इतना तो विहित है / प्रतिभा सक्सेना

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अब के लोगों के गले से ज़रा कम ही उतरेगी। बात तब की है जब हमारे देश में स्त्रियाँ पति का नाम नहीं लेती थीं, मेरी तो ऐसी आदत पड़ी है कि अब भी 'ये' 'वो' कह कर काम चलाती हूँ। कभी नाम लेना भी पड़े तो अपने ही कान खड़े हो जाते हैं। और 'ये' धड़ल्ले से शुरू से नाम लेकर चिल्लाते रहे। तभी मेरा पोता बोलना शुरू करते ही मेरा नाम ले कर आवाज़ देने लगा। अपने ननिहाल में मेरा खूब तमाशा बनवाया है उसने। अब तो खैर बड़ा हो गया है।

हाँ, तो मुझसे 15 साल बड़ी मेरी जिठानी फरक्काबाद (फ़र्रुखाबाद) की। उनकी चाची, बड़ी क़ायदेवाली रहीं। ('क़ायदा' =बहुओं के आचरण को नियंत्रित रखने के लिये, खास अर्थों में ढाला गया एक पारिभाषिक शब्द है।)।

उनके पति का नाम था 'पीतांबर' -सब 'पितंबर' कहते। इसलिये उन्होंने कभी सितंबर महीने तक का नाम तक अपने मुँह नहीं लिया। शैतान देवरों ने पूछा तो बोलीं, 'का फरक है, एकै अच्छर को तो है!'

सही बात, एक अक्षर इधर-उधर हुआ तो उनका तो धर्म गया !

(सच्ची, मुझे भी सितंबर शब्द बिलकुल 'पितंबर' की टक्कर का लगता है - एक साथ बोलिये 'सितंबर-पितंबर' समान लगे न!)।

एक दिन मुझसे बोलीं, ' काहे तुम किलास में लड़कियन के नाम कैसे लेती हो?'

मैं तो चकपका गई। उनने स्पष्ट किया -

' जैसे लाला को नाम किसउ लड़किनी को नाम होय तो? अब तो लड़कियन के नाम भी....'

'हाँ वो तो है... तब?... तब मैं.... मैं क्या करती हूँ....' मैं तो फँस गई।

मुँह से सच निकल गया तो अभी शिकायत ऊपर तक न पहुँच जाय सो बोली, 'शकल देख के 'उ' (उपस्थित) लगा देती हूँ। '

उनसे और क्या कहती मैं !

वैसे एक लड़की है, पति की नामाराशि, पढ़ने-लिखने के नाम डब्बा गोल। ऊपर से क्लास में चकर-मकर करने में मुस्तैद।

अब नाम लेकर डाटूँ नहीं तो क्या सिर पे बिठाऊँ?

पर घर पर कह तो नहीं सकती न!

फिर जब सामने हों ऐसी निष्ठावतियाँ जो पितंबर के हित में सितंबर का उच्चाटन कर डालें,

तो मुझे अपनी भद्द पिटवानी है क्या?

वैसे भी संकट-काल में इतना झूठ तो विहित है!