश्र कृत ‘काव्य सरोज’, मतिराम का ‘ललित ललाम’ आदि।

‘‘इन दुर्लभ ग्रन्थों की दीमक खाई हस्तलिखित पोथियाँ फफूँद और काई से निकाल-निकालकर नीचे रखते हुए मेरी आँखों में मानो खून के आँसू छलक पड़े! मैंने मन ही-मन संकल्प किया, भले ही प्राणों की आहुति देनी पड़े, इन पोथियों को छोड़कर मैं कतई नहीं जाऊँगा।’’ अपने मखनिया रंग के दुशाले में उन पोथियों को समेटकर मालवीयजी ने गठरी बाँधी और सबकी नज़रें बचा उस गठरी को भानुप्रताप सिंह की कार की पिछली सीट पर रख अपने साथ ले आए।’’

श्रीपति मिश्र की कृतियों का ‘साहित्य के इतिहास’ में उल्लेख तो मिलता था, लेकिन एक भी कृति उपलब्ध नहीं थी। नीलगाँव स्टेट के पुस्तकालय से मिली ‘काव्य सरोज’ (‘काव्य सरोज’ की वह पाण्डुलिपि वर्तमान में इंग्लैण्ड के पुस्तकालय में है—मालवीयजी के सौजन्य से) को पढ़ते हुए मालवीयजी विस्मित हो गये। श्रीपति मिश्र के समक्ष उन्हें देव भी फीके जान पड़े। श्रीपति मिश्र के छंदों की तलाश उन्हें लंदन के ‘वेलकम इंस्टीट्यूट’ के पुस्तकालय में ले गई। ‘वेल्कम ग्रुप’ विश्व की दूसरी सबसे बड़ी औषधि निर्माता कम्पनी है। उसे भारत के इन प्राचीन ग्रन्थों में कोई दिलचस्पी न थी। इस कम्पनी के मालिक सर हेनरी वेल्कम ने, 19वीं सदी के आख़िरी दशक से 1939 के बीच, उन प्राचीन ग्रन्थों की खोज में, जिनमें औषधियों और उनके उपचार के बारे में जानकारियाँ दर्ज थीं, अपने कारिन्दों को भारत, नेपाल, तिब्बत, सिक्किम आदि पूर्वी देशों में दौड़ाया और कारिन्दे बिना कोई जाँच-पड़ताल किए पाली, संस्कृत, अपभ्रंश, मराठी, हिन्दी की तमाम हस्तलिखित पोथियों को बटोर लाए। ऐसी ग्यारह हज़ार पाण्डुलिपियों के बीच मालवीयजी को श्रीपति मिश्र की पोथियाँ हस्तगत हुईं और श्रीपति मिश्र के 830 छन्दों को नया जीवन प्राप्त हुआ। मालवीय जी का कहना था—‘‘जिस वस्तु को मैं न्याय से अपना प्राप्य मानता हूँ, उसे बलपूर्वक भी हस्तगत करूँगा मैं। मेरी देह जिस मिट्टी से निर्मित हुई है, उस मिट्टी ने दी है मुझे यह बात ! जापान रहते चार दशक से अधिक हो गए मुझे, फिर भी तीन सौ वर्ष पहले के कवि श्रीपति मिश्र के कुल 830 छन्द मुझे क्यों मिल सके और स्वदेश में रहकर भी किसी पण्डितमना देशज भाई को दृष्टिगोचर तक न हुए तो क्यों !’’

विश्वविद्यालय से सेवा-निवृत्त होने के बाद मालवीयजी क्योतो के एक छोटे पहाड़ी गाँव में रहने के लिए चले गए। अपने एक पत्र में उन्होंने लिखा—‘‘इसकी तलहटी में एक छोटी नदी बहती है, जिसके किनारे के पत्थरों को स्वयं ढोते हुए इस छोटे-से घर का निर्माण स्वयं किया है। यह भी कि अकिको अपनी बेटी के साथ तोक्यो में रहती हैं और एक्यूप्रेशर का एक क्लिनिक चलाती हैं। ‘देव काव्य कोश’ का जो काम दस साल में पूरा होता उसे कम्प्यूटर की मदद से दो वर्ष में पूरा कर पाना संभव हो सका। कुछ अधूरे काम अभी पूरे करने हैं जिसके लिए कुछ साल और जीना होगा।’’

पिछले कुछ समय से उन्होंने अपने आपको उसी घर में पूरी तरह समेट लिया था, और स्वयं को वह ‘बूढ़ा गिद्ध’ कहने लगे थे जो अपने पंखों को समेट घोंसले में छिपा रहता है और यदा-कदा ही घोंसले से बाहर निकलता है। 5 अक्टूबर 2016 को उनकी बेटी मधु द्वारा प्रेषित एक रजिस्टर्ड पैकेट मिला, एक पत्र के साथ—‘‘आपके लिखे हुए पत्र आपको भेज रही हूँ। पापा का कहना है—‘जाते-जवाते की बेला है। इतने दिन सहेजकर रखा अब वापिस कर रहा हूँ। हलका होकर जाना चाहता हूँ। उनकी इच्छा।’’ संभवतः उन्होंने अपने महा-प्रस्थान की तैयारी, अपने स्वभाव के अनुसार—संयमित और नियमबद्ध रुप में प्रारम्भ कर दी थी। अनायास एक दिन उनका ‘वॉयस मैसेज’—‘‘पुस्तकें, कालजयी कवियों की रचनाओं के कैसेट्स और भी विश्वविद्यालय के उपयोग की वस्तुएँ ओसाका विश्वविद्यालय को सौंप दिए हैं—विश्वविद्यालय का भी कुछ ऋण तो उतरेगा...’’ वह व्यक्ति जिसने अपनी बेटी (मधु) के पहले दूध के गिरे दाँत तक को मंजूषा में सुरक्षित रखा हो, और उस सामान्य सी राधाकृष्ण की फ्रेम मण्डित तस्वीर, जो उनके पितामह के पिता के वक्त से उनके पूजाघर में पूजित होती रही हो, को मेरी माँ के हाथों में पकड़ाते हुए विनम्र अनुरोध किया हो—‘‘माताजी, जापान के मेरे घर में पूजाघर नहीं है। आप इसे अपने पूजाघर में स्थान दे सकें तो आभारी रहूँगा।’’ उसने मेरे पत्रों को इतने लगाव से रखा हो, तनिक भी अचरज की बात नहीं थी। आज तक इस अपराध-भाव से स्वयं को मुक्त नहीं कर पा रहा हूँ कि इतने समीप होने के बावजूद मैंने उनसे कुछ न सीखा और उनके अधिकांश पत्रों को नष्ट हो जाने दिया।

मालवीयजी संवाद-प्रिय थे। मित्रों को लम्बे-लम्बे पत्रों के अलावा आवाज के टेप भी प्रायः सम्प्रेषित करते थे। दूधनाथ सिंह और ज्ञानरंजन उनके विश्वविद्यालय के सहपाठी रहे। रवीन्द्र कालिया, ओम थानवी, मंगलेश डबराल, असद जैदी, उदय प्रकाश उनके मित्रों की लम्बी फेहरिस्त है जिन्हें उन्होंने एलिएट, पाब्लो नेरूदा, एजरा पाउण्ड जैसे कवियों की कविताओं के कैसेट कवियों की आवाज़ में भेजे। सृजन की अन्तः प्रक्रिया को अन्वेषित करते उनके भावप्रवण पत्र निकटस्थ उपस्थित मित्र की तरह वार्तालाप सा करते प्रतीत होते। कभी उनके पत्रों का संकलन पुस्तकाकार प्रकाशित हो सका तो वह हिन्दी पत्र साहित्य की अमूल्य धरोहर सिद्ध होगा। इने-गिने पत्र जो बचे रह गए उनके कुछ वाक्यांश—‘‘कहानी टाइप कर रहा था मैं, लेकिन देखा कि बहुत देर से आपसे बात करने में मुबितला हूँ, इसलिए टाइपराइटर में से ‘आइना’ को निकालकर पलट दिया। इतनी रात गए जो व्यक्ति अपने दोस्त से बातें न कर वाल्डेरा का संगीत सुनते हुए बुचुन तथा बुचुनः पुत्र को टाइपराइटर पर खटखटाए, उससे अधिक अभागा कौन होगा?’’ (ओसाकाः 21-2-84)

‘‘मैं पेंटिग के बाद फ़ोटोग्राफ़ी। फ़ोटोग्राफ़ी के बाद लेखन को भी छोड़ दूँगा। मेरे लिए इन सबसे कहीं-कहीं अधिक क़ीमती है ‘सादो’ या ‘हेकुरा’ जैसी ख़ूबसूरत जगह में तेज़ हवाओं के ख़िलाफ़ अपना टेण्ट खड़ा रखना—अर्थात् जीना ! भाड़ में जाए फ़ोटोग्राफ़ी, कहानी-उपन्यास। मैं आपसे एक बात कहने जा रहा था, भूल गया ! आधी रात को अगर लगे कि कितना ख़ूबसूरत सूर्यास्त हो रहा है इस दाहिनी खिड़की के बाहर, मैग्नोलिया के पेड़ के ऊपर। मैग्नोलिया के फूल सफ़ेद-सफ़ेद होते हैं, जिनके बीच में पीला पराग होता है।’’ (ओसाकाः 28-2-84)

‘‘पिछले दिनों बस स्टाप पर खड़ा था। एकदम गाँव है यह। पीछे धान के खेतों में हवा से हरी लहरें उठ रही थीं। देखकर पंकजजी की पंक्ति अचानक याद आ गई—‘किसान की आँखों में सिहरते धान के खेत...’ वह लड़ने-भिड़ने में अपनी शक्ति जाया क्यों करते हैं। हर समय अपने को मर्द डिक्लेयर करते रहने की क्या जरूरत। व्यर्थ। छीजन। (ओसाकाः 07-8-84)

‘‘मणि मधुकर अब नहीं रहे मुझे तो विश्वास नहीं होता! ऐसा कैसे हुआ? मणि जयपुर में मेरे छात्र थे, बाद में घनिष्ठ मित्र; कैसा संयोग है, एमए का क्लास, पहले ही दिन मैंने मणि को कक्षा से निकाल दिया था! अभी पिछले वर्ष अपनी पुस्तक में मणि का संस्मरण देते मन हिचक रहा था कि अन्य मृतकों के बीच कहाँ बैठाऊँ! मुझे क्या पता था कि यह लड़का तो स्वयं उस पाँत में सम्मिलित हो रहा ! (ओसाकाः 18-11-2004)

10 मई 2019 की सुबह। दूसरी ओर से आने वाला स्वर ओम थानवी का था, जयपुर से—‘‘मालवीयजी नहीं रहे...’’ मालवीयजी के निकटस्थ मित्रों को सूचित करने का कार्य ओम थानवी कर रहे थे। वास्तविकता को स्वीकारने में कुछ समय लगा। उनका कहना था—‘‘जब तक मैं अपने काम पूरे नहीं कर लूंगा तब तक के लिए मैंने यमराज के लिए गेट पर ‘नो एन्टरी’ का बोर्ड लटका रखा है।’’ उस रात नींद में जाने से पहले उन्होंने ‘नो एन्टरी’ का बोर्ड हटा दिया था और नींद में ही अदृश्य हो गए। विष्णु खरे की उस चिड़िया की तरह, जिसका स्मरण उन्होंने श्री तानिमुराजी को याद करते हुए किया था—

‘‘नहीं, मैं देखना चाहता हूँ उस चिड़िया

को उस क्षण में जब वह आख़िरी उड़ान के

पहले अपने आप निश्चय करती है कि यह

उसकी आख़िरी उड़ान है

और बिल्कुल पहले की तरह

उठ जाती है घड़ियों और नक्शों से

बाहर

उस जगह के लिए जहाँ एक असंभव

वृक्ष पर बैठकर चुप होते हुए उसे एक

अदृश्य चिड़िया बन जाना है।’’