इटली और हिंदुस्तान / हिंद स्वराज / महात्मा गांधी

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संपादक : आपने इटली का उदाहरण ठीक दिया। मैजिनी महात्‍मा था। गैरीबाल्‍डी बड़ा योद्धा था। दोनों पूजनीय थे। उनसे हम बहुत सीख सकते हैं। फिर भी इटली की दशा और हिंदुस्तान की दशा में फरक है।

पहले तो मैजिनी और गैरीबाल्‍डी के बीच का भेद जानने लायक है। मैजिनी के अरमान अलग थे। मैजिनी जैसा सोचता था वैसा इटली में नहीं हुआ। मैजिनी ने मनुष्‍य-जाति के कर्तव्‍य के बारे में लिखते हुए यह बताया है कि हर एक को स्वराज भोगना सीख लेना चाहिए। यह बात उसके लिए सपने जैसी रही। गैरीबाल्‍डी और मैजिनी के बीच मतभेद हो गया था, यह याद रखना चाहिए। इसके सिवा, गैरीबाल्‍डी ने हर इटालियन के हाथ में हथियार दिए और हर इटालियन ने हथियार लिए।

इटली और आस्ट्रिया के बीच सभ्‍यता का भेद नहीं था। वे तो 'चचेरे भाई' माने जाएँगे। 'जैसा को तैसा' वाली बात इटली की थी। इटली को परदेशी (आस्ट्रिया के) जुए से छुड़ाने का मोह गैरीबाल्‍डी को था। इसके लिए उसने कावूर के मारफत जो साजिशे की, वे उसकी शूरता को बट्टा लगाने वाली हैं।

और अंत में नतीजा क्‍या निकला? इटली में इटलियन राज करते हैं इसलिए इटली की प्रजा सुखी है, ऐसा आप मानते हो तो मैं आपसे कहूँगा कि आप अंधेरे में भटकते हैं। मैजिनी ने साफ बताया है कि इटली आजाद नहीं हुआ है। विक्‍टर इमेन्‍युअल ने इटली का एक अर्थ किया, मैजिनी ने दूसरा। इमेन्‍युअल, कावूर और गैरीबाल्‍डी के विचार से इटली का अर्थ था इमेन्‍युअल या इटली का राजा और उसके किसान। इमेन्‍युअल बगैरा तो उनके (प्रजा के) नौकर थे। मैजिनी का इटली अब भी गुलाम है। दो राजाओं के बीच शतरंज की बाजी लगी थी; इटली की प्रजा तो सिर्फ प्‍यादा थी और है। इटली के मजदूर अब भी दुखी हैं। इटली के मजदूरों की दाद-फरियाद नहीं सुनी जाती, इसलिए वे लोग खून करते हैं, सिर फोड़ते हैं और वहाँ बलवा होने का डर आज भी बना हुआ है। आस्ट्रिया के जाने से इटली को क्‍या लाभ हुआ? नाम का ही लाभ हुआ। जिन सुधारों के लिए जंग मचा वे सुधार हुए नहीं, प्रजा की हालत सुधरी नहीं।

हिंदुस्तान की ऐसी दशा करने का तो आपका इरादा नहीं ही होगा। मैं मानता हूँ कि आपका विचार हिंदुस्तान के करोड़ों लोगों को सुखी करने का होगा, यह नहीं कि आप या मैं राजसत्‍ता ले लूँ। अगर ऐसा है तो हमें एक ही विचार करना चाहिए। वह यह कि प्रजा स्‍वतंत्र कैसे हो।

आप कबूल करेंगे कि कुछ देशी रियासतों में प्रजा कुचली जाती है। वहाँ के शासक नीचता से लोगों को कुचलते हैं। उनका जुल्‍म अंग्रेजों के जुल्‍म से भी ज्‍यादा है। ऐसा जुल्‍म अगर आप हिंदुस्तान में चाहते हों, तो हमारी पटरी कभी नहीं बैठेगी।

मेरा स्‍वदेशाभिमान मुझे यह नहीं सिखाता कि देशी राजाओं के मातहत जिस तरह प्रजा कुचली जाती है उसी तरह उसे कुचलने दिया जाए। मुझ में बल होगा तो मैं देशी राजाओं के जुल्‍म के खिलाफ और अंग्रेजी जुल्‍म के खिलाफ जूझूँगा।

स्‍वदेशाभिमान अर्थ मैं देश का हित समझता हूँ। अगर देश का हित अंग्रेजों के हाथों होता हो, तो मैं आज अंग्रेजों को झुककर नमस्‍कार करूँगा। अगर कोई अंग्रेज कहे कि देश को आजाद करना चाहिए, जुल्‍म के खिलाफ होना चाहिए और लोगों की सेवा करनी चाहिए, तो उस अंग्रेज को मैं हिंदुस्‍तानी मानकर उसका स्‍वागत करूँगा।

फिर, इटली की तरह जब हिंदुस्तान की हथियार मिलें तभी वह लड़ सकता है; पर इस भगीरथ (बहुत बड़े) काम का तो, मालूम होता है, आपने विचार ही नहीं किया है। अंग्रेज गोला-बारूद से पूरी तरह लैस हैं, उससे मुझे उन्‍ही के खिलाफ लड़ना हो, तो हिंदुस्तान को हथियार बंद करना होगा। अगर ऐसा हो सकता हो, कितने साल लगेंगे? और तमाम हिंदुस्‍तानियों को हथियार बंद करना तो हिंदुस्तान को यूरोप-सा बनाने जैसा होगा। अगर थोड़े में, हिंदुस्तान को यूरोप की सभ्‍यता अपनानी होगी। ऐसा ही होने वाला हो तो अच्‍छी बात यह होगी कि जो अंग्रेज उस सभ्‍यता में कुशल हैं, उन्‍हीं को हम यहाँ रहने दें। उनसे थोड़ा-बहुत झगड़ा कर कुछ हक हम पाएँगे, कुछ नहीं पाएँगे और अपने दिन गुजारेंगे।

लेकिन बात यह है कि हिंदुस्तान की प्रजा कभी हथियार नहीं उठाएगी। न उठाए यह ठीक ही है।

पाठक : आप तो बहुत आगे बढ़ गए। सबके हथियार बंद होने की जरूरत नहीं। हम पहले तो कुछ अंग्रेजों का खून करके आतंक फैलाएँगे। फिर तो थोड़े लोग हथियार बंद होंगे, वे खुल्‍लमखुल्‍ला लड़ेंगे। उसमें पहले तो बीस-पचीस लाख हिंदुस्‍तानी जरूर मरेंगे। लेकिन आखिर हम देश को अंग्रेजों से जीत लेंगे। हम गुरीला (डाकुओं जैसी) लड़ाई लड़कर अंग्रेजों को हरा देंगे।

संपादक : आपका खयाल हिंदुस्तान की पवित्र भूमि को राक्षसी बनाने का लगता है। अंग्रेजों का खून करके हिंदुस्तान को छुड़ाएँगे, ऐसा विचार करते हुए आपको त्रास क्‍यों नहीं होता? खून का विचार करते हैं। ऐसा करके आप किसे आजाद करेंगे? हिंदुस्तान की प्रजा ऐसा कभी नहीं चाहती। हम जैसे लोग ही, जिन्‍होंने अधम सभ्‍यता रूपी भाँग पी है, नशे में ऐसा विचार करते हैं। खून करके जो लोग राज करेंगे, वे प्रजा को सुखी नहीं बना सकेंगे। धींगरा ने (पंजाब युवक मदन लाल धींगरा ने जुलाई, 1909 में लंदन में कर्नल सर कर्जन वाइली को गोली का निशाना बनाया था। उसे फाँसी की सजा मिली थी।) जो खून किया है उससे या जो खून हिंदुस्तान में हुए हैं उनसे देश को फायदा हुआ है, ऐसा अगर कोई मानता हो तो यह बड़ी भूल करता है। धींगरा को मैं देशाभिमानी मानता हूँ, लेकिन उसका देश प्रेम पागल पन से भरा था। उसने अपने शरीर का बलिदान गलत तरीके से दिया। उससे अंत में तो देश को नुकसान ही होने वाला है।

पाठक : लेकिन आपको इतना तो कबूल करना ही होगा कि अंग्रेज खून से डर गए हैं, और लॉर्ड मॉर्ले ने जो कुछ हमें दिया है वह ऐसे डर से ही दिया है।

संपादक : अंग्रेज जैसे डरपोक प्रजा हैं वैसे बहादुर भी हैं। गोला बारूद का असर उन पर तुरंत होता है, ऐसा मैं मानता हूँ। संभव है, लॉर्ड मॉर्ले ने हमें जो कुछ दिया वह डर से दिया हो। लेकिन डर से मिली हुई चीज जब तक डर बना रहता है तभी तक टिक सकती है।