इतिहास आधारित फिल्म और शिलालेख नुमा चेहरा / जयप्रकाश चौकसे

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इतिहास आधारित फिल्म और शिलालेख नुमा चेहरा
प्रकाशन तिथि :07 सितम्बर 2015


आजकल जोधपुर में गुरिंदर चड्‌ढा की फिल्म 'विक्ट्री हाउस' की शूटिंग जारी है। फिल्म की पृष्ठभूमि उन दिनों की है, जब हुकूमते बरतानिया भारत छोड़कर जा रही थी और अंतिम वाइसराय लॉर्ड माउंटबेटन पत्नी और पुत्री के साथ दिल्ली में 'विक्ट्री हाउस' नामक भव्य इमारत में रहते थे! यह िब्रटिश गर्व ही है कि भारत छोड़ने के दिनों में उनका आला अफसर सपरिवार जिस इमारत में रहता था, उसका नाम विक्ट्री अर्थात विजय था। उन्होंने गांधीजी व साथियों के आंदोलन के आगे पराजय स्वीकार की थी और जाते समय अपने लिए सद्‌भावना बनाना चाहते थे। यह गांधीजी की रक्तहीन क्रांति की विजय थी परंंतु देश के बंटवारे के कारण वे मन ही मन जानते थे कि उनके आदर्श हार गए हैं, जिसे ज्यां पाल सार्त्र के मुहावरे 'काउंटर क्लोज़र' के अनुरूप माना जा सकता है और गांधीजी को इसका इतना गहरा दु:ख था कि वे भीतर से टूट गए थे अन्यथा नाथूराम गोडसे की गोलियों से मरते भी नहीं! ज्ञातव्य है कि उनकी हत्या के दो प्रयास पहले हो चुके थे और मुंबई के निकट लोनावला में उन्हें चाकू से मारने का प्रयास करने वाले को स्वयं उन्होंने पुलिस की गिरफ्त से आज़ाद कराया था। ब्रिटेन की नागरिक भारतीय मूल की गुरिंदर चड्‌ढा की 'बेंड इट लाइक बैकहम' आज भी लोगों को याद है। हर अच्छे फिल्मकार की कोई एक फिल्म उसके नाम से सदैव के लिए जुड़ जाती है।

इस फिल्म में गांधी, नेहरू, जिन्ना इत्यादि पात्र ऐसे कलाकार अभिनीत कर रहे हैं, जिनके व्यक्तित्व में ऐसा कुछ है कि परदे पर उन्हें पात्र के लिए दर्शक स्वीकार करें। बेन किंग्सले ने सर रिचर्ड एटनबरो की गांधी में ऐसा विश्वसनीय अभिनय किया है कि कई जगह उनकी ही तस्वीर को गांधीजी की तस्वीर माना जाता है। फिल्म के सहयोगी निर्माता अनिल अंबानी हैं। इस फिल्म में ओम पुरी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उस सिपाही की भूमिका कर रहे हैं, जिसे जेल में इलाज न मिलने के कारण कैटेरेक्ट जैसी साधारण बीमारी से शेष आयु में अंधत्व भोगना पड़ा। यह अंधत्व गांधारी के ओढ़े हुए अंधत्व से अलग है परंतु यह कमोबेश इस भाव का भी प्रतीक बन जाता है कि निहित स्वार्थों द्वारा फैलाई घृणा के कारण उन्माद के उन दिनों में आम भारतीय अंधा हो गया था। 'अंधा युग' केवल कुरुक्षेत्र का कारण बना यह सोचना गलत है। दुर्भाग्यवश 'अंधा युग' भी बार-बार हमारे जीवन में लौटता है। इस वैचारिक अंधत्व के प्रति हमारा मोह गांधारी से भी अधिक रहा है। ओम पुरी एकमात्र भारतीय कलाकार हैं, जिन्होंने सबसे अधिक संख्या में अंतरराष्ट्रीय फिल्में अभिनीत की हैं। अपनी किशोर अवस्था में अोम पुरी कई किलोमीटर साइकिल चलाकर नाटक देखने और उसमें अभिनय के अवसर के लिए यात्रा करते थे। उनकी अभिनय के प्रति अगाध श्रद्धा ही थी, जिसके कारण उन्होंने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा और पुणे फिल्म संस्थान मंे लगन से विधा को सीखा। भारतीय फिल्म उद्योग में पारम्परिक तौर पर चिकना-चुपड़ा चेहरा ही स्वीकार किया जाता है परंतु ओम पुरी की सफलता से उद्योग में 'खुरदरापन' स्थापित हुआ। ओम पुरी के चेहरे के दाग और झुर्रियों में उनके जीवन संग्राम का इतिहास लिखा है और यह चेहरा ही उनका शिलालेख है और जिसे पढ़कर भावी पीढ़ियां प्रेरित होंगी।

गौरतलब है कि गुरिंदर चड्‌ढा ऐसे काल खंड में यह फिल्म बना रही हैं, जब इतिहास में भारी तोड़-फोड़ हो रही है और किंवदंतियों को साक्ष्य माना जाता है। एक-दो संदिग्ध लेख लिखने वाला भारतीय इतिहास शोध संस्थान का मुखिया हो गया है। दरअसल, यह काल खंड प्रतिभाहीनता को गौरवान्वित करने के लिए सदा याद किया जाएगा। यह सारा मामला 'एमेडस' नाटक के एक दृश्य की याद ताज़ा करता है, जब दरबारी संगीतकार पहली बार महान मोजार्ट का संगीत सुनात है तो भागकर एकांत में प्रलाप करता है कि अगर मोजार्ट-सी विलक्षण प्रतिभा अधिक समय तक रही तो दोयम व तीसरे दर्जे के घटिया लोग तो नष्ट ही हो जाएंगे। संगीतज्ञ ईश्वर को चुनौती देता है कि वह मोजार्ट को खत्म कर देगा ताकि उसका संगीत दुनिया से घटियापन को समाप्त न कर दे। वह सफल भी होता है परंतु आज उस दरबारी संगीतज्ञ का कोई नाम नहीं लेता जबकि मोजार्ट का माधुर्य आज भी दसों दिशाओं में गूंज रहा है।

बहरहाल, गुरिंदर चड्‌ढा प्रतिभाशाली हैं और उन्होंने अपनी फिल्म के लिए यथेष्ट शोध भी किय होगा और आशा हैं कि उन्होंने आयशा जलाल की पुस्तक भी पढ़ी होगी। अनेक लोगों का मत है कि इतिहास के जख्मों को नहीं कुरेदना चाहिए परंतु सच तो यह है कि मवाद के निकल जाने से ही जख्म भरते हैं। हम लाक्षणिक इलाज करके यह मान लेते हैं कि रोगमुक्त हो गए और इसी प्रवृत्ति के कारण हमारे रोग सदियों पुराने हो गए हैं और समय-समय पर समाज में मवाद बहता रहता है।